अधेड़ नायकों के साथ कमसिन नायिकाएं / जयप्रकाश चौकसे

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अधेड़ नायकों के साथ कमसिन नायिकाएं
प्रकाशन तिथि :30 अगस्त 2016


पचास वर्षीय शाहरुख खान की आगामी फिल्मों में युवा अालिया भट्‌ट और कंगना रनौट को बतौर नायिका लिया जा रहा है। अमिताभ बच्चन के शिखर दिनों में अमृता सिंह, रति अग्निहोत्री जैसी युवा नायिकाओं को लिया जाता था। इस तरह की कास्टिंग का मूल कारण तो यह है कि इस पुरुष शासित समाज में सिनेमा व्यवसाय का आर्थिक आधार भी पुरुष सितारा ही होता है और मीना कुमारी तथा नरगिस जैसी नायिकाओं को भी अपने नायकों के मेहनताने से कम रकम दी जाती थी। केवल एक बार 'मदर इंडिया' की ऐतिहासिक सफलता के पश्चात दक्षिण भारत के निर्माता मय्यपन ने नरगिस को फिल्म पर आए तमाम खर्च के बराबर रकम की पेशकश की थी परंतु नरगिस ने इनकार कर दिया। वे अपनी अंतिम फिल्म 'मदर इंडिया' के नाम से फिल्म इतिहास में दर्ज होना चाहती थीं। हर महिला सितारे की महत्वाकांक्षा होती है कि उसके नाम एक 'मदर इंडिया' समान फिल्म हो। नरगिस के भाई अख्तर की रुक-रुककर बनी 'रात और दिन' बाद में प्रदर्शित हुई और नाम के अनुरूप एक ही दिन चली।

मीना कुमारी ने अनेक फिल्मों में प्रभावोत्पादक अभिनय किया है परंतु 'पाकिज़ा' को ही उनका सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जबकि दक्षिण भारत के निर्माता द्वारा बनाई गई उनकी फिल्म 'शारदा' में उन्होंने एक द्वंद्व को विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत किया था। फिल्म 'शारदा' में उनका प्रेम युवा राज कपूर अभिनीत पात्र से होता है, जो विदेश में अपनी पढ़ाई पूरी करके उनसे विवाह का वचन देता है परंतु परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि उसका विवाह अधेड़ उम्र के व्यक्ति से होता है। अपने मन को मारकर वह अधेड़ व्यक्ति के परिवार को निपुणता से संभालती है परंतु उसके इस अधेड़ वय के पति की पहली पत्नी की संतान राज कपूर है, जो शिक्षा पूरी करके लौटता है, तो अपनी प्रेयसी को अपनी सौतेली मां के रूप में पाता है। मीना कुमारी ने अपने पत्नी स्वरूप को ही अपना अस्तित्व माना और अपने भीतर छिपी प्रेयसी को पारिवारिक मूल्यों की शिला के नीचे कुचल दिया। राज कपूर की विपत्ति यह है कि अब उन्हें कभी प्रेयसी रही महिला को मां कहकर न केवल संबोधित करना है वरन पूरी श्रद्धा से नए रिश्ते में डूब जाना है। 'शारदा' एक निहायत ही गैर-पारम्परिक कथा थी परंतु शाश्वत मूल्यों की निष्ठा से प्रवाहित फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भी खूब सफल रही थी। इसी कथा का एक यथार्थवादी स्वरूप यह भी हो सकता था कि सत्य जानने पर वह धनाढ्य अधेड़ व्यक्ति अपनी युवा पत्नी को तलाक देकर उसका दूसरा विवाह अपनी प्रथम पत्नी से जन्मे पुत्र से करा दे अौर उसे बहू के रूप में स्वीकार करे। यदि यह कथा यूरोप में बनाई गई होती तो इसका अंत ऐसा ही होता, क्योंकि उस समाज में स्वाभाविक इच्छाओं का दमन न करके रिश्तों को अपनी फिजिकल रियलिटी में स्वीकार करने का साहस है। हमारे पारम्परिकता से ओतप्रोत समाज के ठंडे पड़े तंदूर में राख के नीचे एेसे ही शोल दहकते रहते हैं।

ऊपरी सतह पर प्रकरण संस्कार बनाम शारीरिक यथार्थ का नज़र आता है परंतु भीतरी सतह पर यह डिज़ायर व डिनायल है अर्थात इच्छा विरुद्ध इच्छा पर अंकुश का है। हम जो नज़रअंदाज कर रहे हैं वही हमारे समाज में कुंठाओं और वर्जनाओं को जन्म देता है। प्रस्तर युग से बाहर आकर सुसंस्कृत होने की प्रक्रिया मनुष्य की भावनाओं पर अंकुश लगाने से ही संभव हुई है। जंगल का नियम था, 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' परंतु लाठी से मुक्त होना ही सुसंस्कृत होना है। आत्मा को महत्व देने वाले भी शरीर के महत्व को स्वीकार करते हैं, क्योंकि वही आत्मा का घर होता है। शरीर की अपनी आवश्यकताएं और सीमाएं हैं। दरअसल, हम जिसे आत्मा कहते आए हैं, वह मनुष्य की विचार प्रक्रिया ही है और मानव मस्तिष्क का ही एक भाग भावनाओं और इच्छाओं को जन्म देता है तथा तर्क दूसरे हिस्से में जन्म लेता है। हर मानव मस्तिष्क के कुरुक्षेत्र में इच्छा बनाम तर्क युद्ध सदैव चलता रहता है। आत्मा के अमर होने से हमारा तात्पर्य मनुष्य के विचार का सदैव जीवित रहना है। विचार प्रक्रिया को आत्मा का संबोधन देकर उसे धर्म क्षेत्र में ले आते हैं और कूपमंडूकता का अजगर उसे लील लेता है। धर्म क्षेत्र में प्रवेश करते ही आत्मा के नाम पर व्यापार शरू हो जाता है जैसे मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के नाम पर श्राद्ध इत्यादि किया जाता है। अनर्जित रोटी खाने के लोभ पर ही यह धंधा जीवित है। छत पर कौओं को भोज और दान-दक्षिणा एक ही व्यापार के दो पक्ष हैं। विचार निराकार हैं, अत: उसे भूख नहीं लगती, ठंड नहीं लगती। वह मौसमों के प्रभाव के परे है परंतु उसके नाम पर बनी छवियों को पोशाक पहनाई जाती है, अाभूषणों से लाद दिया जाता है। इस क्षेत्र में साधन को साध्य बना दिया जाता है।

फिल्मों में नए विचार का अभाव है अौर पुराने विचारों पर बनने वाली फिल्मों में अधेड़ नायकों के साथ युवा तारिकाओं का लिया जाना भी सतही परिवर्तन है। यह पूजा के तौर-तरीके बदलने की तरह है। बासी भोजन को नया तड़का लगाकर परोसने की तरह है और आज तड़का ही बिक रहा है।