अध्ययन से संन्यास तक / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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गाजीपुर में ─ हिंदी मिडल में

सन 1902 ई. के आरंभ में अपरप्राइमरी की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने पर घरवालों ने हिंदी मिड्ल में पढ़ाने का निश्चय किया और मैं तदनुसार ही गाजीपुर के तहसीली स्कूल में, जो पुरानी कोट पर था, भर्ती हुआ। वहीं बोर्डिंग-हाउस में रहता और पढ़ता था। वहाँ कितने ही अध्यापकों से मेरा घनिष्ठ संबंध था। पढ़ने-लिखने में प्रवीण होने और स्वभावत: ही नटखट न होने के कारण यह प्रेम और संबंध अवश्यंभावी था। लेकिन उसी जिले के विश्वंभरपुर ग्राम के निवासी श्री अमृतराय से मेरी कुछ घनिष्ठता अधिक हो गई। असल में वे तीक्ष्णबुद्धि थे और गणित से उनका प्रेम अधिक था। मेरी भी कुछ ऐसी ही दशा थी। गणित मेरे हृदय की वस्तु थी , यही कारण उस घनिष्ठता का हैं जो संन्यासी होने के बाद भी बराबर बनी रही है। श्री अमृतराय मेरा जो आदर उस समय करते थे, संन्यासी होने पर भी, कभी-कभी मिलने पर, उससे कहीं ज्यादा आदर-सत्कार करते थे। उन्होंने परिश्रम तो बहुत किया और धन भी कमाया। मगर घरवालों और पड़ोसियों की दुर्बुद्धि से और परिवार के जिन लोगों को पढ़ा-लिखा के ठीक किया उनके अकाल मर-मरा जाने से वे सदा दु:खी रहे। मिलने पर वे बराबर यही दुखड़ा रोते रहे।

मेरे गणित-प्रेम की यह हालत थी कि कठिन-से-कठिन प्रश्नों से फौरन लिपट जाता और तब तक दम नहीं लेता जब तक उन्हें सिद्ध नहीं कर पाता, कभी-कभी कई दिनों तक उन्हीं के धुन में लगा रहता तब कहीं उनको ठिकाने ला पाता। प्राय: ऐसा होता था कि जब मैं पाखाने जाता तब भी उन्हें सोचता रहता और अधिकांश में पाखाने के समय ही उनका ठीक उत्तर तथा सुलझाने का रास्ता निकल आता। इससे मुझे आश्चर्य होता था सही, लेकिन मैंने यह प्रणाली बराबर जारी रखी। खास कर कठिनतम प्रश्नों की सुलझन तो उसी समय कर ही लेता। पीछे, जब मैंने श्री अमृतराय तथा औरों से यह बात कही तो, उन्होंने कहा कि पाखाने के समय अंत:करण की सभी वृत्तियाँ स्वभावत: एकाग्र हो जाती हैं और कठिन-से-कठिन प्रश्न उस समय सूझ पड़ते हैं। यह बात सही है। तब से मैंने इसकी परीक्षा और प्रकारों से भी की है। अंतर इतना ही है कि पाखाना स्वाभाविक रूप से होता हो, वह किसी गड़बड़ी या बीमारी के करते न हो। तहसीली स्कूल में पहला ही मौका था, जब मैं सख्त बुखार में फँसा, जो जल्दी नहीं उतरा। पहले तो खूब याद है, यदि कभी बुखार आया तो खाना-पीना छोड़ दिया और चौबीस घंटे में साफ हो गया। लोग सिर्फ सर-दर्द को दूर करने के लिए सरसों पानी में पीस कर ललाट में लगा देते थे।दूसरी दवा न होती थी। मगर इस बार ऐसा न हुआ। पढ़े-लिखे लोग थे, उन्होंने उसे दूर करने के लिए कुनाइन बहुत खिलाई। मैं अच्छा तो हो गया, मगर कुनाइन की गर्मी पेट में पैदा हो गई, रगों में घुस गई। शायद, गाय का दूध पीना चाहिए था, पर मैंने कुछ जाना-समझा नहीं। इस कुनाइन ने आगे मुझे बहुत ही दिक किया।

मिड्ल की दो ही श्रेणियाँ थीं और दोनों में निर्बाधा पढ़ना चलता रहा। इस बीच पूजा-पाठ में कोई कमी न होने पाई। बीच-बीच में जब घर जाता तो पं. हरिनारायण जी से भेंट होती और वहाँ रहने तक बराबर सत्संग होता रहता। हाँ, एक बात यह भी कहनी है कि अभी बी.एन. डब्ल्यू. रेल्वे की लाइन गाजीपुर की ओर और देवा की ओर भी (क्योंकि बनारस से पूर्वोत्तार औंरिहार से एक लाइन गाजीपुर होती हुई छपरा जाती है और दूसरी दूलहपुर मऊ होती हुई, भटनी) शीघ्र ही बनी थी। इसलिए कभी उससे और कभी पैदल ही घर जाना होता था। दूलहपुरवाली लाइन तो जलालाबाद में पढ़ने के समय ही बनी थी। एक समय जब पहले-पहल लाइन बनाने का सामान ले कर बालिस ट्रेन आई तो हम लोग देखने गए। लेकिन जब रवाना होने के समय उसने सीटी दी तो वह अभूतपूर्व आवाज सुन कर डर के मारे हम सभी एक-दूसरे के ऊपर गिरते-पड़ते भागे।

अपर प्राइमरी की पढ़ाई की एक बात कहना पहले भूल गया। उस समय लोअर क्लास में एक पैसा और अपर में दो पैसा फीस देनी पड़ती थी। ईधर आ कर तो वह कई आने तक बढ़ा दी गई। यह है सरकार के द्वारा प्राइमरी शिक्षा को सुलभ बनाने का एक निराला नमूना!

मिड्ल की अंतिम परीक्षा यूनिवर्सिटी की मानी जाती थी और उसका परिणाम सरकारी गजट में छपता था। मेरी वह परीक्षा सन 1904 ई. के शुरू में हुई। गर्मियों में जब मैं ननिहाल जा कर मामू जी के साथ आजमगढ़ शहर में गया था, उसका परीक्षा-फल निकला। हमने और मामू जी ने स्वयं गजट देखी और पक्का निश्चय किया। युक्तप्रांत के सभी हिंदी मिड्ल स्कूलों की परीक्षा का फल एक ही साथ निकला था। और कितने ही सहत्र छात्र उत्तीर्ण हुए थे। प्रांत में मेरा नंबर सातवाँ था। इस प्रकार निश्चय हो गया कि मुझे सरकारी छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) अब जरूर मिलेगी और इस प्रकार मेरे पढ़ाने के खर्च के संबंध में घरवालों का भार हल्का हो जाएगा। ठीक याद नहीं कि चार, पाँच या छ: रुपए वृत्ति मिला करती थी और वे सस्ती के दिन थे। फलत:, थोड़े ही पैसों से काम चल जाता था। मुझे खूब याद है कि अट्ठाईस गंडे के सेर से दो सेर घी एक रुपए का मिलता था। मैं आजमगढ़ से घर लौटा खुशी में ओतप्रोत। वहाँ निश्चय हो गया कि अंग्रेजी पढ़ाएगा।

तहसीली स्कूल में पढ़ने के समय मैंने हिंदी के साथ उर्दू का भी कुछ-न-कुछ अभ्यास जारी रखा, हालाँकि, पहले-जैसी सुविधा न थी। क्योंकि उर्दू का क्लास अलग होता था और उसके अध्यापक मौलवी साहब थे। इसलिए पाठ सुनने का मौका नहीं लगता था। फिर भी प्रयत्न करने से क्या नहीं होता। उस समय उर्दू में 'बहारिस्तान' नाम की किताब पढ़ाई जाती थी, जो कि बहुत ही कठिन मानी जाती थी। नई निकली थी। मैंने उसका थोड़ा-बहुत अभ्यास किया और व्याकरण (कवायद) का भी। वहीं गाजीपुर के निकट तारी-घाट के श्री लोटू सिंह से साथ हुआ, जो अंग्रेजी पढ़ने के समय भी रहा। संन्यास लेने पर भी वह प्रेम बहुत कुछ चलता रहा। वे थे कट्टर शिवभक्त, विभूति लगानेवाले और लंबी रुद्राक्ष माला पहननेवाले। उनकी वह माला तो ईधर बहुत दिनों तक बराबर रही है। मेरी ही तरह खान-पान में उनकी भी छुआछूत खूब ही चलती थी। इस खान-पान और छुआछूत के बारे में आगे लिखा जाएगा।

अंग्रेजी पढ़ाई ─मिशन स्कूल

महीना तो ठीक याद नहीं, लेकिन गर्मियों की छुट्टी के बाद ही स्कूल खुलने पर मैं गाजीपुर के जर्मन-मिशन-हाई इंगलिश-स्कूल के स्पेशल क्लास में प्रविष्ट हुआ। असल में वर्नाक्यूलर हिंदी या उर्दू, मिड्ल पास कर के जो अंग्रेजी पढ़ना चाहते थे, उन्हें दस वर्ष के बजाये पाँच ही वर्ष में मैट्रिक्युलेशन पास करा देने का खास प्रबंध उस समय था। पता नहीं, वह व्यवस्था अब है या नहीं। ऐसे छात्र गणित, भूगोल आदि तो जानते ही थे। केवल अंग्रेजी की पढ़ाई में उन्हें अधिक समय देना पड़ता था। गाजीपुर में विक्टोरिया और मिशन दो हाई स्कूल होने पर भी ऐसी व्यवस्था सिर्फ जर्मन-मिशन-स्कूल में ही थी। यहाँ इसके लिए स्पेशल क्लास था, जो सिक्स्थ या छठे क्लास के समकक्ष था। उस समय यह भी बात थी कि दसवीं कक्षा (अब तो ग्यारहवीं हो गई है) या मैट्रिक्युलेशन की परीक्षा में शामिल होनेवालों के लिए विज्ञान (साइंस), संस्कृत या फारसी तीनों में एक पढ़ना जरूरी था। इसलिए स्पेशल क्लास में संस्कृत भी पढ़ना होता था। मेरा तो उस ओर स्वयं झुकाव था। फलत: पाठय पुस्तकें 'ऋजु व्याकरण' आदि के सिवाय मैं 'लघुसिद्धांत कौमुदी' भी पढ़ने लगा। इसमें शक नहीं कि कुछ तो पहले का संस्कार, कुछ क्लास की पढ़ाई और कुछ खास तौर से अंग्रेजी के साथ ही 'लघु कौमुदी' पढ़ने के कारण संस्कृत में मेरा कामचलाऊ प्रवेश होने लगा। स्कूल छोड़ते-छोड़ते अच्छा प्रवेश हो गया।

धार्मिक मनोवृत्ति की बात यह थी कि मेरी प्रवृत्ति अंग्रेजी और संस्कृत के साथ ही धर्म में बढ़ती गई। मैं हरिशंकरी मुहल्ले के निकट महाजन टोली के एक प्रसिद्ध शिव मंदिर में, जिसका नाम गुणेश्वर महादेव हैं, रहने लगा। वहाँ पूजा-पाठ में आसानी होती थी। एक बूढ़ी मारवाड़िन और एक गेरुआधारी बाबा उसमें रहते थे। वे दोनों ही मुझे बहुत प्यार करते थे। मेरी हालत यह थी कि पहले तो चमड़े के जूते पहनता था। लेकिन पीछे उसे छोड़ रोपसोलवाला कपड़े या कनवास का जूता पहनने लगा जो संन्यास लेने के बाद भी हाल तक रहा है। सिर्फ ईधर प्राय: तीन-चार वर्षों से ही मैंने फिर चमड़े का जूता पहनना शुरू कर दिया है। इसकी भी विशेष चर्चा आगे की जाएगी। हाँ, कपड़ेवाला जूता ईधर छोड़ने के पहले रबरटायर के सोल का जूता पहनने लगा था; कारण, रोपसोल अच्छा मिलता न था। जूते के सिवाय स्कूल में जो कोट, कुर्ता वगैरह पहनता था वह वहाँ से आने के बाद अलग रख देता था और जाने के पहले उसे छूता तक न था। छुआछूत की यहाँ तक हालत थी। सभी तरह के लोगों के साथ स्कूल में संपर्क होने से मैं उस कपड़े को भी और समय अस्पृश्य समझता था और अगर कदाचित कभी छू लिया तो स्नान करना पड़ता था। स्कूली कपड़ा पहने पानी तक भी न पीता था। धार्मिक कट्टरता बहुत बढ़ी थी─गजब की थी।

स्कूल की हालत यह थी कि मिशन होने के कारण उसमें बाइबिल पढ़ना जरूरी था। फलत: उसी अवस्था में मैंने बाइबिल पढ़ कर उसकी बातें जान लीं। यद्यपि गत यूरोपीय महासमर के समय अंग्रेजी सरकार ने जर्मनी के मिशन का स्कूल होने के कारण उसे जब्त कर लिया और अब उसका नाम सिटी हाई स्कूल है। तथापि उस समय तो जर्मन मिशन का ही था। उसमें भारतीय पादरी लोग बाइबिल पढ़ाते थे और कभी-कभी जर्मन-साहब भी। पढ़ाने में स्वभावत: और धर्मों की ओर खास कर हिंदू धर्म की समालोचना तो वे लोग करते ही थे। लेकिन मुझे यह बात असह्य थी। एक साहब पढ़ा रहे थे और उन्होंने ऐसी समालोचना कर डाली। मैं बर्दाश्त न कर सका और यह जानते हुए भी कि स्कूल के वही मालिक हैं, मैंने खड़े हो कर चट कह दिया कि यह स्कूल है या धर्मों के खंडन-मंडन की शाला। साहब ने इसे अपमान समझ मुझे धमकाया सही, लेकिन आगे के लिए कम-से-कम मेरे सामने यह बात रुक गई।

जब स्पेशल क्लास पहली श्रेणी (क्योंकि फर्स्ट स्पेशल और सेकेंड स्पेशल के नाम से उसके दो विभाग थे और दो वर्ष में पूरे होते थे) पास कर के दूसरी में पहुँचा जो उस समय सेवेंथ या सातवीं कक्षा के समान थी तो एक प्रश्न पैदा हुआ। उससे अगली आठवीं कक्षा, जिसे उस समय मिड्ल भी कहते थे, में जाने पर स्कॉलरशिप या छात्रवृत्ति की परीक्षा यूनिवर्सिटी की ओर से वर्ष के अंत में होती थी। अध्यापकों का ख्याल हुआ कि जो अवस्था मेरी रजिस्टर-दर्ज है उसके हिसाब से वह वर्ष बीतते-न-बीतते मेरी उम्र कुछ महीने बढ़ जायेगी और छात्रवृत्ति की परीक्षा से महरूम हो जाऊँगा। इसलिए अध्यापकों की राय हुई कि मैं दोनों कक्षाओं की परीक्षा एक ही साल में दे दूँ तो काम चले। नहीं तो सोलह रुपए खर्च कर के सिविल सर्जन से कम उम्र का प्रमाण-पत्र (सर्टिफिकेट) लेना पड़ेगा। मेरे एक साथी ने ऐसा ही किया। मगर मैंने सात और आठ दोनों ही क्लासों की तैयारी एक ही साल कर लेना ही आसान समझा और उसमें सफल भी हो गया। छात्रवृत्ति की परीक्षा बनारस क्वीन्स कॉलेज स्कूल भवन में हुई और मैं बहुत अच्छी तरह उत्तीर्ण हुआ। इस बार मेरा नंबर यूनिवर्सिटी में पाँचवाँ था। असल में जल्दबाजी के कारण अंग्रेजी की कमजोरी ने ही शायद पाँचवाँ स्थान दिया। नहीं तो ऊपर जाना जरूरी था। पहले से मिड्लवाली छात्रवृत्ति तो थी ही। लेकिन इस परीक्षा से एक-दो रुपए ज्यादा मिलने लगे।

मिड्ल क्लास में हमारे एक मास्टर साहब थे जिनका नाम श्री सूर्यप्रसाद था। वे काशी के रहनेवाले बहुत ही भले आदमी थे। वे मुझे बहुत प्यार करते थे। वे अंग्रेजी पढ़ाते रहे, जब तक मैंने मिड्ल या आठवीं श्रेणी की परीक्षा न दी। ऑफिस का काम भी उनके जिम्मे था। साथ ही वह थे बड़े ही तीक्ष्ण बुद्धि भी। जब मैं संन्यासी होने के बाद सन 1907 ई. में गाजीपुर गया और पहाड़खाँवाले तालाब के दक्षिणवाले घर में, जिसमें पहले भी कभी-कभी जाया करता था,ठहरा तो और लोगों और स्कूल के अध्यापकों के साथ वह भी वहाँ मुझसे मिलने गए। वे मुझे देख रो पड़े। मैंने पूछा कि मैंने कौन-सा बुरा काम किया है कि आप रो रहे हैं, तो चट उन्होंने कहा कि 'महाराज' अगर अपना कोई सगा या प्रेमी मर कर बैकुंठ भी जानेवाला हो तो भी लोग रोते ही हैं। हालाँकि तर्क दृष्टि से तो खुश ही होना चाहिए, इसका उत्तर मेरे पास न था।

जब सन 1906 ई. में नाइंथक्लास, नौवींश्रेणी या मैट्रिक्युलेशन की पूर्ववाली कक्षा में पहुँचा तो अध्यापकों का विचार होने लगा कि अगले साल (1907 में) मैट्रिक्युलेशन की परीक्षा में मुझे यूनिवर्सिटी में फर्स्ट होना चाहिए और यह कोई बड़ी बात नहीं है, यदि मैं कुछ ज्यादा परिश्रम कर के अंग्रेजी मजबूत कर लूँ। मास्टर लोग भी मेरे पूजा पाठ से घबराते थे और चाहते थे कि ज्यादा समय उसमें न दे कर अंग्रेजी में लगाऊँ ईधर मेरी अजीब हालत थी। दिल पढ़ने में लगता न था और रह-रह के संन्यास लेने को तड़पता था। इसकी कहानी आगे लिखी है। घरवाले भी दबाव डालते थे और बिगड़ते थे कि मैं धर्म-कर्म का इतना लंबा पवारा छोड़ कर पढ़ने में मन ज्यादा क्यों नहीं देता उन्हें भी भय था कि कहीं मैं वैरागी हो कर जंगल में न चला जाऊँ। इसीलिए पं. हरिनारायण पांडेय जी से वे लोग बहुत ही रंज रहते थे। कभी-कभी उन्हें बुरा-भला भी सुनाते थे। लेकिन मैं रुकनेवाला कब था। मेरा काम निर्बाध चलता था जो बाधाएँ देख कर और भी तेज हो जाता था।


पहली बार वैराग्य

सन 1906 ई. की ही बात है। मैं किसी छुट्टी में घर गया था और वहाँ से गाजीपुर लौटा। गर्मी के दिन थे। चुपके से एक दिन बनारस का टिकट कटवा कर गाड़ी में बैठा और हरद्वार के लिए रवाना हो गया, ताकि वहाँ संन्यास लूँ। हाँ, गर्मियों की छुट्टी के बाद लौटा था और जुलाई का शुरू था। संन्यास लेने के महीने बीत चले थे। क्योंकि वर्ष में संन्यास की मनाही शास्त्रों ने की हैं, ऐसा मैं जानता था। इसलिए जल्दी में रवाना हो गया और किसी से भी नहीं कहा। बनारस में चाहा कि हरद्वार का टिकट ले लूँ। पर न मिला और अंत में इसी ने गड़बड़ी की। खैर, लखनऊ का टिकट ले कर ट्रेन में बैठा और अगले दिन सुबह लखनऊ पहुँचा। स्नान वगैरह कुछ किया न था और न शौचादि ही गया। रेल में या कल के पानी से तो यह काम कर भी न सकता था। क्योंकि उस जल के प्रयोग की आदत थी ही नहीं, उससे नफरत थी। इसलिए फौरन टिकट ले कर गाड़ी में बैठा और हरद्वार की ओर बढ़ा। लखनऊ के बाद काकोरी स्टेशन पर पहुँच कर मैंने सोचा यहीं नित्य कर्म, स्नानादि कर के कुछ खा लूँ, तब दूसरी ट्रेन से आगे बढ़ूँगा। बस, उतर पड़ा और सभी कामों से फारिग हुआ। ट्रेन मिलने में देर थी। इतने में बैठे-बैठे ख्याल आया एकाएक, कि कहीं हरद्वार पहुँच कर योग्य संन्यासी गुरु ढूँढ़ने में देर लग गई और संन्यास का समय बीत गया तो?तब तो बुरा होगा और यों ही प्रतीक्षा करनी होगी लगातार कई महीनों तक और इस बीच में घरवाले पता लगा कर के ही पकड़ ले गए तब तो और भी बुरा होगा। असल में मैं किसी संन्यासी से परिचित न था और डरता था कि यदि वे लोग कहीं फौरन संन्यास न दे कर परीक्षार्थ रख छोड़े तो इस समय संन्यासी बन न सकूँगा। यह ख्याल रह-रह कर तेज होने लगा और अंत में मैंने तय किया कि तब तो अच्छा है कि चुपके से गाजीपुर लौट चलूँ। इस प्रकार कोई जानेगा भी नहीं और आगे जब चाहूँगा धीरे से भाग कर संन्यास ले सकता हूँ। लेकिन यदि कहीं इस बार संन्यास में अड़चन होने से यों ही पकड़ा गया तो सदा के लिए मेरे ऊपर कड़ा पहरा घरवालों का बैठ जाएगा और आगे संन्यास लेना असंभव नहीं, तो कठिनतम जरूर हो जाएगा। इसलिए अंत में लौट चलने का ही निश्चय हुआ। फलत: काकोरी से लौटती ट्रेन में बैठ कर मैं चुपके से गाजीपुर आ कर स्कूल खुलने पर उसमें दाखिल हो गया। लोगों ने समझा कि छुट्टी के बाद घर से आया हूँ। असल में छुट्टी बीतने के दो-एक दिन पूर्व ही घर से चल पड़ा था। इसीलिए किसी को पता न लगा। नहीं तो स्कूल से एक दिन की भी अनुपस्थिति होने पर तूफान मचता और खामखाह शक होने से पूछताछ होती। इसीलिए तो पहले ही चालाकी की थी। यहाँ पर प्रसंगवश एक बात कह दूँ। जब पीछे मैंने ईधर आ कर काकोरी ट्रेन डकैती की बात अखबारों में पढ़ी तो मेरी आँखों के सामने काकोरी का नक्शा आ गया वही काकोरी जिसने संन्यासी होते-होते मुझे वापस आने में न जाने कैसे हाथ बँटाया।


विवाह और स्त्री की मृत्यु

आगे बढ़ने से पूर्व मुझे अपने विवाह की दास्तान कह देना जरूरी है। जहाँ तक याद है गाजीपुर की पढ़ाई की पहली किस्त यानी हिंदी मिड्ल की परीक्षा में उत्तीर्ण होते-न-होते मेरा विवाह गर्मियों के दिनों में हो गया। यहाँ साफ कह दूँ कि यह विवाह यद्यपि छोटी ही उम्र में हुआ और मेरा मन विरागी जैसा रहता था, तथापि मैंने इसे एक प्रकार से पसंद ही किया जिसका साफ अर्थ है कि उस समय घर-बार छोड़ने की न तो कोई धारणा थी और न संभावना। नहीं तो मेरी ओर से किसी-न-किसी प्रकार की अरुचि दिखलाई जरूर जाती। अन्यान्य कारणों के साथ घरवालों की यह धारणा भी कि "यह लड़का शीघ्र ही विवाह बंधन में फँसा दिया जाए, नहीं तो कहीं संन्यासी न बन जाए" शायद इस अल्पावस्था की शादी में कारण था। यह बात दूसरी शादी की तैयारी से, जो पहली स्त्री के मरते ही गुप-चुप की जा रही थी, पीछे स्पष्ट भी हो गई। लेकिन अच्छी बात एक यही थी कि जहाँ मेरी उम्र कम थी वहाँ लड़की की भी कम ही थी। गाजीपुर जिले के ही मौधिया गाँव में, जो सादात स्टेशन के पास है, मेरा विवाह हुआ था। विवाह के अगले वर्ष या यों कहिए कि कुछ महीने बाद मेरा द्विरागमन भी हो गया और वधू मेरे घर आ गई। मालूम होता है, इसके करते घरवाले मेरी ओर से कुछ निश्चिंत हो गए।

लेकिन मालूम होता है उस लड़की का और मेरा स्थाई संबंध बदा ही न था। या यों कहिए कि यदि वह जीवित रहती और मैं संन्यासी बन जाता तो जो अपार कष्ट उसे भोगना पड़ता वह उसके हिस्से का था नहीं। इसीलिए जहाँ तक मुझे याद है विवाह के दो ही वर्ष के भीतर एकाएक उसका शरीरांत हो गया। संभवत: सन 1906 ई. के जाड़ों की बात है। या यों समझिए कि 1905 ई. के अंत या 1906 के शुरू में ही उसकी मौत हुई। इससे मुझे एक प्रकार की बड़ी खुशी हुई, कारण, दो वर्ष में मेरे भीतर बड़ा ही परिवर्तन हो गया था और धीरे-धीरे मन में संन्यास की बात उठने लगी थी जैसा कि कही चुका हूँ। मुझे जहाँ तक याद हैं, स्त्री की मृत्यु के बाद ही मैं पहली बार हरद्वार के लिए चल कर काकोरी से लौटा था। उस मौत से मैंने माना कि एक बड़ा बंधन हटा। क्योंकि मेरा सदा से विचार रहा है कि माता और स्त्री इन दो की जवाबदेही हर आदमी पर या कम-से-कम हर हिंदू पर रहती है, इन दोनों को कष्ट और यंत्रणा देनेवालों का भला कभी नहीं होता और अगर नरक नाम का कोई पीड़ाप्रद स्थान है तो वे वहाँ जरूर जाते हैं। पहले यह विचार स्वाभाविक ही था। पीछे तो शास्त्र पढ़ कर इसकी पर्याप्त पुष्टि हो गई।

खैर, बीच रास्ते से, जैसा कि कह चुका हूँ, लौट कर मैं चुपचाप पढ़ने में लग गया और मेरी धारणा अब कुछ ऐसी हो गई कि मालूम होता है, कुछ समय तक यों ही रहना और पढ़ना पड़ेगा। न जानें उस असंपूर्ण और असफल हरद्वार यात्रा ने मेरे दिल पर क्यों ऐसा असर किया। मालूम होता है, सर्वप्रथम प्रयत्न की असफलता का ही यह फल था। प्रयत्न तो ऐसा सोच कर किया था कि किसी को भेद तक न मालूम हुआ। यहाँ तक कि कोई शक भी न कर सका। मगर फिर भी विफल होने से दिल पर कुछ ऐसा ही प्रभाव पड़ा और मैं कुछ समय या कुछ वर्षों के लिए संन्यास को असंभव समझ बैठा। होता भी शायद कुछ ऐसा ही। मगर जो लोग सबसे ज्यादा इसके फिक्रमंद थे कि मैं संन्यासी न होऊँ उन्हीं घरवालों की अनजान भूल ने ऐसा होने न दिया।

जहाँ तक याद हैं, हरद्वार के बीच रास्ते से लौट आने के बाद ही दो संन्यासी काशी से आए और उसी गुनेश्वरनाथ जी के मंदिर में ठहरे जहाँ मैं था। उनसे बहुत-सी बातें हुईं और उनने काशी के अपार नाथ मठ का, जहाँ वे ठहरते थे, परिचय दिया। इस प्रकार पहले पहल यह पता तो चला कि कहाँ जा कर आसानी से संन्यासियों से मिल सकता हूँ। यहाँ यह भी कह देना चाहता हूँ कि यद्यपि संन्यासियों के दस नाम, पदवियाँ या विभाग है और इनमें सिर्फ तीन ही─तीर्थ, आश्रम, सरस्वती-दंडी संन्यासी हैं। शेष भारती, पुरी, बन, आरण्य, गिरि, पर्वत, सागर इन सातों को दंड नहीं है। या यों कहिए कि उनका दंड छिन गया है, वे दंड नहीं रखते, नहीं रख सकते। तथापि मैं पहले यह बातें नहीं जानता था और मुझे यह भी पता नहीं था कि ब्राह्मण को संन्यास लेने के समय दंड लेना ही चाहिए। क्योंकि ब्राह्मण ही दंडी हो सकता है, शेष वर्ण नहीं। इसीलिए भारती, पुरी आदि नाम धारियों में सभी वर्ण के लोग पाए जाते हैं।

दंडी का यह अर्थ है कि संन्यासियों के हाथों में बराबर बाँस का एक दंडा (लाठी) रहता है जिसके बनाने की खास रीति है जिसे आज तक भी दूसरे लोग जान न सके हैं। क्योंकि बहुत ही सख्ती के साथ यह रीति गुप्त रखी गई है। उसका नाप-जोख और बाहरी रूप चाहे कोई भले ही जान ले। लेकिन उसमें जो परशु के आकार का कपड़ा, जिसे परशुमुद्रा कहते हैं, बँधा रहता है, जिस विचित्र प्रकार गुँथे सूत से बँधा रहता है, जिसे परशुसूत्र कहते हैं और उस दंड के बीच में जो सफेद सूत्र (यज्ञोपवीत) को निराले ढंग से लपेट कर एक मुद्रा या आकृति बनाई जाती है, इन सभी बातों को दूसरे लोग अब तक जान न सके हैं। या यों कहें कि उनका जानना आसान नहीं हैं। दंडी लोग जब बैठे या सोये हों तो उस दंड को भूमि पर न रख जमीन से ऊपर किसी खूँटी वगैरह के सहारे खास ढंग से टाँग देते हैं और मंदिरों में जाने पर स्वयं हाथ से देवता की मूर्त्ति न छू उसी दंड से उसे स्पर्श करते हैं।

हाँ, तो इस प्रकार संन्यासियों और कम-से-कम उनके एक स्थान का परिचय मुझे मिल गया और सोचा कि मौके पर शायद काम आवे।


संन्यास

इस प्रकार मैं 1906 ई. में पढ़ने लगा और सोचता था कि सन 1907 में खूब पढ़ कर मैट्रिक्युलेशन की परीक्षा उत्तमरीति से पास करूँ। लेकिन घरवाले जहाँ मेरे साथ बहुत सतर्कता से व्यवहार करते और एक तरह का पहरा मेरे ऊपर रखते कि मैं पं. हरिनारायण जी से घर आने पर भी न मिल सकूँ, तहाँ साथ ही उन्हें इस बात की फिक्र लगी कि किसी प्रकार मेरी दूसरी शादी हो जाए तो ठीक हो जाए और बंधन जरा कस जाए। दूसरी शादी का पता तो मुझे देर तक लगा ही नहीं। वह बात कुछ यों ही छिपा कर रखी गई। शायद वे लोग डरते थे कि पता लगने पर कहीं मैं एकाएक पहले ही भाग न जाऊँ। फिर भी उन लोगों का जो पहरा और दबाव था वह दिनोंदिन बढ़ने लगा और मेरी बर्दाश्त के बाहर होने लगा। असल में जिस मतलब से उन्होंने यह किया फल उसके ठीक उलटा हुआ। बात यह है कि या तो उन लोगों को ऐसी बातों का पूरा अनुभव न था या वे मेरे उस स्वभाव को जान न सके जिसके अनुसार 'न दैन्यं न पलायनम' के सिद्धांत का मैं बचपन से ही दिली हामी हूँ। सिद्धांत तो यह है कि जो बंधन शिथिल होता है उस पर पानी या ठंडक पड़ने से ही वह फिर कड़ा हो जाता है। गर्मी से तो वह और भी ढीला होता जाता है। लेकिन वे लोग यह बात समझ न सके।

ईधर सन 1906 ई. बीत गया और मैट्रिक के पूर्व का पढ़ना पूरा कर के मैं मैट्रिक की तैयारी में ही था कि एकाएक 1907 की जनवरी के अंत या फरवरी के शुरू में ही किसी प्रकार मुझे पता लग ही गया तो कि दूसरी शादी की तैयारी हो रही है, सो भी पहली ही लड़की की बहन से। बस, अब क्या था?मैं सजग हो गया और निश्चय कर लिया कि उसी फरवरी मास में जो महाशिवरात्रि आनेवाली थी उसी समय काशी जा कर अवश्य ही संन्यास ले लूँगा। मैंने सोचा कि "माता तो स्वर्गीय हो गई हैं। अत: उसका बंधन तो है नहीं और जिसने मुझे माता के स्थान पर पाला उसके प्रति मेरी वह जवाबदेही तो है नहीं जो प्रसू या जन्मदात्री के प्रति है। साथ ही, उसका खास एक लड़का और मेरे कई भाई तो हईं, जो उसकी खबर लेते ही रहेंगे। रह गया स्त्री का बंधन, सो तो छूट ही गया है, मगर पुनरपि जुटना चाहता है। फिर विवाह हो जाने पर तो संन्यास असंभव हो जाएगा। इसलिए अब देर करने से पछताना होगा।" मैं तो मानता हूँ कि स्त्री और माता के रहते या तो संन्यास नहीं ही लेना चाहिए या अगर लेना भी हो तो उन दोनों की रजामंदी से ही लेना चाहिए, श्री शंकराचार्य के स्त्री तो थी नहीं और माता से आज्ञा ले कर ही वे संन्यासी बने।

मुझे इस समय तारीख तो याद नहीं। लेकिन सन 1907 ई. की फरवरी में, महाशिवरात्रि के कुछ ही दिन पूर्व, मैं एकाएक काशी अपारनाथ के मठ में, जो ढुंढिराज गणेश के पास है, जा पहुँचा। वहाँ वे पुराने परिचित संन्यासी मिल गए। उनसे मैंने अपना संकल्प सुनाया। वे लोग राजी हो गए। वहीं रहनेवाले एक अच्छे संस्कृत दर्शन के ज्ञाता वृद्ध संन्यासी श्री अच्युतानंदगिरि जी महाराज से उन्होंने मुझे संन्यासी बनाने को कहा। वे तैयार भी हो गए। मैं पास में कुछ रुपए भी लेता गया था जिससे पूजापाठ का सामान वगैरह खरीदा जाए। सब तैयारी हो गए और जब तक घरवालों या बाहरी दुनियाँ को पता ही न लगा तभी तक मैं सिरमुंडन करवा और गेरुवावस्त्र पहन संन्यासी बन गया, मेरा नया नाम हुआ सहजानंद। यह काम इतनी जल्दी में किया गया कि आश्चर्य था। क्योंकि मुझे डर बराबर लगा था कि घरवाले हवा पाते ही चारों ओर दौड़ पड़ेंगे और ढूँढ़-ढाँढ़ कर मुझे जरूर पकड़ ले जाएगे। यह कल्पना रह-रह के बेचैन किए देती थी। लेकिन अंततोगत्वा मेरा मनोरथ पूरा हुआ और उस समय मुझ जैसा सुखिया, मेरे जानते, शायद ही कोई रहा हो। इस प्रकार मास्टरों की और मेरी भी सोची मैट्रिक की परीक्षा में यूनिवर्सिटी में फर्स्ट होने की बात पूरी होते-होते रह गई। कोई सोच भी न सका था कि ऐसा होगा। ठीक ही कहा है कि आदमी तो भविष्य की बातों को जान नहीं सकता और न जाने किस-किस उमंग के साथ क्या-क्या सोचा करता है कि यह करेंगे, वह करेंगे। मगर, होनहार अचानक सभी मनोरथों को मटियामेट कर देती है।

अन्यथा चिंतयत्यज्ञो , हर्षापूरित मानस: विधिस्त्वेष महावैरी , कुरुते कार्यमन्यथा॥

अस्तु, इस प्रकार अट्ठारह वर्ष की आयु होते-न-होते, मेरे जीवन के नाटक का एक कांड या एक भाग प्रथम भाग, पूरा का पूरा गुजर गया। और उन्नीसवें वर्ष के श्रीगणेश के साथ ही मध्य भाग शुरू हुआ। यह पूर्व भाग कुछ ऐसा था कि इसमें विशेष अनुभव और जानकारी की गुंजाईश न थी। यह तो एक प्रकार से बचपन का ही समय था। अनुभव की बात तो आगे आनेवाली थी।