अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती

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अब हमें जरा सातवें अध्याय के अंत और आठवें के शुरू में कहे गए गीता के अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ का भी विचार कर लेना चाहिए। गीता में ये बातें पढ़ के सर्वसाधारण की मनोवृत्ति कुछ अजीब हो जाती है। ये शब्द कुछ ऐसे नए और निराले मालूम पड़ते हैं जैसे विदेशी हों। असल में यज्ञ, भूत, दैव, आत्मा शब्द या इनके अर्थ तो समझ में आते हैं। इसीलिए इनके संबंध में किसी को कभी गड़बड़ी मालूम नहीं होती। मगर अध्यात्म आदि शब्द एकदम नए मालूम पड़ते हैं। इसीलिए कुछ ठीक जँचते नहीं। यही कारण है कि ये बातें पहेली जैसी मालूम पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि ये किसी और ही दुनिया की चीजें हैं।

एक बात और भी है। छांदोग्य आदि उपनिषदों में अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव या आधिदैवत शब्द तो पाए जाते हैं। इसलिए जो उपनिषदों का मंथन करते और उनका अर्थ समझते हैं वह इन शब्दों के अर्थ गीता में भी समझने की कोशिश कर सकते हैं, करते हैं। इनके अर्थ भी वे लोग जैसे-तैसे समझ पाते हैं। मगर अधियज्ञ बिलकुल ही नया है। यह तो उपनिषदों में भी पाया जाता है नहीं। इसलिए न सिर्फ यह अकेला एक पहेली बन जाता है, बल्कि अपने साथ अध्यात्म आदि को भी वैसी ही चीज बना डालता है। जब हम अधियज्ञ का ठीक-ठीक आशय समझ नहीं पाते तो खयाल होता है कि हो न हो, अध्यात्म आदि भी कुछ इसी तरह की अलौकिक चीजें हैं। आठवें अध्याय के 3-4 श्लोकों में जो इनके अर्थ बताए गए हैं उनसे तो यह उलझन सुलझने के बजाए और भी बढ़ जाती है। जिस प्रकार कहते हैं कि 'मघवा मूल और विडौजा टीका'। यानी मघवा शब्द का अर्थ किसी ने विडौजा किया सही। मगर उससे सुननेवालों को कुछ पता ही न लगा। वे तो और भी परेशानी में पड़ गए कि यह विडौजा कौन-सी बला है। मघवा में तो मघ शब्द था जो माघ जैसा लगता था। मगर विडौजा तो एकदम अनजान ही है। ठीक यही बात यहाँ हो जाती है। ये शब्द तो कुछ समझ में आते भी हैं, कुछ परिचित जैसे लगते हैं। मगर इनके जो अर्थ बताए गए हैं वे? वे तो ठीक विडौजा जैसे हैं और समझ में आते ही नहीं।

बेशक यह दिक्कत है। इसलिए भीतर से पता लगाना होगा कि बात क्या है। एतदर्थ हमें उपनिषदों से ही कुंजी मिलेगी। मगर वह कुंजी क्या है यह जानने के पहले यह तो जान लेना ही होगा कि अधियज्ञ गीता की अपनी चीज है। गीता में नवीनता तो हई। फिर यहाँ भी क्यों न हो ? गीता ने यज्ञ को जो महत्त्व दिया है और उसके नए रूप के साथ जो इसकी नई उपयोगिता उसने सुझाई है उसी के चलते अध्यात्म आदि तीन के साथ यहाँ अधियज्ञ का आ जाना जरूरी था। एक बात यह भी है कि यज्ञ तो भगवत्पूजा की ही बात है। गीता की नजरों में यज्ञ का प्रधान प्रयोजन है समाज कल्याण के द्वारा आत्मकल्याण और आत्मज्ञान। गीता का यज्ञ चौबीस घंटा चलता रहता है यह भी कही चुके हैं। इसलिए गीता ने आत्मज्ञान के ही सिलसिले में यहाँ अधियज्ञ शब्द को लिख के शरीर के भीतर ही यह जानना-जनाना चाहा है कि इस शरीर में अधियज्ञ कौन है? बाहर देवताओं को या तीर्थ और मंदिर में भगवान को ढूँढ़ने के बजाए शरीर के भीतर ही यज्ञ-पूजा मान के गीता ने उसी को तीर्थ तथा मंदिर करार दे दिया है और कह दिया है कि वहीं आत्मा-परमात्मा की ढूँढ़ो। बाहर भटकना बेकार है। प्रश्न और उत्तर दोनों में ही जो 'इस शरीर में' - 'अत्र देहेऽस्मिन्' कहा गया है उसका यही रहस्य है।

इस संबंध में एक बात और भी जान लेना चाहिए। अगस्त कोन्त (Auguste Comte) नामक फ्रांसीसी दार्शनिक ने तथा और भी पश्चिमी दार्शनिकों ने किसी चीज के और खासकर समाज और सृष्टि के विवेचन के तीन तरीके माने हैं, जिन्हें पॉजिटिव (Positive) थियोलौजिकल (Theological) और मेटाफिजिकल (Metaphysical) नाम दिया गया है। मेटाफिजिक्स अध्यात्मशास्त्र को कहते हैं, जिसमें आत्मा-परमात्मा का विवेचन होता है और थियोलौजी कहते हैं, धर्मशास्त्र को, जिसमें स्वर्ग, नरक तथा दिव्यशक्ति-संपन्न लोगों का, जिन्हें देवता कहते हैं, वर्णन और महत्त्व पाया जाता है। पॉजिटिव का अर्थ है निश्चित रूप से प्रतिपादित या सिद्ध किया हुआ, बताया हुआ। कोन्त के मत से किसी पदार्थ को दैवी या आध्यात्मिक कहना ठीक नहीं है। वह इन बातों को बेवकूफी समझता है। उसके मत से कोई चीज स्वाभाविक (Natural) भी नहीं कहा जा सकती। ऐसा कहना अपने आपके अज्ञान का सबूत देना है। किंतु हरेक दृश्य पदार्थों का जो कुछ ज्ञान होता है वही हमें पदार्थों के स्वरूपों को बता सकता है और उसी के जरिए हम किसी वस्तु के बारे में निर्णय करते हैं कि कैसी है, क्या है आदि। बेशक, यह ज्ञान आपेक्षिक होता है - देश, काल, परिस्थिति और पूर्व जानकारी की अपेक्षा करके ही यह ज्ञान होता है, न कि सर्वथा स्वतंत्र। इसी ज्ञान के द्वारा उसके पदार्थों का विश्लेषण करके जो कुछ स्थिर किया जाता है वही पॉजिटिव है, असल है, वस्तुतत्व है। इसी प्रणाली को लोगों ने आधिभौतिक विवेचन की प्रणाली कहा है। इसे ही मैटिरियलिस्टिक मेथड (Materialistic method) भी कहते हैं। शेष दो को क्रमश: आधिदैवत एवं आध्यात्मिक विवेचन प्रणाली कहते हैं।

आधिदैवत प्रणाली में दिव्य शक्तियों की सत्ता स्वीकार करके ही आगे बढ़ते हैं। उसमें मानते हैं कि ऐसी अलौकिक ताकतें हैं जो संसार के बहुत से कामों को चलाती हैं। बिजली का गिरना, चंद्र-सूर्य आदि का भ्रमण तथा निश्चित समय पर अपने स्थान पर पहुँच जाना, जिससे ऋतुओं का परिवर्तन होता है, आदि बातें ऐसे लोग उस दैवी-शक्ति के ही प्रभाव से मानते हैं। ये बातें मानवीय शक्ति के बाहर की हैं। हमारी तो वहाँ पहुँच हई नहीं। सूर्य से निरंतर ताप निकल रहा है। फिर भी वह ठंडा नहीं होता! ऐसा करने वाली कोई दिव्य-शक्ति ही मानी जाती है। हम किसी चीज को कितना भी गर्म करें। फिर भी खुद बात की बात में वह ठंडी हो जाती है। मगर सूर्य क्यों ठंडा नहीं होता? उसमें ताप कहाँ से आया और बराबर आता ही क्यों कहाँ से रहता है? ऐसे प्रश्नों का उत्तर वे लोग यही देते हैं संसार का काम चलाने के लिए वह ताप और प्रकाश अनिवार्य होने के कारण संसार का निर्माण करने वाली वह दैवी-शक्ति ही यह सारी व्यवस्था कर रही है। इसी प्रकार प्राणियों के शरीरों की रचना वगैरह को भी ले सकते हैं। जाने कितनी बूँदें वीर्य की यों ही गिर जाती हैं और पता नहीं चलता कि क्या हुईं । मगर देखिए उसी की एक ही बूँद स्त्री के गर्भ में जाने से साढ़े तीन हाथ का मोटा-ताजा, विद्वान और कलाकार मनुष्य के रूप में तैयार हो जाता है सिंह, हाथी आदि जंतु बन जाते हैं! यह तो इंद्रजाल ही मालूम होता है! मगर है यह काम किसी अदृश्य हाथ या दिव्य शक्ति का ही। इसलिए उसकी ही पूजा-आराधना करें तो मानव-समाज का कल्याण हो। वह यदि जरा-सी भी नजर फेर दे तो हम क्या से क्या हो जाएँ। शक्ति का भंडार ही तो वह देवता आखिर है न? जिस प्रकार आधिभौतिकवादी जड़-पदार्थों की पूजा करते हैं या यों कहिए कि इन्हीं के अध्ययन में दिमाग खर्चना ठीक मानते हैं, ठीक वैसे ही आधिदैवतवादी देवताओं के ही ध्यान, अंवेषण आदि को कर्तव्य समझते हैं।

आध्यात्मिक पक्ष इन दोनों को ही स्वीकार न करके यही मानता है कि हर चीज की अपनी हस्ती होती है, सत्ता होती है, अपना अस्तित्व होता है। वही उसकी अपनी है, स्व है, आत्मा है। उसे हटा लो, अलग कर दो। फिर देखो कि वह चीज कहाँ चली गई, लापता हो गई! मगर जब तक उसकी आत्मा मौजूद है, सत्ता कायम है तब तक उसमें कितनी ताकतें हैं! बारूद या डिनामाइट से पहाड़ों को फाड़ देते हैं। बिजली के क्या-क्या करामाती काम नहीं होते! आग क्या नहीं कर डालती! दिमागदार वैज्ञानिक क्या-क्या अनोखे आविष्कार करते हैं! हाथी पहाड़ जैसा जानवर कितना बोझ ढो लेता है! सिंह कितनी बहादुरी करता है! मनुष्यों की हिम्मत और वीरता का क्या कहना! मगर ये सब बातें तभी तक होती हैं जब तक इन चीजों की हस्ती है, सत्ता है, आत्मा है। उसे हटा दो, सत्ता मिटा दो। फिर कुछ न देखोगे। अतएव यह आत्मा ही असल चीज है, इसी की सारी करामात है। इसका हटना या मिटना यही है कि हम इसे देख नहीं पाते। यह हमसे ओझल हो जाती है। इसका नाश तो कभी होता नहीं, हो सकता नहीं। आखिर नाश की भी तो अपनी आत्मा है, सत्ता है, हस्ती है। फिर तो नाश होने का अर्थ ही है आत्मा का रहना। यह भी नहीं कि वह आत्मा जुदा-जुदा है। वह तो सबों में - सभी पदार्थों में - एक ही है। उसे जुदा करे कौन? जब एक ही रूप, एक ही काम, एक ही हालत ठहरी, तो विभिन्नता का प्रश्न ही कहाँ उठता है? जो विभिन्नता मालूम पड़ती है वह बनावटी है, झूठी है, धोखा है, माया है। यह ठीक है कि शरीरों में ज्ञान के साधन होने से चेतना प्रतीत होती है। मगर पत्थर में यह बात नहीं। लेकिन आत्मा का इससे क्या? आग सर्वत्र है। मगर रगड़ दो तो बाहर आ जाए। नहीं तो नहीं! ज्ञान को प्रकट करने के लिए इंद्रियाँ आग के लिए रगड़ने के समान ही हैं। इस तरह आध्यात्मिक पक्षवाले सर्वत्र आत्मा को ही देखते हैं, ढूँढ़ते हैं। उसे ही परमात्मा मानते हैं।