अध्याय-1 / ख़लील जिब्रान
आख़िरकार यादगारों वाले 'तिचरीन' माह में सबका प्रिय, अद्वितीय और अनूठा अलमुस्तफ़ा उस द्वीप की तरफ़ वापिस लौट चला, जहाँ उसका जन्म हुआ था। जब उसका जहाज़ द्वीप के एकमात्र बन्दरगाह के पास पहुँचा तो वह बेचैनी के साथ जहाज़ के टैरेस पर आकर खड़ा हो गया। मल्लाहों ने उसे चारों तरफ़ से घेर रखा था। स्वदेश लौट आने की ख़ुशी अलमुस्तफ़ा के चेहरे पर साफ़-साफ़ झलक रही थी। उसकी चेहरा ख़ुशी से दमक रहा था।
अचानक ही वह कुछ बोलने लगा। ऎसा लग रहा था मानो चारों ओर फैला समुद्र उसकी आवाज़ में समा गया हो। उसने कहा--
" देखो, यही वह टापू है, जहाँ हमारा जन्म हुआ था। यही टापू मेरा जन्म देश है, यही मेरी जन्मभूमि है। यहीं पृथ्वी ने हमें उभारा था। एक गीत और पहेली बनाकर यहीं पृथ्वी ने हमारी रचना की थी। गीत को आकाश में उछाल दिया था और पहेली को अपनी गहराइयों में फेंक दिया था। यह मानकर कि इन दोनों के बीच जो वितान है, वह वितान ही गीत को फैलाएगा और पहेली को बुझाएगा। लेकिन यह वितान किसी भी तरह हमारी उत्कंठा को शान्त न कर पाएगा।
"अब सागर फिर एक बार हमें तट पर वापिस लौटा रहा है, हम-- जो उसकी उत्ताल लहरों की एक लहर से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। वह हमें अपनी छाती से, अपने पेट से इसलिए बाहर निकाल रहा है ताकि हम उसकी वाणी को स्वर दे सकें। लेकिन क्या हम ऐसा कर सकते हैं? पत्थर और रेत के साथ एकात्म हुए बिना हम ऐसा कैसे कर सकते हैं?
"मल्लाहों के लिए सागर का, बस, यही कानून है कि अगर तुम आज़ादी चाहते हो तो तुम्हें धुंध का रूप लेना होगा, तुम्हें कोहरे में बदल जाना होगा। निराकार ही तो आकार लेता है। जैसे ब्रह्माण्ड में फ़ैले अनगिनत ग्रह एक दिन सूरज और चांद का रूप ले लेंगे। इसलिए हमें भी, जो अपने जन्मद्वीप पर वापिस लौट आए हैं अब फिर से धुंध में बदल जाना चाहिए और फिर से वह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिससे जीवन आरम्भ होता है। आकाश की ऊँचाईयों को, भला, कौन पा सकता है, ऐसा कौन है जो गगन में समा सकता है? सिवा उसके जो आज़ाद है और जो वहाँ तक पहुँचने की इच्छा रखता है।