अध्याय -2: योगाभ्यास की आवश्यकता एवं पूर्वापेक्षाएँ / कविता भट्ट

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वैयक्तिक अनुशासन एवं आध्यात्मिक उन्नति की आवश्यकता एवं लक्ष्य को ध्यान में रखकर योगाभ्यास का निर्देश दिया गया था; किन्तु समय परिवर्तित हुआ। सुविधाओं और जिज्ञासा को केन्द्र में रखते हुए; औद्योगिक, वैज्ञानिक एवं तकनिकीय विकास हुआ; जिससे व्यक्ति के भौतिक उत्तरदायित्त्व बढ़ा गये। परिणामस्वरूप मानव समाज ने विकास के ऐसे संक्रमण काल में प्रवेश किया जिसमें एक ओर तो भौतिक विकास और मनोशारीरिक स्वास्थ्य का संतुलन बनाये रखने का लक्ष्य था तो दूसरी ओर मानसिक शान्ति एवं आध्यात्मिक उन्नति जैसे लक्ष्य भी थे। इसका कारण यह है कि भौतिक संसाधन कितने भी अधिक हों; अन्त में व्यक्ति मानसिक शान्ति और आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होना ही चाहता है; क्योंकि मानव किसी मशीन के समान कार्य नहीं कर सकता। मानव मन को विश्रांति, शान्ति, एवं आत्मबोध आदि की आवश्यकता अधिक है। यह मानव समाज के दीर्घकालीन एवं स्थायी मूल्यों और समग्र वैयक्तिक विकास हेतु; दोनों प्रकार से आवश्यक है। इस प्रकार के विरोधाभासी एवं कठिन उद्देश्यों को पूर्ण करने की कोई भी अन्य विधा नहीं थी; जो एक ओर भौतिक विकास हेतु मानव की स्वस्थ मन एवं शरीर जैसी आवश्यकता पूर्ण करे तथा दूसरी ओर उसे आध्यात्मिक उन्नति भी प्रदान करे।

संक्रमण के ऐसे काल में प्राचीन भारतीय दर्शन की योग शाखा सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय होनी प्रारम्भ हुई और आजकल लोकप्रियता के चरम पर है। लोकप्रियता का चरम इसका एक पक्ष है; किन्तु इसका आधा-अधूरा, एकपक्षीय प्रचार चिंता का विषय है। आजकल प्रायः, योग का प्रचार मात्र आसनों को शारीरिक व्यायाम के समान प्रचारित करने तक सीमित होता प्रतीत हो रहा है; जबकि इसके नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को अपेक्षित रूप से प्रचारित नहीं किया जा रहा है। योग के द्वारा शरीर एवं मन को स्वस्थ बनाना अच्छी बात है; किन्तु इसके गूढ़ नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाना एवं उन्हें प्रचारित करना भी दीर्घकालीन उन्नति हेतु आवश्यक है।

ऐसी ही अनेक आवश्यकताओं को समझने हेतु योगाभ्यास में प्रवृत्त होने से पूर्व योग की आवश्यकता को समझना आवश्यक है। साथ ही इसकी पूर्वशर्तों या पूर्वापेक्षाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है। इसलिए इस अध्याय में योगाभ्यास की आवश्यकता एवं इसकी पूर्वापेक्षाओं को स्पष्ट करेंगे। व्यक्ति की समग्र स्वस्थता, व्यक्तित्व का विकास, संतुलन एवं समरसता तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान जैसे पाँच बिन्दुओं के अन्तर्गत रखकर योगाभ्यास की आवश्यकता को समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त पूर्वापेक्षाओं के रूप में पारंगत एवं योग्य गुरु, यथोचित भोजन, आदर्श दिनचर्या, स्थान एवं समय, आवृत्ति, वातावरण, ईश्वर प्रणिधान तथा निष्ठा एवं विश्वास आदि को रखा जा सकता है। सबसे पहले समग्र स्वस्थता को स्पष्ट करेंगे।

समग्र स्वस्थता हेतु योगाभ्यास की आवश्यकता-स्वस्थ का सामान्य अर्थ नीरोग होना माना जाता है; किन्तु योगशास्त्र के अनुसार स्वस्थ होने का अर्थ मात्र शारीरिक रूप से नीरोग होना नहीं होता है; अपितु यह समग्र स्वस्थता की बात करता है। समग्र स्वस्थता का अर्थ है-शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्वस्थता। स्व एवं स्थ दो पदों से निर्मित स्वस्थ शब्द का अर्थ होता है-स्वयं में अवस्थित होना या स्थित होना अर्थात् अपनी आत्मा में अवस्थित होना। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है-जब व्यक्ति का शरीर स्वस्थ होता है तो वह मानसिक रूप से भी स्वस्थ एवं प्रसन्न होता है और जब मानसिक रूप से स्वस्थ होता है; तो वह अपनी आत्मिक चेतना या ऊर्जा से सबसे निकट होता है। यदि व्यक्तित्व को शरीर, बुद्धि, मन एवं आत्मा से निर्मित एक यन्त्र भी माना जाय तब भी; यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि इन सभी की आपसी तारतम्यता और समरसता के बिना व्यक्ति अपना कार्य सही ढंग से नहीं कर सकेगा। इस प्रकार शरीर, बुद्धि, मन एवं आत्मा इन सभी की स्वस्थता पर ही सम्पूर्ण व्यक्तित्व की स्वस्थता निर्भर है। उल्लेखनीय है कि योग इन चारों स्तरों पर स्वस्थता प्रदान करता है। इसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है।

शारीरिक स्वस्थता-शारीरिक स्वस्थता का अर्थ है-शरीर का अंग-प्रत्यंग अपने-अपने कार्य को सुचारु ढंग से करें तथा कहीं भी कोई भी व्यवधान न हो। शरीर को स्वस्थ रखने हेतु शरीर हेतु यथोचित आहार-विहार आवश्यक है। इन दोनों में से एक भी ठीक न हो तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है। आजकल आहार-विहार दोनों ही असंतुलित हो गया है। आहार तामसिक एवं पोषणरहित हो गया है। साथ ही विहार भी यथोचित नहीं है। विहार का अर्थ है व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक क्रिया-कलाप। अत्यधिक मानसिक व्यस्तता से युक्त आधुनिक युग में शारीरिक श्रम की कमी होती जा रही है। दिन-रात मानसिक श्रम की अधिकता एवं शारीरिक श्रम की कमी के कारण मानव समाज शारीरिक व्याधियों का शिकार होता जा रहा है। इस दृष्टि से योग के अनेक अभ्यास ऐसे हैं; जो शारीरिक श्रम का लाभ व्यक्ति को दे सकते हैं। नियमित रूप से योग के आसन आदि अभ्यासों को करने से शारीरिक स्वस्थता प्राप्त होती है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। योग के षट्कर्म, आसन, प्राणायाम एवं ध्यान जैसे अभ्यासों से सभी शरीर तन्त्र स्वस्थ होते हैं। षट्कर्म शारीरिक-मानसिक अशुद्धियों को दूर करने, आसन शारीरिक दृढ़ता एवं मजबूती प्राप्त करने, प्राणायाम शारीरिक क्षमता के विकास एवं ध्यान आत्मिक शुद्धि हेतु आवश्यक हैं। इनका वैज्ञानिक आधार भी है; जो संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है। षट्कर्म विकारों को दूर करके अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से स्रावित होने वाले हॉर्माेन्स को संतुलित करने का उत्तम साधन है। आसन एवं मुद्राएँ मांसपेशियों को लचीला, मज़बूत एवं दृढ़ बनाने के साथ ही; श्वसन तन्त्र में आॅक्सीजन के सुचारु संचालन से सम्पूर्ण शरीर में स्वच्छ प्राणवायु पहुँचती है। ऐसा होने से अन्तःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा शरीर में निकलने वाले अन्तःस्रावी रस भी संतुलित होते हैं। इससे मन एवं शरीर दोनों ही स्वस्थ होते हैं। बन्ध तथा प्राणायाम भी शुद्ध प्राणवायु के अंग-प्रत्यंग में संचालन से ही सम्बन्धित है। प्राणवायु के सुचारु संचालन द्वारा हॉर्मोनल संतुलन आदि के माध्यम से सभी शरीर तन्त्र स्वस्थ होते हैं। इसी प्रकार ध्यान से मानसिक स्तर पर वैचारिक शुद्धि होती है। मन और शरीर के आपसी सम्बन्ध के कारण मन की शुद्धि होने पर शरीर भी स्वस्थ होता है। जब मन एवं शरीर का एक दूसरे से यथोचित सामंजस्य होता है तो उपापयच दर आदि संतुलित एवं यथोचित रहती है; जिससे समग्र स्वस्थता की प्राप्ति होती है। इस प्रकार व्यक्ति को सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ रखने हेतु नियमित योगाभ्यास की आवश्यकता है।

मानसिक स्वस्थता-मानसिक स्वस्थता का अर्थ है; कि शरीर के नीरोग होने के साथ ही साथ व्यक्ति का मन भी प्रसन्न रहे। जैसा कि पूर्व में ही उल्लेख किया जा चुका है कि आधुनिक काल में व्यक्ति मानसिक श्रम को अधिक समय देता है। इसके कारण मानसिक थकान तथा चिड़चिड़ापन आदि अनेक मानसिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इन समस्याओं की अधिकता तनाव एवं अवसाद जैसे अनेक घातक मानसिक रोगों को जन्म देती है। भौतिक साधनों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु प्रतिस्पर्धा के कारण दुश्चिंता, ईष्र्या तथा भय जैसे मानसिक रोग भी उत्पन्न होते हैं; जबकि मानसिक स्वस्थता व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है। इसलिए किसी ऐसी विधा की आवश्यकता है; जो कम से कम समय में व्यक्ति की मानसिक थकान को दूर कर सके। व्यक्ति को तनाव एवं अवसाद आदि मानसिक रोगों से मुक्ति प्रदान कर सके। योग के सभी अभ्यास व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को शान्ति, प्रसन्नता एवं स्वस्थता प्रदान करने वाले अनुपम साधन हैं। इस प्रकार मन के स्वस्थ होने से समस्त शरीर तन्त्रों को भी लाभ प्राप्त होता है। मन एवं शरीर में एक संतुलन बनने से इनकी आपसी समरसता एवं तारतम्यता के द्वारा समग्र स्वस्थता प्राप्त होती है। इसलिए मानसिक एवं समग्र स्वस्थता हेतु नियमित योगाभ्यास की आवश्यकता है।

आत्मिक स्वस्थता-शरीर एवं मन की संयुक्त स्वस्थता के साथ ही व्यक्तित्व की स्वस्थता हेतु आत्मिक स्वस्थता भी अनिवार्य है। आत्मिक स्वस्थता का अर्थ है व्यक्ति की अपनी आन्तरिक चेतना से निकटता। व्यक्ति जितना निष्कपट होगा, जितना सात्त्विक होगा अर्थात् जितना नैतिक मूल्यों का पालन करेगा वह आत्मिक रूप से उतना ही अधिक स्वस्थ होगा और वह उतना ही अधिक संतुलित भी होगा। योग का अन्तिम लक्ष्य कैवल्य या मुक्ति है। मुक्ति का अर्थ है-दुःखों की पूर्णरूपेण निवृत्ति। ऐसा नहीं कि दुःखों से मुक्ति मृत्यु के उपरांत ही सम्भव है; अपितु यह जीवित रहते हुए भी उतनी ही सम्भव है। इसके लिए व्यक्ति को मानसिक विकारों से पूर्णरूपेण मुक्त होना होगा। जब व्यक्ति अपने अहंकार से मुक्त हो जाय तो समझना चाहिए कि वह मुक्त हो चुका है। वास्तव में यही आत्मिक स्वस्थता है; जिसे प्राप्त करने हेतु योगाभ्यास की आवश्यकता है।

व्यक्तित्व का विकास-आजकल व्यक्तित्व विकास के अनेक कोर्स चलाये जा रहे हैं; जिनमें व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु अनेक ढंग अपनाये जाते हैं। उल्लेखनीय है कि योग एक ऐसी विधा है; जो व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक रूप से स्वस्थ करते हुए इसका सर्वांगीण विकास करती है। योग मात्र स्वस्थता ही नहीं अपितु स्वाध्याय जैसे नियम के द्वारा अध्ययन आदि का भी निर्देश देता है। व्यावहारिक रूप से स्वाध्याय जैसे नियम को अपनाये जाने पर व्यक्तित्व के अन्य पक्षों के विकास के साथ ही व्यक्ति बौद्धिक विकास भी निश्चित है। उपनिषद् दर्शन में व्यक्तित्व के पाँच स्तरों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय) का वर्णन प्राप्त होता है; जिसे हम पूर्व में ही विवेचित कर चुके हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि योगाभ्यास द्वारा व्यक्तित्व के इन सभी स्तरों का उन्नयन होता है। ये सभी स्तर सकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व की सर्वांगीण विकास हेतु योगाभ्यास की आवश्यकता है।

व्यक्तिपरक-सामाजिक संतुलन एवं समरसता-व्यक्ति के वातावरण एवं समाज के बीच एक संतुलन होना आवश्यक है; जिससे समरसता स्थापित हो सके। योगाभ्यास व्यक्ति को विषम वातावरण एवं परस्थितियों के लिए तैयार करता है। इस प्रकार विपरीत से विपरीत स्थिति में भी व्यक्ति अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सक्षम होता है। उदाहरण के लिए षट्कर्म जैसे अभ्यास वातावरण से ग्रहण की गयी अशुद्धियों को दूर करते हैं तथा तप जैसे अभ्यास व्यक्ति को कठिनाइयों को सहन करने के लिए तैयार करते हैं। इसके अतिरिक्त अहिंसा, सत्य एवं अस्तेय जैसे अभ्यास व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों के प्रति सत्यनिष्ठ एवं उदार बनाते हैं। साथ ही ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह एवं संतोष जैसे अभ्यास व्यक्ति को आत्म-नियन्त्रण के लिए तैयार करते हैं। इससे अतिरिक्त स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्रणिधान व्यक्ति के व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान के बीच संतुलन बनाने में सहायक है। ऐसा होने से व्यक्ति उचित-अनुचित तथा नैतिक-अनैतिक आदि का यथोचित विवेचन करने में सफल होता है। इन सभी अभ्यासों से व्यक्ति के व्यवहार में एक अद्भुत सामंजस्य उत्पन्न होता है और जब अधिकांश व्यक्तियों द्वारा यह अपनाया जाता है तो समाज में समरसता, भ्रातृत्व एवं सौहार्द उत्पन्न होता है। इस प्रकार स्वस्थ, संतुलित एवं समरसता युक्त व्यक्तियों और ऐसे व्यक्तियों से ऐसे ही समाज का निर्माण होना निश्चित है। इसलिए ऐसे समाज के निर्माण हेतु योगाभ्यास की आवश्यकता है।

नैतिक उत्थान-संस्कृत की नय धातु से व्युत्पन्न नैतिक शब्द शुभ लक्ष्यों का द्योतक है। नैतिक आचरण सम्बन्धी नियम वे हैं जो व्यक्ति को परमशुभ की ओर ले जायें। शुभ वह है जो आनन्द दे; आनन्द आत्मिक होता है। इस प्रकार नैतिक उत्थान और आत्मिक आनन्द का घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यक्ति नैतिक नियमों का जितना पालन करेगा; उसका उतना ही अधिक नैतिक उत्थान होगा और वह उतना ही अधिक आत्मिक आनन्द प्राप्त कर सकेगा। उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति अहिंसा, सत्य तथा अस्तेय आदि योगाभ्यासों का पालन करे तो वह नैतिक बनेगा। यह नैतिकता व्यक्ति के उत्थान द्वारा उसे आत्मिक आनन्द प्रदान करेगी। इस प्रकार नैतिकता द्वारा आत्मिक आनन्द प्राप्त करने के लिए योगाभ्यास की आवश्यकता है। यह नैतिकता व्यक्तिगत रूप से तो उपयोगी है ही; इसकी सामाजिक उपयोगिताएँ भी है। आधुनिक काल में व्यक्ति असीम भौतिक संसाधनों को एकत्र करने हेतु अनैतिक साधनों को ही उपयोग में लाता है। कम से कम समय में अधिक से अधिक संसाधन एकत्र करना व्यक्ति का उद्देश्य बन गया है; किन्तु यदि गहराई से सोचा जाय तो इन संसाधनों की सीमा क्या है और इनसे क्या वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है। निश्चित रूप से नहीं। ये संसाधन क्षणिक सुख देते हैं; जबकि नैतिक मार्ग दीर्घकालीन सुख प्रदान करता है। योगाभ्यास का आरम्भ नैतिक नियमों से ही होता है। यम एवं नियम नैतिक सुख प्राप्ति के साधन है। इस प्रकार व्यक्ति को नैतिकता के पथ पर अग्रसर करने हेतु योगाभ्यास की आवश्यकता है।

आध्यात्मिक उन्नति-योगाभ्यास का वास्तविक लक्ष्य आध्यात्मिक उन्नति है। शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता आदि तो साथ-साथ प्राप्त होने वाले लाभ हैं। वस्तुतः अधिकांश व्यक्ति असीम भौतिक भोगों के होते हुए भी भोगों में मानसिक एवं आत्मिक शान्ति को अनुभव नहीं कर पाते हैं। कितनी भी भौतिक सम्पन्नता हो; कभी न कभी व्यक्ति आत्मिक शान्ति की खोज में अध्यात्म की ओर अवश्य मुड़ता है। योग के अभ्यास से यद्यपि शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता हेतु भी किया जाय तब भी आध्यात्मिक उन्नति तो प्राप्त होती ही है। इसका अर्थ यह है कि योगाभ्यास प्रारम्भ करने के पीछे व्यक्ति का उद्देश्य चाहे शारीरिक हो या मानसिक; आध्यात्मिकता उसे उपहार में प्राप्त होगी ही। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि बिना आध्यात्मिक उन्नति के सब निरर्थक है। इस प्रकार आध्यात्मिक उन्नति हेतु योग की आवश्यकता है।

आधुनिक युग में योग की आवश्यकताओं के उल्लेख के उपरान्त अब हम योगाभ्यास की पूर्वशर्तों या पूर्वापेक्षाओं का उल्लेख करेंगे।

योग्य गुरु-योग्य गुरु योगाभ्यास में पहली पूर्वापेक्षा है। योग्य गुरु के बिना योग असम्भव है; क्योंकि ऐसा होने पर ग़लत अभ्यास किये जाने पर अभ्यासों से लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। साथ ही मात्र किसी भी पुस्तक के आधार पर अभ्यास कभी नहीं करना चाहिए; क्यांेकि अभ्यास प्रायोगिक होते हैं। मात्र सैद्धान्तिक ज्ञान घातक है; और प्रायोगिक ज्ञान तभी हो सकता है जब योग्य गुरु की शरण में जाकर योग का अभ्यास किया जाय। योग की दूसरी पूर्वापेक्षा या पूर्वशर्त है-यथोचित आहार-विहार। पहले आहार के बारे में जानना आवश्यक है; इसलिए अब हम आहार को विवेचित करेंगे।

2.यथोचित भोजन/आहार

भोजन शरीर का पोषण करने के साथ ही मन, बुद्धि एवं आत्मा की आपसी तारतम्यता को सुनियोजित भी करता है। यह व्यक्ति के व्यवहार एवं कृत्यों को भी प्रभावित करता है। व्यक्ति जैसा भोजन ग्रहण करता है; वैसा ही उसका व्यक्तित्व एवं कृतित्व भी होता है। आधुनिक काल में अनुचित भोजन के कारण अनेक मनोशारीरिक रोग उत्पन्न होते जा रहे हैं। अनुचित भोजन तो सामान्य जीवन में ही व्यवधान उत्पन्न करता है; तो फिर योगाभ्यास में तो यह तनिक भी क्षम्य नहीं। इसलिए यथोचित आहार ग्रहण करना योगाभ्यास की पूर्वापेक्षा है। आधुनिक काल में यथोचित आहार के अनेक मॉडल प्रस्तुत किये जा रहे हैं और अनेक खोजें भी जारी हैं; किन्तु प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अपने अनवरत शोधों के द्वारा शुद्ध-सात्त्विक-शाकाहारी भोजन को प्राथमिकता दी। हठयोग ने आदर्श भोजन में सम्मिलित किये जाने वाले खाद्य पदार्थों का विशेष मॉडल दिया गया है; उसे जानना आवश्यक है; किन्तु उससे पूर्व मानव जीवन में भोजन की भूमिका को जानना आवश्यक है। इसलिए अब हम भोजन के महत्त्व को प्रस्तुत करेंगे।

मानव जीवन में भोजन का महत्त्व

जीवन के अस्तित्व हेतु भोजन आवश्यक है; यह सभी जानते हैंं। यह मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। यह शारीरिक वृद्धि, पोषण, रोगों से रक्षा तथा कल्याण हेतु प्राथमिक आवश्यकता है। आजकल आहार के ऐसे आदर्श या मॉडल खोजने का प्रयास किया जा रहा है; जो पोषण प्रदान करने के साथ ही मानसिक विश्रान्ति एवं संतुलित व्यवहार में भी सहयोगी हों। भोजन में व्यक्ति ऐसे खाद्य पदार्थों को लेना चाहता है; जिसमें शुद्धता, स्वाद और पोषण निश्चित अनुपात में हों। आधुनिक युग में समय एवं श्रम को बचाने के लिए खाये जाने वाले जंक फूड शरीर, मन एवं व्यवहार को असंतुलित करने के साथ ही यथोचित पोषण भी नहीं देते। भोजन से ही मन और आत्मा का सम्बन्ध है; ऐसा उपनिषद् साहित्य में माना गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में उद्दालक एवं श्वेतकेतु के संवाद में इस बात को स्वीकारा गया है कि भोजन मन एवं मस्तिष्क का निर्माण करने के साथ ही उसे प्रभावित भी करता है। इस प्रकार सारा व्यक्तित्व भोजन पर निर्भर है। भोजन के शरीर एवं मन आदि को कैसे प्रभावित करता है; यह जानने हेतु इसे अलग-अलग प्रकार से समझना आवश्यक है।

शारीरिक दृष्टि से भोजन का महत्त्व

भोजन में मुख्यतः प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, मिनरल तथा फैट जैसे तत्त्व पाये जाते हैं। इन तत्त्वों से क्रमशः शरीर निर्माण, ऊर्जा उत्पादन, नियमन, सामथ्र्य तथा शक्ति संचय जैसे कार्य सम्पन्न होते हैं। स्वस्थ और संतुलित भोजन वह है जिसमें इन सब तत्त्वों का अनुपात यथोचित हो। ऐसे संतुलित भोजन के द्वारा व्यक्ति शारीरिक रूप से स्वस्थ, सुदृढ़, आकर्षक, बलशाली एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता से युक्त होता है। सार रूप में यह कहा जा सकता है कि अच्छा भोजन ही अच्छे शरीर और व्यक्तित्व का निर्माण करता है। सामान्यतः भोजन द्वारा शरीर की निम्नलिखित आवश्यकताएँ पूर्ण होती हैं।

1. शरीर के क्रियाकलापों एवं गतिविधियों में जिन कोशिकाओं एवं ऊतकों की टूट-फूट होती है; उनकी मरम्मत हेत आवश्यक जीवद्रव्य का निर्माण भोजन से होता है।

2. दैनिक कार्यांे हेतु उपयोग में लाये जानी वाली शक्ति भोजन से ही प्राप्त होती है।

3. शरीर के यथोचित तापमान को बनाये रखने हेतु जो ऊष्मा चाहिए; वह भोजन से ही प्राप्त होती है।

4. आंतों द्वारा भोजन के पाचन, अवशोषण एवं स्वांगीकरण के पश्चात् जीवद्रव्य का निर्माण होता है; जिससे नयी कोशिकाओं एवं ऊतकों का निर्माण होता है।

5. शरीर के विकास हेतु आवश्यक प्रोटोप्लाज्म का विकास भोजन से ही होता है।

6. शरीर की जीवनी शक्ति एवं रोग-प्रतिरोधक क्षमता हेतु भोजन आवश्यक है।

मानसिक दृष्टि से भोजन का महत्त्व

भारतीय संस्कृति में यह कहा और माना गया है कि "जैसा खावें अन्न, वैसा होवे मन" अर्थात् व्यक्ति जैसा भोजन करता है; उसका वैसा ही मन होता है। श्रीमद्भगवत्गीता में भी योगसाहित्य के ही अनुसार तीन प्रकार का भोजन माना गया है-सात्त्विक, राजसिक एवं तामसिक। भोजन के इन प्रकारों को हम आगे बतायेंगे। यहाँ मात्र यह जान लेना चाहिए कि हठयोग में सात्त्विक भोजन करने का ही निर्देश दिया गया है। सात्त्विक भोजन लेने से मन निष्काम, प्रसन्न, शान्त, सकारात्मक, आशावान, एवं स्थिर रहता है। इससे व्यक्ति का व्यवहार भी अच्छा होता है। जो व्यक्ति सात्त्विक भोजन करता है; वह काम, क्रोध एवं मद आदि पर विजय प्राप्त कर लेता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति संतुलित, अनुशासित, शान्त, प्रसन्न, संतुष्ट और गुणी व्यक्तित्व प्राप्त करता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से भोजन का महत्त्व

आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा सम्बन्धी; आत्मा वह है जो शरीर में चेतना का संचार करती है। जब व्यक्ति शुद्ध-सात्त्विक भोजन ग्रहण करता है; तो मानसिक रूप से स्वस्थ एवं प्रसन्न रहने के कारण वह आत्म-चैतन्य की ओर अभिमुख होता है। हठयोग एवं राजयोग दोनों में ही आत्मिक उन्नति के द्वारा कैवल्य या दुःखमुक्ति को ही व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य माना गया है। ऐसा होने के लिए आत्मिक अनुभूति आवश्यक है। सात्त्विक भोजन का आत्मिक अनुभूति में बहुत बड़ा योगदान है। यदि आत्मचेतना होगी तो व्यक्ति का व्यवहार एवं आचरण नैतिक होंगे। वह शुभ संकल्पों एवं शुभ कर्मां की ओर प्रवृत्त होगा।

सामान्यतः ताजा, शुद्ध, मसालेरहित, शाकाहारी, मौसमी तथा प्राकृतिक भोजन सात्त्विक कहलाता है; इसमें दूध, दही, शहद, घी, ऋतु फल एवं सब्जियाँ, दालें, अनाज, एवं सूखे मेवे आदि रखे जा सकते हैं। किसी भी प्रकार का माँस, अंडा, जंकफूड आदि युक्त, अधिक पका, बासी, अधिक ठंडा, अधिक गरम, बार-बार गरम किया हुआ, अधिक कड़ुआ एवं अधिक खट्टा भोजन वर्जित है। इसकी अधिक व्याख्या आगे की जायेगी।

हठप्रदीपिका में निर्देशित भोजन का आदर्श स्वरूप

स्वामी स्वात्माराम लिखित हठप्रदीपिका में आदर्श भोजन को पथ्य एवं वर्जित भोजन को अपथ्य लिखा गया है।

पथ्य-गेहूँ, चावल, बाजरा, अन्य अनाज, दालें, गाय या भैंस का दूध, दूध से बने खाद्य पदार्थ, शहद, हरी एवं मौसमी सब्जियाँ-चैलाई, बथुआ, जीवन्ती, हरे चने तथा मीठा गुड़ आदि का सेवन पथ्य है। सामान्यतः पुष्टिकारक, आनन्दित करने वाला और रोग-प्रतिरोध करने वाला भोजन ही पथ्य है।

अपथ्य-बासी, सड़ा, मांसयुक्त, सूखा, अधिक नमकीन, मसालेदार, चटपटा, अधिक खट्टा, पचने में कठिन, अस्वस्थ करने वाला और बार-बार गर्म किया हुआ भोजन अपथ्यकारक है।

इसी प्रकार घेरण्ड मुनि कृत घेरण्ड संहिता में भी आदर्श भोजन का निर्देश प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ में मिताहार का निर्देश दिया गया है।

घेरण्ड संहिता में निर्देशित भोजन का आदर्श स्वरूप

घेरण्ड संहिता में अच्छे आहार को मिताहार एवं बुरे आहार को निषिद्ध आहार में रखा गया है; जो इस प्रकार हैं-

मिताहार-चावल, जौ और चने के आटे से बनने वाला सत्तू, गेहूँ का आटा, चना, उड़द, अरहर, परवल, अरबी, ककड़ी, केला, गूलर, चैलाई, बैंगन, बथुआ आदि कच्चा शाक, मौसमी सब्जियाँ तथा फल आदि। व्यक्ति को आधा पेट भोजन से, एक चैथाई पानी से भरना चाहिए और एक चैथाई वायु के लिए रिक्त रखना चाहिए।

निषिद्ध या वर्जित आहार-ठूंस-ठूंस कर भोजन करना वर्जित है। कड़ुआ, खट्टा, अधिक नमकीन, अधिक गर्म, अधिक ठंडा, तला-भुना हुआ, मसूर, प्याज-लहसुन युक्त, मसाले युक्त, मदिरा और नशीले पदार्थाें से युक्त भोजन निषिद्ध आहार में रखा गया है। श्रीमद्भगवत्गीता में भोजन का वर्गीकरण

श्रीमद्भगवत्गीता में भी भोजन का वर्गीकरण प्राप्त होता है। इसमें भी सात्त्विक, राजसिक एवं तामसिक तीनों ही प्रकार का भोजन बताया गया है। इसी प्रकार मधुर, स्निग्ध, सुपाच्य, पोषक और ताजे भोजन को सात्त्विक कहा गया है; जो कि वृद्धि, बुद्धिमत्ता, विकास, उत्थान, स्वस्थता एवं प्रसन्नता आदि में वृद्धि करता है। जो व्यक्ति सात्त्विक भोजन ग्रहण करते हैं; उनका व्यक्तित्व स्वस्थता, प्रसन्नता, शान्ति, अहिंसा, सत्यता, शुद्धता, निष्कामना, परोपकार एवं सहनशक्ति आदि गुणों से युक्त होता हैं। अधिक कड़ुवे, अधिक खट्टे, अधिक नमकीन व चटपटे, कठोर, शुष्क, एवं क्षारीय भोजन राजसिक होता है। राजसिक भोजन ग्रहण करने से दुःख, कष्ट, क्रोध एवं चिंता आदि बढ़ते हंै। अधपका, सूखा, बासी और अशुद्ध भोजन तामसिक होता है। ऐसा भोजन आलस्य, सुस्ती एवं अकर्मण्यता आदि दुर्गुणों को बढ़ाते है।

आयुर्वेद में सात्त्विक भोजन का निर्देश

आयुर्वेद में भी योग एवं गीता के समान ही सात्त्विक भोजन ही ग्रहण करने का निर्देश दिया गया है। भोजन करने सम्बन्धी नियमों को भी निर्देशित किया गया है; जिनको हम अध्याय में आगे विवेचित करेंगे।

आधुनिक काल में प्राप्त खाद्य पदार्थों का सात्त्विक, राजसिक एवं तामसिक वर्गीकरण

सात्त्विक खाद्य पदार्थ एवं इसके प्रभाव राजसिक खाद्य पदार्थ एवं इसके प्रभाव तामसिक खाद्य पदार्थ एवं इसके प्रभाव

गाय का दूध, अंडा, मांस

मक्खन, मछली,मुर्गा

दही, बकरी का मांस, मदिरा

घी, अधिक नमकीन प्याज

मीठे फल, मिर्च, लहसुन

सेब, चटनी ,तम्बाकू

केला , अचार बासी

आम, चाय ,नशीले पेय

नारियल, टमाटर, बासी, गंदा/ सड़े भोज्य

ककड़ी, कॉफी सारे

आँवला, कोक आदि पेय ड्रग्स

आलू ,मसाले ,घोड़े वाले चने

आटा-गेहूँ, जौ आदि ... ...

चवल ... ...

जौ ... ...

शहद ... ...

सूखे मेवे ... ...

प्रभाव-ऊँचाई, बुद्धिमत्ता, स्वस्थता, मानसिक शान्ति और प्रसन्नता में वृद्धि तथा संतुलित सक्रियता। प्रभाव-दुःख, दरिद्रता, क्रोध, आवेश, कष्ट, चिन्ता तथा अतिसक्रियता में वृद्धि। प्रभाव-आलस्य, अज्ञान एवं निष्क्रियता में वृद्धि।

साररूप में कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति शुद्ध-सात्त्विक भोजन ग्रहण करता है; वह स्वस्थ, बुद्धिमान, नैतिक एवं आध्यात्मिक होता है। माँसाहारी भोजन ग्रहण करने के पीछे प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि यह प्रोटीन का मुख्य स्रोत है; जबकि वैज्ञानिक अध्ययन भी शाकाहार के पक्ष में तर्क देते हैं। सर्वे बताते हैं कि अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप, जापान, इजरायल एवं आॅस्ट्रेलिया आदि में अधिकांश लोग शाकाहार के ही पक्षधर हैं और इन राष्ट्रों में प्रत्येक वर्ष शाकाहारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं हैं; किन्तु वे अच्छे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से शाकाहार को अपना रहे हैं। हठयोग के द्वारा निर्देशित शाकाहार को वैज्ञानिक दृष्टि से भी अधिक स्वास्थ्यवर्धक एवं पौष्टिक माना गया है। शाकाहार को अपनाने के अनेक वैज्ञानिक कारण हैं; जो इस प्रकार हैं- शाकाहार क्यों अपनाएँ ः वैज्ञानिक दृष्टिकोण

1. मानव का पाचन संस्थान के अनुरूप शाकाहारी भोजन ही उचित है। यह माँसाहारी भोजन को पचाने के अधिक उपयुक्त नहीं है। पाचन संस्थान से सम्बन्धित अनेक रोग माँसाहारी भोजन से होते हैं।

2. माँसाहार में कोलेस्टॉरॉल की मात्रा अधिक होने के कारण हृद्यरोग एवं रक्त परिसंचरण तन्त्र सम्बन्धी रोग अर्थात् उच्च रक्तचाप, धमनी अवरोध आदि होते हैं।

3. वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि माँसाहार हेतु पशुओं-पक्षियों को मारते समय उनके अत्यधिक पीड़ा के कारण उनके शरीर से कुछ अत्यंत हानिकारक हॉर्मोन्स स्रावित होते हैं; जो उनके मांस के तत्त्वों को भी प्रभावित करते हैं। उस माँस को भोजन में ग्रहण करने पर ये हॉर्मोनल विकृतियाँ भक्षण करने वाले के शरीर में भी प्रवेश करती हैं। ऐसा होने से मनुष्य का मन एवं शरीर दोनों का हानि होती है।

4. घास एवं चारे आदि में पेस्टिसाइट्स प्रयोग किये जाते हैं। घास एवं चारा पशुओं द्वारा ग्रहण किया जाता है; और पशुओं को मनुष्य खाते हैं; इस प्रकार मनुष्य तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता हुआ। वैज्ञानिक अध्ययनों बताते हैं कि भोजन पिरामिड के अनुसार हर श्रेणी के बढ़ने के साथ ही पेस्टीसाइट्स के हानिकारक तत्त्व और भी अधिक घातक होते चले जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य तक आते-आते ये अत्यंत घातक हो जाते हैं; और मनुष्य के स्वास्थ्य पर अत्यंत विपरीत प्रभाव डालते हैं।

5. मांसाहार के कारण शरीर में उष्मा बढ़ती है; जिससे व्यक्ति मानसिक रूप से हिंसक और उग्र होता है।

6. रही बात प्रोटीन की तो दाल, दुग्ध और दुग्ध निर्मित पदार्थों से भी अच्छी मात्रा में प्रोटीन प्राप्त होता है।

इस प्रकार वैज्ञानिक अध्ययन भी हठयोग के द्वारा निर्देशित शाकाहारी भोजन के ही पक्षधर हैं। यथोचित भोजन के सन्दर्भ में भोजन के तत्त्वों को जानना आवश्यक है; परन्तु उससे पूर्व भोजन में पाये जाने वाले जिन रसायनों से शरीर का निर्माण हुआ है; उन्हें भी जानना अनिवार्य है। इसीलिए अब हम भोजन के तत्त्वों द्वारा शरीर के संघटन को स्पष्ट करेंगे।

शरीर का संघटनात्मक स्वरूप

शरीर प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फैट या वसा, लवण, विटामिन तथा जल का संघटनात्मक स्वरूप है। वस्तुतः ये सभी पदार्थ कार्बन, नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, हाइड्रोजन, सल्फर या गंधक जैसे सूक्ष्म एवं मूल तत्त्वों से निर्मित जटिल जैवरसायन या यौगिक होते हैं। इसके साथ ही शरीर में आयरन या लौहतत्त्व, फॉस्फोरस, सोडियम, पोटेशियम, लीथियम, फ्लोरीन, क्लोरीन, आयोडीन एवं सिलीकॉन आदि भी उपस्थित रहते हैं तथा अनेक प्रमुख कार्याें का सम्पादन करते हैं। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कॉपर या तांबा, मैगनीज, लैड या शीशा और जस्ता आदि जैसे मूल तत्त्व भी शरीर में उपस्थित रहते हैं। इन रासायनिक यौगिकों का शरीर के संघटन के साथ-साथ शरीर हेतु इनके कार्यों को समझना भी आवश्यक है; प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फैट या वसा, लवण तथा विटामिन जैसे मुख्य घटकों के शारीरिक कार्यों को निम्न सारणी द्वारा समझा जा सकता है।

शारीरिक निर्माण एवं वृद्धि ऊर्जा उत्पादन शरीर रक्षण

प्रोटीन-दाल, दूध, मूंगफली, अखरोट, सूखे मेवे, मटर आदि से प्राप्त। कार्बोहाइडेªट-गेहूँ, चावल, जौ, बाजरा, मक्का, अखरोट, आलू, शक्कर, शहद एवं मीठे फल आदि से प्राप्त। विटामिन-दूध, दही, पनीर, फल, शाक-सब्जी, दाल के छिलके एवं अंकुरित अनाज आदि से प्राप्त।

कैल्शियम-दूध, अनाज, हरे शाक-सब्जी, गाजर एवं आंवला आदि से प्राप्त। वसा-मक्खन, घी, तेल, बादाम एवं पिस्ता आदि से प्राप्त।

फॉस्फोरस-दूध से प्राप्त।

आयरन या लौहतत्त्व-पालक, बथुआ, हरे शाक-सब्जी, सेब एवं बैंगन आदि से प्राप्त।

शरीर में प्रवेश करने के पश्चात् पाचन एवं अवशोषण आदि के द्वारा भोजन ही ऊष्मा या ऊर्जा में परिवर्तित होकर शरीर की विभिन्न गतिविधियों को संचालित करता है। इस ऊर्जा का मापन निम्न प्रकार से किया जाता है।

भोजन का कैलोरी मूल्य-किसी भोज्य पदार्थ को उसकी कैलोरी के अनुसार मूल्यांकित किया जाता है। कैलोरी का अर्थ होता है "भोज्य पदार्थ को आॅक्सीकरण होने पर उससे उत्पन्न होने वाली ऊर्जा या शक्ति को उसमें उपस्थित कैलोरी कहा जाता है। एक कैलोरी (ऊष्मा) ऊर्जा या शक्ति की वह मात्रा है जो 1 लीटर जल का तापमान 1 डिग्री सेन्टिग्रेट तक बढ़ाने हेतु आवश्यक हो। भोजन की दृष्टि से कैलोरी का तात्पर्य किलो कैलोरी से होता है; जो 1000 कैलोरीज़ के बराबर होती है।" संतुलित एवं स्वस्थ भोजन में 2360 कैलोरीज होनी चाहिए; खाद्य पदार्थों में प्रोटीन के 1 ग्राम में 4 कैलोरी, कार्बोहाइड्रेट के 1 ग्राम में भी 4 कैलोरी तथा वसा में 1 ग्राम में 9 कैलोरी होती है। संतुलित भोजन का विवरण निम्न सारणी से समझा जा सकता है।

तत्त्व कैलोरीज प्रति ग्राम आवश्यकता कुल कैलोरीज

प्रोटीन 4 100 ग्राम ग् 4 400

कार्बोहाइड्रेट 4 400 ग्राम ग् 4 1600

वसा 9 40 ग्राम ग् 9 360

540 ग्राम 2360

उपयुक्त सारणी में भोजन का सामान्य विवरण दिया गया है; वस्तुतः कैलोरी ग्रहण करने की परस्थितियाँ व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक कार्य पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए शिशुओं को वयस्कों की तुलना में अधिक कैलोरीज की आवश्यकता होती है। कैलोरीज की आवश्यकता किसी व्यक्ति के भार या वजन, आयु, लिंग, व्यवसाय, जलवायु, स्वास्थ्य एवं आहार आदि के आधार पर निर्धारित की जा सकती है; किन्तु एक सामान्य अनुमान के आधार पर इसे निम्न सारणी द्वारा समझा जा सकता है। यह अनुमानित ही है; इसलिए मात्र इस आधार पर कैलोरीज को लेना उचित नहीं है; विभिन्न परस्थितियों में यह अलग हो सकता है। अनुमानित सारणी इस प्रकार है-

व्यक्ति कैलोरीज की आवश्यकता

सामान्य स्वस्थ व्यक्ति को जीवित रहने के लिए प्रतिदिन 1500 से 1800

मजदूर, किसान या कड़ा परिश्रम करने वाले व्यक्तियों के लिए 3500 कैलोरीज

बैठे-बैठे काम करने वाले व्यक्तियों के लिए 2500 कैलोरीज

विश्राम के समय सामान्य रूप से 1800 कैलोरीज

बिस्तर पर पड़े रोगियों के लिए 1200 कैलोरीज

भोजन से प्राप्त कैलोरी शरीर का भार या वज़न घटने से बचाती है, शरीर के ताप को संतुलित रखती है और कोशिकाओं, ऊतकों, ग्रन्थियों तथा अंगों को क्रियाशील रखता है।

ये सभी तत्त्व भोजन से ही प्राप्त होते हैं। इसलिए ये शरीर एवं भोजन दोनों का भाग हैं। इन तत्त्वों में से प्रत्येक का संक्षिप्त ज्ञान होना आवश्यक है; जिससे कि व्यक्ति अपनी आवश्यकता के अनुसार सम्पूर्ण एवं स्वस्थ भोजन ग्रहण कर सके।

योगसाधना से पूर्व व्यक्ति को अपने द्वारा ग्रहण किये जा रहे भोजन के तत्त्वों का ज्ञान होना आवश्यक है; जिससे वह यथोचित भोजन ग्रहण कर सके। इसलिए अब इन तत्त्वों को इनके कार्य एवं स्रोत या खाद्य पदार्थ के अनुसार स्पष्ट करेंगे। स्रोतों या खाद्य पदार्थ हेतु यह पहले ही जान लेना चाहिए कि हठयोग का प्रामाणिक साहित्य कभी भी मांसाहार की अनुमति प्रदान नहीं करता। स्रोतों में हम मांस से सम्बन्धी खाद्यों का भी उल्लेख मात्र जानकारी की दृष्टि से कर रहे हैं। शाकाहारी भोजन में मांसाहार के अनेक विकल्प हैं; इसलिए योगसाधक को शाकाहार ही करना चाहिए। इसके वैज्ञानिक तर्क हम पूर्व में ही प्रस्तुत कर चुके हैं; किन्तु यहाँ भी यह उल्लेख आवश्यक है कि मांसाहारी भोजन करने हेतु जो हिंसा की जाती है; उसको योगशास्त्र ने कभी भी अनुमति नहीं दी। योगशास्त्र का तो प्रारम्भ ही अहिंसा के अभ्यास से हुआ है। इसके लिए अनेक लोग यह तर्क देते हैं कि क्या पेड़-पौधों के ग्रहण किये जाने वाले भोजन में हिंसा नहीं होती। यहाँ यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि यह भी हिंसा कही जा सकती है; किन्तु उस स्तर की नहीं; इसमें अनेक तर्क हैं-

1. मात्र जीवित एवं स्वस्थ रहने की दृष्टि से जितना अनिवार्य है मात्र उतना ही पर्यावरण से ग्रहण करना। अर्थात् मूलभूत आवश्यकता की दृष्टि से भोजन करना, जीभ के स्वाद हेतु नहीं।

2. अहिंसा का आधारभूत सिद्धान्त पीड़ा से जुड़ा हुआ है; यह पीड़ा चेतना के स्तर पर निर्भर करती है; प्राणियों के चेतना का स्तर पेड़-पौधों की तुलना में अधिक है। उन्हें मारने से हिंसा का स्तर भी बढ़ जायेगा।

3. मात्र जीवन निर्वाह हेतु पर्यावरण से ग्रहण करने में भी यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि इसे कम से कम ही असंतुलित किया जाय।

4. पेड़-पौधों से ग्रहण किये जाने वाला-वाला भोज्य पदार्थ जैसे अनाज, फल तथा दूध आदि प्राकृतिक या नैसर्गिक रूप से ग्रहण किये जाते हैं। अर्थात् जैसे अनाज आदि वाले पौधों का जीवन उतना ही होता है; फल यदि हम नहीं खायेंगे तो वे झड़ेगे ही; दूध यदि हम नहीं पियेंगे तो वह भी किसी न किसी प्रकार से तो प्रयोग होगा ही; लेकिन इसमें हम पशुओं के जीवन को समाप्त नहीं करते। उनकी हत्या में जो पीड़ा होती है; उतनी पीड़ा हम पौधों को नहीं पहुँचाते।

5. इसलिए जीवन-निर्वाह हेतु मात्र शाकाहार ही बहुत है; मांसाहार के लिए निरीह पशुओं को मारना ठीक नहीं।

उपयुक्त समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही अग्रलिखित भोजन के तत्त्वों को जीवन-निर्वाह और स्वस्थता की दृष्टि से अपनाना योग की पूर्वशर्त या पूर्वापेक्षा है। अब भोजन के तत्त्वों, इनके कार्य एवं स्रोतों को स्पष्ट करंेगे।

भोजन के तत्त्व, इनके कार्य एवं स्रोत

प्रोटीन ः कार्य एवं इसके स्रोत

शरीर की समस्त कोशिकाएँ प्रोटीन से ही निर्मित हैं। वस्तुतः प्रोटीन्स अमीनो एसिड्स के संयोग से बने होते हैं। ये अमीनो एसिड्स संख्या में लगभग 22 होते हैं; जो कि सभी भोज्य पदार्थों में समान रूप से उपस्थित नहीं होते; किसी में कोई होता है; किसी में कोई अन्य होता है। ये अमीनो एसिड्स एक दूसरे से भिन्न रासायनिक संघटन वाले होते हैं। 10 एमीनो एसिड्स पोषण हेतु अत्यंत अनिवार्य हैं। ये पूर्ण प्रोटीन कहलाते हैं; एल्ब्युमिन, मायोसीन तथा कैसीन आदि इस श्रेणी में आते हैं। दस प्रोटीन्स के अतिरिक्त अन्य 12 प्रोटीन अपूर्ण होते हैं; उदाहरण के लिए जिलेटिन (अस्थियों को उबालने से निकलने वाला चिपचिपा पदार्थ) , ग्लूटीन एवं लेग्यूमिन आदि।

सम्पूर्ण भोजन से प्राप्त होने वाली कैलोरी का 12 से 15 प्रतिशत भाग प्रोटीन से ही प्राप्त किया जाना चाहिए। प्रोटीन के स्रोत निम्नलिखित हैं-

प्राणियों से प्राप्त-दूध एवं पनीर। (अण्डे एवं मांस में भी पाया जाता है; जिसे योगशास्त्र अनुमन्य नहीं करता।) मांस से मायोसीन एवं अंडे में एल्ब्युमिन नामक पूर्ण प्रोटीन्स होते हैं; किन्तु इसकी कमी पनीर में उपस्थित कैसीन तथा दूध में उपस्थित कैसीनोजन तथा लैक्टएल्ब्युमिन नामक प्रोटीन्स से हो जाती है।

वनस्पतियों से प्राप्त-गेहूँ एवं अन्य अनाज, दालें (मूंग, मसूर, मटर, सेम, सोयाबीन, आदि।) गेहूँ एवं अन्य अनाजों में ग्लूटीन एवं दालों में लेग्युमिन नामक अपूर्ण प्रोटीन होती है।

भोज्य पदार्थाें से जो प्रोटीन ग्रहण किया जाता है; वह आमाशय और आँतों में एंजाइम्स की सहायता से अमीनो एसिड्स में परिवर्तित हो जाते हंै; जो रक्त नलिकाओं द्वारा अवशाषित कर लिए जाते हैं। शेष जो अवशोषित नहीं हो पाते; वे यकृत या लीवर को चले जाते हैं; जहाँ वे ईंधन का कार्य करते हैं। ये शरीर को ऊष्मा और ऊर्जा प्रदान करते हैं। प्रोटीन के कार्य निम्नलिखित हैं-

 कोशिका की उपकला में उपस्थित प्रोटीन इसकी बाहरी संघातों से रक्षा करता है।

 प्रोटीन शरीर का निर्माण एवं टूट-फूट की मरम्मत करता है।

 जोड़ों को स्वस्थ रखने वाले आवश्यक लवण भी प्रोटीन से ही प्राप्त होते हैं।

 शारीरिक वृद्धि के लिए नाइट्रोजन आवश्यक है; प्रोटीन इस कमी को पूरा करता है। शरीर में ऊष्मा एवं ऊर्जा की कमी को पूर्ण करता है।

 जब शरीर को आवश्यक शर्करा एवं वसा नहीं मिल पाती तो प्रोटीन इस कमी को पूरा करता है।

 रोगों से लड़ने की क्षमता का विकास, मानसिक शक्ति में वृद्धि आदि भी प्रोटीन से होते हैं।

 एंजाइम, हॉर्मोन एवं शरीररक्षण हेतु स्रावित होने वाले सभी रसों का निर्माण प्रोटीन से होने कारण शरीर की समस्त चयापचयिक क्रियाओं में प्रोटीन का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

 शरीर में उपस्थित हीमोग्लोबिन, प्लाज्मा, अम्ल एवं क्षार का संतुलन बनाना भी प्रोटीन का ही कार्य है।

कार्बोहाइड्रेट ः इसके स्रोत एवं कार्य

कार्बोहाइड्रेट शरीर को शक्ति या ऊर्जा प्रदान करता है। वसा को पचाने हेतु भी कार्बोहाइडेªट्स की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में वसा अधपचा रह जाता है; जिससे एसीटोन उत्पन्न हो जाता है; यह ऐसिटोन जब रक्त में मिल जाता है; तो पेशियों में थकावट, सिरदर्द आदि का कारण बनता है। यदि एसिटोन अधिक हो जाय तो रक्त की अम्लता बढ़ाकर रक्त अम्लता नामक स्थिति उत्पन्न कर देता है; जो मूच्र्छा और मृत्यु का कारण भी बन सकता है। कार्बोहाइड्रेट भी जटिल रासायनिक संरचना युक्त होता है; इसको उसकी तात्त्विक जटिलता के अनुसार तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-

मोनोसैकेराइड्स-ये एक ही अणु या इकाई के बने होते हैं। इनके अन्तर्गत आने वाले ग्लूकोज, फ्रक्टोज (फलों की शर्करा) एवं गैलेक्टोज का अवशोषण सीधे आंत से ही हो जाता है।

डाईसैकेराइड्स-ये दो अणुओं के मिश्रण से बने कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं। इनके अन्तर्गत सूक्रोज, माल्टोज एवं लैक्टोज आते हैं। ये अवशोषित होने से पूर्व पाचक नली में एन्जाइमों द्वारा पचाये जाते हैं।

पॉलीसैकेराइड्स-ये बहुत से मॉनोसैकेराइड्स के अणुओं के संयोजन से बने अधिक जटिल कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं। इनके अन्तर्गत स्टार्च, ग्लाइकोजन, सेल्युलोज एवं डेक्सट्रिन्स प्रमुख कार्बोहाइडेªट आते हैं।

सम्पूर्ण भोजन से प्राप्त होने वाली कैलोरी का 50 से 55 प्रतिशत भाग कार्बोहाइड्रेट से ही प्राप्त किया जाना चाहिए। 1 ग्राम कार्बोहाइडेªट में लगभग 4 कैलोरी ऊर्जा उपस्थित रहती है। यह विभिन्न खाद्य पदार्थों से प्राप्त होती है; जो निम्नांकित हैं।

कार्बोहाइड्रेट के स्रोत

अनाज-गेहँू, चावल, मक्का एवं जौ आदि।

दालें-मटर, सेम एवं मसूर आदि दालों में।

भूमिगत सब्जियाँ-आलू, चुकन्दर एवं शकरकन्द आदि।

फल-केला एवं सेब आदि फलों का रस।

मीठा-चीनी एवं शहद

कार्बोहाइड्रेट के कार्य

 शरीर को ताप, ऊर्जा, प्रोटीन को कार्य करने में सहायता प्रदान करना, मांसपेशी निर्माण तथा बड़ी आंत को उत्तेजित करके मल-निष्कासन में सहयोग करना।

 कार्बोहाइड्रेट से प्राप्त ग्लूकोज शरीर में जाकर ग्लाइकोजन और वसा में परिवर्तित हो जाता है; जो आवश्यकता पड़ने पर फिर से ग्लूकोज में बदलकर शरीर को शक्ति प्रदान करता है।

 कार्बोहाइड्रेट की सहायता के बिना वसा अपना कार्य सही से नहीं कर सकेगा।

वसा या फैट ः इसके स्रोत एवं कार्य

शरीर में चर्बी वसा से तैयार होती है। यह दो प्रकार की होती है।

प्राणिज वसा-संतृप्त वसीय अम्ल या सैचुरेटेड फैट तथा ग्लीसरॉल।

वनस्पतीय वसा-असंतृप्त वसीय अम्ल एवं ग्लीसरॉल।

सामान्य स्थिति में प्रतिदिन के भोजन में कुल कैलोरी का 10 से 15 प्रतिशत वसा से मिलना चाहिए। वसा के स्रोत निम्नलिखित हैं-

प्राणिज वसा के स्रोत-दूध, पनीर, मक्खन एवं घी से प्राप्त होती है। मांसाहारी भोजन एवं मछली के तेल से प्राप्त होती है; इन्हें योगशास्त्र अनुमन्यता नहीं देता।

वनस्पतीय वसा-वसा के स्रोत-सरसों, मूंगफली, नारियल, तिल, जैतून आदि के तेल से प्राप्त। इसके अतिरिक्त सूखे मेवे; जैसे-बादाम, पिस्ता, काजू तथा अखरोट आदि से प्राप्त होती है।

वसा के कार्य

 शरीर की गर्मी या तापमान को बनाये रखना।

 ऊर्जा को बनाए रखना।

 शरीर में जमा रहकर आवश्यकता पड़ने पर ऊर्जा प्रदान करना।

 बाहरी आघातों से शरीर की रक्षा करना।

 त्वचा की चिकनाहट बनाये रखना।

 मांसपेशियों को शक्ति प्रदान करना।

 क्षय की गयी चर्बी की क्षतिपूर्ति करना।

 वसा आमाशय में स्रावित हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड को कम करता है।

 मल-निष्कासन में भी सहायक है; जिससे कब्ज नहीं होता।

 वसा में घुलनशील विटामिन्स जैसे-ए, डी, ई एवं के का परिवहन एवं भण्डारण करती है।

विटामिन के प्रकार, उनके स्रोत एवं कार्य

विटामिन शरीर की स्वस्थता एवं संतुलन के लिए अत्यंत आवश्यक तत्त्व हैं। इनके अभाव में अनेक रोग हो जाते हैं। भोजन पचाने से लेकर शक्ति प्रदान करने जैसे अनेक अलग-अलग प्रकार के कार्य अलग-अलग विटामिन करते हैं। विटामिन ए, बी, सी, डी एव ंके नामों से जाने जाते हैं। विटामिन बी के भी 1, 2, 6 एवं 12 नामों से अलग-अलग प्रकार होते हैं। विटामिन्स घुलनशीलता की दृष्टि से दो प्रकार के हैं-

1. वसा में घुलनशील विटामिन्स-विटामिन ए, डी, डी2, डी3, ई एवं के।

2. जल में घुलनशील विटामिन्स-विटामिन बी1, बी 2, बी 6, बी 12, बायोटीन, फॉलिक एसिड, इनोसिटोल, विटामिन बी 2 या निएसीन या निकोटिनिक एसिड, विटामिन बी5 या पैन्थेनिक ऐसिड, विटामिन-सी या एस्कार्बिक एसिड तथा कोलीन।

उपरोक्त विटामिन्स की घुलनशीलता के आधार पर इन्हें एक-एक कर विवेचित करेंगे।

वसा में घुलनशील विटामिन्स

विटामिन ए-वनस्पतियों से प्राप्त होने वाला कैरोटिन नामक पदार्थ जब शरीर में पहुँचता है; तो शरीर में उपस्थित एक विशेष रसायन से मिलकर विटामिन ए में परिवर्तित हो जाता है। इस विटामिन को वृद्धिकारक विटामिन के नाम से भी जाना जाता है।

विटामिन ए के स्रोत-कैरोटीन, दूध, मक्खन, हरी शाक-सब्जी, गाजर, टमाटर, ताजे फल, पपीते में अत्यधिक, आम, खुबानी, अखरोट और बादाम आदि में मिलता है।

विटामिन ए के कार्य-

 शारीरिक वृद्धि तथा अस्थियों की वृद्धि के लिए आवश्यक

 आँखों को लाभ तथा त्वचा की कोमलता बनाये रखने हेतु आवश्यक।

 संक्रमण से शरीर की रक्षा।

 आँखों के रेटिना में उपस्थित रॉड्स में पाये जाने वाले रंजक रोडोप्सिन को निर्मित करता है।

विटामिन ए की कमी से होने वाले प्रभाव-

 त्वचा को हानि, स्नायुओं को हानि, पायरिया, जुकाम, खांसी, निमोनिया तथा श्वसन तन्त्र के अनेक रोग हो जाते हैं।

 रतौंधी, वृद्धि अवरोध, संक्रमण के प्रति प्रतिरोध की शक्ति में कमी।

विटामिन ए की अधिकता के प्रभाव-

 वमन, सिरदर्द, भूख का अभाव, चिड़चिड़ापन, त्वचा उतरना, लम्बी हड्डियों में सूजन, दर्द तथा इनका मोटा होना, प्लीहा एवं यकृत का बढना तथा अनेक स्थानों से बालों का झड़ना आदि

विटामिन डी-यह दो तत्त्वों का सम्मिलित रूप है-सूर्य की सुबह वाली किरणों से प्राणियों की त्वचा में निर्मित होता है एवं वनस्पति से मिलने वाले पदार्थ से निर्मित होता है। इन दोनों तत्त्वों को सम्मिलित रूप से विटामिन डी कहा जाता है। यह आॅक्सीजनीकरण तथा पकाने से नष्ट नहीं होता। सुबह की धूप जब त्वचा पर पड़ती है तो त्वचा के नीचे उपस्थित एक विशेष रसायन विटामिन डी में परिवर्तित हो जाता है। इसके अतिरिक्त दूध एवं मक्खन में भी पाया जाता है। वसाकणों के साथ इसका भी आंतों में अवशोषण होता है। इसका यकृत, गुर्दे, एड्रिनल ग्रन्थि एवं हड्डियों में संचित होता है। विटामिन डी के मुख्य स्रोत-

 मछली का तेल, यकृत, दूध, अण्डे की जर्दी, त्वचा में उपस्थित अर्गेस्टेरॉल पर सूर्य किरणों की अल्ट्रावॉयलेट किरणों के पड़ने से भी उत्पन्न होता है।

विटामिन डी के मुख्य कार्य-

 पाचन नली में कैल्शियम-फॉस्फोरस आदि का अवशोषण।

 हड्डियों में कैल्शियम के जमे रहने में सहायक।

 हृद्य की क्रिया को सामान्य बनाये रखना।

विटामिन डी की कमी से होने वाले प्रभाव-

 बच्चों में रिकेट्स नामक रोग हो जाता है। इस रोग में हड्डियाँ टेढ़ी हो जाती हैं।

 जोड़ों में सूजन, घुटनों में दर्द, रीढ़ की हड्डी में टेढ़ापन तथा दांत निकलने में विलम्ब जैसी समस्याएँ हो जाती हैं।

 गर्भ एवं स्तनपान के समय महिलाओं में भी इस विटामिन की कमी हो जाती है।

 उपरोक्त के अतिरिक्त अनिद्रा आदि की समस्या भी हो जाती है।

विटामिन डी2-यह पेड़-पौधों से निर्मित होता है।

विटामिन डी3-यह प्राकृतिक रूप से प्राणियों में निर्मित होता है।

विटामिन ई-यह वसा में घुलनशील है एवं अधिक ताप से नष्ट नहीं होता।

विटामिन ई की कमी से होने वाले प्रभाव-

 लाल रक्त कोशिकाओं को टूटने से रोकना एवं हीमोग्लोबिन को प्लाज्मा में मुक्त होने से रोकना

 स्त्री-पुरुष में संतानोत्पत्ति की शक्ति को स्थिर रखना, गर्भधारण के पश्चात् उसकी रक्षा एवं विकास करना।

 पेशियों एवं तन्त्रिकाओं को शक्ति प्रदान करना एवं एन्टिआॅक्सीडेन्ट्स के रूप में कार्य करना, जिससे उम्र बढ़ने के प्रभाव कम हो जाते हैं।

 वायु-प्रदूषण से शरीर में प्रवेश होने वाले हानिप्रद तत्त्वों से रक्षा करना जैसे कार्यों में सहयोगी है।

विटामिन ई के मुख्य स्रोत-यकृत, हरी पत्तेदार सब्जी, गेहूँ के अंकुर, उनसे निकले तेल, अंकुरित अनाज, सोयाबीन, जैतून तेल, नारियल तेल, बिनौला तेल, घी, ताजे मक्खन, टमाटर, गाजर एवं सूखे मेवों में मिलता है।

विटामिन के-यह आंतों में स्वयं ही निर्मित होता रहता है; इसकी आवश्यकता स्वयं ही पूर्ण होती रहती है। यह सूर्य के प्रकाश से नष्ट हो जाता है।

विटाामिन 'के' के मुख्य स्रोत-

 आन्त्रीय जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित होता है।

 यकृत, मक्खन, हरी शाक-सब्जियों, गोभी, आलू, टमाटर तथा सोयाबीन से प्राप्त होता है।

विटाामिन 'के' के कार्य-

 यकृत में प्रोथ्रॉम्बिन के संश्लेषण में सहायता करना।

 रक्तस्राव रोकना, ग्लूकोज को कोशिका में पहंुचाना और ग्लूकोज को ग्लाइकोजन में परिवर्तित करने में सहायता करना जैसे कार्य करता है। विटाामिन 'के' की कमी से प्रभाव-

 रक्त का थक्का नहीं बन पाता, जिससे चोट आदि में रक्तस्राव लम्बे समय तक होता रहता है।

विटाामिन 'के' की अधिकता से प्रभाव-पीलिया, रक्ताल्पता तथा जठरान्त्र सम्बन्धी समस्याएँ।

जल में घुलनशील विटामिन्स

विटामिन बी कॉम्पलैक्स

आपस में सम्बद्ध अनेक विटामिन्स के समूह विटामिन बी कॉम्प्लैक्स को कहा जाता है। इन्हें अग्र विवेचन से समझा जा सकता है।

विटामिन बी1 (थायमिन हाइड्रो-क्लोराइड)

विटामिन बी1 के मुख्य स्रोत-

यह हरी सब्जी, हरी मटर, छिलके सहित एवं खमीर से प्राप्त होता है।

विटामिन बी1 के मुख्य कार्य-कार्बोहाइडेªट के पूर्ण अवशोषण एवं चयापचय हेतु इस विटामिन की उपस्थिति अनिवार्य है। स्तनपान करने वाली महिलाओं को इसकी आवश्यकता अधिक होती है।

विटामिन बी1 कमी से प्रभाव-

 हाथ-पैरों में दर्द, जलन एवं विकास में बाधा आदि।

 कब्ज, भूख में कमी, कब्ज, अफारा, पेचिश आदि।

 तन्त्रिकाशोथ तथा मानसिक अवसाद जिससे सिरदर्द, कानों में भन्नाहट, आँखों में अँधेरा छाना, चक्कर आना, भूलने की आदत तथा चिंता आदि समस्याएँ हो जाती हैं।

 अधिक समय तक इसकी कमी से बेरी-बेरी रोग हो जाता है।

विटामिन बी2

विटामिन बी2 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, दूध, पनीर, अण्डे की सफेदी, यकृत, सोयाबीन, फल, मूंगफली, हरी सब्जी, हरी मटर एवं खमीर।

विटामिन बी2 के मुख्य कार्य-

 शरीर में वायु का संतुलन करना, चर्मरोगों से बचाना तथा युवावस्था की रक्षा

 हृद्य, यकृत, पाचन ग्रन्थियों, मांसपेशियों एवं गुर्दों को शक्ति प्रदान करना।

विटामिन बी2 कमी से प्रभाव-

 मोतियाबिन्द, आँखों की कॉर्निया के चारों ओर लाली होना, आंखों में जलन एवं आंखों से पानी बहना।

 त्वचाशोथ, जीभ पर छाले, होंठ फटना, त्वचा पर चकते,

 वमन, दस्त, वृद्धि रुकना, असमय वृद्धावस्था।

विटामिन बी3 या निएसीन या पिकोटेनिक एसिड

विटामिन बी3 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, फलों के गूदे, खमीर, समुद्री खाद्य पदार्थ, मूंगफली, यकृत तथा चूजे का मांस।

विटामिन बी3 के मुख्य कार्य-

 कार्बोहाइडेªट के चयापचय में सहयोग करना।

 कोलेस्टेरॉल सान्द्रता को घटाना।

 सेक्स हॉर्माेन के उत्पादन में सहयोग करना।

विटामिन बी3 कमी से प्रभाव-

 पेलेग्रा रोग; जिससे त्वचा जठरान्त्र की विक्षतियाँ होती हैं, पाचन विकृति आदि

 मानसिक विकृतियाँ भी हो जाती हैं।

विटामिन बी5 पेन्टोथेनिक एसिड

विटामिन बी5 के मुख्य स्रोत-खमीर, यकृत, दाल, हरी सब्जी तथा अण्डा।

विटामिन बी5 के मुख्य कार्य-

 उचित वृद्धि करना।

 विटामिन एवं ऊर्जा का यथोचित उपयोग करना।

विटामिन बी5 कमी से प्रभाव-

 थकान, निद्रा विकार, हृद्य विकार। विटामिन बी6

विटामिन बी6 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, दूध, यकृत, सोयाबीन, केले, मूंगफली, खमीर, मांस-मछली एवं अंडे की जर्दी।

विटामिन बी6 के मुख्य कार्य-

 त्वचा-रोगों से रक्षा,

 प्रोटीन एवं फैटी एसिड को पचाने में सह एन्जाइम के रूप में कार्य करना।

 प्लाज्मा मेम्ब्रेन से होकर एमीनो एसिड्स का परिवहन एवं हीमोग्लोबिन के निर्माण में सहयोग।

विटामिन बी6 कमी से प्रभाव-

 त्वचाशोथ, स्नायविक विकार, संवेदी तन्त्रिकाओं के रोगों के कारण कम्पन, चलने-फिरने में कष्ट होना, चिड़चिड़ापन एवं घबराहट।

 जीभ सूजना, कमजोरी, अनिद्रा, भूख न लगना,

 अधिक मूत्र, मूत्राशय व गुर्दे में पथरी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

विटामिन बी7 या बायोटीन

बायोटीन के मुख्य स्रोत-यकृत, खमीर, शाक-सब्जी तथा अण्डा।

बायोटीन के मुख्य कार्य-

 कार्बोहाइड्रेट का चयापचय

 कोशिका वृद्धि एवं वसीय अम्ल उत्पादन में सहयोगी।

बायोटीन की कमी से प्रभाव-

 पपड़ीदार त्वचाशोथ।

 पेशियों में दर्द, दुर्बलता, अनिद्रा, डिप्रेशन तथा थकान।

विटामिन बी9 फॉलिक एसिड या फॉलीसिन

फॉलिक एसिड के मुख्य स्रोत-यकृत, पत्तेदार हरी सब्जी, दूध एवं अण्डा।

फॉलिक एसिड के मुख्य कार्य-

 न्यूक्लियक एसिड के चयापचय मेंं एवं डी एन ए निर्माण के लिए कार्बन न्यूट्रिऐन्ट्स के ट्रान्सफर के लिए आवश्यक।

 रक्त कणों के निर्माण और इनकी पािरपक्वता में सहयोगी।

 वृद्धि, जनन एवं पाचन में योगदान देता है।

फॉलिक एसिड कमी से प्रभाव-

 लाल रक्त कणिकाओं की अपरिपक्वता, रक्ताल्पता एवं जठरान्त्र सम्बन्धी गड़बड़ियाँ तथा दस्त।

विटामिन बी12 या कोबालमिन

विटामिन बी12 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, दूध, यकृत, सोयाबीन, केले, मूंगफली, खमीर, मांस-मछली एवं अंडे की जर्दी।

विटामिन बी12 के मुख्य कार्य-

 आर एन ए के संश्लेषण में सहयोगी।

 रक्त की कमी को दूर करने में सहयोगी।

 रक्त कणों के निर्माण और इनकी पािरपक्वता में सहयोगी।

 कार्बोहाइडेªट के पाचन में योगदान देता है।

विटामिन बी12 कमी से प्रभाव-

 रक्ताल्पता, स्नायविक विकार एवं सर्वांगीण दुर्बलता।

इनॉसिटोल

इनॉसिटोल के मुख्य स्रोत-फल, मेवे, सब्जियाँ, दूध एवं खमीर।

इनॉसिटोल के मुख्य कार्य-

 चयापचय में सहयोग करना

 कोलेस्टेरॉल सान्द्रता को घटाना

 धमनियों के कठोर होने की प्रक्रिया को कम करना।

इनॉसिटोल कमी से प्रभाव-

 बाल झड़ना, कब्ज एवं यकृत पर वसा जमा होना।

कोलीन:

कोलीन के मुख्य स्रोत एवं कार्य

हरी पत्तेदार सब्जियाँ इसका स्रोत हैं। यह फॉस्फोलिपिड्स का एक भाग होता है तथा एसीटाइलकोलीन का पूर्वगामी होता है। प्रायः इसकी कमी नहीं होती।

विटामिन-सी

विटामिन-सी के मुख्य स्रोत-खट्टे फल जैसे-नींबू, सन्तरा, आँवला, टमाटर, हरी मिर्च, आलू, फूलगोभी तथा शलजम एवं हरी सब्जियाँ।

विटामिन-सी के मुख्य कार्य-

 ऑक्सीकरण प्रतिक्रियाओं में सहयोग, कॉलेजन संश्लेषण एवं उसे बनाये रखने में सहयोगी।

 हड्डियों एवं दांतों के निर्माण में सहयोग करना।

 नजला-जुकाम-खाँसी को ठीक करने, श्वास-नलिका एवं कंठ की कोशिकाओं को मज़बूत बनाने में सहयोग करना।

 घावों को ठीक करना तथा हड्डियों को जोड़ने में सहायता करना।

 लाल एवं श्वेत रक्त कोशिकाओं की परिपक्वता में सहयोगी।

विटामिन-सी की कमी से प्रभाव-

 स्कर्वी रोग, दांतों के मसूढे फूलना, उनसे रक्तस्राव होना अस्थियाँ कमजोर होना आदि जैसी समस्याएँ हो जाती हंै।

 नजला-जुकाम-खाँसी शीघ्रता से होना।

 संयोजी ऊतक तन्तुओं का ह्रास, सामान्य विकास में बाधा।

 रक्ताल्पता व संक्रमण की अधिकता होना।

विटामिन-सी की अधिकता से प्रभाव-गुर्दे में पथरी हो जाना।

खनिज लवण ः प्रकार, कार्य एवं स्रोत

खनिज लवण मौलिक तत्त्व हैं; और ऐसे पदार्थ हैं; जो सीधे ग्रहण नहीं किए जाते; किन्तु इनके रासायनिक यौगिक विभिन्न खाद्य-पदार्थों में पाये जाते हैं; इसलिए इनके द्वारा ही इन खनिज लवणों का भी लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इनमें से कैल्शियम, फॉस्फोरस, सोडियम, क्लोराइड, मैग्नीशियम, पोटेशियम, सल्फर, लौह या आयरन, तांबा या कॉपर, जिंक, आयोडीन, फ्लोरीन, कोबाल्ट, क्रोमियम, मैगनीज एवं सेलिनियम आदि जैसे खनिज लवण प्रमुख हैं।

कैल्शियम-हड्डियाँ एवं दाँत इसी से निर्मित होते हैं। यह रक्त में भी उपस्थित रहता है तथा इससे हृद्य को फैलने एवं सिकुड़ने तथा एंजाइम के निर्माण में सहयोगी है, ग्लाइकोजन के चयापचय में सहयोगी तथा मस्तिष्क की क्रियाशीलता को बनाये रखने जैसे कार्य करता है। इसकी कमी से बच्चों में टिटेनी तथा रिकेट्स रोग एवं वयस्कों में अस्थि सुषरता या आॅस्टियोपोरेसिस रोग हो जाते हैं। इसकी अधिकता से कोमल ऊतकों में कैल्शियम जमा हो जाने पर रक्तचाप बढ़ जाता है। दूध, पनीर, पालक, मेथी, तिल, सोयाबीन, आँवला एवं गाजर में पाया जाता है।

फॉस्फोरस-यह दाँतों, हड्डियों और स्नायुओं के लिए मुख्य घटक तथा पाचक रस की क्रियाशीलता में आवश्यक है। इसकी कमी से व्यक्ति मंदबुद्धि तक हो सकता है। इसके अतिरिक्त तन्त्रिका तन्त्र की गड़बड़ियाँ हो जाती हैं। पैरों में चींटी रेंगने जैसी अनुभूति तथा सुई चुभने जैसी अनुभूति होती है। यह कार्बोहाइडेªट एवं वसा के पाचन में सहायक है। खमीर एवं चोकर युक्त आटे, चावल, सोयाबीन, तिल, चने, मूंगफली, गाजर, हरे शाक, सलाद, दाल एवं सूखे मेवों आदि से प्राप्त होता है।

सोडियम-यह आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड के उत्पादन; जिससे भोजन का पाचन सुचारू रूप से हो सके। साथ ही ग्लूकोज को कोशिकाओं तक पहुँचाने में भी सहयोगी है। यह शरीर को विषमुक्त रखता है। इसकी कमी से मूत्राशय और गुर्दे में पथरी हो सकती है; हाथ पाँव में ऐंठन, जी मिचलाना एवं उल्टी भी हो सकती है। अधिक होने पर उच्च रक्तचाप की समस्या एवं सूजन उत्पन्न करता है। हमारे द्वारा खाये जाने वाले नमक (सोडियम क्लोराइड) से यह प्राप्त होता है।

पोटेशियम-मांसपेशी गठन, तन्तुओं का लचीलापन और स्नायुमंडल के लचीलेपन में सहयोगी है। यह हृद्य की मांसपेशी संचालन में सहयोगी है; जिससे रक्त-परिसंचरण सुचारू रूप से हो सके। इसकी कमी से प्रोटीन का अवशोषण ठीक से नहीं हो पाता, प्यास अधिक लगती है, चक्कर आते हैं, साथ ही तनाव, अवसाद एवं मानसिक चिड़चिड़ापन भी होता है। अधिक होने पर हृद्य अवरोध कर देता है। अनाज, जड़ वाली सब्जियों, दूध, दही, छांछ एवं पनीर से प्राप्त होता है।

आयरन या लौहतत्त्व-यह लाल रक्त कणिकाओं में हिमोग्लोबिन की उपस्थिति द्वारा कार्बन डाई आॅक्साइड को फेफड़ों में पहुँचाकर आॅक्सीजन को ग्रहण कर अंग-प्रत्यंग में पहुँचाता है। नाइट्रोजन जैसे उत्सर्जी पदार्थाें को यह गुर्दे में पहुँचाता है। इसकी कमी से एनीमिया या रक्ताल्पता जैसे रोग हो जाते हैं; जिससे कमजोरी, थकान, भूख में कमी, श्वास फूलना, चेहरे का पीलापन तथा हाथ-पैरों में सूजन आदि समस्याएँ हो जाती है। अधिक होने पर भी सिरोसिस आॅफ लिवर नामक समस्या तथा रक्त युक्त दस्त जैसी समस्याएँ हो जाती हैं। यह हर प्रकार के हरे शाक, धनिया, पुदीना, चोकर, चावल की भूसी, दाल के छिलकों, सेब, चुकंदर, अनार, बैंगन एवं काले तिल आदि में पाया जाता है।

आयोडीन-यह भोजन के आत्मीकरण या अवशोषण में सहायक है। यह कैरोटीन को विटामिन ए में परिवर्तित करता है। यदि आयोडीन न हो या कम हो तो गले में स्थित थॉयरॉयड ग्रन्थि बड़ी हो जाती है। थॉयरॉयड के असंतुलन के कारण स्त्रियों में मासिक चक्र सम्बन्धी अनेक रोग, अधिक मोटापा और अनेक मानसिक रोग आदि हो जाते हैं। यह यदि अधिक भी हो तो भी थॉयरॉयड की क्रियाशीलता में बाधा डालता है। यह हरी शाक-सब्जी, अदरक, नमक और जल में पाया जाता है।

मैग्नेशियम-शरीर की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है। हड्डियों और दाँतों को मज़बूत करने के साथ ही यह स्नायुओं की शक्ति को स्थिर बनाये रखने में सहयोगी है। इसकी कमी से हाथ-पैरों में कम्पन एवं मानसिक अवसाद होता है। पनीर, दूध, अखरोट, गाजर, टमाटर तथा आलू में पाया जाता है।

मैगनीज-हीमोग्लोबिन एवं एंजाइम्स निर्माण में सहयोगी। यह त्वचा, यकृत, हड्डियों, क्लोम ग्रन्थि तथा बालों में उपस्थित रहता है। इसका मुख्य कार्य है-स्नायुओं को बल प्रदान करना, रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना तथा शरीर के विष को नष्ट करना। इसकी कमी से अल्प ऊतक श्वसन, अस्थिरोग, स्नायविक रोग एवं जननतन्त्र में गड़बड़ियाँ हो जाती हैं; किन्तु अधिक होने पर भी ऐसी ही गड़बड़ियाँ हो जाती हैं।

सल्फर या गंधक-प्रोटीन के समान आवश्यक है। यह शरीर की प्रत्येक कोशिका में उपस्थित होता है। यह रक्त की सफ़ाई तथा यकृत की कार्यक्षमता में स्थिरता जैसे कार्यों में सहायक हैं। प्रोटीन युक्त पदार्थांे में यह उपस्थित होता है। पनीर, गेहूँ के अंकुर, मसूर, सेम की फली, मूंगफली, हरी शाक-सब्जी, दालों एवं बादाम आदि से प्राप्त होता है।

कॉपर या ताँबा-हीमोग्लोबिन निर्माण, आंतों में लौह के उचित अवशोषण तथा कुछ एन्जाइम्स को बनाये रखने में सहयोगी। इसकी कमी से रक्ताल्पता, अस्थिरोग तथा श्वेत रक्त कोशिकाओं की कमी हो जाती है; किन्तु अधिक होने पर विल्सन रोग कर देता है। और जिन भोज्य पदार्थाें में लोहा होता है; उनमें सामान्य रूप से प्राप्त होता ही है। इसके अतिरिक्त यह हरी शाक-सब्जी, केला, संतरा और नाशपाती आदि में पाया जाता है।

एल्युमिनियम या जस्ता-यह लाल रक्त कोशिकाओं, हॉर्मोन्स एवं एंजाइमों में उपस्थित होता है। यह सामान्य भोजन के साथ ही गेहूँ के चोकर तथा अंकुर में प्राप्त होता है।

क्लोरीन-यह आमाशय के पाचक रस एवं पाचन में सहयोगी है। शरीर को विषमुक्त करता है तथा साथ ही जोड़ों की जड़ता को समाप्त करता है। अधिक होने पर पाचन में गड़बड़ी करता है। यह पालक, सलाद, पत्तागोभी, खीरा, टमाटर, केला एवं खजूर आदि में पाया जाता है।

जिंक-यह कोशिकाओं की वृद्धि एवं मरम्मत, स्वाद की अनुभूति, जननग्रन्थियों की सक्रियता से सम्बन्धित अनेक एंजाइम्स का भाग है; इसलिए इसकी कमी से इन सभी से सम्बन्धित समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसकी अधिकता से ज्वर, मिचली, वमन एवं दस्त हो जाते हैं। यह दूध, हरी सब्जी एवं मांस आदि से प्राप्त होता है।

फ्लोरीन-हड्डियों एवं दांतों को कठोर करता है, मुंह की जीवाणुओं को घटाता है। इसकी कमी से दांतों एवं हड्डियों को हानि तथा रक्ताल्पता हो जाती है; किन्तु अधिकता से दांत धब्बेदार हो जाते हैं। यह दूध एवं चाय, फ्लोराइड युक्त जल से प्राप्त होता है।

कोबाल्ट-लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण में सहयोगी। इसके अभाव में रक्ताल्पता होती है; किन्तु अधिकता से त्वचा एवं लाल रक्त कणिकाओं से सम्बन्धी रोग हो जाते हैं। दूध एवं मांस से प्राप्त होता है।

क्रोमियम-ग्लूकोज के चयापचय एवं इन्सुलिन निर्माण में सहयोगी। इसके अभाव से ग्लूकोज चयापचय में कमी आ जाती है; परन्तु अधिक होने से त्वचा एवं गुर्दे के रोग हो जाते हैं। सब्जी, गेहूँ के आटे, मांस एवं खमीर आदि से प्राप्त होता है।

सेलिनियम-चयापचय, एन्जाइम्स निर्माण तथा प्लाज्मा मेम्ब्रेन को टूटने से बचाता है इसलिए ऐन्टीआॅक्सीडेन्ट है। इसकी कमी से रक्ताल्पता हो जाती है; किन्तु इसकी अधिकता से जठरान्त्र तथा फेफड़ों की गड़बड़ियाँ हो जाती हैं। यह अधिकांश भोज्य पदार्थों में मिलता है।

जीवन हेतु अनिवार्य जल

जल ही जीवन है; यह कोई अतिशयोक्ति नहीं अपितु सत्य है। वैज्ञानिक अनुसंधान भी यह मानते हैं कि जीवन के उत्पत्ति जल से ही हुई है। अन्य प्राणियों के समान ही; मनुष्य का जीवन भी जल के अभाव में अकल्पनीय है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। शरीर के भार का लगभग 60 प्रतिशत भाग जल या पानी से निर्मित है। हाइड्रोजन के दो परमाणु तथा आॅक्सीजन का एक परमाणु मिलकर जल (भ्2व्) का निर्माण करते हैं। जल शरीर की समस्त कोशिकाओं में उपस्थित प्रोटोप्लाज्म या जीवद्रव्य का आवश्यक तथा मुख्य घटक है। शरीर में होने वाली अनेक रासायनिक प्रतिक्रियाएँ; जैसे-कोशिकीय श्वसन तथा कार्बोहाइडेªट्स, लिपिड्स एवं प्रोटीन्स का जल अपघटन जल के माध्यम से होते हैं।

जल के मुख्य कार्य-

1. शरीर की समस्त उपापचयिक क्रियाओं को सुचारू रूप से चलाना।

2. रक्त के माध्यम से समस्त महत्त्वपूर्ण रसायनों को सम्पूर्ण शरीर में पहुँचाना।

3. शरीर के तापमान को संतुलित बनाये रखता है।

4. शरीर में निर्मित त्याज्य पदार्थों जैसे मल-मूत्र एचं पसीने आदि को शरीर से निष्कासित करता है।

5. पाचक द्रव एवं स्नेहक (स्नइतपबंदजे) बनाता है। शरीर में जल की कमी से प्यास लगती है। इसकी कमी से रक्त गाढ़ा हो जाता है; उसके विकार अच्छी तरह से दहन हो जाते हैं। इसकी कमी से पाचन शक्ति ठीक नहीं रहती है। गुर्दाें में पथरी, मूत्र गाढ़ा होना एवं गठिया आदि।

भोजन के तत्त्वों को जानने के उपरान्त इसको ग्रहण करने सम्बन्धी आवश्यक नियमों का उल्लेख आवश्यक है। ये नियम निम्नांकित हैं।

भोजन ग्रहण करने सम्बन्धी आवश्यक नियम

1. भोजन ताज़ा ही करना चाहिए; यदि थोड़ी देर रखना भी हो तो ढककर रखना चाहिए एवं थोड़ा-सा गर्म करके ही उसे ग्रहण करना चाहिए; किन्तु अधिक बासी भोजन तो कदापि नहीं करना चाहिए।

2. भोजन करते समय वह ना तो अधिक गर्म हो ना ही अधिक ठंडा।

3. भोजन के तुरन्त पहले या तुरन्त बाद में एक साथ अधिक जल नहीं पीना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो एक-एक घूंट बीच-बीच में पी सकते हैं। साथ ही भोजन से एक घण्टे पहले या एक घण्टे बाद ही अधिक मात्रा में जल पी सकते हैं।

4. भोजन स्वच्छ, शुद्ध एवं कीटाणुरहित होना चाहिए।

5. भोजन सजा हुआ, दिखने में रुचिकर, स्वच्छ वातावरण में तथा मानसिक सन्तुष्टि देने वाला होना चाहिए। भोजन मात्र शरीर की पूर्ति हेतु नहीं मस्तिष्क की संतुष्टि हेतु भी किया जाता है।

6. सवेरे का भोजन नित्यकर्म-शौच, मंजन, स्नानादि के उपरान्त ही करना चाहिए। नाखून अच्छे से कटे हुए होने चाहिए; अन्यथा भोजन के साथ प्रदूषित पदार्थ भी शरीर के भीतर जा सकते हैं; जिससे रोग होने निश्चित हैं।

7. सवेरे के अतिरिक्त अन्य समय भी भोजन स्वच्छता के साथ अर्थात् मुंह-हाथ अच्छे से धोकर ही करना चाहिए।

8. भोजन शान्त एवं प्रसन्न होकर, धीरे-धीरे, चबाकर तथा बिना किसी व्यवधान के एकाग्र होकर करना चाहिए।

9. भोजन करते समय टी वी, अखबार, बातें करना, हंसना, रोना, गाना, चलना-फिरना तथा अन्य कोई भी कार्य करना आदि वर्जित है; अर्थात् भोजन सुखपूर्वक बैठकर ही करना चाहिए। भोजन करते समय वस्त्र ढीले होने चाहिए।

10. भोजन आवश्यकता के अनुसार ही ग्रहण करना चाहिए; मात्र स्वाद के लिए कभी भी तथा कुछ भी खाना या ठूंस-ठूंस कर खाना ग़लत है। भूख तेज लगने पर ही भोजन करना चाहिए।

11. नियत समय के अनुसार ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। सप्ताह में एक दिन फलाहार वाला व्रत लाभकारी है। यह स्वास्थ्य को ठीक रखता है।

12. रात के भोजन के उपरान्त तुरन्त सोना और कोई तेजी वाला शारीरिक कार्य करना भी वर्जित है। भोजन के कुछ देर बाद जब भी लेटना हो बांयी करवट ही लेटना चाहिए।

भोजन के तत्त्वों एवं अन्य पक्षों के उपरान्त योगसाधना हेतु आदर्श दिनचर्या अगली पूर्वापेक्षा है। यह इस प्रकार समझी जा सकती है-

आदर्श दिनचर्या

आदर्श दिनचर्या में कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।

1. प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए एवं रात्रि के समय शीघ्र ही सो जाना चाहिए। स्वस्थ रहने के लिए कम से कम सात घंटे सोना आवश्यक है; किन्तु उससे अधिक सोना तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ाता है। इसलिए जब तक कि स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई समस्या ना हो इससे अधिक शैय्या पर भी नहीं रहना चाहिए।

2. प्रतिदिन प्रातः उठकर शौच, दंतमंजन, स्नान तथा ध्यान आदि नित्यकर्म अवश्य करने चाहिए।

3. सामान्य जीवन में जो जिस क्षेत्र में हो; जिसका जो कार्य हो; उसे वह मन लगाकर एवं निष्काम भाव से करना चाहिए। इसके साथ-साथ योगाभ्यास अवश्य करना चाहिए। यह स्वस्थ एवं प्रसन्न रहकर कर्मठ रहने हेतु आवश्यक है। प्रतिदिन कुछ स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।

4. माता-पिता, गुरु एवं देवता नित्य ही पूजनीय हैं; इनका एवं अपने से बड़ों का सदैव सम्मान करना चाहिए। साथ ही किसी का भी अपमान नहीं करना चाहिए; कटुवचनों के प्रयोग से बचना चाहिए। मीठा ही बोलना चाहिए; इससे सकारात्मकता वातावरण निर्मित होता है।

5. हमेशा प्रसन्नचित्त एवं संतुष्ट रहना चाहिए।

6. प्रतिदिन कुछ समय निःस्वार्थ भाव के परोपकार युक्त कार्यों को भी देना चाहिए।

स्थान एवं समय

1. योगाभ्यास का स्थान खुला, स्वच्छ, मच्छर-मक्खी रहित, वायुयुक्त, शान्त, प्रदूषणरहित, एवं एकान्त होना चाहिए।

2. योग साधना हेतु सामान्य रूप से प्रातःकाल एवं सायंकाल का समय उचित है; किन्तु यह सामान्य नियम है; कुछ विशेष अभ्यासों हेतु कुछ विशेष समय निर्धारित होते हैं; इसलिए उनमें गुरु के निर्देशानुसार ही अभ्यास का समय निर्धारित करना चाहिए।

आवृत्ति

प्रत्येक अभ्यास में निर्देशित तथा गुरु द्वारा बतायी गई आवृत्ति ही न्यूनतम या अधिकतम होनी चाहिए। आवृत्तियों में क्षमता का ध्यान रखना अनिवार्य है।

वातावरण

खुला, सूर्य की किरणों से युक्त, समशीतोष्ण, हवादार लेकिन अधिक हवा भी न हो, स्वच्छ, प्रदूषणरहित, एकान्त एवं शान्त वातावरण वाला स्थान योगाभ्यास हेतु उपयुक्त है।इ ईश्वर प्रणिधान

ईश्वर-प्रणिधान का अर्थ है अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के दृष्टि से सकारात्मक कर्म करते हुए समस्त कर्म ईश्वर को ही साक्षी मानकर उसी को समर्पित करते हुए करना। किसी भी प्रकार का अभिमान न होना एवं ईश्वर को ही जीवन का आधार तथा ईश्वर अनुभूति को जीवन का मुख्य लक्ष्य मानना।

योगाभ्यास हेतु ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास होना चाहिए। योगदर्शन में ईश्वर को काल से अविच्छिन्न, पुरुषविशेष तथा गुरुओं का भी गुरु अर्थात् आदिगुरु कहा गया है। पुरुष का अर्थ आत्मा या चैतन्य से है; इसलिए पुरुषविशेष का अर्थ है; विशेष चैतन्य अर्थात् जो चेतना का उच्चतम स्तर हो। ऐसी चेतना विशेष को गुरुओं का भी गुरु कहा गया है। फिर बताया गया है कि प्रणव उसका वाचक है अर्थात् प्रणव के द्वारा ही ईश्वर को याद करना या पुकारना चाहिए। प्रणव या ऊँ में अ, उ एवं म तीन वर्ण हैं; जिनको रचनाशक्ति या ब्रह्मा, पालनशक्ति या विष्णु तथा संहारशक्ति या महेश के वर्णाक्षर स्वरूप माना गया है। ये तीनों वर्ण मिलकर प्रणव के रूप में ईश्वर के वाचक कहे गये हैं। योग में प्रवृत्त होने वाले साधकों को प्रणव में आस्था रखना आवश्यक है। प्रणव जप करते हुए प्राणायाम एवं ध्यान तथा अन्य योगाभ्यासों में सफलता प्राप्त होती है। नयी खोजों के आधार पर माना गया है कि प्रणव की ध्वनि करने से नकारात्मकता समाप्त होती है; व्यक्ति एवं वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

भारतीय सभ्यता में तो यह तक माना गया है कि सृष्टि को सर्जन इसी आंेकार से हुआ है; यह यदि अप्रमाणित सत्य भी माना जाय तब भी आंेकार ध्वनि के अपने व्यावहारिक लाभ तो हैं ही; यह तो वैज्ञानिक भी प्रमाणित कर चुके हैं। वैसे भी अध्यात्म विज्ञान से भी आगे का विषय है। यह अनुभूति का विषय है तर्क एवं प्रमाणों द्वारा नहीं समझा जा सकता। यह इसममें प्रवृत्त होकर योगाभ्यास को अपनाकर तथा इसके प्रभावों को अनुभव करके ही समझा जा सकता है। इसलिए योग के पथ पर अग्रसर होने हेतु ईश्वर-प्रणिधान आवश्यक है।

वर्तमान काल में योग की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए एक तथ्य को स्पष्ट करना अनिवार्य है। विविध पंथों, धर्माें, जाति या सम्प्रदाय के व्यक्तियों की आस्था ईश्वर के विभिन्न रूपों में हो सकती है। ऐसा होने पर व्यक्ति अपने आस्थानुसार ईश्वर के प्रतीक का चयन कर सकता है; किन्तु आस्तिकता होनी आवश्यक है। यह आस्तिकता योगाभ्यास में सफल होने हेतु आवश्यक है।

निष्ठा एवं विश्वास

योग की पूर्वापेक्षाओं में से यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा है। योग के समस्त अभ्यासों को करते हुए गुरु, अभ्यास की प्राप्तियों तथा साधनापथ में पूर्ण निष्ठा एवं विश्वास होना चाहिए। यदि निष्ठा नहीं होगी तो साधना का अपेक्षित फल प्राप्त नहीं होगा; अपितु निष्ठा एवं विश्वास के अभाव में कई बार लाभ के स्थान पर भ्रम होने से मानसिक उद्वेग जैसी स्थिति भी उत्पन्न होनी सम्भव है।

इस प्रकार इस अध्याय में विभिन्न आधारों पर कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में आध्यात्मिक उन्नति हेतु किया जाने वाला योग; आधुनिक काल में यह विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना आवश्यक है। इसके साथ ही इसको इसकी पूर्वापेक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुए प्रारम्भ करना चाहिए। जब भी शारीरिक लाभों की बात होती है तो एक प्रश्न प्रायः पूछा जा सकता है कि शारीरिक व्यायाम भी तो शरीर पर अनुकूल प्रभाव डालते हैं तो फिर योग ही क्यों किया जाय? इसका उत्तर जानने हेतु हमें योगाभ्यास एवं व्यायाम के मूलभूत अन्तरों को जानना होगा।

योगाभ्यास एवं व्यायाम के मूलभूत अन्तर

1. शारीरिक लाभों की दृष्टि से व्याया मात्र सतही लाभ पहुँचाते हैं; श्वासों की लयबद्धता, गहन श्वसन, आंखें बन्द करके प्राप्त होने वाली विश्रान्ति तथा स्थिरता जैसे लक्षण व्यायाम में नहीं हैं; मात्र आसन आदि में हैं। इसलिए आसन आदि व्यायाम से अधिक समय तक एवं अधिक प्रभावी ढंग से व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हैं।

2. पेशियों का फैलना-सिकुड़ना आदि आसनों में अधिक लयबद्ध एवं दीर्घ होता है; जिससे व्यायाम के लाभ मिलने के साथ ही हॉर्मोन्स आदि पर भी अधिक गहरा एवं सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आसनों द्वारा तन्त्रिकातन्त्र एवं अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की समरसता पर व्यायाम की तुलना में अधिक दीर्घकालीन प्रभाव पड़ते हैं।

3. योगाभ्यास से मिलने वाले मानसिक लाभ व्यायाम की तुलना में अधिक प्रभावी एवं दीर्घकालीन हैं। तनाव एवं अवसाद आदि मानसिक रोगों को दूर करते हुए योगाभ्यास अधिक शान्ति एवं मानसिक स्थिरता हेतु व्यायाम की तुलना में अधिक श्रेष्ठ हैं।

4. व्यायाम मात्र शारीरिक लाभ तो प्रदान करता है; परन्तु योगाभ्यास के यम तथा नियम आदि के पालन का अवसर मात्र योगदर्शन ही प्रदान करता है। ऐसा होने से स्पष्ट है कि व्यक्ति एवं समाज को नैतिकता के चरम पर ले जाने वाले अनुशासन के प्रारम्भिक चरणों हेतु भी योगाभ्यास शारीरिक व्यायाम से अधिक श्रेष्ठ है।

5. प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान के आध्यात्मिक फल मात्र योगाभ्यास के द्वारा ही प्राप्त होते हैं; अतः इस कारण भी योगाभ्यास व्यायाम से अधिक श्रेष्ठ है।

6. योगाभ्यास प्रत्येक उम्रवर्ग के लिए प्रभावी एवं सहज है।

इसलिए दीर्घकालीन परिणामों, व्यक्तिगत परिष्करण एवं सामाजिक उत्थान हेतु योगाभ्यास व्यायाम से अधिक श्रेष्ठ है। योगाभ्यास के प्राथमिक अंगों के रूप में राजयोग में निर्देशित यम एवं नियम को स्पष्ट करना आवश्यक है। इसलिए अगले अध्याय में हम यम एवं नियम के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्षों को स्पष्ट करेंगे।

2. जल में घुलनशील विटामिन्स-विटामिन बी1, बी 2, बी 6, बी 12, बायोटीन, फॉलिक एसिड, इनोसिटोल, विटामिन बी 2 या निएसीन या निकोटिनिक एसिड, विटामिन बी5 या पैन्थेनिक ऐसिड, विटामिन-सी या एस्कार्बिक एसिड तथा कोलीन।

उपर्युक्त विटामिन्स की घुलनशीलता के आधार पर इन्हें एक-एक कर विवेचित करेंगे।

वसा में घुलनशील विटामिन्स

विटामिन ए-वनस्पतियों से प्राप्त होने वाला कैरोटिन नामक पदार्थ जब शरीर में पहुँचता है; तो शरीर में उपस्थित एक विशेष रसायन से मिलकर विटामिन ए में परिवर्तित हो जाता है। इस विटामिन को वृद्धिकारक विटामिन के नाम से भी जाना जाता है।

विटामिन ए के स्रोत-कैरोटीन, दूध, मक्खन, हरी शाक-सब्जी, गाजर, टमाटर, ताजे फल, पपीते में अत्यधिक, आम, खुबानी, अखरोट और बादाम आदि में मिलता है।

विटामिन ए के कार्य-

 शारीरिक वृद्धि तथा अस्थियों की वृद्धि के लिए आवश्यक

 आँखों को लाभ तथा त्वचा की कोमलता बनाये रखने हेतु आवश्यक।

 संक्रमण से शरीर की रक्षा।

 आँखों के रेटिना में उपस्थित रॉड्स में पाये जाने वाले रंजक रोडोप्सिन को निर्मित करता है।

विटामिन ए की कमी से होने वाले प्रभाव-

 त्वचा को हानि, स्नायुओं को हानि, पायरिया, जुकाम, खांसी, निमोनिया तथा श्वसन तन्त्र के अनेक रोग हो जाते हैं।

 रतौंधी, वृद्धि अवरोध, संक्रमण के प्रति प्रतिरोध की शक्ति में कमी।

विटामिन ए की अधिकता के प्रभाव-

 वमन, सिरदर्द, भूख का अभाव, चिड़चिड़ापन, त्वचा उतरना, लम्बी हड्डियों में सूजन, दर्द तथा इनका मोटा होना, प्लीहा एवं यकृत का बढना तथा अनेक स्थानों से बालों का झड़ना आदि

विटामिन डी-यह दो तत्त्वों का सम्मिलित रूप है-सूर्य की सुबह वाली किरणों से प्राणियों की त्वचा में निर्मित होता है एवं वनस्पति से मिलने वाले पदार्थ से निर्मित होता है। इन दोनों तत्त्वों को सम्मिलित रूप से विटामिन डी कहा जाता है। यह आॅक्सीजनीकरण तथा पकाने से नष्ट नहीं होता। सुबह की धूप जब त्वचा पर पड़ती है तो त्वचा के नीचे उपस्थित एक विशेष रसायन विटामिन डी में परिवर्तित हो जाता है। इसके अतिरिक्त दूध एवं मक्खन में भी पाया जाता है। वसाकणों के साथ इसका भी आंतों में अवशोषण होता है। इसका यकृत, गुर्दे, एड्रिनल ग्रन्थि एवं हड्डियों में संचित होता है।

विटामिन डी के मुख्य स्रोत-

 मछली का तेल, यकृत, दूध, अण्डे की जर्दी, त्वचा में उपस्थित अर्गेस्टेरॉल पर सूर्य किरणों की अल्ट्रावॉयलेट किरणों के पड़ने से भी उत्पन्न होता है। विटामिन डी के मुख्य कार्य-

 पाचन नली में कैल्शियम-फॉस्फोरस आदि का अवशोषण।

 हड्डियों में कैल्शियम के जमे रहने में सहायक।

 हृद्य की क्रिया को सामान्य बनाये रखना।

विटामिन डी की कमी से होने वाले प्रभाव-

 बच्चों में रिकेट्स नामक रोग हो जाता है। इस रोग में हड्डियाँ टेढ़ी हो जाती हैं।

 जोड़ों में सूजन, घुटनों में दर्द, रीढ़ की हड्डी में टेढ़ापन तथा दांत निकलने में विलम्ब जैसी समस्याएँ हो जाती हैं।

 गर्भ एवं स्तनपान के समय महिलाओं में भी इस विटामिन की कमी हो जाती है।

 उपरोक्त के अतिरिक्त अनिद्रा आदि की समस्या भी हो जाती है।

विटामिन डी2-यह पेड़-पौधों से निर्मित होता है।

विटामिन डी3-यह प्राकृतिक रूप से प्राणियों में निर्मित होता है।

विटामिन ई-यह वसा में घुलनशील है एवं अधिक ताप से नष्ट नहीं होता।

विटामिन ई की कमी से होने वाले प्रभाव-

 लाल रक्त कोशिकाओं को टूटने से रोकना एवं हीमोग्लोबिन को प्लाज्मा में मुक्त होने से रोकना

 स्त्री-पुरुष में संतानोत्पत्ति की शक्ति को स्थिर रखना, गर्भधारण के पश्चात् उसकी रक्षा एवं विकास करना।

 पेशियों एवं तन्त्रिकाओं को शक्ति प्रदान करना एवं एन्टिआॅक्सीडेन्ट्स के रूप में कार्य करना, जिससे उम्र बढ़ने के प्रभाव कम हो जाते हैं।

 वायु-प्रदूषण से शरीर में प्रवेश होने वाले हानिप्रद तत्त्वों से रक्षा करना जैसे कार्यों में सहयोगी है।

विटामिन ई के मुख्य स्रोत-यकृत, हरी पत्तेदार सब्जी, गेहूँ के अंकुर, उनसे निकले तेल, अंकुरित अनाज, सोयाबीन, जैतून तेल, नारियल तेल, बिनौला तेल, घी, ताजे मक्खन, टमाटर, गाजर एवं सूखे मेवों में मिलता है।

विटामिन के-यह आंतों में स्वयं ही निर्मित होता रहता है; इसकी आवश्यकता स्वयं ही पूर्ण होती रहती है। यह सूर्य के प्रकाश से नष्ट हो जाता है।

विटाामिन 'के' के मुख्य स्रोत-

 आन्त्रीय जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित होता है।

 यकृत, मक्खन, हरी शाक-सब्जियों, गोभी, आलू, टमाटर तथा सोयाबीन से प्राप्त होता है।

विटाामिन 'के' के कार्य-

 यकृत में प्रोथ्रॉम्बिन के संश्लेषण में सहायता करना।

 रक्तस्राव रोकना, ग्लूकोज को कोशिका में पहंुचाना और ग्लूकोज को ग्लाइकोजन में परिवर्तित करने में सहायता करना जैसे कार्य करता है।

विटाामिन 'के' की कमी से प्रभाव-

 रक्त का थक्का नहीं बन पाता, जिससे चोट आदि में रक्तस्राव लम्बे समय तक होता रहता है।

विटाामिन 'के' की अधिकता से प्रभाव-पीलिया, रक्ताल्पता तथा जठरान्त्र सम्बन्धी समस्याएँ।

जल में घुलनशील विटामिन्स

विटामिन बी कॉम्पलैक्स

आपस में सम्बद्ध अनेक विटामिन्स के समूह विटामिन बी कॉम्प्लैक्स को कहा जाता है। इन्हें अग्र विवेचन से समझा जा सकता है।

विटामिन बी1 (थायमिन हाइड्रो-क्लोराइड)

विटामिन बी1 के मुख्य स्रोत-

यह हरी सब्जी, हरी मटर, छिलके सहित एवं खमीर से प्राप्त होता है।

विटामिन बी1 के मुख्य कार्य-कार्बोहाइडेªट के पूर्ण अवशोषण एवं चयापचय हेतु इस विटामिन की उपस्थिति अनिवार्य है। स्तनपान करने वाली महिलाओं को इसकी आवश्यकता अधिक होती है।

विटामिन बी1 कमी से प्रभाव-

 हाथ-पैरों में दर्द, जलन एवं विकास में बाधा आदि।

 कब्ज, भूख में कमी, कब्ज, अफारा, पेचिश आदि।

 तन्त्रिकाशोथ तथा मानसिक अवसाद जिससे सिरदर्द, कानों में भन्नाहट, आँखों में अँधेरा छाना, चक्कर आना, भूलने की आदत तथा चिंता आदि समस्याएँ हो जाती हैं।

 अधिक समय तक इसकी कमी से बेरी-बेरी रोग हो जाता है।

विटामिन बी2

विटामिन बी2 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, दूध, पनीर, अण्डे की सफेदी, यकृत, सोयाबीन, फल, मूंगफली, हरी सब्जी, हरी मटर एवं खमीर।

विटामिन बी2 के मुख्य कार्य-

 शरीर में वायु का संतुलन करना, चर्मरोगों से बचाना तथा युवावस्था की रक्षा

 हृद्य, यकृत, पाचन ग्रन्थियों, मांसपेशियों एवं गुर्दों को शक्ति प्रदान करना।

विटामिन बी2 कमी से प्रभाव-

 मोतियाबिन्द, आँखों की कॉर्निया के चारों ओर लाली होना, आंखों में जलन एवं आंखों से पानी बहना।

 त्वचाशोथ, जीभ पर छाले, होंठ फटना, त्वचा पर चकते,

 वमन, दस्त, वृद्धि रुकना, असमय वृद्धावस्था।

विटामिन बी3 या निएसीन या पिकोटेनिक एसिड

विटामिन बी3 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, फलों के गूदे, खमीर, समुद्री खाद्य पदार्थ, मूंगफली, यकृत तथा चूजे का मांस।

विटामिन बी3 के मुख्य कार्य-

 कार्बोहाइडेªट के चयापचय में सहयोग करना।

 कोलेस्टेरॉल सान्द्रता को घटाना।

 सेक्स हॉर्माेन के उत्पादन में सहयोग करना।

विटामिन बी3 कमी से प्रभाव-

 पेलेग्रा रोग; जिससे त्वचा जठरान्त्र की विक्षतियाँ होती हैं, पाचन विकृति आदि

 मानसिक विकृतियाँ भी हो जाती हैं।

विटामिन बी5 पेन्टोथेनिक एसिड

विटामिन बी5 के मुख्य स्रोत-खमीर, यकृत, दाल, हरी सब्जी तथा अण्डा।

विटामिन बी5 के मुख्य कार्य-

 उचित वृद्धि करना।

 विटामिन एवं ऊर्जा का यथोचित उपयोग करना।

विटामिन बी5 कमी से प्रभाव-

 थकान, निद्रा विकार, हृद्य विकार।

विटामिन बी6

विटामिन बी6 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, दूध, यकृत, सोयाबीन, केले, मूंगफली, खमीर, मांस-मछली एवं अंडे की जर्दी।

विटामिन बी6 के मुख्य कार्य-

 त्वचा-रोगों से रक्षा,

 प्रोटीन एवं फैटी एसिड को पचाने में सह एन्जाइम के रूप में कार्य करना।

 प्लाज्मा मेम्ब्रेन से होकर एमीनो एसिड्स का परिवहन एवं हीमोग्लोबिन के निर्माण में सहयोग।

विटामिन बी6 कमी से प्रभाव-

 त्वचाशोथ, स्नायविक विकार, संवेदी तन्त्रिकाओं के रोगों के कारण कम्पन, चलने-फिरने में कष्ट होना, चिड़चिड़ापन एवं घबराहट।

 जीभ सूजना, कमजोरी, अनिद्रा, भूख न लगना,

 अधिक मूत्र, मूत्राशय व गुर्दे में पथरी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

विटामिन बी7 या बायोटीन

बायोटीन के मुख्य स्रोत-यकृत, खमीर, शाक-सब्जी तथा अण्डा।

बायोटीन के मुख्य कार्य-

 कार्बोहाइड्रेट का चयापचय

 कोशिका वृद्धि एवं वसीय अम्ल उत्पादन में सहयोगी।

बायोटीन की कमी से प्रभाव-

 पपड़ीदार त्वचाशोथ।

 पेशियों में दर्द, दुर्बलता, अनिद्रा, डिप्रेशन तथा थकान।

विटामिन बी9 फॉलिक एसिड या फॉलीसिन

फॉलिक एसिड के मुख्य स्रोत-यकृत, पत्तेदार हरी सब्जी, दूध एवं अण्डा।

फॉलिक एसिड के मुख्य कार्य-

 न्यूक्लियक एसिड के चयापचय मेंं एवं डी एन ए निर्माण के लिए कार्बन न्यूट्रिऐन्ट्स के ट्रान्सफर के लिए आवश्यक।

 रक्त कणों के निर्माण और इनकी पािरपक्वता में सहयोगी।

 वृद्धि, जनन एवं पाचन में योगदान देता है।

फॉलिक एसिड कमी से प्रभाव-

 लाल रक्त कणिकाओं की अपरिपक्वता, रक्ताल्पता एवं जठरान्त्र सम्बन्धी गड़बड़ियाँ तथा दस्त।

विटामिन बी12 या कोबालमिन

विटामिन बी12 के मुख्य स्रोत-सभी अनाज, दूध, यकृत, सोयाबीन, केले, मूंगफली, खमीर, मांस-मछली एवं अंडे की जर्दी।

विटामिन बी12 के मुख्य कार्य-

 आर एन ए के संश्लेषण में सहयोगी।

 रक्त की कमी को दूर करने में सहयोगी।

 रक्त कणों के निर्माण और इनकी पािरपक्वता में सहयोगी।

 कार्बोहाइडेªट के पाचन में योगदान देता है।

विटामिन बी12 कमी से प्रभाव-

 रक्ताल्पता, स्नायविक विकार एवं सर्वांगीण दुर्बलता।

इनॉसिटोल

इनॉसिटोल के मुख्य स्रोत-फल, मेवे, सब्जियाँ, दूध एवं खमीर।

इनॉसिटोल के मुख्य कार्य-

 चयापचय में सहयोग करना

 कोलेस्टेरॉल सान्द्रता को घटाना

 धमनियों के कठोर होने की प्रक्रिया को कम करना।

इनॉसिटोल कमी से प्रभाव-

 बाल झड़ना, कब्ज एवं यकृत पर वसा जमा होना।

कोलीन ः

कोलीन के मुख्य स्रोत एवं कार्य

हरी पत्तेदार सब्जियाँ इसका स्रोत हैं। यह फॉस्फोलिपिड्स का एक भाग होता है तथा एसीटाइलकोलीन का पूर्वगामी होता है। प्रायः इसकी कमी नहीं होती।

विटामिन-सी

विटामिन-सी के मुख्य स्रोत-खट्टे फल जैसे-नींबू, सन्तरा, आँवला, टमाटर, हरी मिर्च, आलू, फूलगोभी तथा शलजम एवं हरी सब्जियाँ।

विटामिन-सी के मुख्य कार्य-

 आॅक्सीकरण प्रतिक्रियाओं में सहयोग, कॉलेजन संश्लेषण एवं उसे बनाये रखने में सहयोगी।

 हड्डियों एवं दांतों के निर्माण में सहयोग करना।

 नजला-जुकाम-खाँसी को ठीक करने, श्वास-नलिका एवं कंठ की कोशिकाओं को मज़बूत बनाने में सहयोग करना।

 घावों को ठीक करना तथा हड्डियों को जोड़ने में सहायता करना।

 लाल एवं श्वेत रक्त कोशिकाओं की परिपक्वता में सहयोगी।

विटामिन-सी की कमी से प्रभाव-

 स्कर्वी रोग, दांतों के मसूढे फूलना, उनसे रक्तस्राव होना अस्थियाँ कमजोर होना आदि जैसी समस्याएँ हो जाती हंै।

 नजला-जुकाम-खाँसी शीघ्रता से होना।

 संयोजी ऊतक तन्तुओं का ह्रास, सामान्य विकास में बाधा।

 रक्ताल्पता व संक्रमण की अधिकता होना।

विटामिन-सी की अधिकता से प्रभाव-गुर्दे में पथरी हो जाना।

खनिज लवण ः प्रकार, कार्य एवं स्रोत

खनिज लवण मौलिक तत्त्व हैं; और ऐसे पदार्थ हैं; जो सीधे ग्रहण नहीं किये जाते; किन्तु इनके रासायनिक यौगिक विभिन्न खाद्य-पदार्थों में पाये जाते हैं; इसलिए इनके द्वारा ही इन खनिज लवणों का भी लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इनमें से कैल्शियम, फॉस्फोरस, सोडियम, क्लोराइड, मैग्नीशियम, पोटेशियम, सल्फर, लौह या आयरन, तांबा या कॉपर, जिंक, आयोडीन, फ्लोरीन, कोबाल्ट, क्रोमियम, मैगनीज एवं सेलिनियम आदि जैसे खनिज लवण प्रमुख हैं।

कैल्शियम-हड्डियाँ एवं दाँत इसी से निर्मित होते हैं। यह रक्त में भी उपस्थित रहता है तथा इससे हृद्य को फैलने एवं सिकुड़ने तथा एंजाइम के निर्माण में सहयोगी है, ग्लाइकोजन के चयापचय में सहयोगी तथा मस्तिष्क की क्रियाशीलता को बनाये रखने जैसे कार्य करता है। इसकी कमी से बच्चों में टिटेनी तथा रिकेट्स रोग एवं वयस्कों में अस्थि सुषरता या आॅस्टियोपोरेसिस रोग हो जाते हैं। इसकी अधिकता से कोमल ऊतकों में कैल्शियम जमा हो जाने पर रक्तचाप बढ़ जाता है। दूध, पनीर, पालक, मेथी, तिल, सोयाबीन, आँवला एवं गाजर में पाया जाता है।

फॉस्फोरस-यह दाँतों, हड्डियों और स्नायुओं के लिए मुख्य घटक तथा पाचक रस की क्रियाशीलता में आवश्यक है। इसकी कमी से व्यक्ति मंदबुद्धि तक हो सकता है। इसके अतिरिक्त तन्त्रिका तन्त्र की गड़बड़ियाँ हो जाती हैं। पैरों में चींटी रेंगने जैसी अनुभूति तथा सुई चुभने जैसी अनुभूति होती है। यह कार्बोहाइडेªट एवं वसा के पाचन में सहायक है। खमीर एवं चोकर युक्त आटे, चावल, सोयाबीन, तिल, चने, मूंगफली, गाजर, हरे शाक, सलाद, दाल एवं सूखे मेवों आदि से प्राप्त होता है।

सोडियम-यह आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड के उत्पादन; जिससे भोजन का पाचन सुचारू रूप से हो सके। साथ ही ग्लूकोज को कोशिकाओं तक पहुँचाने में भी सहयोगी है। यह शरीर को विषमुक्त रखता है। इसकी कमी से मूत्राशय और गुर्दे में पथरी हो सकती है; हाथ पाँव में ऐंठन, जी मिचलाना एवं उल्टी भी हो सकती है। अधिक होने पर उच्च रक्तचाप की समस्या एवं सूजन उत्पन्न करता है। हमारे द्वारा खाये जाने वाले नमक (सोडियम क्लोराइड) से यह प्राप्त होता है।

पोटेशियम-मांसपेशी गठन, तन्तुओं का लचीलापन और स्नायुमंडल के लचीलेपन में सहयोगी है। यह हृद्य की मांसपेशी संचालन में सहयोगी है; जिससे रक्त-परिसंचरण सुचारू रूप से हो सके। इसकी कमी से प्रोटीन का अवशोषण ठीक से नहीं हो पाता, प्यास अधिक लगती है, चक्कर आते हैं, साथ ही तनाव, अवसाद एवं मानसिक चिड़चिड़ापन भी होता है। अधिक होने पर हृद्य अवरोध कर देता है। अनाज, जड़ वाली सब्जियों, दूध, दही, छांछ एवं पनीर से प्राप्त होता है।

आयरन या लौहतत्त्व-यह लाल रक्त कणिकाओं में हिमोग्लोबिन की उपस्थिति द्वारा कार्बन डाई आॅक्साइड को फेफड़ों में पहुँचाकर आॅक्सीजन को ग्रहण कर अंग-प्रत्यंग में पहुँचाता है। नाइट्रोजन जैसे उत्सर्जी पदार्थाें को यह गुर्दे में पहुँचाता है। इसकी कमी से एनीमिया या रक्ताल्पता जैसे रोग हो जाते हैं; जिससे कमजोरी, थकान, भूख में कमी, श्वास फूलना, चेहरे का पीलापन तथा हाथ-पैरों में सूजन आदि समस्याएँ हो जाती है। अधिक होने पर भी सिरोसिस आॅफ लिवर नामक समस्या तथा रक्त युक्त दस्त जैसी समस्याएँ हो जाती हैं। यह हर प्रकार के हरे शाक, धनिया, पुदीना, चोकर, चावल की भूसी, दाल के छिलकों, सेब, चुकंदर, अनार, बैंगन एवं काले तिल आदि में पाया जाता है।

आयोडीन-यह भोजन के आत्मीकरण या अवशोषण में सहायक है। यह कैरोटीन को विटामिन ए में परिवर्तित करता है। यदि आयोडीन न हो या कम हो तो गले में स्थित थॉयरॉयड ग्रन्थि बड़ी हो जाती है। थॉयरॉयड के असंतुलन के कारण स्त्रियों में मासिक चक्र सम्बन्धी अनेक रोग, अधिक मोटापा और अनेक मानसिक रोग आदि हो जाते हैं। यह यदि अधिक भी हो तो भी थॉयरॉयड की क्रियाशीलता में बाधा डालता है। यह हरी शाक-सब्जी, अदरक, नमक और जल में पाया जाता है।

मैग्नेशियम-शरीर की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है। हड्डियों और दाँतों को मज़बूत करने के साथ ही यह स्नायुओं की शक्ति को स्थिर बनाये रखने में सहयोगी है। इसकी कमी से हाथ-पैरों में कम्पन एवं मानसिक अवसाद होता है। पनीर, दूध, अखरोट, गाजर, टमाटर तथा आलू में पाया जाता है।

मैगनीज-हीमोग्लोबिन एवं एंजाइम्स निर्माण में सहयोगी। यह त्वचा, यकृत, हड्डियों, क्लोम ग्रन्थि तथा बालों में उपस्थित रहता है। इसका मुख्य कार्य है-स्नायुओं को बल प्रदान करना, रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना तथा शरीर के विष को नष्ट करना। इसकी कमी से अल्प ऊतक श्वसन, अस्थिरोग, स्नायविक रोग एवं जननतन्त्र में गड़बड़ियाँ हो जाती हैं; किन्तु अधिक होने पर भी ऐसी ही गड़बड़ियाँ हो जाती हैं।

सल्फर या गंधक-प्रोटीन के समान आवश्यक है। यह शरीर की प्रत्येक कोशिका में उपस्थित होता है। यह रक्त की सफ़ाई तथा यकृत की कार्यक्षमता में स्थिरता जैसे कार्यों में सहायक हैं। प्रोटीन युक्त पदार्थांे में यह उपस्थित होता है। पनीर, गेहूँ के अंकुर, मसूर, सेम की फली, मूंगफली, हरी शाक-सब्जी, दालों एवं बादाम आदि से प्राप्त होता है।

कॉपर या ताँबा-हीमोग्लोबिन निर्माण, आंतों में लौह के उचित अवशोषण तथा कुछ एन्जाइम्स को बनाये रखने में सहयोगी। इसकी कमी से रक्ताल्पता, अस्थिरोग तथा श्वेत रक्त कोशिकाओं की कमी हो जाती है; किन्तु अधिक होने पर विल्सन रोग कर देता है। और जिन भोज्य पदार्थाें में लोहा होता है; उनमें सामान्य रूप से प्राप्त होता ही है। इसके अतिरिक्त यह हरी शाक-सब्जी, केला, संतरा और नाशपाती आदि में पाया जाता है।

एल्युमिनियम या जस्ता-यह लाल रक्त कोशिकाओं, हॉर्मोन्स एवं एंजाइमों में उपस्थित होता है। यह सामान्य भोजन के साथ ही गेहूँ के चोकर तथा अंकुर में प्राप्त होता है।

क्लोरीन-यह आमाशय के पाचक रस एवं पाचन में सहयोगी है। शरीर को विषमुक्त करता है तथा साथ ही जोड़ों की जड़ता को समाप्त करता है। अधिक होने पर पाचन में गड़बड़ी करता है। यह पालक, सलाद, पत्तागोभी, खीरा, टमाटर, केला एवं खजूर आदि में पाया जाता है।

जिंक-यह कोशिकाओं की वृद्धि एवं मरम्मत, स्वाद की अनुभूति, जननग्रन्थियों की सक्रियता से सम्बन्धित अनेक एंजाइम्स का भाग है; इसलिए इसकी कमी से इन सभी से सम्बन्धित समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसकी अधिकता से ज्वर, मिचली, वमन एवं दस्त हो जाते हैं। यह दूध, हरी सब्जी एवं मांस आदि से प्राप्त होता है।

फ्लोरीन-हड्डियों एवं दांतों को कठोर करता है, मुंह की जीवाणुओं को घटाता है। इसकी कमी से दांतों एवं हड्डियों को हानि तथा रक्ताल्पता हो जाती है; किन्तु अधिकता से दांत धब्बेदार हो जाते हैं। यह दूध एवं चाय, फ्लोराइड युक्त जल से प्राप्त होता है।

कोबाल्ट-लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण में सहयोगी। इसके अभाव में रक्ताल्पता होती है; किन्तु अधिकता से त्वचा एवं लाल रक्त कणिकाओं से सम्बन्धी रोग हो जाते हैं। दूध एवं मांस से प्राप्त होता है।

क्रोमियम-ग्लूकोज के चयापचय एवं इन्सुलिन निर्माण में सहयोगी। इसके अभाव से ग्लूकोज चयापचय में कमी आ जाती है; परन्तु अधिक होने से त्वचा एवं गुर्दे के रोग हो जाते हैं। सब्जी, गेहूँ के आटे, मांस एवं खमीर आदि से प्राप्त होता है।

सेलिनियम-चयापचय, एन्जाइम्स निर्माण तथा प्लाज्मा मेम्ब्रेन को टूटने से बचाता है इसलिए ऐन्टीआॅक्सीडेन्ट है। इसकी कमी से रक्ताल्पता हो जाती है; किन्तु इसकी अधिकता से जठरान्त्र तथा फेफड़ों की गड़बड़ियाँ हो जाती हैं। यह अधिकांश भोज्य पदार्थों में मिलता है।

जीवन हेतु अनिवार्य जल

जल ही जीवन है; यह कोई अतिशयोक्ति नहीं अपितु सत्य है। वैज्ञानिक अनुसंधान भी यह मानते हैं कि जीवन के उत्पत्ति जल से ही हुई है। अन्य प्राणियों के समान ही; मनुष्य का जीवन भी जल के अभाव में अकल्पनीय है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। शरीर के भार का लगभग 60 प्रतिशत भाग जल या पानी से निर्मित है। हाइड्रोजन के दो परमाणु तथा आॅक्सीजन का एक परमाणु मिलकर जल (भ्2व्) का निर्माण करते हैं। जल शरीर की समस्त कोशिकाओं में उपस्थित प्रोटोप्लाज्म या जीवद्रव्य का आवश्यक तथा मुख्य घटक है। शरीर में होने वाली अनेक रासायनिक प्रतिक्रियाएँ; जैसे-कोशिकीय श्वसन तथा कार्बोहाइडेªट्स, लिपिड्स एवं प्रोटीन्स का जल अपघटन जल के माध्यम से होते हैं।

जल के मुख्य कार्य-

1. शरीर की समस्त उपापचयिक क्रियाओं को सुचारू रूप से चलाना।

2. रक्त के माध्यम से समस्त महत्त्वपूर्ण रसायनों को सम्पूर्ण शरीर में पहुँचाना।

3. शरीर के तापमान को संतुलित बनाये रखता है।

4. शरीर में निर्मित त्याज्य पदार्थों जैसे मल-मूत्र एचं पसीने आदि को शरीर से निष्कासित करता है।

5. पाचक द्रव एवं स्नेहक (स्नइतपबंदजे) बनाता है। शरीर में जल की कमी से प्यास लगती है। इसकी कमी से रक्त गाढ़ा हो जाता है; उसके विकार अच्छी तरह से दहन हो जाते हैं। इसकी कमी से पाचन शक्ति ठीक नहीं रहती है। गुर्दाें में पथरी, मूत्र गाढ़ा होना एवं गठिया आदि।

भोजन के तत्त्वों को जानने के उपरान्त इसको ग्रहण करने सम्बन्धी आवश्यक नियमों का उल्लेख आवश्यक है। ये नियम निम्नांकित हैं।

भोजन ग्रहण करने सम्बन्धी आवश्यक नियम

1. भोजन ताज़ा ही करना चाहिए; यदि थोड़ी देर रखना भी हो तो ढककर रखना चाहिए एवं थोड़ा-सा गर्म करके ही उसे ग्रहण करना चाहिए; किन्तु अधिक बासी भोजन तो कदापि नहीं करना चाहिए।

2. भोजन करते समय वह ना तो अधिक गर्म हो ना ही अधिक ठंडा।

3. भोजन के तुरन्त पहले या तुरन्त बाद में एक साथ अधिक जल नहीं पीना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो एक-एक घूंट बीच-बीच में पी सकते हैं। साथ ही भोजन से एक घण्टे पहले या एक घण्टे बाद ही अधिक मात्रा में जल पी सकते हैं।

4. भोजन स्वच्छ, शुद्ध एवं कीटाणुरहित होना चाहिए।

5. भोजन सजा हुआ, दिखने में रुचिकर, स्वच्छ वातावरण में तथा मानसिक सन्तुष्टि देने वाला होना चाहिए। भोजन मात्र शरीर की पूर्ति हेतु नहीं मस्तिष्क की संतुष्टि हेतु भी किया जाता है।

6. सवेरे का भोजन नित्यकर्म-शौच, मंजन, स्नानादि के उपरान्त ही करना चाहिए। नाखून अच्छे से कटे हुए होने चाहिए; अन्यथा भोजन के साथ प्रदूषित पदार्थ भी शरीर के भीतर जा सकते हैं; जिससे रोग होने निश्चित हैं।

7. सवेरे के अतिरिक्त अन्य समय भी भोजन स्वच्छता के साथ अर्थात् मुंह-हाथ अच्छे से धोकर ही करना चाहिए।

8. भोजन शान्त एवं प्रसन्न होकर, धीरे-धीरे, चबाकर तथा बिना किसी व्यवधान के एकाग्र होकर करना चाहिए।

9. भोजन करते समय टी वी, अखबार, बातें करना, हंसना, रोना, गाना, चलना-फिरना तथा अन्य कोई भी कार्य करना आदि वर्जित है; अर्थात् भोजन सुखपूर्वक बैठकर ही करना चाहिए। भोजन करते समय वस्त्र ढीले होने चाहिए।

10. भोजन आवश्यकता के अनुसार ही ग्रहण करना चाहिए; मात्र स्वाद के लिए कभी भी तथा कुछ भी खाना या ठूंस-ठूंस कर खाना ग़लत है। भूख तेज लगने पर ही भोजन करना चाहिए।

11. नियत समय के अनुसार ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। सप्ताह में एक दिन फलाहार वाला व्रत लाभकारी है। यह स्वास्थ्य को ठीक रखता है।

12. रात के भोजन के उपरान्त तुरन्त सोना और कोई तेजी वाला शारीरिक कार्य करना भी वर्जित है। भोजन के कुछ देर बाद जब भी लेटना हो बांयी करवट ही लेटना चाहिए।

भोजन के तत्त्वों एवं अन्य पक्षों के उपरान्त योगसाधना हेतु आदर्श दिनचर्या अगली पूर्वापेक्षा है। यह इस प्रकार समझी जा सकती है-

आदर्श दिनचर्या

आदर्श दिनचर्या में कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।

1. प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए एवं रात्रि के समय शीघ्र ही सो जाना चाहिए। स्वस्थ रहने के लिए कम से कम सात घंटे सोना आवश्यक है; किन्तु उससे अधिक सोना तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ाता है। इसलिए जब तक कि स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई समस्या ना हो इससे अधिक शैय्या पर भी नहीं रहना चाहिए।

2. प्रतिदिन प्रातः उठकर शौच, दंतमंजन, स्नान तथा ध्यान आदि नित्यकर्म अवश्य करने चाहिए।

3. सामान्य जीवन में जो जिस क्षेत्र में हो; जिसका जो कार्य हो; उसे वह मन लगाकर एवं निष्काम भाव से करना चाहिए। इसके साथ-साथ योगाभ्यास अवश्य करना चाहिए। यह स्वस्थ एवं प्रसन्न रहकर कर्मठ रहने हेतु आवश्यक है। प्रतिदिन कुछ स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।

4. माता-पिता, गुरु एवं देवता नित्य ही पूजनीय हैं; इनका एवं अपने से बड़ों का सदैव सम्मान करना चाहिए। साथ ही किसी का भी अपमान नहीं करना चाहिए; कटुवचनों के प्रयोग से बचना चाहिए। मीठा ही बोलना चाहिए; इससे सकारात्मकता वातावरण निर्मित होता है।

5. हमेशा प्रसन्नचित्त एवं संतुष्ट रहना चाहिए।

6. प्रतिदिन कुछ समय निःस्वार्थ भाव के परोपकार युक्त कार्यों को भी देना चाहिए।

स्थान एवं समय

1. योगाभ्यास का स्थान खुला, स्वच्छ, मच्छर-मक्खी रहित, वायुयुक्त, शान्त, प्रदूषणरहित, एवं एकान्त होना चाहिए।

2. योग साधना हेतु सामान्य रूप से प्रातःकाल एवं सायंकाल का समय उचित है; किन्तु यह सामान्य नियम है; कुछ विशेष अभ्यासों हेतु कुछ विशेष समय निर्धारित होते हैं; इसलिए उनमें गुरु के निर्देशानुसार ही अभ्यास का समय निर्धारित करना चाहिए।

आवृत्ति

प्रत्येक अभ्यास में निर्देशित तथा गुरु द्वारा बतायी गयी आवृत्ति ही न्यूनतम या अधिकतम होनी चाहिए। आवृत्तियों में क्षमता का ध्यान रखना अनिवार्य है।

वातावरण

खुला, सूर्य की किरणों से युक्त, समशीतोष्ण, हवादार लेकिन अधिक हवा भी न हो, स्वच्छ, प्रदूषणरहित, एकान्त एवं शान्त वातावरण वाला स्थान योगाभ्यास हेतु उपयुक्त है।

ईश्वर प्रणिधान

ईश्वर-प्रणिधान का अर्थ है अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के दृष्टि से सकारात्मक कर्म करते हुए समस्त कर्म ईश्वर को ही साक्षी मानकर उसी को समर्पित करते हुए करना। किसी भी प्रकार का अभिमान न होना एवं ईश्वर को ही जीवन का आधार तथा ईश्वर अनुभूति को जीवन का मुख्य लक्ष्य मानना।

योगाभ्यास हेतु ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास होना चाहिए। योगदर्शन में ईश्वर को काल से अविच्छिन्न, पुरुषविशेष तथा गुरुओं का भी गुरु अर्थात् आदिगुरु कहा गया है। पुरुष का अर्थ आत्मा या चैतन्य से है; इसलिए पुरुषविशेष का अर्थ है; विशेष चैतन्य अर्थात् जो चेतना का उच्चतम स्तर हो। ऐसी चेतना विशेष को गुरुओं का भी गुरु कहा गया है। फिर बताया गया है कि प्रणव उसका वाचक है अर्थात् प्रणव के द्वारा ही ईश्वर को याद करना या पुकारना चाहिए। प्रणव या ऊँ में अ, उ एवं म तीन वर्ण हैं; जिनको रचनाशक्ति या ब्रह्मा, पालनशक्ति या विष्णु तथा संहारशक्ति या महेश के वर्णाक्षर स्वरूप माना गया है। ये तीनों वर्ण मिलकर प्रणव के रूप में ईश्वर के वाचक कहे गये हैं। योग में प्रवृत्त होने वाले साधकों को प्रणव में आस्था रखना आवश्यक है। प्रणव जप करते हुए प्राणायाम एवं ध्यान तथा अन्य योगाभ्यासों में सफलता प्राप्त होती है। नयी खोजों के आधार पर माना गया है कि प्रणव की ध्वनि करने से नकारात्मकता समाप्त होती है; व्यक्ति एवं वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

भारतीय सभ्यता में तो यह तक माना गया है कि सृष्टि को सर्जन इसी आंेकार से हुआ है; यह यदि अप्रमाणित सत्य भी माना जाय तब भी आंेकार ध्वनि के अपने व्यावहारिक लाभ तो हैं ही; यह तो वैज्ञानिक भी प्रमाणित कर चुके हैं। वैसे भी अध्यात्म विज्ञान से भी आगे का विषय है। यह अनुभूति का विषय है तर्क एवं प्रमाणों द्वारा नहीं समझा जा सकता। यह इसममें प्रवृत्त होकर योगाभ्यास को अपनाकर तथा इसके प्रभावों को अनुभव करके ही समझा जा सकता है। इसलिए योग के पथ पर अग्रसर होने हेतु ईश्वर-प्रणिधान आवश्यक है।

वर्तमान काल में योग की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए एक तथ्य को स्पष्ट करना अनिवार्य है। विविध पंथों, धर्माें, जाति या सम्प्रदाय के व्यक्तियों की आस्था ईश्वर के विभिन्न रूपों में हो सकती है। ऐसा होने पर व्यक्ति अपने आस्थानुसार ईश्वर के प्रतीक का चयन कर सकता है; किन्तु आस्तिकता होनी आवश्यक है। यह आस्तिकता योगाभ्यास में सफल होने हेतु आवश्यक है।

निष्ठा एवं विश्वास

योग की पूर्वापेक्षाओं में से यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा है। योग के समस्त अभ्यासों को करते हुए गुरु, अभ्यास की प्राप्तियों तथा साधनापथ में पूर्ण निष्ठा एवं विश्वास होना चाहिए। यदि निष्ठा नहीं होगी तो साधना का अपेक्षित फल प्राप्त नहीं होगा; अपितु निष्ठा एवं विश्वास के अभाव में कई बार लाभ के स्थान पर भ्रम होने से मानसिक उद्वेग जैसी स्थिति भी उत्पन्न होनी सम्भव है।

इस प्रकार इस अध्याय में विभिन्न आधारों पर कहा जा सकता है कि प्राचीन काल में आध्यात्मिक उन्नति हेतु किया जाने वाला योग; आधुनिक काल में यह विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना आवश्यक है। इसके साथ ही इसको इसकी पूर्वापेक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुए प्रारम्भ करना चाहिए। जब भी शारीरिक लाभों की बात होती है तो एक प्रश्न प्रायः पूछा जा सकता है कि शारीरिक व्यायाम भी तो शरीर पर अनुकूल प्रभाव डालते हैं तो फिर योग ही क्यों किया जाय? इसका उत्तर जानने हेतु हमें योगाभ्यास एवं व्यायाम के मूलभूत अन्तरों को जानना होगा।

योगाभ्यास एवं व्यायाम के मूलभूत अन्तर

1. शारीरिक लाभों की दृष्टि से व्याया मात्र सतही लाभ पहुँचाते हैं; श्वासों की लयबद्धता, गहन श्वसन, आंखें बन्द करके प्राप्त होने वाली विश्रान्ति तथा स्थिरता जैसे लक्षण व्यायाम में नहीं हैं; मात्र आसन आदि में हैं। इसलिए आसन आदि व्यायाम से अधिक समय तक एवं अधिक प्रभावी ढंग से व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हैं।

2. पेशियों का फैलना-सिकुड़ना आदि आसनों में अधिक लयबद्ध एवं दीर्घ होता है; जिससे व्यायाम के लाभ मिलने के साथ ही हॉर्मोन्स आदि पर भी अधिक गहरा एवं सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आसनों द्वारा तन्त्रिकातन्त्र एवं अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की समरसता पर व्यायाम की तुलना में अधिक दीर्घकालीन प्रभाव पड़ते हैं।

3. योगाभ्यास से मिलने वाले मानसिक लाभ व्यायाम की तुलना में अधिक प्रभावी एवं दीर्घकालीन हैं। तनाव एवं अवसाद आदि मानसिक रोगों को दूर करते हुए योगाभ्यास अधिक शान्ति एवं मानसिक स्थिरता हेतु व्यायाम की तुलना में अधिक श्रेष्ठ हैं।

4. व्यायाम मात्र शारीरिक लाभ तो प्रदान करता है; परन्तु योगाभ्यास के यम तथा नियम आदि के पालन का अवसर मात्र योगदर्शन ही प्रदान करता है। ऐसा होने से स्पष्ट है कि व्यक्ति एवं समाज को नैतिकता के चरम पर ले जाने वाले अनुशासन के प्रारम्भिक चरणों हेतु भी योगाभ्यास शारीरिक व्यायाम से अधिक श्रेष्ठ है।

5. प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान के आध्यात्मिक फल मात्र योगाभ्यास के द्वारा ही प्राप्त होते हैं; अतः इस कारण भी योगाभ्यास व्यायाम से अधिक श्रेष्ठ है।

6. योगाभ्यास प्रत्येक उम्रवर्ग के लिए प्रभावी एवं सहज है।

इसलिए दीर्घकालीन परिणामों, व्यक्तिगत परिष्करण एवं सामाजिक उत्थान हेतु योगाभ्यास व्यायाम से अधिक श्रेष्ठ है। योगाभ्यास के प्राथमिक अंगों के रूप में राजयोग में निर्देशित यम एवं नियम को स्पष्ट करना आवश्यक है। इसलिए अगले अध्याय में हम यम एवं नियम के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्षों को स्पष्ट करेंगे।