अध्याय 4: षट्कर्म : हठयोग एवं राजयोग की क्रियात्मक पूर्वापेक्षा / कविता भट्ट

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षट्कर्म

प्राचीन योगियों ने षट्कर्म को गोपनीय कहा है तथा मात्र इसके योग्य अधिकारियों को ही बताये जाने का निर्देश दिया है। यद्यपि; गोपनीयता एवं इसकी कठिनता के कारण आजकल यह अभ्यास योगसाधना की मुख्य धारा से थोड़ा हट गया है; तथापि यह सम्पूर्ण योग साधना का अनिवार्य प्रारम्भिक चरण है। इस पर थोड़ा जिज्ञासा हो सकती है कि राजयोग में यम को प्रारम्भिक चरण माना गया किन्तु हठयोग में षट्कर्म को माना गया। इसके अनेक कारणों को हम भूमिका के अन्तर्गत स्पष्ट कर चुके हैं; इसलिए उन्हें यहाँ दोहराना उचित नहीं है। मात्र इतना समझ लेना अनिवार्य है कि हठयोग में निर्देशित षट्कर्म व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक अर्थात् सम्पूर्ण शुद्धि प्रदान करना है। इस शुद्धि के द्वारा वह आत्मिक स्तर के निकट पहुँचता है। शुद्धि राजयोग की भी प्राथमिकता है। यम मानसिक शुद्धि के ही साधन हैं।

पूर्व में ही हमने यह भी बताया कि यदि व्यक्तित्व में त्रिगुण और उनके स्थूल प्रतिनिधि त्रिदोष अर्थात् वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहे तो व्यक्ति स्वस्थ एवं प्रसन्न रहेगा। यह शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि के द्वारा होता है। षट्कर्म त्रिदोषों एवं त्रिगुणों को संतुलन बनाने के लिए अद्वितीय साधन है। पातंजलयोग नियम के अन्तर्गत शौच को व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक शुद्धि हेतु अनिवार्य मानता है और इसके महान फल भी बताता है; परन्तु यह मात्र सैद्धान्तिक पक्ष है। क्रियात्मक पक्ष को पातंजलयोग स्पष्ट नहीं करता; शुद्धि के इस पक्ष का क्रियात्मक पक्ष का व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण हठयोग करता है। क्रियात्मकता की दृष्टि से राजयोग का आधार हठयोग एवं हठयोग का आधार षट्कर्म है; अतः कहा जा सकता है कि इन शुद्धिकर्मों का अभ्यास समस्त योगसाधना का तकनिकीय आधार है। इसलिए योगसाधना में प्रवृत्त होने पर सर्वप्रथम षट्कर्म का अभ्यास कर लेना आवश्यक है। इसके साथ-साथ यम एवं नियम मानसिक संकल्प के साथ अभ्यास किये जाते रहेंगे। साथ ही षट्कर्म करते हुए व्यक्तित्व का अद्वितीय ' ाुद्धीकरण व्यक्ति को यम एवं नियम के प्रतिपालन के प्रति और भी अधिक दृढ़ एवं कृतसंकल्प बनाता है। अतः योगगुरुओं को भी चाहिए कि वे योगसाधना के नाम पर मात्र कुछ शारीरिक व्यायामों को करवाकर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री न करें; अपितु षट्कर्म को योगसाधना की मुख्य धारा से जोड़ते हुए इसके अभ्यास को प्राथमिकता के आधार पर अपने शिष्यों को अभ्यस्त करें। ऐसा होने पर ही योगाभ्यास के शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक फल मिलना सम्भव है; अन्यथा नहीं।

यद्यपि हठप्रदीपिका सहित अनेक प्राचीन ग्रन्थों में षट्कर्म का उपदेश किया गया है; तथापि इसका विधिवत् विवेचन घेरण्ड मुनि कृत घेरण्ड संहिता नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है। घेरण्ड संहिता की प्राचीन प्रतियों में प्रारम्भिक प्रति लगभग सत्रहवीं शताब्दी की है। हठयोग पर लिखे गये इस ग्रन्थ में योगाभ्यास के क्रियात्मक-व्यावहारिक पक्ष का क्रमबद्ध-विधिवत् विवेचन तथा तकनीकीय प्रस्तुतीकरण; इसकी अनूठी विशेषता है। यह प्रवृत्त तथा सामान्य; सभी योगसाधकों हेतु अत्यंत उपयोगी है। इस ग्रन्थ के सात अध्यायों की विषयवस्तु निम्नांकित है-

1. षट्कर्म-इस अध्याय में शारीरिक-मानसिक शुद्धि या शोधन हेतु छः शुद्धिक्रियाओं के सभी सैद्धान्तिक व व्यावहारिक पक्ष स्पष्ट किये गये हैं; जो वैज्ञानिक एवं चिकित्सीय आधारयुक्त हैं।

2. आसन-इस अध्याय में योगसाधना की दृष्टि से आवश्यक शारीरिक दृढ़ता हेतु आवश्यक विभिन्न शारीरिक स्थितियों का विवेचन किया गया है।

3. मुद्रा एवं बन्ध-इस अध्याय में साधना में आवश्यक स्थिरता हेतु हाथों तथा सम्पूर्ण शरीर की विभिन्न मुद्राओं एवं बन्धों का उपदेश किया गया है।

4. प्रत्याहार-इस अध्याय में मन के अनुशासन एवं धीरता हेतु इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अन्तरात्मा की ओर मोड़ने के अभ्यास का वर्णन किया गया है।

5. प्राणायाम-इस अध्याय में प्राण या जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान प्राणवायु (ऑक्सीजन) को शरीर के भीतर भरकर, उसे वहीं रोककर प्राण-विस्तारीकरण के अभ्यास का वर्णन किया गया है।

6. ध्यान-इस अध्याय में मन को शान्त एवं एकाग्र करके आसन विशेष में बैठकर चिंतन एवं मनन के अभ्यास द्वारा अन्तरात्मा में स्थित होने के अभ्यास की व्याख्या की गयी है।

7. समाधि-ध्यान की वृहद् अवस्था; जिसमें मन की वृत्तियाँ अत्यंत शान्त हो जायें; ऐसे अभ्यास का विवेचन किया गया है।

पांजलयोगसूत्र के शौच जैसे अनिवार्य नियम को घेरण्ड संहिता में पूर्णतः वैज्ञानिक, चिकित्सीय, व्यावहारिक एवं प्रायोगिक ढंग से विवेचित किया गया है। यह घेरण्ड संहिता की अनूठी विशेषता है। सम्पूर्ण योगसाधना में षट्कर्म के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इस अध्याय में हम षट्कर्म (षट् अर्थात् छः कर्म अर्थात् क्रियाएँ) को साररूप में विवेचित करेंगे। ये छः शुद्धिक्रियाएँ-धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक तथा कपालभाति हैं। इन कर्मों के अभ्यास हेतु कुछ नियम अनिवार्य रूप से अपनाने आवश्यक हैं; जो इस प्रकार हैं-

षट्कर्म के अभ्यास हेतु अनिवार्य नियम

पारंगत योगगुरु द्वारा मार्गदर्शन-पारंगत व योग्य योग गुरु के सान्निध्य में उनके निर्देशानुसार ही षट्कर्म का अभ्यास करना चाहिए, मात्र पुस्तक के आधार पर अभ्यास करना उचित नहीं है। पुस्तक ज्ञान, आधारभूत जानकारी व षट्कर्म में छिपे गूढ़ लाभों व रहस्यों को जानने हेतु उपयोगी है। अभ्यास में पारंगत होने पर अभ्यास स्वयं किये जा सकते हैं; किन्तु अपेक्षित सावधानियों को ध्यान में रखना अनिवार्य है। साथ ही कुछ क्रियाएँ ऐसी हैं; जिनमें गुरु का सान्निध्य साधक को बराबर चाहिए।

ऋतुु चयन-पहली बार अभ्यास प्रारम्भ करने हेतु बसन्त ऋतु श्रेष्ठ है। पारंगत होने पर प्रत्येक कर्म में दिये गये नियमों के अनुसार सामान्यतः निरंतर अभ्यास किया जाना आवश्यक है।

सात्त्विक-शाकाहारी भोजन-मांसाहारी, गरिष्ठ, मसालेदार भोजन तथा चाय-कॉफी-शराब वर्जित है; सामान्य सात्त्विक भोजन जैसे-दूध, घी, मठ्ठा, सब्जी, पतली खिचड़ी, दलिया, दालें, रोटी, सलाद, फल आदि लिया जाना चाहिए। '

अभ्यास का समय, आवृत्ति एवं सावधानियाँ-सामान्यतः सूर्याेदय से पूर्व जागकर, प्रातःकाल एवं भोजन से पूर्व अर्थात् खाली पेट ही षट्कर्म किये जाने चाहिए, किन्तु प्रत्येक कर्म के अलग-अलग प्रकारों के अनुसार निर्धारित समय, आवृत्ति और सावधानियों को ध्यान में रखकर ये सभी कर्म करने चाहिए।

नियमित दिनचर्या-षट्कर्म के अभ्यास में नियमित दिनचर्या अपनायी जानी आवश्यक है। रात को शीघ्र सोना व प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में जागना, स्नान, दंतमंजन, हमेशा के सामान्य कार्यों का योजनाबद्ध एवं तनावमुक्त संचालन होना आवश्यक है।

सकारात्मक विचार-तनाव रहित होकर, धीरे-धीरे बिना किसी बल का प्रयोग किये; सकारात्मक विचारों के साथ ही षट्कर्म का अभ्यास करना चाहिए।

यथोचित नियमों के पालन न करने पर कोई भी शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक क्षति हो सकती है। सभी कर्मांे की विधि आदि का ज्ञान होना अनिवार्य है; इसलिए इन छः कर्मों को इनकी विधि, सावधानी एवं लाभ आदि के साथ विवेचित करेंगे। निर्धारित क्रम के आधार पर सर्वप्रथम धौतिकर्म को प्रस्तुत करेंगे।

धौतिकर्म

धौति का अर्थ-धौति शब्द संस्कृत भाषा से व्युत्पन्न है; जिसका अर्थ है शुद्ध, स्वच्छ, विकार रहित और निर्मल।

परिभाषा एवं महत्त्व-जिस प्रक्रिया के द्वारा अशुद्धियों या विकारों को दूर करके व्यक्तित्व की शुद्धि की जाती है; वह धौति कर्म कहलाता है। सामान्य रूप से हम हमेशा नहा-धो कर शरीर के बाहरी अंगों की सफ़ाई करते हैं; परन्तु पाचनतन्त्र के अंगों-मुँह, आमाशय, आंतों आदि की सफ़ाई हम कभी नहीं करते; जबकि यह तन्त्र ही सम्पूर्ण शरीर के पोषण हेतु पोषक पदार्थ को पचाकर ऊर्जा देने योग्य बनाता है। धौतिकर्म के अभ्यास से सम्पूर्ण पाचनतन्त्र एवं कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण अंगों को भी स्वच्छ बनाया जाता है। आन्तरिक सफ़ाई के अभाव में कोई भी व्यक्ति स्वस्थ नहीं रह सकता। इसलिए धौतिकर्म शरीर की आन्तरिक सफ़ाई के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

धौति कर्म की विधियाँ व उपविधियाँ-इसकी चार मुख्य विधियाँ हैं व प्रत्येक विधि की अनेक उपविधियाँ भी हैं।

1. अन्तर्धाैति-इसकी भी चार विधियाँ हैं-

(अ) वातसार-वायु के द्वारा आन्तरिक पाचन-अंगों की सफ़ाई करना।

(ब) वारिसार-जल द्वारा आन्तरिक पाचन-अंगों की सफ़ाई करना।

(स) वह्निसार (अग्निसार) -जठराग्नि द्वारा आन्तरिक पाचन-अंगों की सफ़ाई करना।

(द) बहिष्कृत-वायु को बाहर करते (निकालते) हुए बड़ी व छोटी आंत की सफ़ाई करना।

2. दन्तधौति-इसकी भी चार विधियाँ हैं-

(अ) दन्तमूल-दांतों की सफ़ाई करना।

(ब) जिह्वामूल-जीभ की सफ़ाई करना।

(स) कर्णरन्ध्र-कान की सफ़ाई करना।

(द) कपालरन्ध्र-खोपड़ी के ऊपरी भाग की सफ़ाई एवं शीतल जल से उसे ठंडक प्रदान करना।

3. हृद्धौति-इसकी भी तीन विधियाँ हैं-

(अ) दण्ड-दण्ड (रबर की पाइप से) अन्ननलिका एवं आमाशय की सफ़ाई करना।

(ब) वमन-पानी पीकर उल्टी करके जीभ, अन्ननलिका एवं आमाशय की सफ़ाई करना।

(स) वस्त्र-निर्धारित समय में कपड़े की पट्टी को खाकर फिर बाहर निकालकर जीभ, अन्ननलिका एवं आमाशय की सफ़ाई करना।

4. मूलशोधन-यह एक ही प्रकार का है; जिसमें हल्दी के दण्ड या मध्यमा उंगली से यत्नपूर्वक गुदाप्रदेश को भीतर की ओर से बार-बार धोकर साफ़ किया जाता है।

अब हम एक-एक करके सभी प्रकारों की प्रायोगिक विधि, सावधानी एवं लाभों आदि का विवेचन करेंगे।

(अ) वातसार अन्तर्धौति-विधि, सावधानी एवं लाभ

वातसार अर्थात् वायु का तत्त्व ग्रहण करके शरीर की शुद्धि करना। किसी ध्यानात्मक आसन जैसे-पद्मासन, सिद्धासन, सिद्धयोनी आसन, वज्रासन या सुखासन में बैठकर, मुँह खोलकर कौवे की चोंच के जैसे होंठों का आकार बनाकर नाक से अन्दर की सम्पूर्ण वायु बाहर निकाल लेनी है। तत्पश्चात् मुँह से धीरे-धीरे वायु पीकर उदर में भरनी है। यह काकी मुद्रा कहलाती है। जैसे जल को पीते हुए गला ऊपर-नीचे होता है वैसे वायु को पीना है। जब पूरा पेट भर जाय तो शरीर ढीला छोड़कर वायु उदर में कुछ समय तक घुमानी है। फिर वायु को धीरे-धीरे नाक से बाहर-बाहर निकाल लेना है।

वातसार धौति हेतु वज्रासन चित्र सं0 1

अभ्यास का समय, आवृत्ति एवं सावधानियाँ-प्रतिदिन दिन में सुविधा व क्षमता के अनुसार कितनी भी बार किया जा सकता है, किन्तु आवृत्ति कम से कम दो व अधिक से अधिक पांच बार ही होनी चाहिए। दोनों समय भोजन से पूर्व कर सकते हैं। अभ्यास के समय खाली पेट ही होना चाहिए। हृद्य रोगी, शल्य चिकित्सा (ऑपरेशन) करवा चुके, अतिवृद्ध (80 वर्ष से अधिक के व्यक्ति) को नहीं करना चाहिए। खड़े होकर नहीं करना चाहिए।

वातसार धौति के लाभ-शारीरिक शुिद्ध या पवित्रता, रोगों से मुक्ति तथा भूख बढ़ाने में सहयोगी। कब्ज, पेट के फोड़े, हर्निया, अल्सर, मोटापा, कीटाणुजनित रोग, अम्ल पित्त व दूषित गैसों का निष्कासन आदि जैसे लाभ भी प्राप्त होते हैं।

अब इस क्रम के दूसरे अभ्यास अर्थात् वारिसार धौति की विधि आदि स्पष्ट करेंगे।

(ब) वारिसार अन्तर्धौति

वारिसार अर्थात् जल के तत्त्व द्वारा शरीर का शुद्धिकरण करना। इसमें पानी के द्वारा सम्पूर्ण पाचन संस्थान की सफ़ाई की जाती है। इस क्रिया को शंख प्रक्षालन भी कहते हैं। जल से शंख को धोने के समान ही इसमें शरीर को जल से धोया जाता है। इस कर्म से पूर्व यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि जिस दिन यह कर्म करना हो उसकी पूर्व संध्या पर हल्का व सुपाच्य भोजन करना चाहिए, जैसे-खिचड़ी या फलाहार। यह कर्म करते समय हल्के, ढ़ीले व सुविधाजनक वस्त्र पहनने चाहिए व शौचालय समीप ही होना चाहिए। आंगन, बरामदा या स्वच्छ वायु व प्रकाशयुक्त कोई भी स्थल इसे करने में प्रयुक्त हो सकता है। यह कर्म करने के लिए पहले एक बाल्टी गरम पानी करके उसमें नमक मिला लेना चाहिए। केवल खारापन आना चाहिए अधिक नमक न हो। फिर सूती कपड़े को उसमें घुमा लेना आवष्यक है, इससे नमक की अशुद्धियाँ कपड़े में चिपक कर निकल जायेंगीं।

यह सब करने के बाद दो गिलास पानी तेजी से पीकर पांच आसन-ताड़ासन, तिर्यकासन, कटिचक्रासन, तिर्यक भुजंगासन व उदराकर्षणासन करने हैं। इसके बाद दो गिलास पानी फिर से पीना है। फिर उपर्युक्त आसन करने हैं, फिर पानी पीना है। इसमें जब प्रत्येक आसन आठ बार हो जाय तो शौच चले जाना है। शौचालय में दो मिनट से अधिक नहीं रूकना है। यदि शौच न आ रहा हो तब भी पानी पीने व आसन करने का क्रमानुसार नियमन रखना चाहिए। इस प्रकार स्वयं ही दबाव उत्पन्न होकर शौच हो जायेगा। इस प्रकार बार-बार करना आवश्यक है, जब तक कि जैसा स्वच्छ जल पिया था वैसा ही गुदामार्ग से न निकले। कम सेे कम 16 अधिक से अधिक 20 गिलास में यह क्रिया पूर्ण हो जाती है इससे अधिक नहीं पीना चाहिए। इसको करने के लिए उपर्युक्त पाँचों आसनों की विधि निम्न प्रकार है।

चित्र सं0 2 ताड़ासन तिर्यक ताड़ासन कटिचक्रासन

चित्र 3 तिर्यक भुजंगासन चित्र 4 उदराकर्षणासन

1. ताड़ासन-दोनों पैरों को 10 सेमी0 की दूरी पर रखते हुए खड़े होना है। दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में फंसाकर दोनों पैरों पर समान भार डालते हुए, स्थिर होकर दोनों भुजाओं को पूरा ऊपर की ओर तानकर पूरे शरीर का भार केवल पंजों पर होना चाहिए। शरीर का तना हुआ हथेलियाँ आकाश की ओर रहेंगी। श्वास लेते हुए शरीर को ऊपर तानना चाहिए व सांस छांड़ते हुए नीचे की ओर आना चाहिए। तने हुए शरीर के समय दृष्टि भी ऊपर की ओर एक निश्चित बिन्दु पर होनी चाहिए, इस स्थिति में थोड़ा-सा रूककर वापस आ जाना चाहिए। इस अभ्यास से आंतों का विस्तार होने के फलस्वरूप जल पाइलोरिक वाल्व (जो आमाशय व छोटी आंत के बीच मेें होता है) को खोलते हुए छोटी आंत में प्रवेश करता हैंं।

2. तिर्यक ताड़ासन-दोनों पैरों में दो-ढाई फीट का अन्तर रखकर खड़े होना चाहिए। दोनों हाथों को ताड़ासन के समान ही ऊपर तानकर रखना है। शरीर को कमर से दांये फिर बांये ओर मोड़ते हुए बारी-बारी से पूरा झुकाना चाहिए। जब दाहिने झुकते हैं तब दाहिनी ओर के अंग सिकुड़ते हैं और बांयी ओर के अंग फैलते हैं; और बांयी ओर झुकने पर बांयी ओर के अंग सिकुड़ते तथा दाहिनी ओर के अंग फैलते हैं। सिर एवं नज़र सीधी और सांसें सामान्य गति से चलती रहंेगी। बार-बार धक्के लगने से आंतों में जमा हुआ मल जल के साथ घुलकर नीचे की ओर जाता है।

3. कटि चक्रासन-दोनों पैरों के बीच दो-ढाई फीट की दूरी रखकर खड़े हो जाते हैंं। कन्धों की ऊँचाई तक भुजाओं को बगलों में फैलाते हैं। शरीर को कमर के ऊपरी भाग से दांयी ओर मोड़ते हैं पैर अपने स्थान पर ही रहेंगें। बांया हाथ सामने से दांये कन्धे पर व दांया हाथ पीछे की ओर से घूमता हुआ धड़ पर लिपट जाना आवश्यक है। पूरे अभ्यास में भुजाएँ व पैर यथासंभव शिथिल रहने चाहिए। जब शरीर पूरा घूम जाय तो सिर को भी उसी दिशा में घुमाना चाहिए जिस ओर पीठ घुमायी है। अन्तिम स्थिति में बांया हाथ दाहिने कन्धे पर, दाहिना हाथ कमर के बांयेे हिस्से का स्पर्श करेगा। दाहिने कन्धे से यथासंभव पीछे की ओर देखना चाहिए। ऐसा ही विपरीत दिशा-बांयी ओर भी करना चाहिए।

4. तिर्यक भुजंगासन-ज़मीन पर पेट के बल लेटकर, पैरों के पंजे आपस में मिले हुए या थोड़ी-सी दूर, सुविधानुसार ज़मीन पर लिटे हुए रहने चाहिए। अब हथेलियों को नितम्बों के ठीक बगल में ज़मीन पर टिकाना है। भुजाएँ सीधी करते हुए कन्धे व सिर को ज़मीन से ऊपर कमर से मोड़ते हुए उठाना है। गर्दन पीछे की ओर ले जाते हैं, फिर धीरे से दाहिनी ओर मोड़ते हुए बांयी एड़ी को देखते हैं। अन्तिम अवस्था में भुजाएँ पूर्णतः सीधी रहनी आवश्यक हैं व नाभि क्षेत्र ज़मीन पर रहेगा। इस स्थिति में थोड़ी देर रहकर फिर भुजाएँ मोड़ते हुए शरीर ज़मीन पर ले आना है। इसी प्रक्रिया को दूसरी ओर से भी मुड़ते हुए दोहराना है। शरीर ऊपर उठाते हुए " वास लेना व नीचे आते हुए श्वास छोड़ना चाहिए। इस आसन में इलियोसाइकिलवाल्व (छोटी आंत व बड़ी आंत के बीच) खुलता है। जिससे जल मल को लेकर बड़ी आंत में प्रवेश करता है।

5. उदराकर्षणासन-दोनों पैरों को एक दूसरे से आधा मीटर की दूरी बनाते हुए उकड़ू बैठ जाते हैं। हाथों का घुटने पर रखते हैं। बांये घुटने को ज़मीन पर टिकातेे हुए पूरी जांघ व पिंडलियाँ ज़मीन पर सटा देते हैं। धड़ को कमर के पास से यथासंभव दाहिनी ओर मोड़ते हुए अधिकतम पीछे को देखते हैं। पूरे अभ्यास में हाथ घुटनों पर रहेंगे व पीठ शिथिल रहेगी। प्रारम्भिक स्थिति में लौटकर यह प्रक्रिया बांयी ओर से भी करनी चाहिए।

उपर्युक्त आसन को करने के पश्चात् वमन व नेति कर्म को किया जाता है। जिनकी विस्तृत विधि हम आगे बतायेंगे। सुविधा हेतु संक्षिप्त विधि बता रहे हैं।

वमन या कुंजल क्रिया के अन्तर्गत गले तक पानी पीकर उसे वमन करके मुँह से बाहर निकाला जाता है (इसका विस्तृत विवेचन हृद्धौति के अन्तर्गत करेंगें) । इससे अन्ननलिका एवं आमाशय में फंसे अनुपयोगी अन्नकण, कफ एवं पित्त बाहर निकल जाते हैं।

नेति कर्म के अन्तर्गत नासिका से जल को अन्दर प्रवेश करवाकर दूसरी नासिका से बाहर निकाला जाता है। इसके बाद चार-पांच बार वातक्रम कपालभाति कर लेना चाहिए। इनकी विधि आगे विवेचित की जायेगी।

सावधानियाँ, समय एवं आवृत्ति-सात दिनों तक दूध व दूध से निर्मित कोई भी खाद्य पदार्थ, मिठाई, चाय, कॉफी, नींबू, फल, पान, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, खैनी, जर्दा व कोई भी नशीला पदार्थ वर्जित है। चालीस दिनों तक किसी भी प्रकार की एलोपैथिक दवाई, रसायन, मदिरा, चरस, गांजा व ताड़ी का सेवन वर्जित है। इस नियम का उल्लंघन प्राणघात करने के समान है। भोजन में तेल, मिर्च, मसाले, अचार, पापड़, चटनी नहीं लेनी है। रोटी, खिचड़ी या दाल-भात नरम करके घी मिलाकर खाना चाहिए। अभ्यास के बाद तीन घण्टे तक नहाना नहीं है। ठण्डा व अधिक गरम पानी पीना, कूलर या पंखे की हवा, तपती धूप व आग के पास नहीं बैठना है। यदि सर्दी में धूप में बैठना हो तो कम्बल ओेढ़कर बैठना चाहिए। 15 वर्ष की उम्र के बाद जब तक शरीर स्वस्थ हो यह क्रिया कर सकते हैंं। उच्च रक्तचाप, चक्कर आना, मिर्गी, हृद्य रोग, ड्यूडिनल अल्सर, हर्निया व खूनी बवासीर के रोगियों को यह नहीं करना है। इस प्रक्रिया को अत्यधिक गर्मी एवं सर्दी के मौसम में नहीं करना है। भारतीय मौसम के अनुसार वर्ष में दो बार मार्च व सितम्बर ही इस के लिए उत्तम है। प्रत्येक छः माह के बाद किया जा सकता है, इससे अधिक नहीं, साथ ही आसमान का साफ़ होना आवश्यक है।

अभ्यास के पश्चात् विश्राम, भोजन-इस क्रिया को करने के बाद 45 मिनट तक बिना सोये शवासन में विश्राम करना चाहिए। इस अभ्यास के बाद घी, हल्के नमक तथा हल्दी मिली पतली खिचड़ी पेट भरकर खानी चाहिए। अन्य मसाला नहीं होना चाहिए। पानी नहीं पीना है यदि पीना हो तो एक दो घंूट गरम पानी। भोजन के बाद फिर कम से कम दो दिन विश्राम करना आवश्यक है। जब तक ऐसा संभव ना हो यह क्रिया नहीं करनी चाहिए। इसके साथ ही इसमें कुछ अन्य सावधानियाँ अपेक्षित हैं।

वारिसार धौति के लाभ-वारिसार धौति अत्यंत गोपनीय शरीर को स्वच्छ व स्वस्थ करने वाली क्रिया है। इसका यत्नपूर्वक अभ्यास करने वाले अभ्यासी का शरीर स्वस्थ, दिव्य, कान्तियुक्त, ओजस्वी व हल्का हो जाता है। मन प्रसन्न एवं स्वस्थ होता है।

(स) वह्निसार (अग्निसार) अन्तर्धौति

अर्थ एवं परिभाषा-अग्निसार शब्द दो पदों से बना है अग्नि और सार अर्थात् अग्नि अर्थात् पाचक रस जिनसे भूख लगती है तथा सार अर्थात् तत्त्व। जिस क्रिया के द्वारा पाचक रसों में वृद्धि, पाचन तन्त्र के विकार दूर हों; वह अग्निसार कर्म है।

विधि-यह क्रिया किसी ध्यानात्मक आसन (वज्र, पद्म, सिद्ध, अर्धपद्म, सिद्धयोनि) में बैठकर या खड़े होकर दोनों प्रकार से की जा सकती है। बैठकर सिर आगे झुकाकर जीभ बाहर निकालना है इस समय आँखें खुली या बन्द कैसे भी रह सकती हैं। फिर होंठों को गोल बनाकर मुँह से अन्दर की पूरी श्वास को बाहर निकाल लेना चाहिए, इसमें डायफ्राम या मध्यपटल की विशेष भूमिका है। इसका उपयोग मुँह से साँस निकालने हेतु होना चाहिए। श्वास नाक से नहीं निकालनी है मुँह से निकालनी चाहिए, मुँह से श्वास निकालते हुए पेट व फेफड़े पूरी तरह खाली कर देने चाहिए। इसके बाद श्वास को रोककर पहली बार में पेट को 15 बार पीठ से चिपकाना है। पूरी तरह से चिपकाने का प्रयास करना चाहिए। जब यह हो जाय तो शरीर को इसी अवस्था में पूरी तरह से विश्रान्त करने के बाद ही श्वास धीरे से लेना चाहिए। यदि अभ्यास खड़े होकर करना है तो पैरों में आधे फीट का अन्तर रखते हुए घुटनों को थोड़ा मोड़ लेना चाहिए, आगे झुककर दोनों हाथों को घुटने पर रखना है। रीढ़ व हाथों को सीधा रखना आवश्यक है। पेट को देखते हुए पूर्व अभ्यास के समान पेट को सिकोड़ने व फैलाने का अभ्यास करना चाहिए।

चित्र सं0 5 अग्निसार धौति हेतु शारीरिक स्थिति

समय, आवृत्ति एवं सावधानियाँ-प्रातःकाल, खाली पेट नया अभ्यास प्रारम्भ करते हुए कम से कम तीन व अधिक से अधिक पांच बार यह क्रिया करनी चाहिए। धीरे-धीरे पेट को सिकोड़ने व आवृत्तियों की संख्या क्षमतानुसार बढ़ानी चाहिए। प्रत्येक आवृत्ति के बाद थोड़ा विश्राम करना चाहिए। हृद्यरोग, उच्च रक्तचापय, पेट या अमाशय के नासूर, हर्निया, दमा, जैसे रोगों से पीड़ित, गर्भावस्था के दौरान कदापि नहीं करना चाहिए। प्रसवोपरान्त छः माह बीतने के बाद ही करना लाभदायक है। बाक़ी सारे नियम गुरु के अनुसार पालन करने हैं।

अग्निसार धौति के लाभ-यह क्रिया पेट के सभी रोगों का निदान, पेट के सभी अंगों का संतुलन, भूख (जठराग्नि) , क्रियाशीलता और पाचक रसों के स्रावण को बढ़ाने हेतु उपयोगी है। कब्ज, पित्त, वायु का प्रकोप, अल्सर, हर्निया, अपच, अतिअम्लता, अल्पअम्लता तथा यकृत के रोगों में लाभ प्राप्त होता है। अभ्यास के समय होने वाली मानसिक उत्तेजना से मानसिक रोगों का भी निदान होता है।

धौति का अगला प्रकार बहिष्कृत धौति कहलाता है; इसकी विधि इस प्रकार है।

(द) बहिष्कृत अन्तर्धौति

अर्थ एवं परिभाषा-बहिष्कृत अर्थात् बाहर की ओर निकालना या से निकालना। धौति की प्रक्रिया में वायु का मुँह से पेट में भरकर पेट में संचालन करके गुदामार्ग से बाहर निकाल देते हैं।

विधि-होंठों को कौवे की चोंच (काकीमुद्रा) के समान बनाकर वायु को पेट में रोककर संचालन करना है व इसके बाद गुदामार्ग से बाहर निकाल लेना चाहिए। इसे करने हेतु पहले प्राणायाम को सिद्ध करना आवश्यक है। यह सामान्य मनुष्य से होना सम्भव नहीं है इसके लिए अत्यंत अभ्यास की आवश्यकता है। बड़े-बड़े हठयोगी भी कठिनाई से ही इसे कर पाते हैं। इसीलिए इसे गोपनीय कहा गया है। ा है।

आवृत्ति, समय एवं सावधानी-सर्वप्रथम शारीरिक संरचना व क्षमता का निरीक्षण अनिवार्य है। खाली पेट प्रातःकाल अभ्यास यथोचित है किन्तु बिना सिद्धयोगी के इसका अभ्यास वर्जित है। इसलिए समस्त सावधानियाँ गुरु के निर्देशानुसार ही होंगी। सामान्य साधक को नहीं करना चाहिए, जो प्राणायाम को सिद्ध कर चुके हों वे ही कर सकते हैं।

लाभ-इससे सम्पूर्ण पाचन तन्त्र एवं विशेष रूप से गुदा क्षेत्र की सफ़ाई होती है। सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ होता है।

बहिष्कृत धौति अन्तर्धाैति का अन्तिम अभ्यास होता है; इसके पश्चात् धौतिकर्म का दूसरा भेद दन्तधौति है; जिसमें दन्तमूल आदि अभ्यास आते हैं। अब हम इनकी विधि आदि प्रस्तुत करेंगे।

2. दन्त धौति

सामान्य अर्थ के अनुसार दन्त धौति का आशय दाँतों की सफ़ाई जैसा लग रहा है, किन्तु इस शब्द को घेरण्ड मुनि ने शीर्ष प्रदेश की सफ़ाई के सन्दर्भ में प्रयोग किया है। दन्तधौति के भी चार प्रकार हैं, जिनका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है; सीधे इनकी विधि आदि की चर्चा करेंगे।

(अ) दन्तमूल धौति

अर्थ एवं परिभाषा-दन्तमूल अर्थात् दाँतों की जड़; धौति की इस विधि में दाँतों की जड़ों को साफ़ किया जाता था। प्राचीन समय में पेस्ट आदि तो होते नहीं थे; किन्तु औषधीय दाँतुन, कत्था एवं महीन मिट्टी इस हेतु उपयोग में लायी जाती थी।

विधि-सामान्यतः हम ब्रश से दाँत साफ़ करते हैं, किन्तु उससे दाँतों की जड़ों व मसूढ़ों की मालिश नहीं होती। इस क्रिया में एक विशेष औषधि-खादिर (कत्थे) का प्रयोग किया जाता है। कत्थे को उंगली पर लगाकर फिर भिगोकर नित्य प्रति दाँतों और मसूढ़ों को रगड़ना चाहिए।

समय एवं आवृत्ति-सर्वप्रथम प्रातःकाल तथा भोजन के पश्चात् प्रत्येक बार अर्थात् दिन में लगभग तीन बार करना चाहिए।

दन्तमूल धौति के लाभ-इस प्रक्रिया को करते समय आयुर्वेदिक औषधि के प्रयोग से मुँह के विभिन्न रोग जैसे-मुँह के छाले, दाँत दर्द, कीटाणुओं द्वारा किये गये छेद व मसूढ़ों की सूजन आदि दूर होते हैं। इससे मसूढ़ों में रक्त परिसंचरण बढता है। भोजन को चबाने का कार्य दांत करते हैं व चबाते हुए लार के मिश्रण से पाचन सम्बन्धी कुछ क्रिया मुख में ही प्रारम्भ हो जाती है, इसलिए भोजन के पचने में दाँतों की भी प्रमुख भूमिका है। अतः इन पर भी स्वास्थ्य निर्भर है। इसलिए यह शुद्धिकर्म महत्त्वपूर्ण है।

इसके पश्चात् जीभ को साफ़ करना आवश्यक है; जिसके लिए जिह्वामूल धौति आवश्यक है; इसकी विधि इस प्रकार है-

(ब) जिह्वामूल धौति

अर्थ, परिभाषा एवं विधि-जिह्वामूल का अर्थ जीभ के सबसे पीछे वाले भाग से है; इस क्रिया में तर्जनी, मध्यमा व अनामिका तीनों उंगलियों को मिलाकर पूरी जीभ को पिछले भाग तक रगड़कर साफ़ किया जाता है। लियों तर्जनी, मध्यमा व अनामिका को मिलाकर जीभ की जड़ तक गले में डालकर धीरे-धीरे अन्दर से बाहर जीभ की नोंक तक रगड़ते हुए मालिश करनी चाहिए। ऐसा करते हुए हल्की-सी उबकायी भी आती है; जिससे गले का अतिरिक्त कफ एवं श्लेष्मा आदि साफ़ हो जाता है। जब गन्दगी साफ़ हो जाय तो पानी से कुल्ला कर लेना चाहिए।

आवृत्ति, समय एवं सावधानियाँ-उपर्युक्त अभ्यास को प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक सूर्योदय के समय दन्तमूल धौति के बाद करना चाहिए। इस क्रिया को प्रातः व सायं मिलाकर 7 से 10 बार कर सकते हैं। इसमें कुछ सावधानियों को अपनाना चाहिए, जो निम्न हैं। जीभ में छाले होने पर धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक करना चाहिए। नाखून एकदम कटे हुए होने आवश्यक हैं। उंगलियों को अधिक अन्दर नहीं डालना चाहिए, क्योंकि इससे स्वर यंत्र को चोट आने की संभावना रहती है।

ंंलाभ-इससे जीभ के समस्त विकार, गले का कफ-श्लेष्म दूर होना, स्वाद ग्रन्थियों की स्वस्थता व रक्त संचरण से भोजन में स्वाद आना, कफ व श्लेष्म दूर होना, जीभ के अनेक नाड़ियों से सम्बन्ध होने के कारण नाड़ियों का सक्रिय होना, मस्तिष्क का स्वस्थ होना जैसे महत्त्वपूर्ण लाभ भी प्राप्त होते हैं।

इसके पश्चात् कर्णरन्ध्र धौति का निर्देश है; जिसकी विधि आदि इस प्रकार है-

(स) कर्णरन्ध्र धौति

अर्थ, परिभाषा एवं विधि-कर्ण अर्थात् कान एवं रन्ध्र अर्थात् छेद। वह प्रक्रिया; जिसमें दोनों कानों के छेदों की सफ़ाई की जाय; कर्णरन्ध्र धौति कहलाती है। सप्ताह में एक बार थोड़े से तिल या सरसों के तेल में दो चार कलियाँ लहसुन की डालकर उबालना व आग से हटाकर उसे ठंडा कर लेना चाहिए। फिर रूई को उसमें भिगाकर उसकी सहायता से 5-6 बंूद तेल कान में डालना चाहिए। थोड़ी देर रूई से कान को बन्द कर लेना चाहिए, इससे मैल मुलायम होकर फूल जाता है। इसके बाद उंगली को गीला करके अनामिका या तर्जनी को मिलाकर गोलाई में घुमाते हुए कर्णनली के मुहाने तक ले जाकर धीरे-धीरे हिलाना व गोलाकार घुमाना चाहिए। घुमाते हुए ही बाहर निकाल लेना चाहिए, ऐसा करने से अन्दर निर्वात् बनेगा व मैल का उंगली से चूषण हो सकेगा।

यह सप्ताह में एक बार दोनों कानों के लिए करना चाहिए। कपालरन्ध्र धौति के नाम से उल्लेखित किया गया है, जिसका विवेचन निम्नवत् है।

आवृत्ति, समय एवं सावधानियाँ-सप्ताह में एक बार किसी भी दिन कर सकते हैं। यह मात्र उन्हीं व्यक्तियों को करना चाहिए जिन्हें कान सम्बन्धी कोई गम्भीर रोग न हो। जिनके कान का ऑपरेशन हो चुका हो; उन्हंे नहीं करना चाहिए।

लाभ-कान की स्वस्थता व स्वच्छता हेतु उपयोगी है। कान के भीतर के फफूंद संक्रमण व गन्दगी से हुए बहरेपन मेंं भी अत्यंत लाभकारी है। कान को हिलाने से कंपन होता है, जिससे रूधिर परिसंचरण बढ़ता है व स्वैच्छिक तन्त्रिका तन्त्र में संतुलन आता है। क्योंकि कान की त्वचा से परानुकम्पी वैगस नाड़ी का सम्बन्ध है, जो इस क्रिया से लाभान्वित होती है।

कपालरन्ध्र धौति अगला अभ्यास है; जिसकी विधि आदि निम्न प्रकार है।

(द) कपालरन्ध्र धौति

अर्थ, परिभाषा एवं विधि-सिर के ऊपरी भाग के बीचों-बीच स्थित वह मुलायम भाग; जो नवजात शिशु के सिर को छूकर गढ्ढे के समान स्पष्ट दिखता है; इस भाग को कपालरन्ध्र या ब्रह्मरन्ध््रा कहा जाता है। व्यक्ति जब बड़ा हो जाता है तो यह भाग भरकर थोड़ा सख्त हो जाता है। इस भाग का सम्बन्ध मस्तिष्क की संवेदनशील नाड़ियों से है। कपालरन्ध्र धौति के अभ्यास द्वारा इस भाग को शीतलता पहुँचाना का प्रयास किया जाता है। दाहिने हाथ के अंगूठे व चारों उंगलियों को मिलाते हुए कप जैसी आकृति बना लें। फिर हाथ में पानी भरकर सिर को सामने झुकाकर सिर के ब्रह्मरन्ध्र (कपालरन्ध्र) वाले हिस्से में पानी के छपके मारें व हथेली से थपकी लगाते हुए, ऐसा 5-6 बार करें।

समय, आवृत्ति, सावधानी एवं लाभ-सोने से पहले व उठने के बाद 5-6 बार यह क्रिया करनी चाहिए। मस्तिष्क ठंडा, शान्त, सक्रिय, तनावरहित होता है। अनिद्रा, थकान, उच्चरक्तचाप एवं नेत्रदोष दूर करने में उपयोगी है।

धौति का अगला मुख्य भेद हृद्धौति है; इसके पूर्व में बताये गये तीन उपभेद हैं; क्रमानुसार उन सभी की विधि आदि निम्न प्रकार है।

3. हृद्धौति

अर्थ-हृद् का अर्थ हृद्य व धौति का अर्थ स्वच्छता है। हृद्य प्रदेश के आस पास स्थित अंगों जैसे-अन्न नलिका एवं आमाशय आदि की सफ़ाई इसमें सम्मिलित है।

इसके अन्तर्गत दण्डधौति का अभ्यास सर्वप्रथम किया जाता है; जो इस प्रकार है।

(अ) दण्डधौति

अर्थ एवं परिभाषा-केले, हल्दी या बेंत के मृदु भाग के डण्डे को दण्ड कहा जाता है। आजकल इस क्रिया हेतु रबड़ की पाइप (जो बाज़ार में उपलब्ध है) उपयोग में लायी जाती है। इसे गले से भीतर प्रवेश करवाकर धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए। तत्पश्चात् कफ, पित्तं व श्लेष्म को मुँह से उल्टी करना चाहिए। रबड़ का पाइप एक ओर से पूरा खुला तथा दूसरी ओर से घुमावदार एक छिद्र युक्त बंद होता है। बंद (मुलायम) हिस्से को जिह्वामूल से आगे रखकर उसे घूंटकर अन्न नलिका में प्रवेश करवाते हैं, एक हिस्से को थोड़ा-सा बाहर रखते हैं। इससे पूर्व यदि चाहें तो थोड़ा नमकीन गुनगुना पानी पी सकते हैं। इसके पश्चात् जल तो पाइप से निकल आयेगा, किन्तु उसी समय पित्त, कफ व श्लेष्म आदि विकार भी बाहर रेचित (उल्टी) हो जाते हैं। प्रारम्भ में पाइप के सिरे पर थोड़ा घी लगा सकते हैं, जिससे गले में रगड़ ना लगे। इस अभ्यास से पहले कुंभक का अभ्यास होना आवश्यक है, क्योंकि पाइप को घूंटते समय श्वास रोकनी पड़ती है।

चित्र सं0 6 दण्डधौति के समय शारीरिक स्थिति

चित्र सं0 7 दण्ड धौति हेतु रबड़ का पाइप

समय, आवृत्ति एवं सावधानियाँ-प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व, खाली पेट, सप्ताह में एक बार, बिना बल प्रयोग किये; गुरु के निर्देशानुसार करना चाहिए। सूर्योदय के बाद करने पर सिरदर्द हो सकता है।

लाभ-कफ, पित्त एवं श्लेष्मा के निकल जाने से हृद्य, श्वास एवं पाचन सम्बन्धी रोगों का नाश होता है।

वमन धौति अगला प्रकार है; इसकी विधि इस प्रकार है।

(ब) वमन धौति

अर्थ, परिभाषा एवं विधि-वमन अर्थात् उल्टी; धौति के इस भेद में दो क्रियाओं का विधान है-कुंजल एवं व्याघ्र। दोनों में ही साधक को समान रूप से उल्टी करना होता है। कुंजल क्रिया खाली पेट की जाती है तथा व्याघ्र क्रिया भोजन के लगभग चार घण्टे पश्चात् की जाती है। दोनों ही क्रियाओं में गले तक जल पीकर क्षण भर बाद ऊपर की ओर देखते हुए वमन (उल्टी) की जाती है। कुंजलक्रिया-इसे करने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लें कि पेट खाली हो एव ंनाखून पूर्णतः कटे हुए हों। सर्वप्रथम प्रति लीटर एक चम्मच के अनुपात के अनुसार गुनगुना नमकीन पानी कर लें। सीधे खड़े होकर शीघ्रता से एक गिलास जल पीना चाहिए। इस प्रकार तब तक पानी पीते रहना चाहिए जब तक कि उल्टी आने जैसा प्रतीत न हो व यह न लगने लगे कि अब और पानी नहीं पिया जा सकता। इसके बाद सिर को ज़मीन के समानान्तर झुकाना है व पैरों में लगभग एक फुट का अन्तर होना चाहिए। इसके बाद दाहिने हाथ की हथेली को घुटने पर टिकायें तथा दाहिने हाथ के बीच की तीन उंगलियों को जिह्वामूल पर रखकर दबाना चाहिए। इससे पानी बाहर निकलेगा फिर उंगलियों को बाहर निकाल लेना चाहिए व पानी को स्वतंत्रतापूर्वक बाहर आने देना चाहिए, इसमें शरीर को शिथिल ही रखना चाहिए। जब पानी आना बन्द हो जाय तो उंगलियों को फिर से जिह्वामूल पर रखकर आगे-पीछे रगड़ना चाहिए। इससे पूरा पानी बाहर निकल जायेगा।

वमन धौति के अभ्यास में शारीरिक स्थिति चित्र सं0 8 एवं 9

आवृत्ति, समय एवं सावधानियाँ-प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व, खाली पेट एवं गुरु के मार्गदर्शन में, सप्ताह में मात्र एक बार ही करना चाहिए। पारंगत होने पर स्वयं किया जा सकता है। इसको करने के बाद आधे घण्टे तक कुछ भी खाना वर्जित है। आधे घण्टे बाद भी मिर्च-मसाले वाला खाना नहीं खाना चाहिए। घी युक्त हल्की खिचड़ी या फल ही खाने चाहिए। उच्च रक्तचाप, अल्सर, हर्निया व हृद्यरोग से पीड़ित व्यक्तियों के लिए पूर्णतः वर्जित है।

व्याघ्र क्रिया भी बिल्कुल इसी विधि से की जाती है; किन्तु भोजन के चार घण्टे बाद।

लाभ-पाचन सम्बन्धी रोगों जैसे-गले व पेट की जलन, खट्टे डकार, श्वास की दुर्गंध, अति या अल्पाम्लता, अपच, कब्ज, आदि का निदान व इसके साथ ही इसमें की जाने वाली व्याघ्र क्रिया करने से पाचन तन्त्र का अनावश्यक कार्य भार कम हो जाता है तथा विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाते हंै।

इसके बाद बतायी गयी वस्त्र धौति की विधि आदि इस प्रकार है।

(स) वस्त्र धौति

अर्थ, परिभाषा और विधि-वस्त्रधौति अर्थात् सूती कपड़े द्वारा की जाने वाली शुद्धिक्रिया। इसके अन्तर्गत मुलायम सूती कपड़े की चार अंगुल चैड़ी पट्टी लेकर धीरे-धीरे निगला जाता है; फिर इसे धीरे-धीरे बाहर निकाल दिया जाता है। 24 फीट लम्बा व लगभग 2 इन्च चैड़ा सूती कपड़ा आजकल इस धौति के लिए बाज़ार में मिलता है। इस कपड़े को उबाल लेना चाहिए व फिर वमन क्रिया की भांति नमकीन गुनगुना पानी तैयार करके वस्त्र को उसमें भिगो लेना चाहिए। इसके बाद सबसे पहले उकड़ू बैठना है। वस्त्र का एक सिरा लेकर उसे थोड़ा मोड़कर एक छोटा कौर-सा बनाना है। एक घूंट पानी पीते हुए उसे निगल लेना है। इससे वस्त्र अन्दर चला जायेगा। इसके बाद थोड़ा-थोड़ा करके हल्का चबाते हुए वस्त्र को निगलते रहना चाहिए, यदि वमन (उल्टी) की आशंका हो तो शान्त होकर थोड़ा-सा बैठ जाना चाहिए। वमन के शान्त होने पर फिर से प्रारम्भ करना चाहिए। पहले दिन वस्त्र छः इंच व दूसरे दिन एक फुट के लगभग अन्दर जायेगा 15 मिनट के पूरे होने तक जितना भी अन्दर जाय उतने में ही बाहर निकाल लेना चाहिए। अभ्यस्त होने के बाद 15 मिनट की अवधि के अन्तर्गत ही एक फुट को मुँह के बाहर छोड़कर पूरे वस्त्र को निगल लेना चाहिए। इसी अवधि में वस्त्र के अन्दर रहते हुए ही 5 मिनट तक नौलि क्रिया का अभ्यास करना चाहिए। नौलि क्रिया आगे बतायी जायेगी। 15 मिनट के अन्दर ही वस्त्र को बाहर निकाल लेना आवश्यक है अन्यथा यह पाइलोरिक वाल्व के खुलने से छोटी आंत में प्रवेश कर जायेगा जो अत्यंत घातक है व गम्भीर समस्या उत्पन्न कर सकता है।

चित्र सं0 10 वस्त्र धौति करते हुए शारीरिक स्थिति चित्र सं0 11 वस्त्र एवं लोटा

आवृत्ति, समय एवं सावधानियाँ-योगगुरु के निर्देश में, सूर्योदय से पूर्व, खाली पेट व सप्ताह में एक ही बार करनी चाहिए। पारंगत होने पर स्वयं कर सकते हैं। वस्त्र को 15 मिनट से अधिक भीतर नहीं रहने देना चाहिए अन्यथा गम्भीर समस्या उत्पन्न हो सकती है। जोर-जबर्दस्ती न करें, अल्सर, हृद्यरोगी, उच्च रक्तचाप व हर्निया के रोगी न करें।

लाभ-दमा, कफ, वायु विकार, पित्त विकार, बुखार, चर्म रोग व कुश्ठ रोग समूल नष्ट होते है। अन्ननलिका एवं आमाशय की भीतरी दीवारों पर जमी हुई गन्दगी साफ़ होने से सम्पूर्ण स्वस्थता, पुष्टि और त्वचा की कांति जैसे लाभ प्राप्त होते हैं। पूर्ण लाभ हेतु इसके बाद कुंजल व नेति कर्म कर लेना चाहिए। नेतिकर्म आगे विवेचित करेंगे। अब हम धौति के अन्तिम प्रकार मूलशोधन नामक धौति की विधि आदि को स्पष्ट करेंगे।

4. मूलशोधन कर्म

अर्थ, परिभाषा, विधि-मूल शब्द का प्रयोग गुदाप्रदेश के लिए किया गया है; शोधन अर्थात् शुद्धि। धौति की इस प्रक्रिया के अन्तर्गत गुदा प्रदेश की सफ़ाई की जाती है। योगशास्त्र के अनुसार हल्दी की जड़ के दण्ड या मध्यमा उंगली से जल द्वारा गुदा प्रदेश का बार-बार प्रक्षालन (धोना) आवश्यक है; यही मूलशोधन है। हल्दी की नरम जड़ को नरम कर उसका ऊपरी छिलका निकाल लें। इससे रस निकलने लगेगा। फिर उकड़ू बैठकर उसे गुदा द्वार में डालते हैं। डंठल लगभग चार इंच लम्बा होता है। 2-3 मिनट अन्दर रखते हैं। जिससे हल्दी का रस फैलकर विषाक्त द्रव व विकार डंठल द्वारा शोषित हो जाता है। फिर इसे निकालकर फेंक देना चाहिए। यह हल्दी रोगाणु रोधक का कार्य करती है। यदि यह न मिल पाये तो मध्यमा उंगली में गाय का घी लगाकर उसे अन्दर चारों ओर गोल-गोल घुमायें। फिर उंगली बाहर निकाल कर अच्छी तरह धो लेना चाहिए। यह क्रिया कई बार करनी चाहिए। गाय का घी व हल्दी दोनों ही औशधीय गुणों से मुक्त है। अतः इनके प्रयोग से अनेक रोगों का निदान होता है।

आवृत्ति, समय एवं सावधानियाँ-प्रातःकाल शौच के समय लगभग 5 बार करना चाहिए। नाखून पूर्णतः कटे हुए, इस क्रिया से पहले व बाद में हाथ अच्छे से धोना आवश्यक है। गुरु के निर्देशानुसार ही करना चाहिए। बवासीर के रोगी धीरे-धीरे सावधानी से करना चाहिए। ठंडे जल का ही प्रयोग करना चाहिए अन्यथा रक्तस्राव होने का भय है।

धौतिकर्म के वैज्ञानिक आधार, शारीरिक एवं मानसिक लाभ

आधुनिक शरीरक्रिया-विज्ञान के मापदंडों के अनुसार धौतिकर्म (कर्ण-कपाल रन्ध्र के अतिरिक्त) के अभ्यास से शरीर के लगभग सभी तन्त्रों जैसे-पाचन, श्वसन, रक्त परिसंचरण, अन्तःस्रावी, उत्सर्जन, प्रजनन, स्नायु-पेशी एवं तन्त्रिका तन्त्र को अत्यधिक लाभ प्राप्त होते हैं। उल्लेखनीय है कि अधिकांश समस्याओं का मूल कारण पाचन तन्त्र की गड़बड़ी है। धौतिकर्म सेे पाचन सम्बन्धी सभी गड़बड़ियाँ दूर हो जाती हैं। साथ ही आधुनिक काल में मोटापा और मानसिक तनाव अधिकांश व्याधियों का मूल है। व्याधियों को समूल नश्ट करने हेतु धौति कर्म से अधिक प्राकृतिक, सुलभ, सस्ता एवं दीर्घकालीन उपाय कोई नहीं है। साथ ही इसके दवाओं के समान अतिरिक्त नकारात्मक प्रभाव भी नहीं हैं। मोटा व्यक्ति आसन व प्राणायाम आदि योग के अग्रिम अंगों का अभ्यास करने में भी असमर्थ रहता है। धौति कर्म के अभ्यास से जब मोटापा नियंत्रित हो जाता है तो साधक को इन अग्रिम योगांगों का अभ्यास करने व लाभ प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त नाक, कान, गला, मुंँह, दाँत व जीभ सम्बन्धी विकारों का निवारण दन्त धौति से होता है। इस प्रकार से धौति कर्म शरीर को स्वस्थ बनाने का महत्त्वपूर्ण साधन है। साथ ही तनाव नियन्त्रण के द्वारा सकारात्मकता, एकाग्रता, शान्तचित्तता तथा प्रसन्नता प्राप्त होती है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। इस प्रकार धौति कर्म मन को भी स्वस्थ व प्रसन्न बनाने हेतु उपयोगी है।

धौतिकर्म के आध्यात्मिक लाभ-शुद्धि होने से नाड़ियों एवं सभी चक्रों पर सकारात्मक प्रभाव होता है। जिससे असीम आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त होती है। आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति होती है।

धौतिकर्म के उपरान्त घेरण्ड संहिता में षट्कर्म के अन्तर्गत दूसरी शुद्धिक्रिया वस्ति निर्देशित की गयी है।

2. वस्तिकर्म

वस्तिकर्म का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व—वस्ति संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है-पेट में नाभि क्षेत्र से नीचे का भाग, पेड़ू, मूत्राशय व मूलाधार। इस प्रकार हठयोग के अनुसार वस्ति वह प्रक्रिया है जो नाभि के नीचे वाले सारे पाचन एवं उत्सर्जन अंगों को सुदृढ़, बलशाली, विकाररहित व स्वस्थ बनाती है। हठयोग के अतिरिक्त आयुर्वेद में भी दोनों में ही वस्तिकर्म का निर्देश है। अन्तर यह है कि हठयोग में यह शुद्धिकर्म मात्र जल एवं वायु के प्रयोग द्वारा किया जाता है; जबकि आयुर्वेद में इस अभ्यास को करते समय औषधियों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार दोेनों में ही वस्ति शब्द मूल रूप से एक ही अर्थ को लेकर प्रयुक्त हुआ है। वस्ति के द्वारा बड़ी आँत व गुदा प्रदेश की सम्पूर्ण सफ़ाई की जाती है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का एनिमा वस्ति का ही परिमार्जन है। एनिमा में कृत्रिमता अधिक है; जबकि वस्ति स्वाभाविक एवं प्राकृतिक है। यो तो धौति के अन्तर्गत शंख-प्रक्षालन अभ्यास द्वारा सम्पूर्ण पाचन व उत्सर्जन संस्थान की सफ़ाई व स्वस्थता प्राप्त होती है; किन्तु कठिन होने के कारण इसे सभी नहीं कर पाते। साथ ही यह छः माह में एक बार ही किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त धौति के अन्य अभ्यासों द्वारा मात्र आमाशय तक की ही सफ़ाई होती है। इसलिए बड़ी आँत तथा गुदा की सफ़ाई हेतु वस्तिकर्म ही महत्त्वपूर्ण है।

वस्तिकर्म दो प्रकार का है-

1. जलवस्ति-इसका अभ्यास जल में किया जाता है।

2. शुष्क या स्थल वस्ति-इसका अभ्यास भूमि पर सूखे स्थान में किया जाता है।

1. जल वस्ति

विधि-जिस प्रकार अग्निसार धौति के अभ्यास में घुटनों को मोड़कर उत्कटासन में खड़े होते हैं; उसी प्रकार जल अर्थात् पानी के स्रोत (नदी या नहर) में नाभि तक जल में पैरों के बीच लगभग एक फुट की दूरी करते हुए खड़े होकर; जांघों को हाथों का सहारा देकर हथेलियों को जांघों व घुटनों के बीच टिकाते हुए आगे को झुकना चाहिए। ऐसा करने के बाद अश्विनि मुद्रा करनी चाहिए। अश्विनी मुद्रा अर्थात् जिस प्रकार घोड़ा मलत्याग के समय अपने गुदा भाग को सिकोड़ता तथा फैलाता है; उस प्रकार से अपने गुदा को करना। इसे करते समय श्वास भरते हुए गुदा द्वार को सिकोड़ते हुए अन्दर खींचना है तथा श्वास को छोड़ते हुए गुदा को ढीला करते हुए बाहर की ओर फ़ैलाना है। उक्त दोनों प्रक्रियाओं से गुदा द्वार की पेशियों के फैलने-सिकुड़ने से जिससे पानी गड़गड़ाहट के साथ अन्दर प्रवेश करता व बाहर निकलता है। इससे आंतों की दीवारों तथा गुदा के भीतर आस-पास जमे कड़ा मल बाहर निकल जाता है। इससे पाचन व उत्सर्जन में होने वाली अनियमितताएँ समाप्त हो जाती हैं; जिससे अनेक रोगों का निदान होता है।

चित्र सं0 12 जलवस्ति के समय उत्कटासन में शारीरिक स्थिति

आवृत्ति, समय एवं सावधानियाँ-प्रातःकाल, नित्यकर्म से पूर्व, शौचादि के समय, खाली पेट; सामान्यतः सप्ताह में एक बार; आवृत्ति शारीरिक स्थिति, क्षमता एवं गुरु के निर्देशानुसार। सामान्यतः जब तक मल रहित स्वच्छ जल न निकलने लगे तब तक करना चाहिए। कब्ज की स्थिति में लगभग हर चार दिन के बाद करना, किन्तु प्रतिदिन नहीं करना चाहिए। इसे बाथ टब में नहीं; बल्कि बहते जल में ही करना चाहिए। इसे करते समय मल-मूत्र बाहर निकलता है जो बहते पानी में बह जाता है व साथ ही इस कर्म को करने में बहते पानी का दबाव भी सहायक है। तनाव रहित होकर ही करना चाहिए। उच्चरक्तचाप, हर्निया, पाचन सम्बन्धी किसी गम्भीर रोग से ग्रस्त व्यक्तियों को नहीं करना चाहिए। बवासीर के रोगियों हेतु विशेष लाभप्रद; किन्तु उन्हें सावधानी से करना चाहिए।

वस्ति का दूसरा प्रकार शुष्क वस्ति है; जिसकी विधि इस प्रकार है।

स्थल (शुष्क) वस्ति

विधि-इस क्रिया में भी जलवस्ति के समान ही अश्वनी मुद्रा को किया जाता है; अन्तर यह है कि जलवस्ति में यह जल में की जाती है व इसमें यह स्थल@भूमि पर पश्चिमोत्तान आसन में बैठकर होगी। इसकोे करते हुए वायु को परिचालित करना होता है। सामान्यतः पश्चिमोत्तान आसन करते हुए दण्डासन में बैठकर हथेलियों से पैर के पंजों को छूकर सिर झुकाकर घुटनों से लगाते हैं, किन्तु यहाँ ऐसा नहीं है। सिर से घुटने नहीं छूने हैं मात्र इतना आगे झुकना चाहिए जितने में हाथों की उंगलियाँ पैर के पंजों को छूने लगें। दोनों पैरों में लगभग 12 इंच की दूरी तथा रीढ़ की हड्डी सीधी रहनी चाहिए। इसे सरल पश्चिमोत्तान की स्थिति कहते हैं। इसी स्थिति में अश्विनी मुद्रा का अभ्यास किया जाता है। सांस के अन्दर-बाहर होने तथा अश्विनी मुद्रा से गुदा के फैलाने व सिकोड़ने से भीतर एक ऋणात्मक दबाव उत्पन्न होता है। जब गुदा फैलाते हुए वायु बाहर तथा सिकोड़ते हुए भीतर करनी होती है। प्रारम्भ में यह एक रबड़ के पाइप की सहायता से किया जा सकता है; जो बाज़ार में उपलब्ध है; अभ्यस्त होने पर बिना उसके भी किया जा सकता है।

चित्र सं0 13 सरल पश्चिमोत्तान आसन में शुष्क वस्ति का अभ्यास

इस प्रकार इस क्रिया में कुछ अन्य तथ्यों का ध्यान रखना आवष्यक है। जैसे समय, आवृत्ति व कुछ सावधानियाँ जिनको हम यहाँ उल्लेखित कर रहे हैं।

समय, आवृत्ति तथा सावधानियाँ-प्रतिदिन प्रातःकाल जलपान स्नान से पूर्व, आवृत्ति अपनी क्षमता एवं गुरु के निर्देश के अनुसार अधिकतम। अन्य सावधानियाँ जलवस्ति के ही समान हैं।

वस्तिकर्म के वैज्ञानिक आधार, शारीरिक एवं मानसिक लाभ

किसी भी व्यक्ति का पाचन तथा उत्सर्जन संस्थान जीवन भर कार्य करते हैं; किन्तु उसकी सफ़ाई व मालिश द्वारा स्वस्थता हेतु कुछ भी नहीं किया जाता; जबकि बाहरी शरीर को चमकाने का प्रयास प्रत्येक व्यक्ति करता है। वस्तिकर्म के अभ्यास से पाचन व उत्सर्जन संस्थानों के विकार दूर होते हैं। जल एवं वायु के घर्षण द्वारा आँत की दीवारे साफ़ होती हैं; दीवारों में उपस्थित विली नामक संरचनाएँ साफ़ होती हैं; जिससे भोजन के अवशोषण में सहायता प्राप्त होती है। पाचन एवं उत्सर्जन के अतिरिक्त रक्त परिसंचरण, श्वसन, अन्तःस्रावी, प्रजनन, स्नायु-पेशी तथा तन्त्रिका तन्त्र पर सकारात्मक प्रभाव होते हैं। वस्तिकर्म के अभ्यासों से शरीर एवं मन दोनों ही स्वस्थ होते हैं। पेट साफ़ रहने से मानसिक प्रफुल्लता एवं सकारात्मकता प्राप्त होती है।

वस्तिकर्म के आध्यात्मिक लाभ-मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्रों पर सकारात्मक प्रभाव होता है। मेरुरज्जु के मूल में स्थित कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है। आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति होती है।

वस्ति कर्म के पश्चात् अगला अभ्यास नेतिकर्म है; इसकी विधि आदि इस प्रकार है-

3. नेतिकर्म:

नेति का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व-नेति शब्द हठयोग में नाक के भीतरी भाग की सफ़ाई द्वारा समस्त शीर्ष प्रदेश की सफ़ाई हेतु प्रयोग किया जाता है। सूत्र या कैथेटर के अतिरिक्त; इस कर्म में उपयोग में लाये जाने वाले पदार्थों (जल, दुग्ध, मूत्र व घृत आदि) को जोड़कर जलनेति के ही समान दुग्धनेति आदि नामों से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि नेति की विधि जल नेति के समान ही रहेगी मात्र उपयोग किये जाने वाले पदार्थ को जल के स्थान पर प्रयोग उपयोग में लाया जाता है। शीर्ष प्रदेश के पूर्णतः स्वच्छ व स्वस्थ होने से सकारात्मकता एवं शुभ संकल्पों का उदय होता है। नेतिकर्म द्वारा कफ तथा दृष्टि दोष भी दूर होते हैं। नेतिकर्म में मुख्य रूप से दो अभ्यास समाहित हैं-

1. जलनेति

2. सूत्रनेति

जलनेति की विधि

इस अभ्यास हेतु एक टोंटीदार लोटे की आवश्यकता होती है; यह प्लास्टिक या धातु का हो सकता है; यह बाज़ार में उपलब्ध रहता है। ऐसे लोटे की व्यवस्था करके; सर्वप्रथम जल को शरीर के तापमान के बराबर हल्का गर्म कर लेना चाहिए तथा उसमें मामूली नमक मिला लेना चाहिए। नमक मात्र इतना हो कि पानी आंसू के बराबर नमकीन हो जाय। अब खड़े होकर या एड़ियों के बल उकड़ू बैठकर लोटे के पेंदे को हथेली से पकड़कर उसकी टोंटी एक नासाछिद्र में धीरे से प्रवेश करवानी चाहिए। फिर मुख को खोलकर गर्दन दूसरी ओर झुकानी है। यदि लोटा बांयी ओर है तो दाहिने कंधे की ओर और यदि लोटा दाहिनी ओर है तो बांये कंधे की ओर से झुकना चाहिए। इससे जल स्वतः ही दूसरे नासाछिद्र से बाहर निकलने लगेगा, इस समय श्वसन सामान्य रूप से मुख से होता रहेगा। अभ्यास के समय कभी भी नाक से साँस नहीं लेनी चाहिए। आरम्भ में अभ्यस्त न होने के कारण कुछ जल मुँह में जा सकता है, किन्तु अभ्यास हो जाने के बाद ऐसा नहीं होगा। एक ओर से यह पूरा हो जाने के बाद दूसरे नासाछिद्र से भी करना आवश्यक है। यदि नाक में हल्का-सा पानी बच जाय तो एक नाक को बन्द करके बारी-बारी से दोनों ओर से नाक छिड़कना आवश्यक है। अब नाक सुखाने के लिए सीधे खड़े हो जाना चाहिए, फिर आगे झुककर धड़ को पृथ्वी के समानान्तर कर लेना है। इसके बाद अंगूठे से एक नाक बन्द करके शीघ्रता से सांँस लेना व छोड़ना चाहिए। इस क्रिया में नाक के अन्दर बचे जल को बाहर निकालने पर ही अधिक ध्यान देना है, क्योंकि इस अभ्यास के द्वारा बचा हुआ जल बाहर निकालना अत्यंत आवश्यक है। इसी प्रकार की प्रक्रिया दुग्ध आदि नामक नेति में भी किया जाता है।

चित्र सं0 14 जलनेति का अभ्यास करने की स्थिति एवं टोंटी युक्त लोटा

आवृत्ति, समय तथा सावधानियाँ-प्रतिदिन-प्रातःकाल सामान्य स्थिति में दोनों नासाछिद्रों से लगभग 10 से 20 सेकण्ड तक एक आवृत्ति करनी चाहिए। नाक सम्बन्धी रोगों नासिर बहना आदि जैसे रोगों की स्थिति में अभ्यासी की क्षमता व गुरु के निर्देशानुसार करना आवश्यक है; गम्भीर समस्या हो तो नहीं करना चाहिए। जल न तो अधिक गर्म होना चाहिए न अधिक ठंडा और नमक इसमें पूरी तरह घुल जाना चाहिए। नाक अधिक ज़ोर से नहीं छिड़कना चाहिए। इस अभ्यास के बाद सूत्रनेति का अभ्यास सरल हो जाता है। नेति का दूसरा अभ्यास सूत्रनेति कहलाता है।

सूत्रनेति की विधि

इस अभ्यास में दो प्रकार के उपकरण उपयोग में लाये जाते हैं-कैथेटर और सूत्र को अपनी सुविधानुसार उपयोग में लाया जा सकता है। कैथेटर लम्बी व पतली रबर की ट्यूब होती है। जिसकी मोटाई अपनी नाक के छिद्र के अनुसार ली जा सकती है। साधरणतया 4, 5 या 6 नंबर का कैथेटर सभी लोगों के लिए उपयुक्त है। यह औषधालयों से खरीदा जा सकता है। इसके अतिरिक्त पुराने समय में सूत्र स्वयं निर्मित किया जाता था; किन्तु अब यह बाज़ार में मिल जाता है। सूत्र की मोटाई नासाछिद्र की मोटाई के अनुसार रखनी आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के नाक के छेद अलग-अलग मोटाई के होते हैं। सर्वप्रथम उकड़ू बैठना या खड़े हो जाना चाहिए। सूत्र या कैथेटर के कड़क व पतले भाग को धीरे-धीरे घुमाते हुए नाक के भीतर डालने का प्रयास करना चाहिए। सीधे जबरन नहीं डालना चाहिए, अन्यथा छिलने से खून निकलने की संभावना है। जब यह मुँह के पिछले भाग में सनसनी-सी उत्पन्न करे तो कैथेटर के मुँह वाले भाग तर्जनी व मध्यमा उंगलियों की सहायता से खींच लेना चाहिए। इस प्रकार सूत्र या कैथेटर का एक भाग नाक व दूसरा मुँह के बाहर रहेगा। अब दोनों छोरों को पकड़कर धीरे-धीरे सूत्र या कैथेटर को आगे व पीछे करते हुए रगड़ना चाहिए। इस प्रकार 5-6 बार ऐसा करके सूत्र या कैथेटर को मुँह के रास्ते बाहर निकाल लेना चाहिए। इसके पश्चात् नाक के दूसरे छेद से भी यही प्रक्रिया दोहरानी चाहिए। इसके बाद जल नेति का अभ्यास आवश्यक है। अभ्यास के बाद नाक में रूखापन-सा अनुभव हो तो दुग्ध या गाय के घी का प्रयोग करते हुए नेति कर लेनी चाहिए, इससे नाक में स्निग्धता आ जायेगी।


चित्र सं0 16 सूत्रनेति का अभ्यास सूत्रनेति हेतु उपकरण-कैथेटर

समय, आवृत्ति तथा सावधानियाँ-प्रारम्भ में कैथेटर या सूत्र को अन्दर बाहर करते हुए कठिनाई होती है, क्योंकि नाक की झिल्ली तथा नाड़ियों को कड़ा होने में कुछ समय लगता है। प्रातःकाल, खाली पेट, सप्ताह में एक बार व सूत्र को अधिकतम 14 बार ही अन्दर-बाहर करन चाहिए इससे अधिक नहीं। सूत्र को बलपूर्वक भीतर प्रवेश नहीं करवाना चाहिए, धीरे-धीरे घुमाते हुए अन्दर डालना चाहिए। सूत्रनेति के पहले और बाद में जलनेति का अभ्यास आवश्यक है। सूत्र या कैथेटर को उबालकर, धोकर व सुखाकर ही उपयोग में लाया जाना चाहिए व अभ्यास के बाद भी इसी प्रकार सम्भालना चाहिए।

नेतिकर्म के वैज्ञानिक आधार, शारीरिक एवं मानसिक लाभ

नेति क्षेत्र में भ्रूमध्य (भौंहों के बीच) से लेकर गले तक अनेक तन्त्रिकाएँ (नाड़ियाँ) होती हैं; जो नेति कर्म द्वारा उद्दीप्त व सक्रिय होती हैं; ऐसा होने पर सम्पूर्ण मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों में लाभ प्राप्त होता है। नेति के दोनों ही अभ्यासों में प्रारम्भ में आँखों से आँसू भी निकलते हैं; जिससे आँखों की अशुद्धियाँ भी दूर होती हैं। इस प्रकार दूर-निकट दृष्टि दोष, आँख, नाक, कान एवं गले के रोगों में लाभ प्राप्त होता है। नासिका क्षेत्र में स्थित सायनस ग्रन्थियों से उत्पन्न श्लेष्मा उन्हें चिपकाकर अन्दर जाने से रोकता है तथा साफ़ करने पर यह गन्दगी श्लेष्मा के साथ ही बाहर निकल जाती है। नेति कर्म द्वारा जमी हुई गन्दगी बाहर निकाली जाती है; जिससे सायनस ग्रन्थियाँ अधिक सक्रिय हो जाती हैं। सायनस ग्रन्थियाँ स्पन्ज की भाँति होती है व भ्रूमध्य क्षेत्र में स्थित रहती है। ये बाह्य वायु के ताप को भी शरीर के ताप के अनुकूल कर देती हैं। अनेक नाड़ियाँ इसी भू्रमध्य क्षेत्र से जुड़ी रहती हैं; जो समस्त शरीर की स्वस्थता का भी निर्धारण करती हैं। इसलिए नेति कर्म करने से अन्तःस्रावी ग्रन्थि सायनस की अस्वस्थता उत्पन्न समस्त रोग जैसे-सर्दी, जुकाम, नजला, सिरदर्द, बुखार, सिर का भारीपन, आँखों में दर्द व जलन आदि समाप्त होते हैं।

शीर्ष प्रदेश की शुद्धि एवं स्वस्थता द्वारा मानसिक चिंता, अवसाद, अनिद्रा एवं अवसाद आदि दूर होते हैं।

नेतिकर्म के आध्यात्मिक लाभ-इससे नाड़ियों की शुद्धि होती है; फलस्वरूप प्राणायाम सिद्ध होता है। ऐसा होने पर चक्र जागरण, प्राण संचरण एवं कुण्डलिनी जागरण आदि लाभ प्राप्त होते हैं। ध्यान आदि की प्रक्रिया में लाभ होता है तथा आज्ञा चक्र में अवस्थिति होने से ज्ञान की प्राप्ति होती है। आध्यात्मिक शान्ति मिलती है। आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति होती है।

चित्र सं0 17 सायनस क्षेत्र से नेति के अभ्यास का सम्बन्ध नेति के अभ्यास में कैथेटर

नेति कर्म " वसन तन्त्र को जाने वाली श्वसन नलिकाओं को स्वच्छ व स्वस्थ बनाता है; जिससे सम्पूर्ण शरीर को लाभ होता है। दमा, ब्रोंकाइटिस व सायनोसायटिस, सायनस आदि में लाभ प्राप्त होता है। मुखगुहा की भी सफ़ाई होने से लारा ग्रन्थियों की सक्रियता व पाचक रसों के स्रावण में वृद्धि होती है।

नेतिकर्म के पश्चात् घेरण्ड संहिता में नौलिकर्म का निर्देश है; जिसकी विधि आदि इस प्रकार है-

4. नौलिकर्म

अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व-संस्कृत के लोल शब्द से बने लौलिकी शब्द का प्रयोग नौलि हेतु किया जाता है; जो लोल से बना है; लोल का अर्थ है-उत्तेजनापूर्वक इधर-उधर घुमाना। यहाँ पर पेट की माँसपेशियों को घुमाने का निर्देश है। लोलक पेन्डुलम को कहा जाता है; जिसको वैज्ञानिक प्रयोगों में उपयोग में लाया जाता है। यह भी दांयें-बांयें ही गति करता है; ठीक उसी प्रकार से जैसे इस क्रिया में पेट की मांसपेशियों को दाहिने-बाँयें घुमाया जाता है। नौलि कर्म का पाचन संस्थान को स्वस्थ बनाने में विशेष योगदान है। इस अभ्यास में रेक्टाइल पेशी के व्यायाम होने से अनेक अन्य लाभ भी प्राप्त होते हैं।

नौलि के प्रकार-

1. मध्यम

2. वाम

3. दक्षिण

4. भ्रमर।

विधि-सबसे पहले उड्डियान बन्ध का अभ्यास किया जाता है; जो इस प्रकार है; नाभि के उदर को पीठ की ओर समभाव में सिकोड़े, किसी ध्यानात्मक आसन में बैठकर मेरूदण्ड सीधा रखते हुए हथेलियों को घुटनों पर रखते हैं; फिर आँखेंे बन्द करके पूरे शरीर को ढीला छोड़ देते हैं। नासिकाओं से गहरी श्वास भीतर भरकर; मुख से श्वास छोड़ते हुए फेफडों को पूरा खाली करने का प्रयास करते हैं। इसके बाद श्वास को बाहर रोककर कन्धों को ऊपर उठाते हैं, हथेलियों से घुटनों पर दबाव डालते हैं कोहनियों को सीधा करके जालन्धर बन्ध लगाते हैं। जालन्धर बन्ध में ठुड्डी को गले के बीचों बीच तिकोनी जगह पर लगाकर सांस रोकी जाती है। इसके बाद पेट की मांसपेशियों को संकुचित करके नाभि वाला भाग भीतर ले जाते हैं। जब तक क्षमतानुसार कुम्भक लगाया जा सकता है; लगाना चाहिए। इसके उपरान्त सिर को उठाकर धीरे से श्वास अन्दर लेते हैं।

1. मध्यम नौलि

खड़े होकर सबसे पहले गहरी सांस भरकर उत्कटासन में खड़े होते हैं। हथेलियों को घुटनों से थोड़ा उपर जांघ पर टिकाया जाता है तथा घुटनों को मोड़कर खड़े होते हैं साथ ही भुजाएँ सीधी रहती हैं। आगे झुककर पेट की ओर देखते हैं; इसके बाद उड्डियान बन्ध का अभ्यास करते हैं। बन्ध में ही स्थित रहकर पेट की मांसपेशियों को दबाव देते हुए अधिकतम भीतर की ओर ले जाते हैं। यह एक आवृत्ति है।

चित्र सं0 18 मध्यम नौलि वाम नौलि दक्षिण नौलि

2. वाम नौलि-जब तक मध्यम नौलि में प्रवीण न हो जायें यह अभ्यास नहीं करना चाहिए। नौलि अभ्यास की स्थिति में आकर पूर्वोक्त के अनुसार मध्यम नौलि करनी चाहिए, इसके बाद दाहिनी ओर की मांंसपेशियों को ढीला करके; बांयी ओर की मांसपेशियों को संकुचित करना आवश्यक है। अपने आप ही मांसपेशियाँ स्वाभाविक रूप से बांयी ओर खिंच जाती हैं। बीच की रेक्टाइल पेशी जब बांयी ओर से हो जाय तो पुनः सामान्य मध्यम नौलि की अवस्था में आकर दक्षिण नौलि करना चाहिए।

3. दक्षिण नौलि-वाम नौलि के बाद पेट बॉयें भाग की माँसपेशियों को संकुचित करते हैं; वे मांसपेशियाँ संकुचित होकर पेट के दाहिने भाग में खड़ी हो जाती हैं। यही दक्षिण नौलि है। दोनों ही प्रक्रियाओं को इसे प्रारम्भ करते हुए सांस सामान्य गति में रहेंगी। पेट की मांसपेशियों को सिकोड़कर पूरी सांस छोड़कर उड्डियान बन्ध लगाते हैं। सिकोड़कर सांस बाहर ही रुकी रहेगी। सिकुड़न को ढीला करके सामान्य स्थिति में आते समय बहुत नियन्त्रित ढंग से सांस लेनी होती है। दूसरी आवृत्ति प्रारम्भ करने तक सांस सामान्य गति से चलनी चाहिए।

चित्र सं0 19 नौलि के अभ्यास फेफडे़ व रेक्टाइल पेशी

3. भ्रमर नौलि-पहले मध्यम नौलि व उसके बाद वाम नौलि करनी चाहिए। पुनः उड्डियान गन्ध लगाकर तत्पश्चात् फिर दक्षिण नौलि का अभ्यास करते हैं एवं अन्त में फिर से मध्यम नौलि करना चाहिए। इस तरह यह पेट को घुमाने की प्रकिया हुई। सारी प्रक्रिया क्रमानुसार करना चाहिए।

साँस प्रक्रिया-मध्यम नौलि के पूर्व पूरी श्वास बाहर छोड़ते हैं; मांसपेशियों को घुमाते हुए सांस बाहर रुकी रहेगी। मध्यम नौलि को शिथिल करते हुए फिर से सांस लेते हैं। यह क्रिया समाप्त होने के पश्चात् बीच में थोड़ा विश्राम करना आवश्यक है, इस बीच सांस क्रिया सामान्य रूप से चलती रहेगी।

समय, आवृत्ति एवं सावधानियाँ-प्रातः काल खाली पेट अथवा भोजन के पांच-छः घण्टे पष्चात् ही इस क्रिया का अभ्यास होना चाहिए। प्रारम्भिक अभ्यासी के लिए यथासामथ्र्य 5-6 आवृत्ति तथा धीरे-धीरे अभ्यास को बढ़ाकर 10 आवृत्ति तक कर सकते हैं। अभ्यास क्षमतानुसार ही होना चाहिए। यदि प्रारम्भ में थोड़ा पेट दर्द का अनुभव हो तो अभ्यास बन्द करके दर्द समाप्त होने पर ही करना चाहिए। यह अभ्यास योग्य योग गुरु के मार्गदर्शन में ही प्रारम्भ करना चाहिए। उच्च रक्तचाप, पथरी, पेप्टिक अल्सर, आँतों में घाव, ड्यूडेनल अलसर से ग्रस्त व्यक्तियों व गर्भवती स्त्रियों के लिए तथा प्रसव के छः मास तक अभ्यास निषिद्ध है। अत्यधिक ज़ोर पड़ने की स्थिति में जबर्दस्ती करने के बजाय धीरे-धीरे अभ्यास करें। सामथ्र्य के अनुसार ही करें प्रारम्भ में अधिक अभ्यास करने से बचना चाहिए। यदि हृद्य सम्बन्धी, आँत बढ़ने या अन्य कोई गम्भीर रोग हो तो योग निर्देशक से विमर्श करना आवष्यक है।

नौलिकर्म के वैज्ञानिक आधार, शारीरिक एवं मानसिक लाभ

जब पेट की मांसपेशियों की आन्तरिक शक्ति कमजोर होने लगती है; तब हर्निया की बीमारी होती है। इन मांसपेशियों के सिकुड़ने से पाचन संस्थान के आन्तरिक अंगों की मालिश होती है तथा वे एक दूसरे को भोजन पचाने में सहायता करते हैं। नौलि क्रिया इन सभी मांसपेशियों की क्रिया में सक्रियता लाती है। जो व्यक्ति कब्ज, अपच, भूख न लगना तथा पाचन सम्बन्धी अन्य किसी प्रकार के रोग से ग्रस्त हैं; वे इस नौलि कर्म से लाभान्वित हो सकते हैं। धौति कर्म के समान ही यह भी अन्य सब प्रकार से लाभकारी है। इस कर्म से पेट, पीठ, कमर, गर्दन, हाथ, पैरोें व जाँघों की मांसपेशियों को अत्यधिक लाभ होता है। पेट के भीतर अनेक अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ हैं; जो शरीर को अनेक प्रकार के स्रावों द्वारा स्वस्थ व संतुलित रखने का कार्य करती हैं। इनमें से यकृत, प्लीहा, वृक्क, अधिवृक्क व जननांगों से सम्बन्धित ग्रन्थियाँ शरीर के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्यों का निर्वहन करती हैं। जैसे यकृत क्लोम ग्रन्थि इन्सुलिन स्रावण द्वारा "ारीर में" ार्करा की मात्रा को संतुलित रखने का कार्य करता है, वृक्क रक्त में से मूत्र को छानने का व जनन ग्रन्थियाँ समस्त प्रजनन क्रियाओें का नियमन करते हैं। नौलि कर्म में इस उदर क्षेत्र की मालिश व दबाव के कारण इन समस्त ग्रन्थियों के नियमन, संतुलन व स्वास्थ्य को बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण साधन है व इनसे सम्बन्धित रोगों जैसे ः-मधुमेह, पथरी व जनन सम्बन्धी रोगों में लाभकारी है। इस कर्म के अन्य लाभ अग्निसार धौति के ही समान हैं। नौलि कर्म से अनिद्रा, तनाव, गुस्सा, निराशा, चिन्ता व नकारात्मकता आदि का निवारण भी होता है।

नौलिकर्म के आध्यात्मिक लाभ-सुषुम्ना में प्राणसंचार द्वारा चक्र एवं कुण्डलिनी जागरण होता है। आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति होती है।

5. त्राटक

अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व-त्राटक अर्थात् विशेष केन्द्र को एकाग्रता के साथ देखना

1. बहिर्त्राटक, 2. अन्त;त्राटक तथा 3. अधोत्राटक। तीनों प्रकार के त्राटक का क्रमवार अभ्यास किया जाता है। सर्वप्रथम एक मोमबत्ती को जलाकर इतनी ऊँची मेज अथवा तल पर लगाना चाहिए कि सीधे बैठने पर वह आँखों की ठीक सीध में रहे उससे एक या डेढ फुट की दूरी पर; अब किसी ध्यानात्मक आसन; जैसे-वज्रासन या पद्मासन में स्थिरता पूर्वक बैठते हैं। ऐसा करने के पश्चात् आँखें बन्द करके अपने पूरे शरीर का ध्यान करते हुए व पूरे शरीर को मूर्तिवत् होने देना चाहिए। जब चित्त शान्त हो जाय तो आखें खोलकर ज्योति के बीच में जो काले रंग की लौ होती है; उसे एकटक देखना चाहिए। अन्य सभी वस्तुओं को भूलकर पूरा ध्यान इसी पर एकाग्र करना चाहिए। यदि बीच में मन विचलित हो जाये तो उसे पुनः ज्योति पर ही स्थिर करना चाहिए। मोमबत्ती में अनेक प्रकार की लौ होती हैं उन्हें उपेक्षित करके मात्र काले रंग की बीच वाली लौ का ही ध्यान करना हैै। सजगता के साथ एकाग्रता बनाये रखनी आवश्यक है।

चित्र सं0 20 वज्रासन में त्राटक का अभ्यास मोमबत्ती की लौ पर त्राटक

जब आँखें थक जायें व अश्रु बहने लगें तो उन्हें बन्द कर लेना चाहिए। तत्पश्चात् अन्तःत्राटक के अभ्यास हेतु पलकों को बन्द करके उसी ज्योति की प्रतिच्छाया को अपने मन के भीतर चिंतन करके देखने का प्रयास करना चाहिए। हो सकता है प्रारम्भ में अभ्यास करते हुए छाया स्पष्ट न दिखे तो भी तनावरहित होकर अभ्यास करते रहना चाहिए। धीरे-धीरे लौ की प्रतिच्छाया दिखना आरम्भ होगा। इस प्रकार मात्र इसका ही ध्यान करना आवश्यक है। यदि कोई भी विचार मन में आ रहा हो तो उसे उठते हुए मात्र साक्षी भाव से देखते रहना चाहिए। जब तक थकान न मिटे व ज्योति की प्रतिच्छाया दिखती रहे आँखों को बन्द ही रखना चाहिए; जब यह धुँधली हो जाय तब आँखें खोलकर पुनः उपर्युक्त प्रक्रिया को दोहराना चाहिए। बन्द नेत्रों के सामने अंधकार का विचार बनाये रखना आवश्यक है।

समय, अवधि एवं सावधानियाँ-प्रातः व रात्रि का समय ही इसके लिए उपयुक्त है। इसके लिए अवधि "ाारीरिक लाभ हेतु पाँच मिनट पर्याप्त है; किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से लाभान्वित होने के लिए इससे अधिक करना ध्यान के अभ्यास हेतु लाभप्रद होता है। त्राटक चश्मा लगाकर नहीं करना चाहिए। विचारों को रोकने का प्रयास नहीं करना चाहिए मात्र साक्षी की भाँति उन्हें देखते रहना चाहिए। मात्र" ाारीरिक लाभ प्राप्त करना हो तो पाँच मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए। यह दृष्टि दोश दूर करने के लिए पर्याप्त समय है।

त्राटककर्म के वैज्ञानिक आधार, शारीरिक एवं मानसिक लाभ

यों तो त्राटक कर्म शरीर के समस्त तन्त्रों को अधिक या न्यून रूप से लाभान्वित करता है; किन्तु तन्त्रिका तन्त्र (जो सम्पूर्ण शरीर की क्रियाशीलता व नियमन का आधार है) । यदि यह तन्त्र स्वस्थ होगा तभी शरीर के अन्य भाग नियमित, नियंत्रित व अनुशासित होंगे जो कि शुद्ध तन व मन की प्राथमिक " ार्त है। इसलिए क्रमबद्धता के साथ तन्त्रिका तन्त्र से प्रारम्भ करते हुए हम विभिन्न तन्त्रों पर होने वाले प्रभावों को स्पश्ट कर रहे हैं।

तन्त्रिका एवं अन्तःस्रावी तन्त्रों को विशेष लाभ-आँखें व्यक्ति को बाह्य जगत् के उद्दीपनों के प्रति प्रतिक्रियात्मकता प्रदान करती हैं। आंखें खोलने-बन्द करने पर मन-मस्तिष्क प्रभावित होता है। त्राटक कर्म में एक ही बिन्दु को ध्यान से देखने व उसके बाद पलकें बन्द करने पर उसी का ध्यान करने से साधक की मानसिक व्यग्रता, चिंता एवं चंचलता समाप्त होती है। शीर्ष प्रदेश की समस्त तन्त्रिकाओं में सुचारू ढंग से रक्त परिसंचरण होने से वे स्वस्थ क्रियाशील बनती हैं। आंखों पर इसका प्रभाव पड़ने से दूर एवं निकट दृष्टि दोष दूर होता है। यदि आंखें स्वस्थ हैं तो अधिक उम्र तक भी दृष्टि सही रहेगी।

आँखों का सीधा सम्बन्ध चित्त की स्थिरता एवं एकाग्रता से होता है। वैचारिक अन्तद्र्वन्द्व से मानसिक अस्थिरता एवं अशान्ति होती है; जिससे अनेक मानसिक रोग होते हैं। आधुनिक युग में अत्यधिक यान्त्रिक जीवन इसको और भी अधिक बढ़ा देता है। इन समस्याओं से बचने हेतु त्राटक एक अच्छा अभ्यास है। इससे आँखें एवं मस्तिष्क दोनों स्थिर एवं तनाव रहित हो जाते हैं। अनिद्रा एवं स्नायविक तनाव से ग्रस्त लोगों के लिए यह बहुत उपयोगी है। साथ ही इससे आत्मबल भी बढ़ता है। मानसिक तरंगे व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक उत्तेजना से सम्बन्ध रखती हैं। त्राटक से उनका लय होने लगता है व उनके कम्पन की आवृत्ति कम होने लगती है। इससे मस्तिष्क शान्त एवं विकाररहित होता है। हिंसा, क्रोध, चिड़चिड़ापन तथा आक्रामकता धीरे-धीरे नियन्त्रित हो जाती है।

तंत्रिका तन्त्र जितना स्वस्थ व शांत होगा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की क्रिया प्रणाली भी सुचारू एवं नियमित होगी। पिनियल ग्रन्थि वृद्धिजनक (ग्रोथ) , यौन विकासक हार्मोन (गोनेडोटॉªपिक) , स्तनयजनक (प्रोलैक्टिन) ग्रैवकीय (थायट्रॉपिक) व अधिवृक्कीय (अॅडिनोट्रापिक) आदि को नियमित करके व्यक्तित्व को स्वस्थ करती है। त्राटककर्म द्वारा शान्त एवं एकाग्र होने से इस ग्रन्थि पर अत्यंत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप अन्तःस्रावी तन्त्र के स्वस्थ होने से समस्त शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों में तारतम्यता बनती है।

रक्त परिसंचरण एवं श्वसन तन्त्र पर प्रभाव-यत्नपूर्वक आँखें खुली होने से शीर्ष प्रदेश में तीव्र रक्तसंचार एवं बाद में आँखें बन्द होने पर शिथिलता होती है। इससे रक्तपरिसंचरण तन्त्र में एक लयबद्धता विकसित होती है; इसलिए उच्च एवं निम्न रक्तचाप तथा हृद्यरोगों में लाभ प्राप्त होता है। शिथिलता की स्थिति में शरीर की क्रियाओें के मन्द होने के कारण श्वसन धीमा होता है; इससे श्वसनांगों को आराम मिलता है।

इसके अतिरिक्त पिनियल ग्रन्थि के सक्रिय होने के फलस्वरूप त्राटक के द्वारा पाचन सम्बन्धी ग्रन्थियों के हार्मोन्स के स्रावण में सुधार होने के कारण पाचन तन्त्र को भी लाभ प्राप्त होते हैं। हड्डियों की मजबूती आदि को भी यह ग्रन्थि हॉर्मोन्स के द्वारा प्रभावित करती है। अतः इस ग्रन्थि द्वारा स्रावित हॉर्मोन्स में सुधार आने से कंकाल, प्रजनन एवं उत्सर्जन आदि तन्त्रों को भी लाभ होता है। त्राटक में बैठने की विशेष स्थिति के कारण रीढ़ व गर्दन की हड्डी दृढ़ एवं मज़बूत होती है। इससे स्पॉन्डिलायटिस, कमर व पीठ का दर्द आदि में भी लाभ प्राप्त होता है।

आध्यात्मिक लाभ-प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान के लिए त्राटक अत्यंत आवश्यक है। इसके अभ्यास से ये सभी अभ्यास सरलता से सिद्ध हो जाते हैं तथा ध्यान में अवस्थित होने से समाधि सिद्ध होती है। इस प्रकार त्राटक एवं इन अभ्यासों की पूर्वापेक्षा के रूप में व्यक्ति की आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति हेतु सहयोगी है।

षट्कर्म का अन्तिम अभ्यास कपालभाति है। अब हम इसकी विधि आदि को प्रस्तुत करेंगे।

6. कपालभाति

कपाल अर्थात् मस्तक और भाति का अर्थ है चमक, प्रकाश या ज्ञान। इस प्रकार कपालभाति अर्थात् ऐसा शुद्धिकर्म जो मस्तक को चमका दे। इसे भालभाति भी कहा जाता है। भाल अर्थ है-ललाट और भाति का दूसरा अर्थ धौंकनी है। इस प्रकार पूरे पद का अर्थ हुआ जिस प्रक्रिया में धौंकनी के समान तेज गति से श्वासों को लयबद्धता के साथ अन्दर व बाहर किया जाय तथा जिससे मस्तक में प्रकाश या ज्ञान का संचार हो; ऐसा शुद्धिकर्म कपालभाति कहलाता है। यह तीन प्रकार का है-

1. वातक्रम

2. व्युत्क्रम

3. शीतक्रम

(अ) - वातक्रम कपालभाति

रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए, आँखें बन्द करके, किसी भी सुखासन में बैठकर तथा पूरा शरीर शिथिल करके यह अभ्यास किया जाता है। इस प्रकार से स्थिर होकर पहली आवृत्ति को प्रारंभ किया जाता है। तेजी से पेट से श्वास को लिया जाता है। अब पेट की मांसपेशियों का संकुचन करके बल लगाकर गति के साथ बार-बार श्वास को बाहर छोड़ा जाता है। पूरक स्वयं ही होता रहता है। इस प्रकार पूरक कम और रेचक अधिक होगा। जितनी देर सरलता से हो सके यह शीघ्र-श्वसन क्रिया करनी चाहिए। यह श्वसन क्रिया पेट से होनी चाहिए ना कि छाती से। इसके बाद धीरे से एक गहरी श्वास लेनी चाहिए। अब रेचक करना चाहिए। फेफड़ों को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए। श्वास को जितनी देर संभव हो रोके रखना है, परन्तु तनाव नहीं आने देना चाहिए। यह एक आवृत्ति है। यदि तनाव या श्वास में असहजता का अनुभव हो तो साधक को थोड़ा-सा रूककर अगली आवृत्ति करनी चाहिए अन्यथा इसके तुरन्त बाद यह की जा सकती है।

श्वास छोड़ते हुए भाल (मस्तक) पर ज़ोर दिया जाता है। साथ ही फेफड़े तनावमुक्त अवस्था में रहते हैं। इस प्रकार इस क्रिया में फिर दाहिनी नासिका से पूरक करके बाँयी नासिका से रेचक किया जाता है। यह एक आवृत्ति हुर्ई। यह क्रिया पेट से की जाती है, फेफड़ोें पर ज़ोर नहीं डाला जाता है। श्वास को बाहर छोड़ते हुए ललाट पर ज़ोर डाला जाता है।

चित्र सं0 21 पद्मासन में वातक्रम कपालभाति

श्वास प्रक्रिया-अभ्यास शुरु करने के लिए तीव्र श्वसन करना और रेचक में बल लगाना है। एक बार गहरी श्वास लेनी व छोड़नी है। फिर पूरे अभ्यास में नासिका से श्वसन क्रिया करनी है। मुँह से श्वास नहीं लेनी है। यदि नाक अवरूद्ध हो तो जलनेति के अभ्यास से नाक साफ़ कर लेनी चाहिए। प्रारम्भ में 20 बार तेजी से श्वसन करना चाहिए, इससे अधिक नहीं। यह संख्या प्रति सप्ताह 5 से 10 तक बढ़ायी जा सकती है। यह व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर है, क्योंकि करते समय किसी भी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए। इसके बाद अब आवृत्ति व समय के बारे में जानना आवश्यक है।

आवृत्ति, समय तथा सावधानियाँ-शक्तिशाली व शुद्ध शरीर वाले साधक इसका अभ्यास कई घण्टों तक कर सकतेे हैं, परन्तु सामान्य " ारीर वाले व्यक्तियों को 10 से 20 आवृत्ति से अधिक नहीं करना चाहिए। प्रारम्भिक अभ्यासियों को 2 या 3 तीन आवृत्तियाँ ही करनी चाहिए। धीरे-धीरे इनकी संख्या में वृद्धि कर सकते हैं। समय प्रातः व सायं काल सामान्य योगाभ्यास व ध्यान से पूर्व करना लाभप्रद है। रात्रि को सोने से पूर्व करना हानिप्रद है, क्योंकि इसको करने के बाद नींद आने में बाधा होती है। यदि अभ्यास के समय उल्टी, जी मिचलाना या किसी भी प्रकार की असुविधा का अनुभव हो तो अभ्यास बन्द कर देना चाहिए या योग निर्देशक से उचित निर्देशन प्राप्त करना चाहिए। वैसे भी योग शिक्षक के सान्निध्य में ही अभ्यास को प्रारम्भ करना चाहिए। यह अभ्यास खाली पेट व शुद्ध वातावरण में ही करना चाहिए। उच्च रक्तचाप, हर्निया, पेप्टिक अल्सर, पेट से सम्बन्धी रोगों व बेचैनी में वर्जित है। इनके अतिरिक्त इसमें सजगता का विशेष महत्त्व है। अपना ध्यान चिदाकाश पर लगाकर इसमें बन्द आँखों से सामने की ओर देखना चाहिए। फेफड़े धौंकनी की भांति चल रहे हों। उस समय चिदाकाश में प्राणिक तरंगों का अनुभव करना चाहिए। इसके साथ ही यह भी अनुभव करना आवश्यक है कि हम इस कर्म के द्वारा मस्तिष्क के सामने वाले भाग को शुद्ध कर रहे हैंं।

व्युत्क्रम कपालभाति

विधि-किसी बर्तन में साफ़ गुनगुना पानी लेकर; हथेली में पानी भरकर; थोड़ा आगे की ओर झुककर; नाक से जल को धीरे-धीरे पीना है; फिर इस पानी को मुख से बाहर निकाल लेना है। इसके बाद मुँह से पानी पीना चाहिए व जीभ को मोड़कर पानी को गले में ही रोककर इसे नाक से बाहर निकाल लेना चाहिए। यही व्युत्क्रम कपालभाति की विधि है।

चित्र सं0 22 व्युत्क्रम कपालभाति का अभ्यास

समय एवं आवृत्ति-प्रातःकाल नित्यकर्म के साथ। आवृत्ति आवश्यकता, क्षमता व योग निर्देशक के निर्देशानुसार। इसके बाद तीसरी व अन्तिम प्रकार की कपालभाति क्रिया शीतक्रम है।

(स) शीतक्रम कपालभाति

इसमें जीभ को गोल करके मुँह में एक शून्य उत्पन्न किया जाता है, तत्पश्चात् जीभ से पानी खींचकर पेट में ले लिया जाता है। जब तक शून्य उत्पन्न नहीं होगा; अन्दर प्रवेश नहीं करेगा। शीतली प्राणायाम का अभ्यास करते हुए जल को मुख से खींचना और मुख में रोक कर, उसे एक सेकेण्ड में नाक से थोड़ा-सा निकालना, फिर दूसरे सेकेण्ड में थोड़ा-सा निकालना। इस प्रकार रूक-रूक कर पानी को नाक से बाहर निकालना है। यहाँ पर " ाीतली प्राणायाम को शीत्कार नाम दिया गया है। इसमें जीभ के द्वारा वायु को खींचकर उदर को परिपूर्ण किया जाता है। शीत्कारी प्राणायाम अलग है, यहाँ पर शीत्कार का अर्थ है श्वास को खींचते हुए, आवाज़ करते हुए पानी अन्दर खींचना। फिर थोड़ा-थोड़ा मात्रा में धीरे-धीरे उसे नाक से बाहर निकाल लेना।

चित्र सं0 23 शीतक्रम कपालभाति का अभ्यास

इस कर्म में भी किसी सावधानी विशेष का निर्देश नहीं है, किन्तु अभ्यास को योग निर्देशक के सान्निध्य में प्रारम्भ करना चाहिए। योग निर्दिष्ट सामान्य सावधानियों को अपनाना यथावत् ही रहेगा।

कपालभाति के वैज्ञानिक आधार, शारीरिक तथा मानसिक लाभ

तन्त्रिका एवं अन्तःस्रावी तन्त्रों को लाभ-कपालभाति के तीन प्रकार तन्त्रिका तन्त्र को भिन्न-भिन्न प्रकार से लाभान्वित करते हैं। वातक्रम कपालभाति में पेट की पेशियों को फैलाने एवं सिकोड़ने से नाभि प्रदेश की अनेक तन्त्रिकाओं उद्दीपन का उद्दीपन होता है। सामान्य स्थिति में व्यक्ति इस क्षेत्र को कम ही सक्रियता प्रदान कर पाता है; जबकि मेरुरज्जु के मूल में उपस्थित अनेक तन्त्रिकाएँ इस क्षेत्र से सम्बन्धित हैं। कपालभाति के अभ्यास द्वारा समस्त तन्त्रिकाओं की अधिक सक्रियता के कारण इस तन्त्र पर अत्यंत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

वातक्रम कपालभाति में माथे पर बल पड़ने से मस्तिष्क का अग्र भाग रक्त के अधिक मात्रा में संचरित होने के कारण अधिक सक्रिय होता है। सूक्ष्म स्तर पर प्राणशक्ति का प्रवाह मस्तिष्क के इस क्षेत्र में होता है। यह मन को शान्त व जागरूक बनाने के लिए भी शक्तिशाली विधि है। कपालभाति की दस आवृत्तियों के पश्चात् नींद नहीं आ सकती। अतः जो लोग मानसिक कार्यों को करते-करते थक जाते हैं या नींद आ जाती है अथवा प्रातःकाल उठने के बाद फिर से सोना चाहते हैं उनके लिए जगने व दिमाग़ को शक्तिशाली बनाने के लिए इसका अभ्यास सबसे उत्तम है। व्युत्क्रम एवं शीत्क्रम कपालभाति को करते हुए जब जल मुँह व नाक के भीतरी भाग को स्पर्श करता है तो कुछ ऐसी नाड़ियों को स्पर्श करता है जिनका सम्पर्क कभी जल, वायु और जीभ से नहीं हो पाता। अतः इन दोनों क्रियाओं को करते हुए इस क्षेत्र की नाड़ियों की भी सक्रियता बढ़ती है।

अन्तःस्रावी संस्थान के सामान्य या सुचारू होने सभी तन्त्रों को लाभ होता है। थॉयरॉयड व पैराथॉयरायड ग्रन्थियाँ जो कण्ठ प्रदेश में होती हैं। इनके मंद या अधिक स्रावण से क्रमशः हाइपो एवं हाइपर थॉयरॉयडिज्म नामक रोग होने से अनेक परेशानियाँ हो जाती हैं। कपालभाति में कण्ठ प्रदेश में घर्षण व वायु के तेज संचरण से इन ग्रन्थियों को संतुलन व सक्रियता प्रदान करके व्यक्ति इन रोगों का समाधान कर सकता है। इसके साथ ही उदर क्षेत्र में स्थित यकृत, पित्ताशय, अग्न्याशय, अधिवृक्क व यौन ग्रन्थियों के कार्य सुचारु होते हैं। मधुमेह या डायबटीज में कपालभाति बहुत ही असरकारी है। इससे मधुमेह ठीक होता है।

पाचन तन्त्र को होने वाले लाभ-पेट की मांसपेशियों के फैलने एवं सिकुड़ने से पाचन अंगों की मालिश होती है। पाचक रसों के स्रावण में भी सुधार होता है। अपच, गैस, कब्ज व अम्लता दोषों का निवारण होता है। पाचन तन्त्र अधिक सुदृढ़ व बलशाली बनता है।

श्वसन तन्त्र को लाभ-वातकर्म कपालभाति में अधिक मात्रा में श्वसन व निःश्वसन के होने के कारण अधिक मात्रा में ऑक्सीजन के " ारीर के भीतर प्रवेश करने व कार्बन डाई ऑक्साइड के अधिक निर्गत होने के कारण श्वसन सम्बन्धी समस्याओं में लाभ प्राप्त होता है। यह अभ्यास फेफड़ों को स्वस्थ बनाता है। इसके साथ ही व्युत्क्रम व शीतक्रम कपालभाति श्वसन मार्ग में उपस्थित कफ व श्लेष्मा को हटाने का कार्य करते हंै। इस मार्ग के अवरूद्ध होने के कारण ब्रोंकाइटिस, अस्थमा आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इस कपालभाति के अभ्यास से इनमें लाभ प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही क्षय रोग से ग्रस्त लोगों के लिए भी यह लाभदायक है।

रक्त परिसंचरण एवं पेशी तन्त्र पर प्रभाव-रूधिर में हीमोग्लोबिन नामक पदार्थ शरीर में ऑक्सीजन का संवाहक होता है। कपालभाति करने से ऑक्सीजन का " ारीर में अधिक प्रवेश होने के कारण शरीर के प्रत्येक भाग में सुचारू रूप से ऑक्सीजन का वहन होता है इससे हीमोग्लोबिन के स्तर में भी सुधार होता है। सामान्यावस्था में व्यक्ति के शरीर के ंकई भागों में रूधिर का संचरण सुचारू नहीं होता या फिर कई व्यक्ति जो शारीरिक कार्य कम करते हैं उनके लिए यह रूधिर को संचरित करने की अत्यंत सहयोगी प्रक्रिया है। वातक्रम कपालभाति करते हुए व्यक्ति के पेट की मांसपेशियों का संकुचन व प्राकुंचन होने के कारण व्यक्ति की औदरिक मांसपेशियों का व्यायाम व उनमें रक्त का परिसंचरण भली प्रकार होने से व स्वच्छ वायु के अंग-प्रत्यंग दौड़ने पर व्यक्ति के मांसपेशीय कार्य प्रणाली सुधार व स्वास्थ्य संवर्धन होता है।

प्रजनन एवं उत्सर्जन तन्त्र पर प्रभाव-समस्त प्रजनन व यौन अंगों का स्थान शरीर का औदरिक प्रदेश है। कपालभाति से यौन ग्रन्थियों की मालिश होने से अनेक यौन समस्याओं को दूर करने में सहयोग प्राप्त होता है। वृक्क आदि उत्सर्जन अंगों की मालिश से मल-मूत्र के उत्सर्जन में लाभ होता है। वातक्रम कपालभाति करते हुए पसीने होता है; जिससे शरीरगत अशुद्धियाँ दूर होती हैं।

योगाभ्यास के प्रारम्भिक क्रियात्मक चरण षट्कर्म की महत्ता को देखते हुए इसे प्राथमिकता के साथ अपनाया जाना चाहिए। आध्यात्मिक लक्ष्यों हेतु योग में प्रवृत्त होने वाले साधकों के लिए लाभकारी होने के साथ ही; षट्कर्म अनेक चिकित्सीय लाभों से भी युक्त है। इसलिए यह सभी लोगों को समान रूप से अपनाना चाहिए। कहा जाता है कि "सुरक्षा चिकित्सा से अधिक श्रेष्ठ है" इस दृष्टि से भी यदि रोगों के होने से पूर्व ही षट्कर्म का अभ्यास किया जाय तो रोगों से बचाव होने के-के साथ ही रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित होती है। षट्कर्म के पश्चात् आसन किये जाते हैं। कुछ प्रमुख आसनों को उनके सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्ष के साथ अगले अध्याय में प्रस्तुत करेंगे।