अध्याय 6 : योग परम्परा में प्राणायाम / कविता भट्ट
पिछले अध्याय में योगासनों के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त इस अध्याय में हम योग परम्परा में प्राणायाम को स्पष्ट करेंगे। इसके अन्तर्गत प्राण की सामान्य एवं योगशास्त्रीय व्याख्या, प्राणायाम का अर्थ, परिभाषा, पौराणिकता, अभ्यास के चरण, चरणांे का अनुपात, योगसाहित्य के अनुसार प्राणायाम के प्रकार, अभ्यास हेतु यथोचित स्थान की विशेषताएँ, अभ्यास में आने वाली मुख्य बाधाएँ, गुरु के निर्देशानुसार बाधाओं का निवारण, उपयोगिता एवं वैज्ञानिक आधार, मुख्य शरीर तन्त्रों पर प्राणायाम का प्रभाव तथा आठ प्रकार के प्राणायाम की विधि आदि को स्पष्ट करेंगे। प्राणायाम की यथोचित व्याख्या हेतु प्राण एवं नाड़ियों आदि को समझना आवश्यक है। अतः सर्वप्रथम हम "प्राण" की सामान्य एवं योगशास्त्रीय व्याख्या करेंगे।
प्राण की सामान्य एवं योगशास्त्रीय अवधारणा
प्राण का अर्थ है-जीवनीशक्ति या जीवन का मूलतत्त्व। यह वह जीवनी शक्ति है जो मात्र मानव को ही नहीं; अपितु समस्त सृष्टि को संचालित करती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि सृष्टि मंे प्रकाश, ऊष्मा, ध्वनि, चुम्बकत्व, गुरुत्व, विद्युत शक्ति, बल, जीवन और जीवनी शक्ति के रूप में जो कुछ भी प्रकट और ध्वनित हो रहा है; वह सब प्राण ही है। इसे एक संयुक्त बहुआयामी ऊर्जा के रूप मंे परिभाषित किया जा सकता है। यह वही शक्ति है जिसके शरीर से निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है। तब इसे ना तो प्राणवायु या आॅक्सीजन द्वारा जीवित किया सकता है; ना ही इसे ग्लूकोज से ऊर्जान्वित किया जा सकता है। अतः स्पष्ट रूप से प्राण जीवनी शक्ति है; यह पर्यावरण से ग्रहण की गयी शुद्धवायु है के द्वारा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को शरीर के भीतर पहुँचाकर व्यक्ति को जीवन प्रदान करती है।
विज्ञान मानता है कि जैविक क्रियाओं के संचालन हेतु शरीर आॅक्सीजन को ग्रहण करता है तथा उसके द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका के भीतर उपस्थित माइटोकॉण्ड्रिया एक पावर हाउस के रूप में ऊर्जा का निर्माण करता है। यही ऊर्जा व्यक्ति को जीवित बनाये रखती है और समस्त क्रियाओं का संचालन करती है। यह प्राण की सामान्य व्याख्या थी; प्राण की विशेष योगशास्त्रीय व्याख्या भी है। योगशास्त्र कार्यों की विभाजन की दृष्टि से प्राण नामक जीवनी शक्ति को पांच मुख्य एवं पांच उप विभागों में विभाजित करता है; इन्हंे इस प्रकार समझा जा सकता है।
योगशास्त्र के अनुसार शरीर में उपस्थित पांच प्रकार के प्राण-
1. प्राण
2. अपान
3. उदान
4. समान
5. व्यान। योगशास्त्र के अनुसार शरीर में उपस्थित पांच प्रकार के उपप्राण-
1. नाग
2. देवदत्त
3. धनंजय
4. कूर्म
5. कृंकल या कृंकरक
प्राणवायु के प्रकारों को लेकर विभिन्न योगग्रन्थों में मतभेद नहीं है; किन्तु शरीर में उनके स्थान तथा कार्यों में पर्याप्त मतभेद है। वसिष्ठसंहिता ' प्राण के प्रकारों, शरीर में उनके स्थान एवं कार्यांे का यथोचित विवेचन प्रस्तुत करती है; किन्तु इसमें पांच उपप्राणों के स्थान को अधिक स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है। प्राण एवं उपप्राण हेतु निर्धारित शरीर के स्थानों के लिए गोरक्षनाथ कृत सिद्धासिद्धान्तपद्धति में प्रस्तुत विवेचन अधिक उचित है। इन दोनों ही पौराणिक ग्रन्थों के आधार पर शरीर में प्राण एवं उपप्राण की स्थिति एवं कार्यों का सारांश एक तालिका के माध्यम से निम्न प्रकार समझा जा सकता है।
पांच मुख्य प्राण शरीर में इनके स्थान इनके द्वारा सम्पादित कार्य
प्राण कन्द का निचला भाग, मुख, नासिका, हृद्य और नाभिमंडल आदि सहित पैर के अंगूठे तक श्वास-प्रश्वास, खाँसना
अपान लिंग@योनि, गुदा, उरू, अण्डकोष, पिण्डली, जानु, कमर तथा नाभिमूल मल-मूत्र विसर्जन
समान सम्पूर्ण शरीर वृद्धि, अन्नरस का सम्पूर्ण शरीर में संचरण व पोषण
उदान सभी सन्धियाँ, हाथ-पैर शरीर का उन्नयन
व्यान कान, आँख की मध्यवर्ती घुठ्ठी, नासिका, गला, टखने तथा चक्षु प्रदेश हान, उपादान एवं चेष्टा आदि
पांच उपप्राण शरीर में इनके स्थान इनके द्वारा सम्पादित कार्य
नाग त्वचा, हड्डी एवं सारा शरीर अंग-प्रत्यंग संचालन
कूर्म त्वचा एवं हड्डी आदि पलकों को खोलना-बन्द करना
कृकल /कृकरक त्वचा एवं हड्डी आदि छींकना, डकार लेना तथा भूख बढ़ाना
देवदत्त त्वचा एवं हड्डी आदि तन्द्रा में जम्हाई लेना
धनंजय त्वचा, हड्डी तथा समस्त शरीर समस्त शरीर में नाद, शुष्कता
इस प्रकार शरीर की क्रियाओं के संचालन का उत्तरदायित्त्व पांच मुख्य प्राणों एवं पाँचों उपप्राणों का है। योग शास्त्र में माना गया है कि जो साधक प्राण की साधना करते हैं; वे ब्रह्मरूप को साक्षात् ध्याते हैं। अर्थात् प्राण ब्रह्ममय है। जो मनुष्य प्राणतत्त्व को जानकर प्राणायाम (प्राण का नियन्त्रण एवं विस्तारण) आदि योगांगांे का अभ्यास करते हैं; वे अमर हो जाते हैं। अमर होने का अर्थ है-व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से मुक्ति होकर; उसका पूर्णतः स्वस्थ होना।
प्राण प्राणवायु या ऑक्सीजन की सहायता से सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होते हैं। ऑक्सीजन श्वसन तन्त्र के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर अभिक्रियाएँ करती है। इसको समझने हेतु श्वसन तन्त्र के मुख्य अंगों एवं उनकी कार्यविधि को हम प्रथम अध्याय में ही स्पष्ट कर चुके हैं; अतः अब प्राणायाम को समझना आवश्यक है; जिससे उसके मूल में निहित वैज्ञानिक आधारों एवं मनोशारीरिक तथा आध्यात्मिक प्रभावों को भी समझा जा सके; इसलिए अब प्राणायाम को विवेचित करेंगे।
प्राणायाम शब्द का सामान्य अर्थ
श्वास-प्रश्वास (साँस लेना-साँस छोड़ना) की गति को रोककर; प्राण शक्ति का शरीर के भीतर विस्तारण ही प्राणायाम है। शाब्दिक दृष्टिकोण से 'प्राणायाम' शब्द दो पदों से बना है, 'प्राण' एवं 'आयाम' । प्राण का अर्थ है-प्राण अर्थात् वह ऊर्जा; जो हमारे शरीर में जीवन का संचार करती है। हठयोग के ग्रन्थों में प्राण का अर्थ आत्मबल भी बताया गया है।
आयाम का अर्थ होता है-विस्तार। इस प्रकार प्राणायाम का पूरा अर्थ होता है-प्राण के शरीर में संचार के माध्यम प्राणवायु या आॅक्सीजन वायु को भीतर ग्रहण करके, फिर नासिका को बन्द करके, वायु को भीतर ही रोककर उसका शरीर में विस्तार करना।
प्राणायाम की परिभाषा
1. आसन के सिद्ध होने पर श्वास एवं प्रश्वास की गति को यथोचित रीति से रोकना प्राणायाम है। शरीर की नाड़ियों में प्राण-वायु के प्रवाह को स्थिर रखने की प्रक्रिया प्राणायाम कही जाती है।
2. श्वसन की सामान्य क्रिया को अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे धीमा करते जाना अर्थात् श्वास शीघ्रता से भरने-छोड़ने के स्थान पर लम्बे और गहर को बने ढंग से भरना-छोड़ना। गहरी श्वास के साथ इसकी सहजता और लय को बनाये रखते हुए; सम्पूर्ण, शान्त एवं सतत् स्वरूप की ओर बढ़ना।
3. श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करके ही हम उसे शरीर के भीतर स्थिर कर सकते हैं। इस प्रकार प्राणायाम को बाहर से अन्दर लेकर फिर उसे नियन्त्रित करते हुए शरीर के भीतर विस्तारित करना ही प्राणायाम है।
उपरोक्त तीनों ही परिभाषाओं में प्राण को शरीर के भीतर स्थिर करने सम्बन्धी अर्थ में प्रायायाम को परिभाषित किया गया है।
प्राणायाम की पौराणिकता
यद्यपि आधुनिक विचारकों के अनुसार प्राणायाम का पौराणिक उल्लेख अनुमानतः 1500 ईस्वी पूर्व मिलता है; तथापि यह उतनी ही प्राचीन विधा है; जितना कि भारतीय सभ्यता का वैदिक साहित्य आदि। कहा जा सकता है कि यह भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में अत्यंत प्राचीन समय से नित्यकर्म का एक अभ्यास था; क्योंकि इसका प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में मंत्रोच्चार के साथ किया जाता था। प्रत्येक नित्यकर्म-पूजा एवं अनुष्ठान से पूर्व प्राणायाम करने का निर्देश प्राप्त होता है। मानसिक मंत्र का उच्चारण करते हुए सांस को रोककर मन को स्थिर किया जाता था; जिससे पूजा करते हुए एकाग्रता बढ़ती थी। समय बीतता रहा यह विधा ऐसे ही चलती रही; किन्तु प्राणायाम का विधिवत् सैद्धान्तिक एवं सूत्रात्मक प्रस्तुतीकरण लगभग द्वितीय शताब्दी ईस्वी पूर्व महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ पातंजलयोगसूत्र में किया। पातंजलयोगसूत्र सूत्रात्मक था; इसलिए उसमें भी यह प्रायोगिक रूप से अधिक स्पष्ट नहीं हो सका। कालांतर में स्वामी स्वात्माराम, घेरण्ड मुनि एवं वसिष्ठ ने अपने हठयोग ग्रन्थों में प्राणायाम तथा इसके विभिन्न भेदों का तकनिकीय विवेचन किया। आज भी प्राणायाम में वही विधाएँ अपनायी जाती हैं। लगभग 100 ईस्वी से 1700 ईस्वी तक के समय में प्राणायाम हठयोग के मुख्य अभ्यास के रूप में प्रतिष्ठापित हो गयी। वर्तमान में प्राणायाम जनसामान्य द्वारा भी स्वास्थ्य लाभ हेतु निरन्तर अपनाया जा रहा है। अब पाश्चात्य जगत् में इस विधा पर निरन्तर अनेक वैज्ञानिक शोध किये जा रहे हैं। प्राणायाम के अभ्यास को चरणबद्ध ढंग से किया जाता है। अब हम प्राणायाम के चरणों का उल्लेख करेंगे।
प्राणायाम-अभ्यास के चरण
पातंजलयोगसूत्र में निर्देश है कि रेचक, पूरक, कुम्भक एवं संगट्टन इन चार चरणों के अनुसार वायु का नियमन होना ही प्राणायाम के लक्षण हैं। यद्यपि प्राणायाम के चार चरणों का उल्लेख किया गया है; जो अग्रिम साधना में साधक के निपुण होने पर ही सम्भव है, तथापि सामान्य साधना में मुख्यतः प्राणायाम के तीन चरण हैं-
1. रेचक-श्वास छोड़ते हुए अशुद्ध वायु (कार्बन डाई ऑक्साइड) को शरीर से बाहर छोड़ना रेचक कहलाता है। अशुद्ध वायु सामान्य रूप से भी हमेशा ही बाहर निकलती रहती है; जिसे निःश्वसन कहते हैं। सामान्य निःश्वसन और रेचक में अन्तर है। पहला अन्तर-सामान्य निःश्वसन तो स्वयं ही होता ही रहता है; किन्तु रेचक में अधिकाधिक अशुद्ध वायु को फेफड़ों से बाहर निकालने हेतु फेफड़ांे एवं पेट की पेशियों पर पूर्ण नियन्त्रण का प्रयोग किया जाता है। दूसरा अन्तर-सामान्य प्रश्वास अपनी ही गति से चलता है; इसका समय निर्धारित नहीं होता; जबकि रेचक हेतु समय निर्धारित होता है। यह समय पूरक या श्वास लेने के समय से दो गुना होता है। ऐसा करने से शरीर में उपस्थित अशुद्ध वायु (कार्बन-डाई-आॅक्साइड) अधिक मात्रा में बाहर निकलती है। ऐसा होने पर पूरक के समय अधिक मात्रा में शुद्ध वायु (आॅक्सीजन) ग्रहण की जा सकती है; जिससे सम्पूर्ण शरीर में अधिक जीवनी शक्ति का संचार होता है।
2. पूरक-पूरक का अर्थ है श्वास लेते हुए प्राणवायु को शरीर के भीतर ग्रहण करना। पूरक व सामान्य श्वास में अन्तर है। सामान्य श्वास जीवनपर्यन्त स्वयं ही चलती रहती है; जबकि पूरक में पेशीय निन्त्रण के द्वारा अधिक प्राणवायु (आॅक्सीजन) को शरीर के भीतर ग्रहण किया जाता है।
3. कुम्भक-कुम्भक का अर्थ है प्राणवायु (ऑक्सीजन) को शरीर के भीतर रोककर उसका शरीर में विस्तार करना। सामान्य स्थिति में आॅक्सीजन थोड़ी देर ही शरीर के भीतर रहती है; किसी का ध्यान भी उस ओर नहीं जाता; किन्तु प्राणायाम में किये जाने वाले कुम्भक मंे आॅक्सीजन को भीतर ही रोककर रखा जाता है। रोकने का यह समय श्वास ग्रहण करने के समय का चार गुना रखा जाता है। ऐसा करने से शरीर की प्रत्येक कोशिका में स्थित ऊर्जा-केन्द्रों में अधिक जीवनी शक्ति का संचार होता है।
पूरक, कुम्भक एवं रेचक में नियत अनुपात-उच्च साधकों के लिए यह 1 ः 4 ः 2 माना गया है। अर्थात् जितने समय में सांस भीतर ली जाय; उससे चार गुना समय तक सांस को भीतर रोककर रखा जाय; और भीतर भरने के समय के दो गुना समय तक सांस को बाहर छोड़ा जाय। यह अभ्यास उच्चस्तरीय साधकों के लिए है; किन्तु नये साधकों के लिए यह समय उनकी क्षमता के अनुसार ही रखा जाना चाहिए। गुरु के निर्देशानुसार ही कुम्भक का समय एवं आवृत्तियाँ निर्धारित होना चाहिए।
प्राणायाम के चरणों का अर्थ है कि प्राणायाम की एक आवृत्ति में जो प्रक्रिया अपनायी जाती है एवं प्राणायाम के प्रकार का अर्थ है प्राणायाम में जो भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएँ या तकनीकियाँ अपनायी जाती हैं। हठयोगग्रन्थों व पातंजलयोगसूत्र में प्राणायाम के भेद सर्वथा भिन्न है।
योगसाहित्य के अनुसार प्राणायाम के वर्ग एवं प्रकार
पातंजलयोगसूत्र (राजयोग) के अनुसार प्राणायाम के प्रकार
पातंजलयोगसूत्र में प्राणायाम चार प्रकार के बताये गये हैं; किन्तु इसमें बताये गये चार प्रकार के प्राणायाम सम्भवतः उसके चरणों को निर्देशित करते हैं। इसे निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।
बाह्य प्राणायाम-बाह्य प्राणायाम का अर्थ वायु को बाहर छोड़ने से अर्थात् रेचक से है।
आभ्यन्तर प्राणायाम-आभ्यन्तर वायु को भीतर लेने से अर्थात् पूरक से है।
स्तम्भवृत्ति प्राणायाम-स्तम्भवृत्ति का अर्थ वायु को भीतर रोककर शरीर में उसके विस्तार अर्थात् कुम्भक से है।
विषयाक्षेपी प्राणायाम-बाह्य प्रदेश (रेचक) व आभ्यन्तर प्रदेश (पूरक) के त्याग करने पर स्वयं ही होने वाला प्राणायाम चैथा (केवल कुम्भक) है। यहाँ स्पष्ट करना अनिवार्य है कि पतंजलि द्वारा निर्देशित यह चैथे प्रकार का प्राणायाम प्राण को विस्तारित करने से सम्बन्धित है। इसमें रेचक व पूरक के बिना ही कुम्भक किया जाता है व मूलबन्ध लगाकर प्राणनिरोध किया जाता है। श्वास जहाँ जैसी है उसी स्थिति में रोक ली जाती है। इस प्रकार श्वास को स्तंभित करने के कारण इसे स्तम्भवृत्ति प्राणायाम कहा जाता है। यह भी प्राणायाम का एक चरण ही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक होने के कारण पातंजलयोगसूत्र में मात्र प्राणायाम के चरण ही निर्देशित हैं। यदि प्राणायाम को तकनीकि एवं भेदों की दृष्टि से जानना है तो हठयोग के ग्रन्थों का ही आलम्बन लेना होता है।
हठयोग के ग्रन्थों के अनुसार प्राणायाम के वर्ग एवं प्रकार
हठयोग में प्राणायाम के अन्तर्गत की जाने वाली कुम्भक अर्थात् श्वास रोकने की प्रक्रिया पर इतना बल दिया गया है; कि इसमें प्राणायाम को कुम्भक कहा गया है। इसी आधार पर विभिन्न ग्रन्थों में प्राणायाम के प्रकार निम्नांकित हैं।
घेरण्ड संहिता में प्राणायाम के वर्ग एवं प्रकार
वर्ग का अर्थ है किसी भी प्रकार के प्राणायाम को करते समय मन्त्र को म नहीं मन में दोहराना अथवा न दोहराना। घेरण्ड संहिता में प्राणायाम के आठ प्रकार बताये गये हैं।
1. सहित-रेचक एवं पूरक के साथ कुम्भक का अभ्यास करना। यह भी दो प्रकार का है-सगर्भ एवं निगर्भ प्राणायाम।
सगर्भ प्राणायाम-में अपने इष्टदेव का नाम अथवा प्रणव (ऊँ) का जप करते हुए प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है;
निगर्भ प्राणायाम-इसमें बिना जप के ही प्राणायाम किया जाता है।
2. सूर्यभेदन-दाहिने नासारन्ध्र से पूरक करके, कुम्भक करना; फिर बाँयें नासारन्ध्र से रेचक करना।
3. उज्जयी-तीव्र उच्चारण करते हुए प्राणायाम करना।
4. शीतली-जीभ को बाहर निकालकर; मोड़कर ठंडी सांस से पूरक करना।
5. भस्त्रिका-लोहार की धौंकनी के समान श्वसन करना।
6. भ्रामरी-श्वास छोड़ते हुए भौंरे की गुंजन जैसी ध्वनि करना।
7. मूच्र्छा-कुम्भक करते हुए मस्तिष्क को अक्रियाशील करना।
8. केवली-रेचक एवं पूरक से रहित कुम्भक
हठप्रदीपिका के अनुसार प्राणायाम के प्रकार-
1. सूर्यभेदन-घेरण्ड संहिता के अनुसार।
2. उज्जायी-घेरण्ड संहिता के अनुसार।
3. शीतली-घेरण्ड संहिता के अनुसार।
4. भस्त्रिका-घेरण्ड संहिता के अनुसार।
5. भ्रामरी-घेरण्ड संहिता के अनुसार।
6. सीत्कारी-श्वास भीतर खींचते हुए विशेष प्रकार की ध्वनि करना।
7. मूर्च्छा-घेरण्ड संहिता के अनुसार।
8. प्लावनी-ऐसा कुम्भक जिसको करते हुए साधक पानी में तैर सके।
अभ्यास हेतु यथोचित स्थान की विशेषताएँ
प्राणायाम शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक जिस किसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया जाय; इसके लिए चयनित स्थान में निम्नांकित विशेषताएँ अवश्य होनी चाहिए।
1. स्थान खुला, स्वच्छ एवं शुद्ध वायुयुक्त होना चाहिए; किन्तु वह तेज हवा के झोंको से युक्त नहीं होना चाहिए। अतः किसी ऐसे कमरे को प्रयोग में लाया जा सकता है; जिसमें स्वच्छ वायु एवं सूर्य की रोशनी आती हो, सीलन तथा मक्खी-मच्छर आदि न हों।
2. स्थान शान्त एवं एकान्त होना चाहिए; जिससे एकाग्रता में विघ्न उपस्थित न हो।
3. यदि सम्भव हो तो एक योगाभ्यास एवं प्राणायाम के लिए कोई एक कमरा अलग से ही रख लेना चाहिए; जो मात्र इसी कार्य हेतु उपयोग में लाया जा सके।
4. यदि ऐसा कमरा सम्भव न हो तो किसी ऐसे पार्क, लॉन या बालकनी आदि का उपयोग भी किया जा सकता है; जहाँ मक्खी-मच्छर रहित शान्त, एकान्त और स्वच्छ वातावरण हो।
प्राणायाम के अभ्यास हेतु मुख्य आसन
पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, वज्रासन और सुखासन में से अपनी सुविधानुसार किसी भी आसन मंे करना चाहिए। इन आसनों में बैठकर गर्दन, रीढ़ की हड्डी@कमर को सीधा तथा वक्षस्थल को सामने उठा हुआ होना चाहिए। अर्थात् बैठकर पीठ एवं कमर 90 डिग्री के लम्ब जैसा दिखने चाहिए।
प्राणायाम के अभ्यास हेतु मुख्य मुद्राएँ
प्रणव मुद्रा-प्राणायाम करते समय दाहिना हाथ नासाछिद्रों को बन्द करने हेतु प्रयोग किया जाता है। इसलिए दाहिने हाथ से प्रणव मुद्रा करते हुए यह कार्य किया जाता है। दाहिने हाथ की हथेली फैलाकर तर्जनी एवं मध्यमा को मोड़कर अन्दर की ओर कर लेना चाहिए तथा अंगूठा तथा अनामिका एवं कनिष्ठिका को खुले हुए रहने देना चाहिए। इसे ही प्रणव मुद्रा कहते हैं; इस मुद्रा मंे हाथ की स्थिति चित्र के अनुसार बनती है।
ज्ञानमुद्रा-प्राणायाम करते समय ध्यानात्मक आसन के बैठने की स्थिति में बांयाँ हाथ बांयें घुटने पर रखा जाता है; किन्तु इसे यदि ज्ञानमुद्रा बनाकर हथेली को आकाश की ओर करके रखा जाय तो उसके विशेष लाभ होते हैं। इस मुद्रा को करने के लिए हथेली फैलाकर फिर तर्जनी उंगली को मोड़ते हैं। इसके पश्चात् अंगूठा मोड़कर उसके अग्रभाग से तर्जनी उंगली के अग्रभाग को हल्का-सा दबाते हैं। यह मुद्रा चित्र के अनुसार बनती है।
प्राणायाम के अभ्यास हेतु मुख्य बन्ध
प्राणायाम का अभ्यास प्रारम्भ में तो बिना बन्ध के ही करना चाहिए; किन्तु अभ्यस्त होने के उपरान्त जालन्धर, कुम्भक के समय उड्डियान तथा मूल बन्धों का प्रयोग करना चाहिए। इनका वर्णन षट्कर्म के नौलि कर्म के अन्तर्गत भी किया गया है। रेचक में मूलबन्ध पूर्ण रूप से तथा उड्डियान बन्ध आंशिक रूप से होता है।
प्राणायाम करते हुए ध्यान में रखी जाने हेतु सामान्य सावधानियाँ
1. प्राणायाम का अभ्यास उपर्युक्त विशेषताओं वाले यथोचित स्थान पर ही करना चाहिए।
2. प्राणायाम में आहार-विहार आदि सम्बन्धी सभी नियम योग के अन्य अभ्यासों के समान पालनीय हैं।
3. प्राणायाम खाली पेट ही करना चाहिए; भोजन करके तुरन्त प्राणायाम करना हानिकारक है। भोजन के चार घण्टे बाद ही कर सकते हैं।
4. यदि व्यक्ति मात्र शारीरिक लाभों हेतु ही प्राणायाम कर रहा हो तो वह भोजन से आधा घण्टा पूर्व, भोजन के उपरान्त साढे चार घण्टे पश्चात् एवं जलपाल के दो घण्टे पश्चात् ही प्राणायाम कर सकता है। यह स्थितियाँ ध्यान में रखते हुए किसी भी समय प्राणायाम किया जा सकता है।
5. जो व्यक्ति आध्यात्मिक लाभों हेतु प्राणायाम करे; उसे भोजन और प्राणायाम के बीच में कम से कम छः घण्टे का अन्तर रखना चाहिए। यदि मात्र दूध पिया हो तो भी वह दो घंटे के पश्चात् ही प्राणायाम करे। वह प्रारम्भ में प्रतिदिन प्रातः और सायं दो समय प्राणायाम करे; किन्तु अभ्यस्त होने के उपरान्त वह मध्याह्न और अर्धरात्रि में भी अभ्यास कर सकता है; उसे मात्र यह ध्यान रखना चाहिए कि प्राणायाम का अभ्यास करते हुए पेट पूर्णतः रिक्त रहे।
6. वस्तुतः प्रातःकाल षट्कर्म, आसन के अभ्यास के पश्चात् ही प्राणायाम करना चाहिए। सायंकाल भी प्राणायाम के अभ्यास से पूर्व आसन तो करने ही चाहिए। ध्यान आदि के अभ्यास से पूर्व ही प्राणायाम करना चाहिए।
7. भ्रामरी एवं उज्जायी के अतिरिक्त सभी प्राणायाम विधियों में रेचक एवं पूरक बिना शब्द किये, धीरे-धीरे एवं क्रमशः ही करना चाहिए। अनावश्यक उत्साह एवं शीघ्रता से सबकुछ कर लेने की प्रवृत्ति इसमें अत्यंत घातक है। क्षमतानुसार ही कुम्भक का समय बढ़ाना चाहिए। सामान्य रूप से प्रथम सप्ताह में 4 सेकण्ड, द्वितीय सप्ताह मे 8 सेकण्ड, तृतीय सप्ताह में 16 सेकण्ड, चतुर्थ सप्ताह में 32 सेकण्ड तथा पंचम सप्ताह में 64 सेकण्ड तक कुम्भक को करने का अभ्यास करना चाहिए; किन्तु क्षमता एवं गुरु के निर्देशों का ध्यान रखते हुए।
8. प्राणायाम स्नानादि के बाद करना चाहिए; यदि सम्भव न हो तो प्राणायाम के 1 घण्टे बाद ही स्नान कर सकते हैं; उससे पहले नहीं।
9. अभ्यास नियमित रखना चाहिए; बन्द नहीं करना चाहिए; किन्तु अपनी क्षमता एवं सामथ्र्य के अनुसार ही प्राणायाम की आवृत्ति आदि होनी चाहिए। कभी भी बल का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
10. पूरक, कुम्भक एवं रेचक का अनुपात 1 ः 4 ः 2 ही रखना चाहिए। नये व्यक्ति को मात्र रेचक एवं पूरक से प्रारम्भ करना चाहिए; परन्तु रेचक हमेशा पूरक से दुगुने समय में ही किया जाना चाहिए। अभ्यस्त होने पर ही कुम्भक करना चाहिए और धीरे-धीरे ही समय बढ़ाना चाहिए।
11. ज्वर पीड़ित व्यक्ति, गर्भधारणी स्त्री, भूखा अथवा प्यासा व्यक्ति प्राणायाम न करे। व्याधि की स्थिति में गुरु से पूछ कर उन्हीं के निर्देशों का पालन करना चाहिए; क्योंकि इस स्थिति में प्राणायाम स्वस्थ भी करता है; परन्तु यह रोग एवं रोगी की स्थिति पर निर्भर करता है।
12. उपरोक्त समस्त सावधानियाँ तो सामान्य सावधानियाँ हैं; इनके अतिरिक्त प्रत्येक प्राणायाम के सन्दर्भ में कुछ विशेष सावधानियाँ भी ध्यान में रखी जानी आवश्यक हैं।
13. प्राणायाम करते समय विचार सकारात्मक, आशावादी एवं मन-मस्तिष्क तनाव रहित होना चाहिए।
14. पूर्ण श्रद्धा, आस्था, विश्वास एवं ऊर्जा के साथ प्राणायाम करना चाहिए।
15. प्राणायाम के उपरान्त ऊँ अर्थात् प्रणवाक्षण का उच्चारण करना चाहिए।
प्राणायाम के अभ्यास में कुछ बाधाएँ भी उपस्थित होती हैं; जो निम्नांकित हैं-
अभ्यास में आने वाली मुख्य बाधाएँ
प्राणायाम में उपस्थित होने वाली बाधाओं को दो वर्गों में रखा जा सकता है-
1. शारीरिक बाधाएँ तथा 2. मानसिक बाधाएँ
शारीरिक बाधाएँ-
व्याधि (शारीरिक रोग) -फुफ्फुस (फेफड़े) या हृद्य सम्बन्धी कुछ शारीरिक रोग कुछ विशेष प्रकार के प्राणायाम अभ्यास में बाधा उपस्थित करते हैं।
स्त्यान (शिथिलता) -शिथिलता प्राणायाम में तत्पर होने में बाधा डालती है।
आलस्य-आलस्य करने से अभ्यास में बाधा उत्पन्न होती है।
अनुचित आहार-विहार-तामसिक व भारी भोजन तथा अनियमित दिनचर्या आदि प्राणायाम के अभ्यास में बाधा डालते हैं।
मानसिक बाधाएँ
प्रमाद-प्रमाद अर्थात् जानबूझकर अभ्यास न करना प्राणायाम में विघ्न डालता है।
चंचलता-प्राणायाम अभ्यास हेतु मन को अभ्यास के प्रति एकाग्र व दृढ़ करना होता है। चंचल मन के कारण अभ्यास में बाधा उत्पन्न होती है।
अविरति (विषयों से लगाव) -इन्द्रियों का अपने विषयों से अत्यधिक लगाव भी प्राणायाम के अभ्यास में बाधक है। जैसे जीभ के स्वाद हेतु अत्यधिक भोजन करना आदि।
भ्रान्ति (भ्रम) -प्राणायाम के लाभों के प्रति भ्रान्ति अर्थात् झूठा ज्ञान या भ्रम भी प्राणायाम के अभ्यास में बाधा उत्पन्न करता है।
संदेह प्राणायाम के सम्बन्ध में उपस्थित विभिन्न संदेह भी प्राणायाम में बाधा उपस्थित करते हैं।
प्रणाायाम के अभ्यास को यथाक्षमता प्रारम्भ करके धीरे-धीरे जब शारीरिक लाभ प्राप्त होने लगते हैं; तो उपर्युक्त बाधाएँ स्वाभाविक रूप से धीरे-धीरे दूर होने लगती हैं। इन बाधाओं में से मुख्य बाधा संदेह आदि दूर करने हेतु प्राणायाम के मूल में निहित वैज्ञानिक आधारों को समझना भी उपयोगी है। इसलिए प्राणायाम के अभ्यास में उपस्थित होने वाली बाधाओं के पश्चात् अब प्राणायाम अभ्यास के वैज्ञानिक आधार एवं सिद्धान्तों को समझना चाहिए; जिससे समस्त संदेह आदि दूर हो जायें और प्राणायाम साधना को अपनाकर इसके लाभ प्राप्त किये जा सकें; अतः अब इन्हें प्रस्तुत करेंगे।
प्राणायाम के मूल में निहित वैज्ञानिक सिद्धान्त एवं आधार
प्राणायाम के वैज्ञानिक आधार गहन श्वसन की प्रक्रिया के धरातल पर स्थित है। ऑक्सीजन को ग्रहण करने और कार्बन डाई ऑक्साइड के निष्कासन हेतु ही व्यक्ति सांस लेता है। फेफड़े में पहुँची शिराओं का शिरागत रक्त जब कार्बन डाई ऑक्साइड को छोड़ता है; एवं ऑक्सीजन को ग्रहण करता है; तो इसे धमनीभूत रक्त कहते हैं। प्राणायाम के द्वारा व्यक्ति अधिकतम ऑक्सीजन को ग्रहण एवं अवशोषित करता है तथा उससे भी अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर छोड़ता है। ऐसा होने से रक्त अधिक शुद्ध होता है; जिससे व्यक्ति स्वस्थता एवं प्रसन्नता प्राप्त करता है। इसके मुख्य आधार निम्नांकित हैं-
1. श्वास की गति को कम करना जिससे दीर्घ श्वसन हो सके। वास्तविक प्राणायाम का एक फेरा कम से कम एक मिनट का होना चाहिए। स्वाभाविक श्वसन में सामान्य रूप से व्यक्ति एक बार में 7000 मिली के लगभग वायु भीतर खींचता है। वही व्यक्ति प्राणायाम में करते समय एक मिनट में अधिक से अधिक 3700 मिली वायु ही खींचता है। इस प्रकार ग्रहण की गयी वायु का आयतन घट जाता है; इसका अर्थ यह है कि वायु का अवशोषण भी कम होता है। इसलिए यह अवधारणा ग़लत है कि प्राणायाम द्वारा आॅक्सीजन का अवशोषण आधिक मात्रा में होता है। वास्तविकता यह है कि यद्यपि ऑक्सीजन का अवशोषण कम होता है; किन्तु प्राणायाम के द्वारा श्वसन तन्त्र सामान्य स्थिति के लिए इतना प्रशिक्षित हो जाता है कि यह सामान्य स्थिति में दिन-रात अधिकतम ऑक्सीजन अवशोषित करता है।
2. प्राणायाम में प्रश्वास में अधिक कार्बन डार्ई ऑक्साइड बाहर निकलने से रक्त की अशुद्धियाँ दूर होते हैं।
3. पूर्णरूप से श्वास ग्रहण करना और ऑक्सीजन के द्वारा रक्त शुद्धिकरण।
4. श्वासों को बिना श्रम के रोककर रखना और ऑक्सीजन को भीतर अधिक से अधिक कोशिकाओं तक पहुँचाना।
5. श्वासों को लयबद्ध एवं संतुलित करना; जिससे चयापचय भी संतुलित एवं नियमित हो जाता है।
6. श्वासों के द्वारा अधिक जागरूकता उत्पन्न करना जिससे शारीरिक एवं मानसिक प्रबलता प्राप्त होती है।
7. संवेदी एवं परासंवेदी तन्त्रिका तन्त्र में संतुलन स्थापित करना; जिससे भावनाओं का नियमन व संयमन होता है तथा व्यक्ति अवसाद से मुक्ति पाता है।
8. हाइपोथेलैमस के विशेष स्राव द्वारा अन्य हॉर्मोन्स का नियमन एवं संतुलन होने से समस्त मनोशारीरिक गतिविधियों का नियमन होता है।
9. प्राणवायु हकारात्मक एवं ठकारात्मक भी है; क्योंकि हकार ध्वनि से यह वायु अन्दर जाती है तथा ठकार ध्वनि से वायु बाहर आती है। इस प्रकार शरीर के तापमान को निममित करने का कार्य भी इन नाड़ियों के द्वारा किया जाता है। ह या सूर्य नाड़ी शरीर में उष्णता का संचालन करती है; एवं ठ नाड़ी शरीर में शीतलता का संचालन करती है। इन नाड़ियों के द्वारा शरीर की आवश्यकतानुसार उष्णता एवं शीतलता का प्रसार होता रहता है। इस प्रकार ये नाड़ियाँ प्राण धारण करने के साथ ही तापमान का नियमन भी करती हैं।
10. जब प्राणायाम आदि के द्वारा इन नाड़ियों का शुद्धीकरण किया जाता है; तो नाड़ी गुच्छकों या चक्रों (सोलर प्लेक्सेज) की क्रियाओं में सकारात्मक परिवर्तन होता है। वस्तुतः चक्र तंत्रिका तन्त्र एवं अन्तःस्रावी तन्त्र के बीच एक संवाद स्थापित करके व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं व्यावहारिक क्रियाओं को संतुलित करने हेतु उत्तरदायी होते हैं। इसीलिए स्वस्थता की दृष्टि से प्राणायाम द्वारा इनकी क्रियाशीलता में वृद्धि अत्यंत महत्त्वपूर्ण है; इससे व्यक्ति की क्षमताओं में वृद्धि होती है।
11. साररूप में प्राणायाम द्वारा नाड़ियों का शुद्धिकरण, प्राण का विस्तारण एवं यथोचित ऊर्जा का संचालन आदि कार्य सुनियोजित हो जाते हैं।
प्राणायाम के अनेक शारीरिक एवं मानसिक प्रभाव हैं; इनको जानने हेतु प्राणायाम की उपयोगिता को शरीर तन्त्रों के अनुसार को समझना आवश्यक है। इसलिए अब प्राणायाम के प्रभावों को शरीर तन्त्रों के अनुसार विवेचित करेंगे।
शारीरिक उपयोगिता
शरीर-तन्त्रीय उपयोगिताएँ
श्वसन तन्त्र को लाभ-प्राणायाम के अभ्यास द्वारा फेफड़ों का लचीलापन, श्वसन पेशियों का पुष्टिकरण, गैसों का आदान-प्रदान, श्वसन गति का धीमा होना एवं श्वसन का सहजीकरण जैसे लाभ होते हैं। साथ ही सांसों से सम्बन्धी रोग अस्थमा या ब्रोंकायटिस आदि की चिकित्सा भी होती है।
पाचन तन्त्र को लाभ-अभ्यास करते हुए प्राणायाम से डायफ्राम आदि उदरीय पेशियों की मालिश होने से पाचन तन्त्र स्वस्थ होता है; जिससे समस्त तन्त्रों को भी लाभ होता है; क्योंकि पाचन तन्त्र की स्वस्थता पर समस्त अन्य तन्त्रों की स्वस्थता भी निर्भर करती है। इसके साथ ही कब्ज, गैस, अग्निमांद्य, अपच एवं अम्लता आदि रोगों की चिकित्सा भी होती है।
उत्सर्जन तन्त्र को लाभ-प्राणायाम का अभ्यास करते हुए चयापचय सुचारु होता है; अतः उत्सर्जन भी सुचारु होता है। प्राणायाम के समय पसीना छूटने से शारीरिक अशुद्धियाँ दूर होती हैं।
तन्त्रिका तन्त्र को लाभ-प्राणायाम के अभ्यास से-सी एन एस के बड़े कार्यों जैसे-चिंतन, योजना, सीखना एवं स्मृति आदि क्रिया-कलापों में गुणात्मक परिवर्तन होते हैं। स्पाइनल तन्त्रिकाओं में परिवहन के उन्नत होने से पी एन एस को भी विशेष लाभ प्राप्त होता है। क्रोधाधिक्य, तनाव, सिरदर्द, अवसाद, निराशा, अनिद्रा आदि समस्त मानसिक समस्याओं तथा गम्भीर मानसिक रोगांे में भी लाभ प्राप्त होता है।
रक्त परिसंचरण तन्त्र को लाभ-प्राणायाम अभ्यास के समय डायफ्राम की गति से हृद्य पेशियों की मालिश होती है; जिससे इसकी कार्य क्षमता बढती है एवं धड़कनों की गति भी कम हो जाती है। ऐसा होने रक्त परिसंचरण के सुचारु होने से उच्च एवं निम्न रक्त चाप दोनों ही सामान्य हो जाते हैं।
अन्तःस्रावी तन्त्र-उच्चस्तरीय तन्त्रिका केन्द्रों के सुचारु क्रियान्वयन एवं नियमन के परिणामस्वरूप सभी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की कार्यक्षमता बढती है। ऐसा होने से अधिक या कम स्राव से उपजने वाले अनेक रोगों का भी निदान होता है। पेशी तन्त्र को लाभ-डायफ्राम एवं उदरीय पेशियाँ स्वस्थ हो जाती हैं।
प्रजनन तन्त्र को लाभ-हॉर्मोन्स का संतुलन होने से प्रजनन तन्त्र को भी विशेष लाभ होते हैं। हाइपो एवं हाइपर थॉयरॉयड आदि में विशेष लाभ होने से मासिक धर्म की अनियमितता, प्रदर तथा बांझपन आदि अनेक स्त्री-रोग भी ठीक होते हैं। पुरुषों की पौरुष क्षमता सम्बन्धी अनेक रोगों में भी लाभ प्राप्त होता है।
मानसिक उपयोगिता
मानसिक स्थिरता, प्रसन्नता तथा दीर्घकालीन सुख प्राप्त होते हैं; जिससे समस्त मानसिक रोग; यथा-अवसाद, चिंता तथा निराशा आदि ठीक हो जाते हैं।
आध्यात्मिक उपयोगिता
कुम्भक के समय अंतर्मुखी होने से असीम शान्ति एवं सुख प्राप्त होता है। प्राणायाम में पारंगत होने पर ही ध्यान आदि किया जा सकता है। इसके साथ ही प्राणायाम से अनेक आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं।
प्राणायाम अभ्यास के मूल में शरीर के भीतर प्राण के विस्तारीकरण का वैज्ञानिक सिद्धान्त है। सामान्य शब्दों में यह ऐसा सिद्धान्त है जो स्वास्थ्य जैसी प्राथमिक आवश्यकता के साथ ही मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर भी व्यक्ति को लाभ प्रदान करता है।
प्राणायाम के आठ प्रकारों की विधि
अनुलोम-विलोम या नाड़ीशुद्धि प्राणायाम
अनुलोम का अर्थ है समान तथा विलोम का अर्थ है विपरीत। इसमें नासाछिद्रों से बार-बार एक ओर तथा दूसरी ओर से बदल-बदल कर पूरक एवं रेचक किया जाता है। इसलिए इस प्राणायाम को अनुलोम अर्थात समान रूप से दोहराना एवं विलोम अर्थात् विपरीत रूप से दोहराना कहा जाता है।
विधि
किसी ध्यानात्मक या सुख आसन में बैठें। प्रणव मुद्रा बनायें; जिससे अँगूठे को नासाछिद्र के बाहरी भाग पर रखकर नाक को बन्द किया जा सके तथा कनिष्ठिका एवं अनामिका से बांयें नासाछिद्र को बन्द किया जा सके। आँखें बन्द करेंं।
पूरक-पूरा सांस बाहर निकाल कर फेफड़े और पेट खाली कर लें। अब दाहिना नासाछिद्र अंगूठे से बन्द कर लें और बांयाँ नासाछिद्र खुला रहने दें। बांयें नासाछिद्र से धीमे-धीमे पूरक करें।
कुम्भक-प्रारम्भ में बिना कुम्भक के ही यह प्राणायाम करना चाहिए; किन्तु अभ्यस्त होने पर अपनी क्षमतानुसार कुम्भक करना चाहिए; और धीरे-धीरे इसका अनुपात पूरक के चार गुना तक पहंुचाना चाहिए।
रेचक-कुम्भक के उपरान्त दाहिने नासाछिद्र से धीमे-धीमे रेचक करें। यह पूरक से दो गुना समय तक किया जाना चाहिए। यदि 10 सेकंड तक श्वास लें तो 20 सेकंड तक छोड़ें। मन ही मन गिनती करते हुए यह सेकंड गिने जा सकते हैं। इस प्रकार अभ्यास का करते हुए बार-बार नासाछिद्र बदलते हुए अन्तिम चक्र में दाहिने नासाछिद्र से ही रेचक करना चाहिए।
अभ्यास के अन्त में प्रणवाक्षर का उच्चारण भी कर सकते हैं। तीन या नौ बार अथवा अपने समयानुसार प्रणव का उच्चारण करना चाहिए। इसके लिए पूरी सांस फेफड़ों में भरकर फिर ऊँ (अ, उ, म् का संयुक्त रूप) का उच्चारण ऐसा होना चाहिए कि उच्चारण के पूरे समय में एक तिहाई अ एवं उ तथा दो तिहाई म् का उच्चारण साँस छोड़ते हुए किया जाय। अभ्यास पूर्ण होने पर दोनों हाथों की हथेलियों को आपस में धीरे से रगड़कर; उंगलियों वाले भाग को सीधी ओर से अपनी बन्द आँखों की पलकों पर रखें। इसके पश्चात् धीरे से आँखें खोलनी चाहिए। इसे करते हुए निम्न आवृत्ति आदि का ध्यान रखना चाहिए।
आवृŸिा-प्रारम्भ में एक बार के प्राणायाम को करते हुए मात्र 6 चक्र करने चाहिए और लगभग 3 मिनट तक करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास में पारंगत होने पर यह अनुपात रखा जा सकता है और 20 मिनट तक किया जा सकता है।
सावधानी-जो व्यक्ति किसी गम्भीर रोग से पीड़ित हो; वह इसका अभ्यास ना करे या तो फिर योगगुरु के निर्देशानुसार करें। अन्य सावधानियाँ प्राणायाम की सामान्य सावधानियों के समान ही हैं।
लाभ-
शारीरिक लाभ-उच्च एवं निम्न रक्तचाप, त्वचारोग, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, सिरदर्द, तनाव, अवसाद, धमनी अवरोध आदि रोग दूर होते हैं तथा हृद्य तथा फेफड़े की पेशियों को मजबूती मिलने से रक्त परिसंचरण आदि सुचारु हो जाता है। पेट की पेशियों की मालिश होने से पाचन सुचारु होता है तथा हॉर्मोन्स का संतुलन होता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है।
मानसिक लाभ-प्राणायाम से मिलने वाले अन्य सामान्य लाभ जैसे-मन शान्त, प्रसन्न होता है। एकाग्रता, तार्किकता एवं चिंतन क्षमता आदि में वृद्धि आदि मानसिक लाभ भी प्राप्त होते हैं।
आध्यात्मिक लाभ-इड़ा-पिंगला नाड़ियों की शुद्धि तथा सुषुम्ना की क्रियाशीलता आदि के साथ चक्र जागरण आदि जैसे लाभ प्राप्त होते है। इसके अतिरिक्त योग के अग्रिम अभ्यासों जैसे ध्यान आदि के लिए व्यक्ति तैयारी होती है।
अब उज्जायी प्राणायाम को विवेचित करेंगे।
उज्जायी प्राणायाम
उज्जायी संस्कृत शब्द है; जिसके दो अर्थ होते हंै-ऊँचे स्वर में उच्चारित एवं यश की ओर ले जाने वाला। यह प्राणायाम ऊँची ध्वनि के साथ किया जाता है तथा व्यक्ति की मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त करने में सहयोग करते हुए; उसे मुक्ति की ओर अग्रसर करता है। इसलिए इसे उज्जायी प्राणायाम कहा जाता है।
विधि
किसी भी ध्यानात्मक अथवा सुख आसन में बैठकर हथेलियाँ ज्ञान मुद्रा में घुटनों पर रहेंगी। अपने चेहरे का तनाव कम करके उस पर मुस्कुराहट लायें और आंखें बन्द कर लें। अपने कंठप्रदेश पर ध्यान एकाग्र करें। अब सांस छोड़कर फेफड़ों को पूरा खाली करें।
पूरक-उपर्युक्त निःश्वास के उपरान्त धीरे-धीरे पूरक करना चाहिए। उज्जायी में दोनों नासाछिद्रों से पूरक किया जाता है; जिसमें वक्षस्थल या फेफड़ों का भी उपयोग किया जाता है। वायु कंठ को छूते हुए और उससे रगड़ खाते हुए प्रवेश करनी चाहिए। फेफड़े से सांस ग्रहण करने पर सिसकने जैसी ध्वनि करते हुए वायु भीतर प्रवेश करती है। अन्तर यह है कि सिसकने में खंडित ध्वनि आती है; एवं उज्जायी करते हुए यह ध्वनि अखंड होती है। पूरक करते हुए मुंह एवं नाक की पेशियों को सिकोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि इनका पूरक में कोई भी योगदान नहीं है।
कुम्भक-जालंधर बंध लगाकर कंठद्वार को पूर्णतः बन्द करके कुम्भक करना चाहिए। यदि ऐसा करना सम्भव ना हो तो नासाछिद्रों को बन्द करके भी कुम्भक किया जा सकता है। कुम्भक हमेशा क्षमतानुसार ही किया जाना चाहिए; किन्तु इसे आदर्श अनुपात तक पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए।
रेचक-यह बांयें नासाछिद्र से ही किया जाना चाहिए। इसलिए ज्ञानमुद्रा में दाहिने घुटने पर रखे दाहिने हाथ की उंगलियों से अब प्रणव मुद्रा बनाकर; दाहिने नासाछिद्र को पहले दाहिने नासाछिद्र पर रखकर उसे बन्द कर लें। फिर बांये नासाछिद्र से आंशिक रेचक करते हुए जालंधर बन्ध खोलना चाहिए एवं तदुपरान्त फेफड़े को पूर्णतः रिक्त करना चाहिए। इसमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कंठद्वार या इपीग्लॉयटिस अधखुला ही रहे; जिससे वायु कंठप्रदेश से रगड़ खाते हुए बाहर निकले। रेचक में पेट की पेशियों का संकोच निरन्तर बढ़ता है; जब तक कि वायु की अधिकतम मात्र फेफड़े को सिकोड़कर बाहर न निकले; यह रेचक तब तक होना चाहिए। साथ ही यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि सामथ्र्य के अनुसार ही रेचक भी हो; अनावश्यक बल प्रयोग करके या तनाव के साथ करने से लाभ के स्थान पर हानि सम्भव है।
अभ्यास के अंत में प्रणवाक्षर उच्चारण पूर्व की भांति किया जा सकता है; फिर उसी प्रकार से आंखें खोलनी चाहिए।
आवृत्ति-मात्र स्वास्थ्य लाभ या शरीर संवर्धन हेतु इसके एक दिन में 240 फेरे तक किये जा सकते हैं; जिन्हें अपनी सुविधानुसार दिनभर में की जाने वाली आवृत्तियों के अनुसार बांट दिया जाना चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टि से 320 फेरे किए जाने चाहिए। दोनों ही प्रकार के साधकों को सात फेरों से प्रारम्भ करके प्रति सप्ताह 3 फेरे बढ़ाने चाहिए। उतना ही करें जितने में तनाव या घुटन न हो। क्षमता एवं सामथ्र्य का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।
सावधानी-फेफड़े, हृद्य, पेट या फिर किसी भी गम्भीर रोग से पीड़ित व्यक्ति ना करें। योग गुरु के निर्देशानुसार करें।
लाभ
शारीरिक-प्रयोगों में यह पाया गया है कि उज्जयी प्राणायाम करते हुए अल्फा तरंगांे का प्रवाह होता है। यह तरंग पी एन एस पर प्रभाव डालती है; जिससे शारीरिक क्रियाशीलता बढ़ती है और ऊर्जा का पुनः संचय होता है। एपिग्लॉयटिस (कंठ में स्थित वह ढक्कन जो भोजन और पानी निगलने में सहायक है) की पेशियाँ मज़बूत होती हैं; जिससे खर्राटे भी कम हो जाते हैं। टांसिल्स, दमा, जुकाम, खांसी, हिचकी, कंठ-संक्रमण तथा थॉयरॉयडिज्म आदि रोग दूर होते हैं। इस प्राणायाम से मस्तिष्क में रक्त का संचार बढ़ता है; जिससे सिरदर्द तथा मस्तिष्क सम्बन्धी अन्य रोग भी दूर होते हैं।
मानसिक-चिंता, अवसाद, निराशा एवं नकारात्मकता दूर होती है। मन शान्त एवं प्रसन्न होता है। एकाग्रता एवं मानसिक क्षमता में वृद्धि होती है।
आध्यात्मिक-यह प्राणायाम ध्यान की प्रक्रिया में अत्यंत सहयोगी है। इससे विशुद्धि चक्र को विशेष लाभ होता है। यह चक्र क्रियाशीलता एवं रचनात्मकता का प्रतीक है; अतः उज्जयी प्राणायाम के अभ्यास से इन दोनों में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त यह प्राणायाम अनाहत चक्र के जागरण में भी सहयोगी है; जिससे जागृति, स्फूर्ति एवं करुणा जैसे भाव विकसित होते हैं। इसके अतिरिक्त नाडियों के शुद्धीकरण से अनेक आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं। प्राणायाम के समय होने वाली ध्वनि से ध्यान हेतु एकाग्रता में वृद्धि होती है।
भस्त्रिका प्राणायाम
भस्त्रिका का अर्थ है-लोहार की धौंकनी। भस्त्रिका के सभी प्रकारों में लोहार की धौंकनी के समान ध्वनि करते हुए प्रश्वास किये जाते हैं; इसलिए यह भस्त्रिका प्राणायाम कहलाता है।
विधि
भस्त्रिका प्राणायाम दो भागों में किया जाता है। प्रथम भाग में वातक्रम कपालभाति के समान पेट से यथासम्भव उच्छवास किया जाता है। इसका एक फेरा होने पर एक फेरा उज्जायी प्राणायाम किया जाता है। अतः पूरक रेचक एवं कुम्भक को उज्जायी के ही समान करना होगा मात्र इसके प्रत्येक फेरे में एक फेरा कपालभाति भी जुड़ जायेगा।
अतः एक चक्र कपालभाति - एक चक्र उज्जायी त्र भस्त्रिका
अतः इसकी पूरी विधि इस प्रकार समझी जा सकती है-प्रथम भाग वातक्रम कपालभाति और इसमें अन्तर मात्र इतना है कि कपालभाति में रेचक दोनों नासाछिद्रों से किया जाता है तथा भस्त्रिका के अभ्यास के अन्तर्गत यह चार प्रकार से किया जाता है। इस प्रकार से भस्त्रिका के चार विधियाँ हुई।
प्रथम विधि-इसमें प्रारम्भिक उच्छवास (शीघ्रता से सांस छोड़ना) बिल्कुल कपालभाति के समान ही किया जाता है।
द्वितीय विधि-कपालभाति करते समय कंठद्वारा पूर्णतः खुला रखा जाता है; किन्तु भस्त्रिका के इस प्रकार में कपालभाति करते समय उच्छवासों में कंठ को अधखुला रखा जाता है; जिससे वायु कंठ प्रदेश पर रगड़ खाते हुए बाहर निकले।
तृतीय विधि-भस्त्रिका के उपर्युक्त दो विधियों के अभ्यास में कपालभाति करते समय दोनों नासाछिद्र खुले रहते हैं; किन्तु इस प्रकार में यह अन्तर है कि कपालभाति में मात्र एक ही नासाछिद्र खोलकर उच्छवास किये जाते हैं। उज्जायी की विधि यथावत् ही रहेगी। विषम संख्या वाले फेरे में कपालभाति दाहिने नासाछिद्र से होगा तथा सम फेरे में बांये नासाछिद्र से होगा। उदाहरण के लिए पहले, तीसरे, पांचवें आदि विषम फेरों में बांयें नासाछिद्र को बन्द करके दाहिने नासाछिद्र से उच्छवास किया जाता है। इसके साथ ही दूसरे, चैथे, छठे, आठवें आदि सम फेरों में दाहिने नासाछिद्र को बन्द करके बांये नासाछिद्र से उच्छवास किया जायेगा।
चतुर्थ विधि-इसमें और अन्य उपर्युक्त विधियों में अन्तर यह है कि उनमें कपालभाति करते हुए प्रश्वास दोनों नासाछिद्रों से किया जाता है; किन्तु इस प्रकार में कपालभाति का अभ्यास करते हुए सर्वप्रथम दाहिने नासाछिद्र से तेजी से प्रश्वास करते हैं। इसके उपरान्त बांयें नासाछिद्र से तेजी से निःश्वास (श्वास को पूर्णतः बाहर छोड़ना) किया जाता है। यह तब तक किया जाता है; जब तक थकान की अनुभूति न होने लगे। फिर उज्जायी करते हुए दाहिने नासाछिद्र से पूरक करके यथाशक्ति कुंभक एवं अंतिम रेचक बांये नासाछिद्र से ही किया जाता है।
आवृत्ति-तीन फेरे प्रतिदिन करने से शरीर संवर्धन हेतु समस्त लाभ प्राप्त होते हैं। आध्यात्मिक लाभों हेतु 18 फेरे तक करने चाहिए। ये फेरे धीरे-धीरे प्रत्येक सप्ताह बढ़ाने चाहिए।
सावधानी-वातक्रम कपालभाति एवं उज्जायी प्राणायाम दोनों में निर्देशित सावधानियों को सम्मिलित रूप से ध्यान में रखना चाहिए।
लाभ-वातक्रम कपालभाति एवं उज्जायी प्राणायाम दोनों के संयुक्त लाभ प्राप्त होते हैं।
भ्रामरी प्राणायाम
भ्रामरी शब्द भ्रमर या भौंरे का स्त्रीलिंग है; इस प्राणायाम का नामकरण भ्रामरी इसलिए हुआ है कि इसका अभ्यास करते हुए नर एवं मादा भौंरे के समान गुंजार के साथ प्रश्वास एवं निःश्वास किया जाता है।
विधि
पूरक-पद्मासन में बैठकर आंखें बन्द कर लेनी चाहिए तथा कानों के छेद दोनों हाथों की तर्जनी उंगली से बन्द कर लेने चाहिए। सम्पूर्ण शरीर को तनाव मुक्त कर लेना चाहिए। इस प्राणायाम में खर्राटे भरने जैसी ध्वनि का अनुकरण करते हुए मृदुतालु की हलचल को समझना है। मृदुतालु को ग्रसनी की ओर ले जाकर अभिश्वसन करना है। ऐसा करने से धीमे और नासागुहा के घर्षण से एक मधुर ध्वनि निकलती है। प्रारम्भिक अभ्यास में यह ध्वनि ऊँची-नीची हो सकती है; किन्तु अभ्यास के उपरान्त इस समभाव मंे लाना होता है। अभ्यास से इसे इतना मधुर कर देना चाहिए कि सुनने में किसी वाद्ययन्त्र की ध्वनि जैसा प्रतीत हो।
कुम्भक-सामान्य रूप से जैसे कुम्भक किया ही जाता है; वैसे ही अभ्यास आवश्यक है।
रेचक-भ्रामरी की गुंजन के समान मृदुतालु की भित्ती से घर्षण के साथ मधुर स्वर के साथ रेचक होना चाहिए। अनुपात पूर्वाेक्त प्राणायामों के समान ही है। रेचक के पश्चात् प्रणवाच्चार कर लेना चाहिए। उसके उपरान्त धीरे-धीरे दोनों हथेलियों को आपस में थोड़ा-सा रगड़कर बन्द आंखों की पलकों पर रखकर आंखें खोलनी चाहिए।
आवृŸिा-प्रारम्भ में 5 से 10 फेरे करने चाहिए। फिर धीरे-धीरे अभ्यस्त होने पर; एक बार में 10 से 15 मिनट तक अभ्यास करना चाहिए। विशेष मानसिक तनाव या अवसाद से बाहर आने के उद्देश्य से यह प्राणायाम सावधानीपूर्वक एवं गुरु के सान्निध्य में 30 मिनट तक भी किया जा सकता है।
सावधानी-पूर्वोक्त अन्य प्राणायामों के समान ही सावधानियाँ अपेक्षित हैं; किन्तु विशेष यह है कि कान जिनके कान में संक्रमण हो या जिनके कान का आॅपरेशन हुआ हो; उनको इस प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
लाभ
शारीरिक-रक्तचाप को घटाता है; इसलिए उच्चरक्तचाप वाले व्यक्तियों के लिए विशेष लाभदायक है। इसके अतिरिक्त हॉर्मोन्स को नियमित एवं संतुलित करने में भी इस प्राणायाम से लाभ होता है।
मानसिक-मानसिक तनाव, क्रोध, चिड़चिड़ापन तथा दुष्चिंता आदि मानसिक समस्याओं का निदान इस प्राणायाम के अभ्यास से होता है।
आध्यात्मिक-इस प्राणायाम के अभ्यास में अंतर्नाद या अंतःध्वनि पर ध्यान को एकाग्र करने का प्रयास किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह प्राणायाम ध्यान एवं समाधि में मिलने वाले लाभों आत्मिक आनन्द को प्राप्त करने के लिए एक सरल मार्ग है।
सूर्यभेदन प्राणायाम
हठयोग में दाहिने नासाछिद्र से जुड़ी नाड़ी को पिंगला या सूर्य नाड़ी कहा जाता है। भेदन का अर्थ होता है-खिलना या खोलना। इस प्राणायाम को करते हुए सूर्य नाड़ी में उपस्थित विकारों को दूर करके उसे खोला जाता है; इसलिए इसे सूर्यभेदन प्राणायाम कहा जाता है। सूर्यभेदन का एक अन्य अर्थ भी प्राप्त होता है। मुनि घेरण्ड ऐसा मानते हैं कि इस प्राणायाम में दाहिने नासारन्ध्र से पूरक करके वायु के शरीर में प्रवेश के उपरान्त वह वायु कुम्भक के समय शरीर के समस्त दस प्राणों से मिलती हैं और सुषुम्ना के मूल में उपस्थित ब्रह्मांडीय ऊर्जा को जागृत करती है। शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक उत्थान करती है। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि भेदन का अर्थ प्रभेद या भेद भी हो सकता है। दोनों ही अर्थ ग्राह्य हैं। सूर्यभेदन हेतु सूर्यभेदी एवं सूर्यभेद संज्ञाएँ भी प्रयोग में लायी गयी हैं। इस प्रकार विभिन्न संज्ञाओं का अभिप्राय यही है कि सूर्य नाड़ी या नाहिनी नासिका से पूरक करके शरीर में ऊर्जा का संचार करना इस प्राणायाम के अभ्यास का मूलभूत उद्देश्य है। अब इसकी विधि को जानना अपेक्षित है; विधि इस प्रकार है।
विधि
पूरक-किसी भी ध्यानात्मक आसन में ही बैठना चाहिए। इसके पश्चात् नासाग्र दृष्टि को निर्देश कुछ ग्रन्थों में किया गया है; किन्तु कठिन होने के कारण प्रारम्भिक अभ्यासी आंखें बन्द भी कर सकते हैं। इसके पश्चात् दाहिने हाथ से प्रणव मुद्रा बनाते हुए धीरे-धीरे अधिकतम समय तक दाहिने नासारन्ध्र से ही पूरक करना चाहिए। बांयाँ हाथ ज्ञानमुद्रा में बांयें पैर के घुटने पर रखा जायेगा। इस प्रकार पूरक करना चाहिए। पूरे अभ्यास में पूरक दाहिनी नासा से ही होगा।
कुम्भक-जब तक कि नाखूनों के अग्रभाग एवं समस्त रोमों तक दबाव अनुभव न होने लगे तब तक कुम्भक करना चाहिए। कुछ फेरों के उपरान्त पसीना भी आना प्रारम्भ होना चाहिए। प्रारम्भ में सामान्य कुम्भक करते हुए धीरे-धीरे अभ्यस्त होने पर जालंधर बन्ध अतिआवश्यक है। साथ ही जब जालंधर बन्ध में भी प्रवीण हो जायें तो उड्डियान एवं मूलबन्ध के साथ ही इस प्राणायाम को करना चाहिए। क्षमता का ध्यान रखना अनिवार्य है; क्षमता से अधिक कुम्भक एवं बंध आदि वर्जित हैं।
रेचक-कुम्भक के पूर्ण होने पर धीरे-धीरे बांयी नासिका से ही रेचक होना चाहिए। हर फेरे में रेचक बांयी नासा से ही होगा।
आवृत्ति-प्रारम्भ में 5 से 10 फेरे तक प्रति दिन किये जा सकते हैं। अभ्यस्त होने पर 20 फेरे से 30 फेरे तक किये जा सकते हैं; किन्तु इसका अभ्यास 30 घण्टे से अधिक कभी भी नहीं होना चाहिए और वह भी योग्य गुरु के सान्निध्य में ही करना चाहिए।
सावधानी-प्राणायाम में रखी जाने वाली सभी सावधानियाँ इस अभ्यास में भी आवश्यक हैं। उच्चरक्तचाप, नाक बहना, हृद्यरोग, कैंसर, अतितनाव, सिरदर्द, माइग्रेन, ज्वर, कब्ज, हाइपरथॉयरॉयड, पैप्टिक अल्सर, अतिक्रोधी एवं चिंता आदि से ग्रस्त व्यक्तियों को यह प्राणायाम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इस प्राणायाम से शरीर में गर्मी बढ़ती है; जिससे इन रोगों में हानि होती है। गर्मी के मौसम मंे यह प्राणायाम नहीं करना चाहिए। अन्यथा हानि हो सकती है।
लाभ
शारीरिक लाभ-दाहिनी नाड़ी का सम्बन्ध एस एन एस से होने के कारण संवेदी क्रियाएँ तथा उपापचय दर में वृद्धि होती है। ऐसा होने से शरीर में ऊर्जा, सक्रियता, स्फूर्ति एवं चेतना का अधिकतम संचार होता है। इस अभ्यास से वात एवं कफ रोगों जैसे-गठिया, जुकाम, खांसी आदि तथा मोटापे को दूर किया जा सकता है। इस प्राणयाम के अभ्यास से व्यक्ति की आलसी प्रवृत्ति दूर होकर वह शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्रिय हो जाता है।
मानसिक लाभ-यह प्राणायाम बाह्य वातावरण के प्रति जागरूक बनाता है; इसलिए जो व्यक्ति अंतर्मुखी रहते हैं और ऐसा होने से अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं; उनको यह बहिर्मुखता प्रदान करने में सहयोगी है। ऐसा होने से धीरे-धीरे अवसाद समाप्त होने लगता है। मानसिक रूप से व्यक्ति आत्मविश्वासी, सक्रिय एवं स्वतःस्फूर्त हो जाता है।
आध्यात्मिक लाभ-इस प्राणायाम के अभ्यास से शरीर में अग्नि तत्त्व को सक्रिय होता है। यह व्यक्ति की चेतना-वृद्धि में सहयोगी है। कुण्डलिनी जागरण हेतु भी यह प्राणायाम उपयोगी है।
सूर्यभेदन प्राणायाम के पश्चात् शीतली प्राणायाम को जानना आवश्यक है; इसकी विधि आदि निम्नांकित है।
शीतली प्राणायाम
यह प्राणायाम शरीर में ठंडक उत्पन्न करता है; इसलिए इसे शीतली प्राणायाम कहते हैं। इसे जीभ की सहायता से किया जाता है। इसकी विधि इस प्रकार है।
विधि
पूरक-किसी ध्यानात्मक में बैठकर आँखें बन्द कर लेनी चाहिए। जीभ को लगभग तीन चैथाई मुंह से बाहर निकालकर दाहिने व बांये किनारों से गोल मोड़ लेना चाहिए; ऐसे में यह आगे से नलिका के समान बन जाती है। ऐसा करने से जीभ का अगला भाग स्वाभाविक रूप से नुकीला-सा हो जाता है। इस प्रकार जीभ की रचना पक्षियों की चांेच के समान हो जाती है। इसके उपरान्त जीभ की सहायता से ठंडी वायु द्वारा पेट को भर लेना चाहिए। वायु से यथाशक्ति पूरा पेट भरना चाहिए।
कुम्भक-पूरक के पश्चात् जीभ को मुँह के भीतर करके एक क्षण का ही कुम्भक करना चाहिए।
रेचक-पूरक के दोगुने समय में नाक से रेचक करना चाहिए।
आवृत्ति-प्रारम्भ में 5 से 10 आवृत्ति एवं पारंगत होने पर 30 आवृत्ति तक कर सकते हैं। शेष गुरु के निर्देशानुसार ही घटानी बढ़ानी चाहिए।
सावधानी-यह अभ्यास मात्र गर्मियों के मौसम में ही करना चाहिए; वह भी किसी शीतल स्थान या कक्ष में बैठकर। वात के रोगियों को नहीं करना चाहिए।
लाभ
शारीरिक लाभ-उच्चरक्तचाप, गर्मी से होने वाले सिरदर्द, कब्ज, अतिअम्लता, पेट में जलन आदि दूर होते हैं। कफ और पित्त से होने वाली समस्या समाप्त होती है। इस प्राणायाम से यह गर्मियों के मौसम में भूख-प्यास आदि को नियन्त्रित करने हेतु उत्तम साधन है।
मानसिक लाभ-मानसिक शान्ति एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है। नींद ना आ रही हो तो इस प्राणायाम के अभ्यास गहरी नींद आती है।
आध्यात्मिक लाभ-यह प्रत्याहार साधना हेतु उपयोगी है। गर्मियों के मौसम में कई घण्टों तक ध्यान करने हेतु यह अभ्यास पृष्ठभूमि तैयार करता है।
सीत्कारी
इस कुम्भक का वर्णन घेरण्ड संहिता में नहीं है; हठप्रदीपिका में इसका संक्षिप्त सूत्रात्मक रूप ही प्राप्त है। इस प्राणायाम की विशेषता इसका विशेष ढंग से किया जाने वाला पूरक है। सीत्कारी का अर्थ है-शीत की ध्वनि से युक्त प्राणायाम। इसकी विधि निम्नांकित है।
विधि
पूरक-किसी ध्यानात्मक आसन में बैठकर दोनों हाथ ज्ञानमुद्रा में घुटनों पर रहेंगे। आंखें बन्द करके अपने मुंह को खोलकर जीभ बाहर निकालें फिर जीभ को पीछे की ओर मोडे़े तथा आगे के दांतों से जीभ के गोल बने आकार को थोड़ा-सा दबा लें। ऐसा करने से जीभ आगे से एक पाइप के आकार की बन जायेगी। अब जो पाइप-सी बनी जीभ है; उससे 'सी' की ध्वनि करते हुए पूरक करना चाहिए। फिर होंठ बन्द करते हैं; जिसमें हल्की-सी त् की ध्वनि होती है। इस प्रकार सीत् शब्द पूर्ण होने से ही यह सीत्कारी प्राणायाम है।
कुम्भक-पूरक के पश्चात् जो क्षण भर स्वाभाविक रूप से वायु रुकती है; उसके अतिरिक्त कुम्भक नहीं करना है।
रेचक-दोनों नासिकाओं से पूरक के दुगुने समय तक रेचक किया जाता है। रेचक के उपरान्त हथेलियों को आपस में रगड़कर उन्हें बन्द पलकों पर रखकर फिर आंखें खोली जाती हैं। इच्छानुसार इससे पूर्व प्रणवोच्चारण भी कर सकते हैं।
आवृत्ति-अभ्यासी की क्षमतानुसार एवं गुरु के निर्देशानुसार।
सावधानी-सर्दियों में यह अभ्यास नहीं करना चाहिए। वात रोग वाले व्यक्तियों को नहीं करना चाहिए।
लाभ
शारीरिक लाभ-लगभग शीतली प्राणायाम के समान।
मानसिक लाभ-लगभग शीतली प्राणायाम के समान।
आध्यात्मिक लाभ-आध्यात्मिक पथ में उपस्थित होने वाले व्यवधान धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं।
प्राणायाम का अभ्यास करते-करते मन शान्त एवं स्थिर होने लगता है। ऐसा होने पर मन में आने वाले नकारात्मक विचार तथा निराशावादी दृष्टिकोण धीरे-धीरे सकारात्मकता में परिवर्तित होने लगते हैं। अभ्यासी प्रत्याहार एवं धारणा को सिद्ध करने में सफल हो जाता है। प्रत्याहार एवं धारणा के द्वारा विकसित हुई एकाग्रता साधक को ध्यान में सरलता से अवस्थित करती है। प्रत्याहार एवं धारणा क्रियात्मक होने की अपेक्षा भावात्मक अधिक है। इन दोनों में ही मन का नियन्त्रण तथा अनुशासन अधिक उपयोगी है। आसन तथा प्राणायाम को करते हुए मानसिक नियन्त्रण एवं अनुशासन का जो भाव विकसित होता है; वह प्रत्याहार के इन्द्रिय-निरोध एवं धारणा के एकाग्रता जैसे लक्ष्यों के रूप में फलित होता है। प्रत्याहार एवं धारणा भी अष्टांग योगाभ्यास में अनिवार्य है; किन्तु भावात्मक होने के कारण ये प्राणायाम आदि के द्वारा स्वयं ही विकसित होते रहते हैं। क्रियात्मकता की अल्पता होने के कारण पुस्तक में इनका अतिसंक्षिप्त विवेचन ही करेंगे। अगले अध्याय में इनका संक्षिप्त विवेचन करते हुए; हम ध्यान की विधियों को प्रस्तुत करेंगे।