अध्यासवाद / परंतप मिश्र
आचार्य शङ्कर का भाष्य "शारीरक या जीव-भाष्य" के नाम से जाना जाता है। जो स्वयं प्रमाणित करता है कि वह जगत का निषेध नहीं करते। शारीरक जो की जीव का वाचक है। इस भाष्य का विषय नामकरण से ही परिभाषित हो गया है। जीव-भाष्य ब्रह्मसूत्र पर शारीरक-भाष्य या जीव-भाष्य लिखकर आचार्य ने ब्रह्म-जीव या जीव-ब्रह्म ऐक्य के सिद्धांत की स्थापना कि है। कुछ लोगों का प्रश्न रहता है कि 'जब भाष्य का प्रतिपाद्य ब्रह्म है तो आरम्भ में अध्यास की चर्चा क्यों की जाती है?' इसका उत्तर यह है कि भगवत्पाद आचार्य शङ्कर के सिद्धांत का मुख्य प्रयोजन है, अविद्या कि आत्यंतिक निवृत्ति और जिस अविद्या कि निवृत्ति करनी है, उसके स्वरुप के निर्धारण के बिना उसकी निवृत्ति कैसे की जा सकती है?
अविद्या कि निवृत्ति भाष्य का प्रयोजन है और जब इस शास्त्र का प्रयोजन ही यही है तो आवश्यक है कि पहले अविद्या के स्वरुप का निर्धारण किया जाय। अध्यास निरूपण के माध्यम से अविद्या के स्वरुप का निर्धारण आचार्य शङ्कर ने किया है। लेकिन किसी भी प्रकार से उन्होंने व्यवहारिक सत का और यहाँ तक की प्रतिभाषिक सत का भी अवधि विशेष तक के लिए निषेध नहीं किया है।
अध्यास एक विशेष प्रकार के ज्ञान को कहा गया है, जिसे हम भ्रम कहते हैं। इस प्रकिया में अथवा सिद्धांत में दो बिंदुओं पर विचार किया जाता है। एक अध्यस्त होता है जो आरोपित होता है और दूसरा अधिकरण होता है जो आवृत्त होता है। इन दोनों प्रक्रिया से उत्पन्न जो ज्ञान है, उसे हम अध्यास कहते हैं। यह भ्रम का वाचक है।
दो उदाहरण बहुशः भाष्य में मिलते हैं-1. 'शुक्ति रजत न्याय' और 2. 'रज्जु सर्प न्याय'। इन्हीं दोनों के माध्यम से भ्रम के स्वरुप को समझाने का प्रयास किया गया है। आचार्य शङ्कर की रूचि जगत के मिथ्यात्व को सिद्ध करने की कभी नहीं रही क्योंकि यह उनका प्रयोजन ही नहीं था। उनका मुख्य प्रयोजन तो अविद्या कि निवृत्ति है। लेकिन बिना जगत के मिथ्यात्व को सिद्ध किये आगे बढ़ना संभव नहीं हो सकता। ब्रह्म जिज्ञाषा संभव नहीं है। इसलिए इसका निरूपण आवश्यक हुआ।
वह आचार्यश्रेष्ठ शङ्कर और उनका वह अद्भुत अद्वैत-वेदांत जो भ्रमकाल में विद्यमान प्रतीयमान प्रतिभाषिक सर्प की सत्ता का भी निषेध नहीं करते हैं, जो भ्रमकाल तक रज्जु में भी प्रतिभाषिक सर्प की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं। अर्थात एक ऐसा समय जबतक हम रस्सी में साँप को समझते हैं वह भ्रमकाल हुआ और जब हम अपने प्रयासों से भ्रम के आवरण को हटा कर रस्सी में साँप के अस्तित्व को समाप्त कर पाते हैं। तब तक का जो काल हुआ वह भ्रमकाल है और कम से कम उतने समय तक प्रतिभाषिक सत्ता का भी अस्तित्व माना गया है।
अब जो आचार्य प्रवर रज्जु (रस्सी) में भी प्रतिभाषिक सर्प की उपस्थिति को अथवा उसके अस्तित्व को भ्रमकाल में स्वीकार करते हों, उनके ऊपर यह आरोप लगाना कि वह जगत निषेधक हैं। यह सत्य नहीं कहा जा सकता और न ही स्वीकार किया जा सकता है।
समझने की बात यह है कि लोक व्यवहार में आचार्य व्यवहारिक सत्य का निषेध कैसे कर सकते हैं? जब वे भ्रमकाल में प्रतिभाषिक सत्य का भी निषेध नहीं करते हैं। अनेकशः उन्होंने अपने शारीरक-भाष्य में उल्लेख किया है-"व्यवहारे भाट्टनयः"। अद्वैत-वेदांत में आचार्य ने लोकव्यवहार के लिए मीमांसा दर्शन में लगभग सातवीं सदी के 'भटसम्प्रदाय' के संस्थापक महान विद्वान व दार्शनिक आचार्य-'कुमारिल भट्ट' के सिद्धांत को महत्त्व दिया है। इस प्रकार आचार्य ने लोकव्यवहार के पालन में व्यवहारिकता के लिए आचार्य कुमारिल भट्ट जी के लोकव्यवहार सिद्धांत को स्वीकृति प्रदान की है। इससे यह पुर्णतः सिद्ध हो जाता है कि आचार्य-शङ्कर का दर्शन न ही लोकव्यवहार का और न ही जगत का निषेधक है। निम्नलिखित श्लोक इस सिद्धांत की स्थापना करते हैं-
" युष्मदस्मत्प्रत्ययगोचरयोः विषयविषयिणोः तमःप्रकाशवद्विरुद्धस्वभावयोः इतरेतर भावानुपपत्तौ सिद्धायाँ तद्धर्माणाम् अपि सुतरां इतरेतर भाव-अनुपपत्तिः।
इति अतः अस्मत्प्रत्ययगोचरे विषयिणि चिदात्मके युष्मत्प्रत्ययगोचरस्य विषयस्य तद्धर्माणं च अध्यासः तद्विपर्ययेण विषयिणः तद्धर्माणां च विषये अध्यासः मिथ्या इति भवितुं युक्तम्।
तथापि अन्योन्यस्मिन् अन्योन्यात्मकताम् अन्योन्यधर्मांश्च अध्यस्य इतरेतराविवेकेन अत्यन्तविविक्तयो: र्धर्मधर्मिणोः मिथ्याज्ञाननिमित्तः सत्यानृते मिथुनीकृत्य "अहमिदम्" , "ममेदम्" इति नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः। "
सत्यानृते मिथुनीकृत्य नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः-सत्य एवं अनृत के मिथुन से अथवा सच एवम् झूठ के मिथुन से जो उत्पन्न होता है वह लोक व्यवहार है। ऐसा अध्यास के विषय में कहा गया है। क्योंकि जो मिथ्या है वह सत्य के आलम्बन के बिना संभव नहीं है अर्थात किसी एक में जब दूसरे का आभास होता है तो वह अध्यास कहा जाता है।
ईलाहाबाद विश्वविद्यालय के मूर्धन्य दार्शनिक विद्वान आचार्य संगम लाल पाण्डेय जी बहुधा कहा करते थे कि वेदांत अत्यंत लोकपरक है और लोक चिंतन तो इसमें रचा-बसा है। उनकी बहुत-सी पुस्तकें इस विषय में उपलब्ध हैं जिसमें उन्होंने वेदांत को लोकचिंतन से परिपूर्ण लोकपरक वेदांत के रूप में प्रतिस्थापित किया है।
अध्यास के स्वरुप का वर्णन करते समय आचार्य शङ्कर कुछ अन्य मतों की भी समीक्षा करते हैं। उनमें से मुख्यतया पाँच प्रकार के अध्यास के मतों का वर्णन उन्होंने किया है। जो भारतीय दर्शन जगत में 'ख्यातिवाद' के नाम से प्रसिद्ध हैं यह सिद्धांत इस प्रकार हैं-
1. आत्मख्याति-विज्ञानवादी बौद्ध-संप्रदाय में इसे स्वीकृत किया गया है।
2. असत् ख्याति-शून्यवादी बौद्ध-सम्प्रदाय में इसे स्वीकृत किया गया है।
3. अख्याति-मीमांसक एवं सांख्य दर्शन में इस सिद्धांत को स्वीकृत किया गया है।
4. अन्यथा ख्याति-न्याय दर्शन में नैयायिकों ने इसे स्वीकृति प्रदान की है।
5. अनिर्वचनीय ख्याति-जिसमें सत् असत् समझ न पड़े प्रतीति जिसका स्वरूप है ऐसा भ्रामक पदार्थ की प्रतीति अनिर्वचनीय ख्याति है जिसे आचार्य शङ्कर अपने मत के रूप में प्रतिपादित करते हैं।
अध्यास काल में दो क्रियाएँ होती हैं-
1. आवरण-जो सत्य है, वह आवृत्त हो जाता है। अगर हम 'सर्प रज्जु के न्याय' सन्दर्भ में देखें तो रज्जु (रस्सी) जो सत्य है, पर उसकी सत्ता पर आवरण आ जाता है अथवा वह ढक जाता है।
2. विक्षेप-दूसरी क्रिया में विक्षेप है। जिसमें सर्प (भ्रम काल का) रज्जु (सत्य) पर आरोपित हो जाता है।
अतः आवरण और विक्षेप यह 2 क्रियाएँ अध्यास में हुआ करती हैं। अध्यास काल में सत्य आवृत्त हो जाता है और असत्य उसपर आरोपित हो जाता है। इसप्रकार अधिष्ठान और अध्यस्त में तादात्म्यता हो जाती है। भ्रम काल में केवल अध्यस्त की प्रतीति होती है और ज्ञान में केवल अधिष्ठान होता है।
उपरोक्त वर्णित सभी ख्याति सिद्धांतों की आचार्य शङ्कर ने विशद् व्याख्या एवम समीक्षा कि है। अपनी समीक्षा में वे स्पष्ट करते हैं कि इन सभी ख्यातियों के आचार्यों ने जो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, उनमें कहीं आचार्यगण या तो विक्षेप के अर्थ को स्पष्ट कर पा रहे हैं। तो आवरण के अर्थ को स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं। तो कुछ आचार्यगण ऐसे हैं जो आवरण के अर्थ स्पष्ट कर रहें हैं तो विक्षेप का अर्थ स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं। अर्थात या तो आवरण स्पष्ट है तो विक्षेप स्पष्ट नहीं है और विक्षेप स्पष्ट है तो आवरण स्पष्ट नहीं है। कोई आचार्य भेद न ग्रहण कर पाने को अध्यास का कारण मानते हैं तो कोई आचार्य अभेद ग्रहण न कर पाने को अध्यास का कारण मानते हैं।
अतः आचार्य शङ्कर ने इन सभी मतों की संशोधनात्मक या हम कह सकते हैं रचनात्मक समीक्षा या व्यख्या कि है। आचार्य शङ्कर की जो प्रणाली है उसमें चतुः सूत्री एवं तर्कपाद पर आधारित है। उनकी जो समीक्षा है उसका अभिप्राय किसी का खण्डन करना नहीं है। अपितु उनकी समीक्षा रचनात्मक होते हुए सुझाव प्रस्तुत करती है। अर्थात जो सिद्धांत हैं, वह सर्वथा त्रुटिपूर्ण हैं ऐसा नहीं है। पर यदि उन सिद्धांतों में उनके विचार से कुछ जोड़ लिया जाय और किसी सिद्धांतों में कुछ कम कर दिया जाये तो वे सिद्धांत भी पूर्णरूप से त्रुटिपूर्ण हो सकते हैं। निर्दोष हो सकते हैं। यह आचार्य शङ्कर की अपनी अलौकिक खण्डन की प्रणाली है। जिसमें वे खंडन करते हुए भी संरचनात्मक दृष्टिकोण रखते हुए उसका मंडन कर, उसे निर्दोष कर देते हैं। उनकी समीक्षा अथवा खण्डन विध्वंसकात्म्क न होकर रचनात्मक समीक्षा है।
अनिर्वचनीय ख्याति को आचार्य शङ्कर ने अपने अभिमत के रूप में प्रस्तुत किया है। अनिर्वचनीय का अर्थ है कि वह जो की भ्रमकाल का सर्प है 'सर्प रज्जु न्याय' में अथवा जो भ्रमकाल का रजत है 'शुक्ति रजत न्याय' में उसका स्वरुप क्या है? उन्होंने इसका वर्णन किया है और उसके निर्धारण के लिए हमारे पास 4 कोटियाँ हैं
1. सत् 2. असत् 3. उभय 4. अनुभय
1. सत्-सत् उसे कहते हैं जो त्रिकाल अबाधित होता है। अर्थात जो तीनों कालों में भूत, वर्तमान और भविष्य काल में अपरिवर्तनशील हो अबाधित हो। इसलिए यह सत् नहीं हो सकता। क्योंकि 'सर्प रज्जु न्याय' का सर्प बाध के पश्च्यात अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं कर पाता है। उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसप्रकार यह सत् नहीं है।
2. असत्-असत उसे कहते हैं जो न भूतकाल में रहा हो, न वर्तमान काल में उसका अस्तित्व हो और न ही वह भविष्य काल में होगा। अतः यह असत् भी नहीं है।
3. उभय-जो सत् और असत् दोनों अवस्था में अस्तित्व रख पाता हो, उसे उभय मान सकते हैं। पर किसी भी दो विपरीत सिद्धांतों को एक साथ सत्य कैसे माना जा सकता है? अतः सत् और असत् एकसाथ देखना विरोधाभाष होगा। होगा क्योंकि हम यह कैसे कह सकते हैं कि वह स्वेत-श्याम है। जबकी अगर कोई श्वेत है तो वह श्वेत होगा वह श्याम नहीं हो सकता और जो श्याम है वह श्याम होगा वह श्वेत नहीं हो सकता।
4. अनुभय-जो सत् और असत् दोनों अवस्था में अपना अस्तित्व नहीं रख पाता हो उसे अनुभय मान सकते हैं। जो न तो सत् हो और न ही असत् हो आचार्य शङ्कर ने इसी को अनिर्वचनीय ख्यातिवाद में स्थापित करते हुए भ्रम का स्वरुप सत तथा असत से विलक्षण होना बताया है और इसे 'सत असत विलक्षण' कहा है इसी सत असत विलक्षण के होने के कारण उसे मिथ्या कहा गया है। अर्थात जो पुर्णतः सत नहीं है और पुर्णतः असत भी नहीं है वह सत असत विलक्षण है।
सत असत विलक्षण होने के कारण ही उसे अनिर्वचनीय कहा गया है। पर यहाँ इस लेख में जो अनिर्वचनीय है उसका ही निर्वचन का प्रयास हो रहा है। यह दर्शन की विशेषता है। अब यहाँ पर यह समझना आवश्यक होगा कि मिथ्यात्व और असत दोनों एक न होकर पुर्णतः अलग-अलग चीजें हैं इनको एक मानने के कारण ही शाङ्कर-दर्शन की इतनी अलोचना हुई है और लोगों ने समझा कि आचार्य शङ्कर लोक या जगत का निषेध कर रहें हैं।
यहाँ पर जहाँ हम चौथी कोटी को स्वीकार कर लेते हैं वहीं अद्वैत परम्परा के एक महान आचार्य हुए हैं, 'आचार्य विमुक्तात्मा' जिहोनें एक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा है 'इष्टसिद्धि' जिसमें की इसी बात की चर्चा है। वहाँ इष्टसिद्धि का प्रयोजन है कि माया के स्वरुप को हम कैसे वहाँ प्रतिष्ठित करें? वहाँ इष्ट का स्वरुप माया का निर्धारण करना ही है। इस प्रकार इन आचार्य ने माया को पञ्चम कोटि का कहा है।
अख्यातिवाद मानते हैं कि रजत भी सत है और शुक्ति भी सत है। 'शुक्ति रजत न्याय' में पर अगर दोनों ही सत हैं तो 'न इदं रजतं' जो बाध ज्ञान है, वह संभव नहीं हो पायेगा। अब यह प्रश्न भी उठता है कि आत्मा पर यह कैसे अध्यस्त होता है? इन्द्रिय अथवा अन्तःकरण पर इस पर उन्होंने कहा कि जब आत्मा अविषय है तो अध्यास कैसे संभव होता है?
आचार्य शङ्कर ने यह बताया है कि आत्मा सर्वथा अविषय नहीं है। वैसे तो अपने आप में यह एक अनोखी स्वीकृति है। उन्होंने कहा है कि लोक प्रसिद्ध अहम की प्रतीति का यह विषय बनता है। लोक अथवा जगत में हम जिस अहम का प्रयोग करते हैं, उसका यह विषय बनता है। अतः इसे नितांत अविषय नहीं कहा जा सकता और तब इस तरह का अध्यास संभव हो पायेगा।
पर फिर यह शङ्का रह जाती है कि अगर यह सत्य है तो अहम् तो अनेक हैं तो क्या उस अद्वैत आत्मतत्व में अनेकता प्रसक्त होती है? इसका निराकरण कैसे करेंगे?
इसका निराकरण करने के लिए आचार्य ने कहा है कि नेत्रदोष के कारण अथवा अँगुली आदि के व्यवधान के कारण एक ही चन्द्रमा अनेक चन्द्रमा के रूप में दिखाई पड़ते हैं। अतः यह व्यवधानजन्य हैं। जो अनेकात्मक दिखाई तो पड़ते हैं पर वह सत्य नहीं हो सकते है।
जहाँ उन्होंने यह कहा कि 'आत्मा नितांत अविषय नहीं है' इसलिए अहंकार आदि का भ्रम इसमें हो सकता है और फिर इसी क्रम में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जैसे आकाश पर नीलत्व आदि का अध्यास हो जाता है। उसी प्रकार बिना अधिकरण के भी अध्यास संभव हो सकता है, ऐसा समाधान उन्होंने प्रस्तुत किया है।
अब एक प्रश्न उठता है कि आत्मा पर जड़त्व आदि का जो अध्यारोप होता है, वह अध्यास होता है इन्द्रिय का, अंतःकरण का या मन का तो? क्या ये आरोपित जड़त्व आत्मा को दूषित करता है? इस पर वेदांत के आचार्य का सुंदर श्लोक है जिस पर 'स्वामी सत्यानन्दजी' ने जो टिप्पणी लिखी है। शारीरक-भाष्य पर 'सत्यानंदी दीपिका' वहाँ इस श्लोक का वर्णन है-
आरोपितं नाश्रय दूशकं भवेत्कदापिमूढेर्मतिदोश दूषितैः।
नाद्र्रीकारात्यूशर भूमिमार्ग, मरीचिका वारिमप्रदाहः॥
बहुत ही सुंदर ढंग से जडत्व का आत्मा पर पड़ने वाले प्रभाव और बिना अधिकरण के अध्यास का निराकरण करते हुए स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार से मरीचिका का महाप्रवाह भी उस भूमि को आर्द्र (गीला) नहीं करता ठीक उसी प्रकार से सारे अध्यास पदार्थ, गुण, धर्म अधिकरण को प्रभावित नहीं करते हैं। इसलिए वह जो प्रत्यगात्म है वह अप्रभावित ही रह जाता है, इस प्रकार की स्थापना शारीरक-भाष्य में की गई है।
आचार्य शङ्कर की शास्त्रीय व्यख्या अतुलनीय है। एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं रहीमदास जी उन्होंने भी इस प्रकार की भावना को अपने दोहे में स्पष्ट किया है-
" रहिमन अब मुसकिल पड़ीं, गाढ़े दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम॥"
जैसा कि आचार्य शङ्कर ने अध्यास का निर्धारण करते हुए लिखा है, उसे ही रहीम अपने सरल तरीके से कह जाते हैं। वे कहते हैं कि यह बहुत बड़ी मेरे लिए कठिनाई हो गयी है कि मेरे दोनों ही काम नहीं बन पा रहे हैं, सच्चाई मानता हूँ तो यह जग मिथ्या है यह सत्य नहीं है और अगर झूठ मानता हूँ राम को तो उनकी प्राप्ति कैसे संभव हो सकेगी "सत्यानृते मिथुनीकृत्य नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः" को सहजता से व्यक्त कर जाते हैं रहीमदास जी।
"मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता" कवि अथवा विद्वान की यह शक्ति होती है कि वे अपने अल्प सम्बोधन में ही सारयुक्त प्रयोजन का आधान कर जाते हैं यही उनकी निपुणता है। बहुत सारे कवि, लोकचिन्तक और उपदेशक भारत की ज्ञान-उर्वरा शक्ति के परिचायक हुए हैं जिनकी यह विशेषता रही है कि वे क्लिष्ट विषयों को भी अपनी उत्कृष्ट सोच से उसकी व्याख्या लोकव्यवहार और लोकचिंतन के लिए सहज ही उपलब्ध करा जाते हैं।