अध्यात्मवाद और भौतिकवाद / पहला: अन्तरंग भाग / सहजानन्द सरस्वती
इन प्रश्नों पर सोचने और इनके उत्तर देने वाले लोग दो तरह के होते रहे हैं। चाहे उन्हें अध्यारत्मवादी कहिए या नीति और एथिक्स (Ethics) के पैरो और प्रचारक कहिए। मगर भारत के धर्मशास्त्रियों और नीतिशास्त्र के आचार्यों से लेकर ग्रीस के प्राचीन तत्त्ववेत्ताहओं और पश्चिमी देशों के आज तक के आचार शास्त्रों के आचार्यों तक को हम आमतौर से दो ही श्रेणियों में बाँट सकते हैं। इन्हीं के भीतर चीन के कन्फ्यूसियस आदि संप्रदायों के प्रवर्त्तक तथा विद्वान लोग भी आ जाते हैं। इनमें एक दल तो उनका रहा है और है भी जो केवल अध्याकत्म दृष्टि या आत्मा-परमात्मा और लोक, परलोक की दृष्टि से, इसी खयाल से, कर्तव्य, अकर्तव्य या कर्म के त्याग और करने का निश्चय करते आए हैं, करते आ रहे हैं। ऐसी हर बात में उनकी नजर दुनियावी नफा-नुकसान और हानि-लाभ की कोई खास कीमत नहीं कूतती। वे तो ऐसे मौकों पर हमेशा सिर्फ उसी आत्मा, परमात्मा आदि की दृष्टि से इसका निर्णय करते चले आ रहे हैं कि क्या बुरा और क्या भला है। उनने भले-बुरे की कसौटी सिर्फ यही रखी है कि किस काम से आत्मा कितना नीचे गिरती या ऊँचे उठती है, उसका कितना पतन और उत्थान होता है और करनेवाला उससे परमात्मा के कितना नजदीक या दूर जाता है। उन लोगों ने इस बात की कसौटी भी अपनी-अपनी पहुँच और समझ के अनुसार बना रखी है जिससे इस बात की परख हो सके कि उत्थान या पतन आदि कहाँ तक और कैसे हो रहे हैं, अभी इस संबंध में अधिक लिखना अप्रासंगिक है।
दूसरे दलवाले इसके विपरीत उचित-अनुचित या कर्तव्य-अकर्तव्य वगैरह की जाँच केवल सांसारिक हानि-लाभ एवं नफा-नुकसान के ही तराजू पर करते हैं। उनकी नजरों में या तो आत्मा-परमात्मा या लोक-परलोक नाम की कोई चीज हुई नहीं, या अगर हो भी तो उसे इस मामले में खामख्वाह 'दालभात में मूसरचंद' बनने-बनाने की जरूरत नहीं। वे कहते हैं कि खासतौर से यदि कोई अपने परमात्मा, भगवान या खुदा की पूजा-परिस्तिश करना चाहे और उसकी ढूँढ़ खोज में परेशान हो, तो उसे आजादी है, आजादी हो सकती है, और इस तरह जो रास्ता उसने अख्तियार किया है उसकी जाँच-पड़ताल के लिए भले ही वह आत्मा-परमात्मा की कसौटी का इस्तेमाल कर सकता है। उसमें दूसरे को या दूसरे दलवालों को उज्र नहीं। उसकी यह अपनी निजी चीज जो ठहरी। मगर जनसाधारण या आम लोगों के कामों को तौलने के लिए उस तरह की नाप-जोख की इजाजत उसे हर्गिज दी नहीं जा सकती, और न ऐसा करने का उसे हक ही प्राप्त है। वे तो सिर्फ यही देखना चाहते हैं कि किस काम से ज्यादा लोगों को फायदा ही या नुकसान पहुँचता है। क्योंकि किसी भी काम से सभी का न तो फायदा हो सकता और न नुकसान ही। चोरी-डकैती से भी तो कुछ लोगों को लाभ होता ही है और रोकने से हानि भी होती है। यहाँ तक कि साँस लेने और पलक मारने में भी हजारों जीवधारी कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इसीलिए अधिकांश लोगों के हानि-लाभ की ही कसौटी पर नेकी या बदी की जाँच की जा सकती है।