अनंत क्षितिज के पार / महेश कुमार केशरी
कहते हैं "जिसके पाँव ना फटे बिबाई l सो क्या जाने पीर पराईl" लेकिन , ये पीर (दर्द) दरअसल निमाई बाबू की ख़ुद की अपनी थीl और पाँव भी उनका ख़ुद का ही थाl दरअसल ,कौशल्या देवी के मायके से उनको बुलावा आया थाl वहाँ , कौशल्या देवी के भतीजे की शादी थीl निमाई , बाबू अपने ससुर महादेव बाबू की बात को टाल ही नहीं सकते थेंl क्योंकि जब- जब उनके ख़ुद के घर में उनके ख़ुद के भाई भतीजे और भतीजियों की शादी पड़ती थीl वह महीने-दो-महीने पहले आकर पूरे घर की जिम्मेदारी को संभाल लेते थेंl पूरी जिम्मेदारी के साथl प्रबंध इतना तगड़ा होता था ; कि शादी में खाना बहुत ही हिसाब से बनवातेl खाना बिल्कुल बर्बाद नहीं होता थाl खाना बनवाते ही नहीं ; बल्कि बारातियों और सरातियों का स्वागत भी बड़े दमदार तरीके से करते l इतिहास गवाह है कि निमाई बाबू के यहाँ आज तक किसी ने ठंडी पूरियाँ नहीं खाईंl मिठाईयों का कारीगर वे बंगाल से बुलवातेl बिल्कुल स्पंजी रस गुल्लेl बढ़िया पनीर का सब्जी l कहने का तात्पर्य ये हैं ; कि उनके यहाँ की होने वाली शादी में कभी निमाई बाबू की खिल्ली नहीं उड़ीl ऐसे ससुर और साले के लड़के की शादी में जाने से वह भला कौशल्या देवी को कैसे रोकते ?
लेकिन , इधर , कौशल्या देवी घर से निकली ही थीl कि , एक दिन दूध लेकर आते समय निमाई बाबू गली में ऐसे गिरे की उनका पैर ही टूट गयाl अब शादी-विवाह का घर ऐसे ही आपा- धापी वाला होता हैl किसको परेशान किया जाये l खैर , शादी में तो उन्हें भी जाना ही थाl लेकिन, जब उनके पैर के चोटिल होने की बात कौशल्या देवी और महादेव बाबू को पता चली तो उन लोगों ने ज़्यादा ज़िद नहीं कीl
लेकिन , उनके ज़िन्दगी में पत्नी का या जीवणसाथी का क्या महत्त्व है l ये कौशल्या देवी के मायके जाने के बाद ही निमाई बाबू को पता चला था l कहने को तो निमाई बाबू का एक बहुत बड़ा कुनबा थाl चार- चार बेटों और दसियों नाती- पोतों से निमाई बाबू का घर गुलजार थाl लेकिन , उनके लिये सब बेकार थाl नाश्ते और खाने की कौन पूछेl समय पर चाय मिल जाती ; तो वही बहुत था l प्लास्टर लगे पैर पर उनको अपनी जगह से हिलना भी मुश्किल हो रहा थाl पर - पेशाब के लिये भी उनको अपने पोतों ऋषभ और कार्तिक की ज़रूरत पड़तीl पोते तो खैर दादाजी के दुलारे थेंl वह हँसते- हँसते दादाजी की सेवा करतेl लेकिन उनकी बहू गोमती और कृष्णा ससुर जी के काम को करने से कतरातीं थींl उनको निमाई बाबू एक आफत की तरह लगतेl कहाँ तो पहले वह अपने पति और बच्चों की परेशानियों से दो- चार होती थींl अब एक ससुर की जिम्मेदारी अलग थीl जो उनके लिये सिर-दर्द से कम नहीं थी l
पहले प्राय: निमाई बाबू दफ़्तर से लौटते तो कौशल्या देवी को चिढ़ाने के लिये ही कहतेl तुमको तो दिनभर कुछ काम- धाम रहता नहीं हैl दिनभर बस बैठी रहती होl लेकिन कौशल्या देवी के मायके चले जाने के बाद निमाई बाबू को दाल- चावल का भाव जैसे मालूम पड़ गया थाl कुछ तो कौशल्या देवी के बिछोह ने ; और कुछ पैरों पर चढ़े प्लास्टर ने कौशल्या देवी की अहमियत निमाई बाबू को समझा दी थीl वह , भलिभाँति इस बात को महसूस कर रहें थें ; कि निमाई बाबू के जीवण में दर असल कौशल्या देवी का क्या महत्त्व हैl
करीब महीने डेढ़- महीने के बाद निमाई बाबू के पैरों का प्लास्टर कट चुका थाl निमाई बाबू और कौशल्या देवी घर में बैठे हुए शादी- विवाह की बातें कर रहें थेंl कि तभी एक दिन सर्कस बाबू घूमते- फिरते , निमाई बाबू से मिलने चले आयेl दफ़्तर में एक साथ ही निमाई बाबू और सर्कस बाबू काम करतें थेंl सर्कस बाबू को देखते ही बड़े गर्मजोशी के साथ निमाई बाबू ने सर्कस बाबू का स्वागत कियाl और बोले - "अरे ! सर्कस बाबू आप ; बहुत दिनोंं के बाद मिले भाई ; और बताओ भाई ; कैसे आना हुआ ? मेरा मकान ढूँढनें में कोई परेशानी तो नहीं हुई , यार ?"
"नहीं यार ; तुम्हें भला इस शहर में कौन नहीं जानता यारl तुम्हारा घर ढूँढनें में कोई दिक्कत नहीं हुई भाई l बड़े आराम से मिल गया तुम्हारा घर l"
"अरे , कौशल्या आज बहुत बड़ा दिन हैl आज हमारे यहाँ सर्कस बाबू आयें हैंl जा , ज़रा गर्मा- गर्म चाय ले आl"
जब कौशल्या चाय ले आईl तो चाय के बहाने ही दोनों दोस्त पुराने दिनों को याद करने लगेl
सर्कस बाबू चाय की अपनी प्याली मेज पर से उठाते हुए बोले - "और सुनाओ, तुम्हारी तो बड़ी मौज में कट रही है , यार l देख ही रहा हूँl तुम्हारे इस भरे- पूरे और आबाद परिवार को l वाकई , में तुम बहुत ही ख़ुशनसीब आदमी हो यार l तुम्हारा तो भरा - पूरा परिवार है भाईl एक मैं हूँ ...l"
"सो तो है , भाईl"
"लेकिन , तुम्हारे साथ क्या हुआ , भाई ? भाभी तो ठीक हैं ना , यार ?" निमाई बाबू को जैसे किसी दुश्चिंता ने घेर लिया थाl और उनके चेहरे पर जैसे किसी अनिष्ट की अशंका उभरने लगी थीl
"नहीं यार पिछले साल उसको हार्ट अटैक आया थाl और वह हमको छोड़कर चली गई l"
कुछ देर उनके बीच ख़ामोशी छाई रहीl
फिर थोड़ा रूककर सर्कस बाबू बोले - "तुम्हें तो पता ही हैl शुरू से ही मेरे बच्चे बाहर रहकर पढ़ते थेंl उन्हें दर असल एकाकी जीवण जीने की आदत रही हैl फिर , उनका जाॅब भी बाहर लगा हैl आजकल की नई - नई माॅर्डन बहुएँ सास - ससुर को अपने साथ रखने में अपनी इंसल्ट समझतीं हैंl इसलिये बच्चों का ऐसा व्यहवार देखकर मेरी श्रीमती जी को सदमा-सा लगा थाl और शायद , इसके कारण ही उसको हार्ट अटैक आ गया थाl इधर , अब तो खैर , मेरे दोनों बेटे अपनी-अपनी बीबीयों को लेकर विदेशों में सेटल हो गये हैंl तुम बहुत लकी हो यारl जो अपने परिवार के साथ होl तुम विश्वास नहीं करोगे l जबसे मेरी पत्नी का स्वर्गवास हुआ हैl तबसे एक कप चाय की तलब भी अगर होती हैl तो अंदर से दिल मचल उठता है l खाली घर काटने को दौड़ता है ; भाई l पत्नी को खोने के बाद ही उसका महत्त्व समझ पाया हूँ , भाईl" सर्कस भाई रुँआंसे से हो चले थेंl
तभी , सर्कस भाई की गाड़ी का हाॅर्न बजा थाl गाड़ी का शोफर शायद फ्लाईट का समय होने की बात सोचकर बार- बार हाॅर्न बजा रहा थाl सर्कस बाबू ने निमाई दंपत्ति से इजाज़त चाहीl
निमाई बाबू ने , कौशल्या देवी से बड़े ही नेह पूर्वक मंत्रना
की - "कौशल्या , ज़रा , मुझे सहारा देकर बेडरूम तक ले चलोगीl प्लास्टर का घाव अभी पूरी तरह से भरा नहीं हैl"
कौशल्या देवी ने निमाई बाबू का हाथ कुछ इस अंदाज़ में थामा l जैसे वह कहना चाह रहीं हों -"हमारी यात्रा उस अनंत क्षितिज से आगे तक की है !"