अनंत देश की स्थायी समस्याएं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 23 जुलाई 2018
एक दौर में बिना डाक टिकिट लगाया खत सही पते पर पहुंच जाता था और खत लेने वाला पोस्टमैन को डाक टिकिट के पैसे दे देता था। इस व्यवस्था को बैरंग डाक कहते थे। बिमल राय की किशोर कुमार अभिनीत फिल्म 'नौकरी' में रोजगार की तलाश में महानगर आए बहुत से पढ़े-लिखे लोग एक मकान में रहते हैं। एक बेरोजगार ने अपने परिवार से यह तय किया था कि हर सप्ताह वे उसे एक बैरंग खत भेजा करेंगे और वह समझ जाएगा कि परिवार में सभी राजी खुशी से है। इस तरह बिना कुछ खर्च किए संवाद बना रहेगा। याद आती है निदा फाज़ली की कविता 'मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार, दिल ने दिल से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार'। मजबूर मनुष्य तरह-तरह के आविष्कार करता है। कुछ भूख से जुझने के लिए पेट पर ठंडे पानी से भीगी हुई पट्टी बांध लेते हैं। हर तरह की आग के शमन की विधियां हैं। कभी-कभी व्यथित व्यक्ति को बार-बार शौचालय जाना होता है, जिसे कहते हैं वीपिंग थ्रू इंटेस्टाइन' अर्थात आतड़ियों के माध्यम से आंसू बहाना गोयाकि आंसू केवल आंख से नहीं बहते। इसी फिल्म में नायक जिस कमरे में रहता है, उसकी खिड़की से नायिका के घर की खिड़की नज़र आती है और दोनों में प्रेम हो जाता है। इसका मतलब यह है कि मेहमूद की 'पड़ोसन' की कथा के बीज भी इसी फिल्म में मौजूद थे। राहुलदेव बर्मन ने 'पड़ोसन' में कालजयी गीत की रचना की थी- 'मेरे सामने वाली खिड़की में एक चांद-सा मुखड़ा रहता है'। इस फिल्म में बेरोजगार जिस मकान रहते हैं, उस मकान में सबका एक साझा नौकर भी है। वह बेरोजगार के तकिये के नीचे कुछ पैसे रख देता है। इस तरह सारे पात्र मानवीय करुणा को ही अभिव्यक्त करते हैं।
फिल्म में कोई भी मुद्दा प्रस्तुत किया जाए, उसमें प्रेमकथा अनिवार्य है। यहां तक कि वनमानुष की फिल्म 'किंगकांग' में भी एक प्रेम-कथा पिरोई गई है। इस फिल्म में नायक को मुंबई में नौकरी मिली है परंतु कोलकाता की पड़ोसन का परिवार उसके लिए रिश्ता लाता है तो वह घर छोड़कर भाग जाती है। सुखद अंत यह है कि प्रेमियों की मुलाकात होती है और वे एक ही घर में बिना ब्याहे ही साथ रहते हैं गोयाकि बिमल रॉय ने 'लिव-इन-रिलेशनशिप' की भी कल्पना कर ली थी। आज इस तरह के रिश्ते लगभग आम बात हो गई है। एक फिल्मकार वर्तमान से परिचित रहते हुए भविष्य का आकल्पन भी कर लेता है तथा भूतकाल से प्रेरणा लेता है। इस तरह कला क्षेत्र में वक्त के सभी दौर एक-दूसरे से गलबहियां करते नज़र आते हैं। फिल्म के अन्य बेरोजगारों की भी व्यथा-कथाएं फिल्म में पिरोई गई हैं। फिल्म का हर पात्र एक प्रश्न है, जिसका जवाब न उस समय मिला और न ही वर्तमान में मिल रहा है, जबकि बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर चुकी हैं।
इस फिल्म का संपादन ऋषिकेश मुखर्जी ने किया था। तीन दशक बाद मुखर्जी मोशाय ने भी राज कपूर अभिनीत 'नौकरी' नामक फिल्म बनाई थी परंतु वह उबाऊ फिल्म सिद्ध हुई। बिमल राय तो फिल्म बिरादरी में वैष्णव कवि की भांति फिल्में रचते रहे। बरसात के मौसम में पकौड़े खाने की परम्परा है। बेरोजगारों को सलाह दी जा रही है कि वे पकौड़े तलने का व्यवसाय करें। सच तो यह है कि व्यवस्था की कड़ाही में बेरोजगार ही तले जा रहे हैं।
फिल्म में एक दर्दनाक दृश्य में एक बेरोजगार रेल की पटरी पर लेटकर आत्महत्या करना चाहता है। नायक उसे बचा लेता है। क्लाइमैक्स में नायक को खुदकुशी करने से नायिका बचा लेती है। एक लोकेशन पर दो दृश्य संजोकर कथा में करुणा के प्रवाह को गति प्रदान की जाती है। बिमल राय ने कोलकाता की कंपनी न्यू थिएटर्स में फिल्म विधा का ज्ञान प्राप्त किया था और ताउम्र वे अपने को मांजते रहे। फिल्म का यात्री अथक चलते रहता है। किसी भी हरे-भरे वृक्ष की छांव उसे लुभाती नहीं। इस फिल्म में शैलेन्द्र के गीत थे। फिल्म का प्रारंभ ही होता है एक गीत से 'छोटा सा घर होगा बादलों की छांव में'। रोटी, कपड़ा और मकान हमेशा आम आदमी का सपना रहे हैं। कोई आम आदमी हलवा-पूरी या बिरयानी का स्वप्न देखने का साहस नहीं करता। एक बार निदा फाज़ली ने कहा कि स्वप्न में वे चौपाटी पर मूंगफली खा रहे थे। उनके साधन संपन्न मित्र ने कहा कि ख्वाब में तो बादाम खाया करो। हाजिरजवाब निदा फाज़ली ने कहा कि बादाम तो खा लेते परंतु उसे पचाते कैसे। गरीब की आंतें बादाम नहीं पचा पाती। उसे मुरमुरे ही खाने चाहिए।