अनंत यात्रा / रेखा राजवंशी
अपने जीवन के नब्बे सालों में जितेंद्र नाथ जी ने सोचा भी नहीं था कि कभी ऐसा दिन भी आएगा। इससे पहले भी अपने इकलौते बेटे के पास कई बार सिडनी आ चुके थे। जब भी वे पहुँचते तो बेटा-बहू बड़े उत्साह से उन्हें लेने एयरपोर्ट आते। घर पहुँचने पर उनके आराम का पूरा ख़्याल रखा जाता। पोता-पोती दोनों दादू-दादू करते आगे पीछे घूमते रहते।
सिडनी में बेटे के घर में सारी सुख सुविधाएँ थीं। घर में क्लीनर आता, गार्डनर आता, कुक भी आती थी, पर उनकी रोटियाँ उनकी मॉडर्न बहू ही बनाती थी। तीन महीने में वे बेटे के परिवार के साथ रहने की सारी हसरत पूरी कर लेते थे । बेटा कभी-कभी व्हील चेयर में बिठा शॉपिंग मॉल ले जाता, जहाँ वे अपने पसंद के सब्ज़ी, फल खरीद लेते। फिर कॉफी शॉप में बैठ कॉफी और मफिन भी खा लेते। इस तरह से उनका मन भी बहल जाता। कभी पोती ज़िद करके उन्हें बीच पर आइसक्रीम खिलाने ले जाती, कभी पोता उन्हें ड्राइव पर ले जाता। बहू-बेटे उन्हें नई से नई फ़िल्मे दिखा लाते थे।
इस बार भी समय बहुत अच्छा बीत रहा था, खाते पीते, टी वी देखते हंसी ख़ुशी में वक़्त कट रहा था। परन्तु अचानक ये क्या हो गया। दुनिया भर को इस कोरोना महामारी ने कैसे घेर लिया, पता ही नहीं चला। पिछले महीने से ये कोरोना वायरस वूहान में फ़ैल चुका था। ऑस्ट्रेलिया में भी चीन से लौटने वाले कुछ लोग इसकी चपेट में आ गए थे। आगे भी वायरस के संक्रमण का डर था।
जिंतेंद्र नाथ जी का वापसी का टिकट 22 मार्च का बुक था।
बेटे-बहू ने स्थिति देखते हुए अनुरोध किया -'पापा और रुक जाइये, अभी जाना ठीक नहीं रहेगा' पर जितेंद्र नाथ और अधिक रुकना नहीं चाहते थे। उन्होंने वापस जाने का मन बना लिया था, बोले - 'ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है, एक दिन में तो दिल्ली पहुँच ही जाऊँगा। फिर वहाँ सुप्रिया लेने आ ही जाएगी। डॉक्टर बेटी है मेरा ख़्याल भी रख लेगी तुम लोग चिंता न करो ।'
जितेंद्र नाथ चीफ इंजीनियर की पोस्ट से रिटायर होकर गाज़ियाबाद के एक आरामदायक घर में रह रहे थे। दो बच्चे थे, पत्नी शीला की सात साल पहले मृत्यु हो गई थी। बेटी डॉक्टर थी जो गाज़ियाबाद में ही प्रैक्टिस करती थी, वही उनका पूरा ख़्याल रखती थी। उनका वश चलता तो बेटे को ऑस्ट्रेलिया कभी न आने देते, परन्तु उसकी उन्नति में वे आड़े नहीं आना चाहते थे। सबको अपने सपने पूरे करने का अधिकार है आखिर।
22 तारीख को सुबह जब बेटा उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने आया, तो बहुत चिंतित था, पर जितेंद्र नाथ जी बोले, 'इतनी चिंता मत करो, शाम को पहुँच ही जाऊँगा।'
एयर इंडिया की सीधी फ्लाइट थी। बिज़नेस क्लास में आराम से बैठ गए। जागते-सोते जाने कब फ्लाइट समय पर शाम पाँच बजे दिल्ली पहुँच गई। व्हील चेयर असिस्टेंस समय पर आ गई, पर जब वे बाहर निकले तो सारा माहौल कुछ अजीब लगा। चारों तरफ़ अफरा-तफरी मची हुई थी। एयरपोर्ट पर बहुत भीड़ थी, इतनी सिक्योरिटी पहले कभी देखी नहीं थीं, हर ओर लम्बी लाइने थीं। जब वे इमीग्रेशन के काउंटर पर पहुँचे तो पता लगा कि वे घर नहीं जा सकते। सभी यात्रियों को चौदह दिन के ‘सोशल आइसोलेशन’ में रहना होगा।
'सोशल आइसोलेशन? क्यों? ऑस्ट्रेलिया में तो कोरोना वायरस इतना फैला भी नहीं है?'
उन्होंने अफसर से तर्क करने की कोशिश की। पर कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं था, हार कर बेटे को फ़ोन मिलाया, बेटी से बात की। सबने अपनी जान पहचान के ब्यूरोक्रेट्स और राजनीतिज्ञों से संपर्क करने की कोशिश की। पर कुछ हो नहीं पाया। किसी तरह इतना भर हुआ कि दस घंटे के इंतज़ार, टेस्ट और अन्य औपचारिकताओं के बाद सुबह के तीन बजे निर्णय हुआ कि उन्हें एक फाइव स्टार होटल में के कमरे में चौदह दिन रुकना पड़ेगा। प्राइवेट कार में उन्हें होटल भिजवाया गया। थके हारे जितेंद्र नाथ का भारत आने का सारा उत्साह हवा हो गया।
उधर परेशान बेटा-बहू, बेटी-दामाद सब रात भर जाग कर उन्हें सांत्वना देते रहे 'पापा, कुछ हो नहीं पा रहा है। चौदह दिन की ही बात है, देखते ही देखते समय निकल जाएगा। हिम्मत रखिये।' होटल पहुँच कर थके हैरान जितेंद्र नाथ सो गए।
होटल में उनकी दवाइयाँ, खाना सबका ख़्याल तो रखा जा रहा था। मांगने पर मदद भी उपलब्ध थी। सारा परिवार उनसे फ़ोन पर बात करता रहता था। मनोरंजन के लिए टी वी था, भारत भर में लॉक डाउन की ख़बरें आ रहीं थीं। लगता था कि विश्व में जैसे उथल पुथल मच गई थी। तीन दिन तक तो जितेंद्र नाथ ने हिम्मत से काम लिया पर फिर वे टूटने लगे। इतना अकेलापन उन्होंने कई दिन से न देखा था, न ज़िया था। कभी-कभी वे ठीक से सो भी न पाते, रात भर करवटें बदलते रहते। वह भीतर ही भीतर मरने लगे, नब्बे साल की उम्र में यह दिन भी देखना पड़ेगा, सोचा भी नहीं था। साढ़े तीन हज़ार रुपये रोज़ का ये सुविधा पूर्ण कमरा काटने लगा। अतीत की गलियों में भटकने लगे। कभी माँ सामने आ जाती, कभी पिता। कभी दोस्त याद आने लगते, तो कभी अफसरी के वह दिन याद आ जाते जब पूरा-पूरा दिन वे लोगों से घिरे रहते। कभी गोरी चिट्टी, लाल बिंदी लगाए, रेशमी साड़ी में सजी पत्नी शीला याद आ जाती, जो उनकी पसंद का पूरा ख़्याल रखती।
अगले हफ्ते तक वे अतीत में जीने लगे, फ़ोन पर लम्बी बात करना उन्हें अच्छा न लगता। कभी-कभी वे ख़ुद से ही बातें करने लगते - 'शीला, ज़िन्दगी भर साथ रहने का वादा किया था न, मुझे छोड़ कर तुम इतना आगे निकल गईं।'
कभी आवाज़ लगाते, 'पापा मैं इंजिनीयरिंग में सेलेक्ट हो गया।'
या कभी ख़ुशी से भर जाते और कहते 'माँ मैं घर पहुँच रहा हूँ, मेरी पसंद का खाना तैयार रखना।’
मौसम बदल रहा था, हल्का-सा ज़ुकाम हो गया। बैठे-बैठे दिमाग़ में आया और बुदबुदाए, 'कहीं मुझे कोविड तो नहीं हो गया?' बेटी-बेटा चिंतित रहते। उन्हें ज़रा-सा भी लगता कि जितेंद्र नाथ ठीक नहीं हैं तो उन्हें देखने के लिए डॉक्टर को भेजने की रिक्वेस्ट करते।
किसी तरह अंततः चौदह दिन बीत गए।
बेटी का फ़ोन आया, 'पापा, मैं कल सुबह ही पहुँच रही हूँ, तैयार रहिएगा।'
जितेंद्र नाथ खुश हुए, ऐसा तो नहीं था पर लगा 'चलो ये चौदह दिन तो कट ही गए।'
एक हेल्पर की मदद से रात को ही सामान पैक करवाया। सुबह से तैयार होकर बैठ गए। बेटी सात बजे पहुँचने वाली थीं, दवाई खानी थी तो हल्का-सा ब्रेकफास्ट कमरे में ही खा लिया।
इंतज़ार में कुछ घंटे ऐसे ही बीत गए। वैसे तो कर्फ्यू के चलते किसी को आने-जाने की अनुमति नहीं थी पर बेटी सुप्रिया डॉक्टर थी तो जितेंद्र नाथ की मेडिकल कंडीशन के चलते फ्रंटलाइन वर्कर की तरह उसे ड्राइव करने की अनुमति मिल गई। जितेंद्र नाथ जी इंतज़ार में बैठ-बैठे हलकान होने लगे। कई बार रिसेप्शन को फ़ोन कर लिया। बेटी को फ़ोन करना नहीं चाहते थे, ड्राइव कर रही होगी।
तीन घंटे में सुप्रिया का फ़ोन आया, 'पापा, बारह बजे तक निकलने की अनुमति मिली है, तो मैं करीब दो बजे तक ही पहुँच पाउंगी। आप चिंता न करें, प्लीज़ लंच खा लें।'
बुझे मन से जितेंद्र नाथ जी टी वी लगा कर लेट गए। आधा दिन तो यहीं निकल जाएगा, सोच कर परेशान हो गए। बेटे से भी फ़ोन पर बात हो गई। वे समझते थे कि सभी चिंतित थे। पर नियति के आगे क्या किया जा सकता था?
टी वी पर देख रहे थे कि दिल्ली में काम करने वाले हज़ारों मज़दूर जल्द से जल्द अपने गाँव वापस जाना चाहते थे। महानगरों में अनिश्चितता की स्थिति थी। नौकरी पर जा नहीं सकते थे, खाने पीने की सारी दुकाने बंद थीं। पुलिस बाहर निकलने वालों को रोकने का प्रयास कर रही थी। महामारी के बावजूद भी लोग बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे। कुछ लोग स्थिति की गंभीरता से वाक़िफ़ नहीं थे, कुछ लोग आदतों से मज़बूर थे, भारत में वैसे भी बहुत लोग क़ानून और कर्फ्यू को सीरियसली नहीं लेते, कुछ को नियम तोड़ना अच्छा लगता था या सोचते थे कि वे तो पुलिस की नज़र से किसी तरह बच ही जाएँगे। पुलिस भी क्या करती? लातों के भूत बातों से नहीं मानते, तो उन्होंने भी सख्ती दिखानी शुरू की, पुलिस वाले नियम तोड़ने वालों को मुर्गा बना रहे थे, उकड़ू चला रहे थे और कुछ डंडे भी बरसा रहे थे। पर परेशानी थी उन मज़दूरों को, जो अपने परिवार के पास पहुँच जाना चाहते थे, चाहें कैसे भी, चाहे कितने दिन में। बसें और वाहन चल नहीं रहे थे तो अनेक लोग पैदल ही अपने गाँव की ओर चल पड़े। अगर कोरोना से मौत हो भी जाए तो कम से कम वे अपने घर वालों के साथ हों, कोई क्रिया करम करने वाला तो हो। पहली बार अपने ही देश में अपने ही लोगों का इतना बड़ा विस्थापन हो रहा था। नन्हे-मुन्ने बच्चों को पीठ पर बाँधे जाने कितनी महिलाएँ और हाथ में गठरी लिए पुरुष घर पहुँचने की साध में दिन रात चलने लगे थे।
जितेंद्र नाथ समझ नहीं पा रहे थे कि ये कैसा वक़्त आ गया है। उनकी आँखों के सामने भारत और पकिस्तान के विभाजन का दृश्य घूम गया, जब वे रावल पिंडी में रहते थे और उनके पिता दादा के साथ कपड़े का व्यवसाय चलाते थे। बड़े से घर में जितेंद्र नाथ दादा-दादी, माँ-पिता के साथ रहते थे। बचपन से अब तक कोई परेशानी देखी न थी। हिन्दू, मुस्लिम, सिख सब मिल-जुल कर त्यौहार मनाते। एक दूसरे के घर जाते।
उन दिनों देश में ब्रिटिश राज था, पर स्वतंत्रता के लिए लोग लड़ रहे थे। जगह-जगह मोर्चे निकल रहे थे, सब कहते थे अब तो हम स्वतन्त्र होकर ही रहेंगे। पर कब और कैसे, किसी को पता न था। अनिश्चितता का माहौल था। वह दिन जितेंद्र नाथ कैसे भूल सकते हैं जब वे हमेशा की तरह अपने घर में बेफिक्री की नींद सोए हुए थे कि अचानक सुबह दरवाज़े की कुंडी बजने की तेज़ आवाज़ ने पूरे परिवार को उठा दिया।
'जल्दी बाहर निकलो, जो कुछ ले सकते हो बाँध लो और जान बचानी है तो अभी का अभी निकल चलो' पड़ोस के हरमोहन सिंह कह रहे थे। इससे पहले कि पिता कुछ समझते दंगाइयों की आवाज़ें आने लगीं।
पूरा परिवार जैसे हड़बड़ा गया। 'पंद्रह मिनट में निकल रहे हैं, साथ चलो तो सुरक्षित रहोगे' कहते हुए हरमोहन सिंह भाग कर अपने घर चले गए।
माँ ने जल्दी जल्दी जो हो सकता था, बाँधा। बचपन का आँगन छूट गया, रज़िया और अनवर के साथ खेले खेल पीछे छूट गए, आम और अमरुद के पेड़ वहीँ रह गए। जितेंद्र नाथ को अच्छी तरह याद है कि कैसे वे रज़िया को आख़िरी बार देखना चाहते थे और उसी हसरत में गली में कुछ मिनट के लिए रुक गए थे कि अचानक उनकी बाईं बांह पर किसी ने लाठी से वार किया। वे तड़प के रह गए, इससे पहले कि देख पाते, दर्द महसूस करते, पिता लगभग खींचते हुए वहाँ से उन्हें भगा ले गए। कंधे पर सामान लादे पूरा परिवार, दादा, दादी, माँ, पिता और जितेंद्र नाथ भारत जाने वाली भीड़ का हिस्सा बन गए। दो दिन चलने के बाद लॉरी मिल गई और उसमें बैठा कर उन्हें शरणार्थी कैंप में पंहुचा दिया गया।
रोज़ लोगों के जत्थे के जत्थे कैम्प में आते, अपना घर, आँगन, व्यवसाय, दोस्त, परिवार सब छोड़कर जान बचाने की खातिर भाग कर कैम्प पहुँचे लोग। सब टूटे थे, दुखी थे, गरीब थे। किसी को लूट लिया गया था, किसी के भाई या पिता का बड़ी बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया था, किसी की बीवी या बहन की अस्मिता लूट ली गई थी। जितेंद्र नाथ के परिवार की क़िस्मत अच्छी थी कि जल्द ही उन्हें सुरक्षित दिल्ली पहुँचा दिया गया। कुछ दिन लाल किले में लगे शरणार्थी कैम्प में रहना पड़ा। बाद में रहने को अमर कॉलोनी में दो कमरों का घर भी मिल गया। कड़ी मेहनत से पिता ने लाजपत नगर में कपड़े की दुकान खोली। अपना पेट काटकर उन्हें इंजीनियरिंग की शिक्षा दिलाई।
अतीत की गलियों में भटकते हुए जितेंद्र नाथ का मन अचानक विक्षुब्ध हो गया। इतने दिन बाद उन्हें अपनी बाईं बांह में बेपनाह दर्द होने लगा। लगा जैसे बांह पर नहीं दिल पर लाठी पड़ी हो। पुलिस वाले आख़िर लाठी मार ही क्यों रहे हैं? ऐसा कैसे हो सकता है, लोग पैदल चलकर कब घर पहुँचेंगे। सरकार को कर्फ्यू लगाने के पहलेसार्वजनिक परिवहन ट्रेन, बस आदि का इंतज़ाम करना चाहिए था। जितेंद्र नाथ जी ने लगभग एक सदी जी ली थी। वे घर, गाड़ी, बेटा, बेटी सब कुछ होते हुए भी आज अकेले थे। दोस्त तो अधिकतर धीरे-धीरे भगवान् को प्यारे हो चुके थे।
लोग सोचते हैं अमीरों को कोई दर्द नहीं होता। पर उन्हें कौन समझाए कि अमीर भी इंसान ही होते हैं, उनका भी दिल होता है, शरीर होता है, भाव होते हैं, वे भी सुख दुःख उसी तरह महसूस करते हैं जैसे गरीब लोग। अगर पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता तो लोग दोस्त खरीद लेते, खुशियाँ खरीद लेते, सेहत खरीद लेते। पर ऐसा होता नहीं है, जिसके पास जितने ज़्यादा पैसे होते हैं वे उतना ही अकेले हो जाते हैं। तन्हाई को किसी पैसे से नहीं भरा जा सकता। जितेंद्र नाथ ने इन चौदह दिनों में जैसे चौदह बरस का वनवास भोग लिया हो।
जाने क्यों अब तक जीवन बेमानी लगने लगा था, 'क्यों आख़िर क्यों ज़िंदा हूँ मैं, मेरे जीवन का मतलब ही क्या है?' सोचते-सोचते उन्होंने अपनी बाईं बांह को सहलाया, लगा जैसे दर्द पुनः वापस आ रहा है। इसी तरह जाने कब उनकी आँख लग गई। दरवाज़े पर ठक-ठक की आवाज़ से उनकी आँख खुली, देखा तो खाना आ गया था। थोड़ा लंच खाया, आखिरकार सुबह पांच बजे से जग के बैठे थे।
दो बजे के करीब फ़ोन की घंटी बजी, 'मिस्टर जितेंद्र नाथ, योर डॉटर इस हियर, प्लीज गेट रेडी।’
अंततः इंतज़ार की घड़ियाँ ख़त्म हुईं। बेल बॉय ने ट्राली में उनका सामान रखा, व्हील चेयर असिस्टेंट ने उन्हें बैठने में मदद की और वे होटल की लॉबी में आ पहुँचे। उन्हें ध्यान से कार तक लाया गया।
बेटी से मिलते ही आँखें भर आईं, उसने सहारा देकर उनको कार में बैठाया। 'पापा अब मैं हूँ न, चिंता न करिये' लाड़ से उसने उन्हें समझाया।
तुरंत बेटे का भी फ़ोन आ गया, 'पापा यू डिड इट।'
पोती कह रही थी 'यू विल बी फाइन दादू।'
कार में बैठने के बाद जब जितेंद्र नाथ ने सांस ली। लगा कि जैसे एक लम्बी क़ैद से मुक्ति मिल गई हो। कार की सीट में धंसे हुए सड़क पर लगे पेड़ और नीले आसमान को देख कर आज अर्से बाद उन्हें बहुत अच्छा लगा। औपचारिक बातों के बाद आँखे बंद करके आराम से कार में बैठ गए।
दो घंटे बाद गेट खुलने की आवाज़ से उनकी आँख खुली। देखा घर आ गया है, 'होम, स्वीट होम' वॉचमन ने आकर उन्हें सलाम ठोका। गार्डन में लगे गुलाब और बेले की महक उनकी साँसों में अमृत की तरह भर गई। लॉन में लगी नरम मुलायम हरी घास पर दौड़ने का मन हो आया। उन्हें याद आया कि शीला और उन्होंने बड़े दिल से कोठी बनाई थी और माली की सहायता से शीला ने क्यारियों में एक-एक पौधा बड़ी लगन से बोया था। अचानक उन्हें लगा कि शीला उन्हें बुला रही है, 'देख क्या रहे हैं, अंदर आइये न।‘
उनके चेहरे पर भी मुस्कराहट आ गई। गाड़ी पोर्टिको में रुकी, माली, कुक और नौकर ने आकर उन्हें नमस्ते की। उनकी मदद से बेटी ने ध्यान से जितेंद्र नाथ को उतारा।
इतनी देर में दरवाज़ा खोल कर आते पिता की आवाज़ आई, 'जीतू आ गया बेटा? ठीक है न।‘ जितेंद्र नाथ जी को लगा कि वे एक छोटे बच्चे की तरह दौड़ कर पिता की गोदी में चढ़ जाएँ।
बेटी ने अंदर ले जाकर सजे-धजे ड्रॉइंग रूम की आरामदायक कुर्सी पर उन्हें बैठाया, तो लगा जैसे मौत और ज़िन्दगी के बीच का फ़ासला तय कर आए हों और फिर ज़िन्दगी का भरोसा भी क्या? सिर्फ़ सांस बंद होने और शरीर ठंडा होने के बीच की स्थिति ही तो है मौत। वैसे भी दुनिया भर में हज़ारों लोग रोज़ मर रहे हैं इस वायरस से, ज़िन्दगी और मौत पर किसी का नियंत्रण ही नहीं है। कुर्सी पर बैठे तो उनकी नज़र फिर मुस्कुराती हुई शीला की फोटो पर पड़ी। उन्हें याद आया कि कभी शीला के चेहरे पर शिकन नहीं देखी। आदमी और औरत में यही फ़र्क़ है, थोड़े से कष्ट में ही आदमी परेशान हो जाता है पर औरत दुनिया भर के ग़म सीने में दबाए हुए भी ऊपर से मुस्कुराती रहती है।
तभी दूसरी तरफ़ दीवार पर टंगी फोटो में माँ दिखीं। मुस्कुराती हुई माँ जैसे उनके पास आई, 'बेटा, थक गया है न, आ लेट। चल तेरा सर दबा दूँ’ और उनके माथे को सहलाने लगी।
जितेंद्र नाथ माँ के आँचल में सर रखकर मुस्कुराने लगे और जाने कब उन्हें नींद आ गई।
सुप्रिया ने पिता का सर सोफे पर एक तरफ़ लुड़कते देखा तो भागी आई 'पापा। डैड। आप ठीक हैं न? देखिये, आपको कुछ नहीं होगा। मैं हूँ न आपके पास सब ठीक हो जाएगा।‘ कहते हुए उसने उनकी धड़कन टटोलने की कोशिश की। उन्हें हिलाया,-सी पी आर देने की कोशिश की। पर जितेंद्र नाथ वहाँ कहाँ थे। जाने कब वे ज़िन्दगी और मौत के बीच का फ़ासला तय कर चुके थे। बेले और गुलाब की खुशबुओं में भीगे, लॉन में लगी नरम हरी घास पर दौड़ते, माँ-पिता की ऊँगली थामे, मुस्कुराते हुए जाने कब वे ज़िन्दगी और शरीर की इस क़ैद से मुक्त एक अनंत यात्रा पर निकल चुके थे।