अनकहा / एक्वेरियम / ममता व्यास
जब रिमझिम फुहारें आती हैं ना जीवन में। तो अक्सर हम छतरी खोल लेते हैं। हम आधे बचते हैं, आधे भीगते हैं और फिर एक दिन सूख भी जाते हैं...लेकिन जब कोई तूफान आये तब? कोई, कैसे खुद को बचाए? तबाह करते हैं तूफान...सब-कुछ डूब जाता है।
उस अंधेरी स्याह रात में तुम कमरे में होते तो न...तब भी मेरी आंखों के भीतर नहीं झांक पाते, पूछो क्यों? आंखें तब गहरी नींद में सो जातीं, बरसों के रतजगों की विदाई होती उस दिन। जाग की पीड़ा से मुक्ति मिलती उस दिन आंखों को। मैं उस वक्त कमरे के बल्ब को छुट्टी पर भेज कर गीली आंखों को नींद के कपड़े देती और वे उनींदी आंखें हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जातीं; नहीं झांक पाते तुम कभी उनके अन्दर।
ईमानदार कृति का जन्म इस बेईमान देह से हुआ या पवित्र मन की कोख से जन्मी है इच्छा? अगर देह सबसे बड़ा संकट है तो हमें देह से मुक्त हो जाना चाहिए. देह के परे, जीवन के परे, समय से परे, मृत्यु के गांव में या किसी युद्ध भूमि में अंतिम मिलन होगा। बिना मिले कोई कैसे किसी का अनकहा पढ़ लेगा।