अनकही सी, अनजानी सी / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
शाम के गहराते जा रहे धुंधलके को चीरती हुई ट्रेन अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ी जा रही थी। वातानुकूलित कम्पार्टमेंट में एक-एक बर्थ पर सबकी अपनी-अपनी दुनिया सिमट जाती है। हम दोनों मित्र इस तरह के वातावरण की ऊब से बचने के लिए अपने फोटोग्राफी के शौक को पूरा करने लगते। प्राकृतिक दृश्यों ने हमेशा ही आकर्षित किया है। ऐसे में सूर्योदय, सूर्यास्त आदि के अलावा किसी प्राकृतिक दृश्य के आने पर, पहाड़, नदी, हरे-भरे मैदानों के आने पर खुद को दरवाजे तक जाने से न रोक पाते। ऐसा करना जहाँ कम्पार्टमेंट के बोझिल चुप्पी भरे माहौल से बाहर आने में सहायक बनता वहीं फोटोग्राफी के शौक की भी पूर्ति करवाता।
सफ़र में फोटोग्राफी के शौक के अलावा यात्रियों के स्वभाव का विश्लेषण करने का अजग-गज़ब शौक भी हमेशा से रहा है। लोगों के लेटने-बैठने, सोने-टहलने, खाने-पीने, पढ़ने-बतियाने आदि को लेकर स्वतः विश्लेषण करते, स्वयं परिणाम बनाते और यात्रा की समाप्ति पर स्वतः ही नष्ट करते। कहीं कोई लिखित सर्वे नहीं, कहीं कोई लिखित आकलन नहीं, कहीं कोई लिखित परिणाम नहीं बस हम दो मित्रों के बीच आपस में सम्बंधित यात्रियों की फाइल बनती जाती। पिछली यात्राओं के यात्रियों के स्वभावों, हरकतों से तुलनात्मक अध्ययन होता जाता। व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए ऐसे आकलन, विश्लेषण, यात्री लेखन में मददगार सिद्ध होते। कभी किसी कहानी का पात्र रचने में, कभी किसी कथा का आधार तैयार करने में, कभी किसी लेख की पृष्ठभूमि बनाने में।
इधर शाम लगातार गहराती हुई रात में बदल रही थी उधर शुक्ल पक्ष का चाँद पूरी तन्मयता से चाँदनी का आँचल ओढ़ाकर रात को सजाने में लगा था। सबसे बेखबर दोनों अपनी ही दुनिया में मगन थे। उनकी इस नितांत गोपन प्रेमलीला में हमारा कैमरा कोई बाधा नहीं पहुँचाना चाहता था, सो उसने काम करना बंद कर दिया। ट्रेन चलने में लग गई और हम पिछले छह घंटे में की गई फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी को देखने में लग गए। कुछ देर बाद ऐसा महसूस हुआ जैसे दो आँखें हम लोगों को घूर रही हैं। घूरने का एहसास होना परेशान करने वाला भले ही न हो मगर अपने आपमें हैरान करने वाला अवश्य था। एक सेकेण्ड को अपने आसपास ये सोचकर देखा कि कहीं हमारी फोटो, वीडियो देखने की तल्लीनता के बीच कोई और आकर तो नहीं बैठ गया। ऐसा कुछ भी न दिखा तो वापस अपने हँसी-ठट्टे के साथ फोटो, वीडियो में खो गए। कुछ पलों बाद फिर वही एहसास, किसी की आँखों द्वारा घूरे जाने का एहसास। कैमरा बंदकर देखा तो एक लड़की कूपे के किनारे पर टिकी खड़ी दिखी। सामान्य सी कद-काठी। गेंहुआ रंग। चेहरा-मोहरा भी सामान्य सा। पहली बार देखने पर आकर्षित करने जैसी कोई बात दिखी नहीं। उसकी तरफ देखते ही वो कुछ अचकचा सी गई, जैसे कि उसकी चोरी पकड़ ली गई हो। अपनी हिचक को मिटाने को उसने उँगलियों के सहारे बालों को सही करने का उपक्रम किया और वहाँ से चल दी।
कुछ कदम चलकर वो दूसरी तरफ के दरवाजे के पास वाली साइड लोअर बर्थ पर बैठ गई। अब उसकी निगाहों का निशाना हम दोनों नहीं वरन हम दोनों की निगाहों का निशाना वो बनी हुई थी। उसे भी इसका एहसास भली-भांति था। इस कारण उसका असामान्य सा होना लाजिमी था। कहाँ उस बेचारी की दो आँखें और कहाँ हम दोनों की चार आँखें। हमारे द्वारा उसको घूरना उसको महज इतना एहसास कराना था कि अनायास किसी को भी ऐसे घूरना सही नहीं होता। उस लड़की की बढ़ती अकुलाहट देख हम दोनों ने उसको देखने की बजाय अबकी एक-दूसरे को देखा। आँखों ही आँखों में कुछ अनसुलझा सा कहा और होंठों पर मुस्कान थिरक उठी। इधर-उधर की बातों के बजाय अब वो लड़की हम लोगों की चर्चा का बिन्दु बन गई। वर्तमान छोड़कर हम दोनों ने इसी यात्रा के विगत पाँच-छह घंटों पीछे जाने की कवायद शुरू की। वो लड़की हम लोगों के झाँसी में चढ़ने के बाद उस कम्पार्टमेंट में आई या फिर हम लोगों के आने के पहले से ही वहाँ मौजूद थी, इसका अंदाजा नहीं किन्तु उसकी कुछ हरकतें अवश्य आँखों के सामने तैर गईं।
लगभग हर बीस-पच्चीस मिनट में उसका टहलना, इधर से उधर निकलना होता। जब-जब हम दोनों फोटोग्राफी के लिए अथवा सहज रूप में दरवाजे पर पहुँचते, तब-तब वो लड़की जरूर आ जाती थी। कभी मुँह धोना, कभी हाथ धोना, कभी बाथरूम जाना और कभी दरवाजे पर खड़े होना। याद आया कि हम दोनों ने एक बार आपस में चर्चा की भी थी कि इस लड़की को भी हम लोगों की तरह ‘एसी’ में बैठना पसंद नहीं आ रहा, तभी बार-बार किसी न किसी बहाने से बाहर निकल आती है। दरवाजे पर खड़े होने में, मुँह-हाथ धोने में उसके चेहरे पर सन्नाटा सा छाया रहता। वो गुमसुम सी दिखाई देती। पहाड़, नदी, नाले, बदल, जंगल आदि देखने के बाद भी न तो उसकी आँखें चहकती दिखती, न वो स्वयं। उसका उस समय लगातार बाहर आना हम लोगों को इस रूप में आश्चर्य में डालता था कि अमूमन लड़कियाँ सफ़र में इस तरह का घुमक्कड़पन नहीं दिखाती हैं। उसके बर्ताव से लगा कि या तो वो अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ घुलमिल नहीं रही है अथवा किसी बात पर उनसे नाराज है। ये भी लगा कि हो सकता है वो अकेली हो। अब जबकि उसकी हरकतों ने उसी तरफ ध्यान दौड़ा दिया तो एक बात का और आश्चर्य लगा कि वो पूरा डिब्बा पार करके इस छोर पर बाथरूम का, वाशबेसिन का उपयोग करने आती थी जबकि उसकी बर्थ डिब्बे में प्रवेश करने वाले दरवाजे से एक कूपा छोड़कर साइड लोअर में थी। अब लगा कि कुछ न कुछ गड़बड़ जैसा जरूर है अन्यथा सिर्फ हाथ-मुँह धोने के लिए कोई लड़की बार-बार, लगातार एक छोर से दूसरे छोर क्यों आयेगी?
दिमागी सोचा-विचारी को अल्प-विराम उस समय लगा जबकि कॉफ़ी वाले की आवाज़ सुनाई दी। गरमागरम के नाम पर गुनगुनी कॉफ़ी देकर कॉफ़ी वाला आगे बढ़ गया और हम दोनों मित्र कॉफ़ी की चुस्कियों के बीच उस लड़की की आवाजाही का विश्लेषण करने लगे। दिमाग में एकदम से संशय उपजा कि कहीं ये लड़की कोई अपराधी प्रवृत्ति की तो नहीं? कहीं इसका इरादा समान लूटने का तो नहीं? सशंकित मन सचेत हुआ, बर्थ के नीचे पड़े बैग पर ध्यान दिया। सब अपनी-अपनी जगह सलामत थे। कैमरा, मोबाइल, टैबलेट आदि को भी टटोलकर उनकी उपस्थिति को परख लिया। देर रात तक जागने की आदत के चलते इस बात की निश्चिंतता थी कि वो रात में कुछ दाँव नहीं कर पायेगी।
घड़ी ने दस के ऊपर समय दिखाया। साथ की दो खाली पड़ी बर्थ पर भी उनके आरक्षियों ने अपना-अपना स्थान घेरकर लेटने-सोने जैसा कार्यक्रम बनाना शुरू कर दिया था। हम दोनों मित्रों की विभिन्न मुद्दों की बातचीत बनी हुई थी। सफ़र की रफ़्तार को अपने अन्दर महसूस करते-करते हम दोनों ने भी बाकी यात्रियों की तरह नींद के आगोश में जाने का निर्णय लिया। सशंकित मन ने एक निगाह अपने सामानों की तरफ डाली और एक निगाह उस लड़की की बर्थ पर। वो अपनी बर्थ पर परदे के भीतर थी, सो रही थी या जाग रही थी, ये जानने की न तो उत्सुकता थी और न ही इसे जानने की कोशिश की।
ट्रेन भागे जा रही थी। स्टेशन पीछे छूटे जा रहे थे। दक्षिण भारत में प्रवेश करने के साथ ही हम मित्रों में बालसुलभ हरकतें प्रकट होने लगीं। स्टेशनों के क्लिष्ट से, अजब से नाम देखकर उनको उच्चारित करने की चेष्टा जैसे एक खेल बन गई। किसी शहर, कस्बे के बगल से गुजरते समय वहाँ लगी होर्डिंग्स, इमारतों पर लिखी क्षेत्रीय भाषा को पढ़ने-समझने की असफल कोशिश में एक-दूसरे पर ही हँस पड़ते। हमारे हँसने, चहलकदमी करने, स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही उतरने, वहाँ के लोगों को, वातावरण को चन्द सेकेण्ड में समझने की कोशिश के बीच वो गुमसुम लड़की भी प्रकट हो जाती। उसका भी हम लोगों के साथ उतरना होता। प्लेटफ़ॉर्म पर सामान बेचते वेंडर्स से सामान खरीदने के बहाने बातचीत का रास्ता बनाते। भाषाई समस्या में कभी इशारे हमारी मदद करते तो कभी साथ के खड़े लोग मददगार। इन सबके बीच बहुत गहराई से नोटिस किया कि वो लड़की सिर्फ हम दोनों को ही ताकती रहती। अब उसकी तरफ देखने पर उसमें पिछली बार की तरह की हड़बड़ी नहीं होती। सामान सुरक्षित देख, कम्पार्टमेंट में उसकी उपस्थिति देख, किसी तरह की चोरी की कोई घटना न देख उसके प्रति छाये संदेह के बादल तो दूर हो गए थे मगर वो लड़की अभी भी रहस्यमयी बनी हुई थी।
ट्रेन को इसका एहसास था कि हम घुमक्कड़ मित्र चौबीस घंटे से अधिक एक ही स्थान पर बैठे-बैठे बोर से हो गए हैं। हमारी भावनाओं की कद्र करते हुए ट्रेन चेन्नई स्टेशन पर अपने निर्धारित समय से लगभग पन्द्रह मिनट पहले पहुँच गई। अब ट्रेन यहाँ लगभग पैंतीस-चालीस मिनट रुकने वाली थी। सामानों की सुरक्षा दोनों सहयात्रियों को सौंपकर हम दोनों प्लेटफ़ॉर्म पर कूद पड़े। साफ़-सुथरा प्लेटफ़ॉर्म, चमकते काले पत्थर की बेंचें, चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था देखकर मन प्रफुल्लित हुआ। हाथ-पैर फैलाकर लम्बी सी अंगड़ाई लेकर देह की कसावट को, थकान को कुछ हल्का करने की कोशिश की। ट्रेन की चाय-कॉफ़ी से इतर स्वाद लेने की चाह में प्लेटफ़ॉर्म पर चाय बेचने वाले को ठेंठ बुन्देलखंडी अंदाज़ में आवाज़ लगाई। कुछ और खाद्य सामग्री बेचने वालों ने आसपास घेरेबंदी शुरू की। हमारी भाषा में वो और उनकी भाषा में हम काला अक्षर भैंस बराबर थे। इशारों ही इशारों में बात तय हुई, पैसे तय हुए और चाय, खाने-पीने का अन्य सामानों का आदान-प्रदान हुआ। इस बीच वो लड़की कब एकदम करीब आकर खड़ी हो गई पता ही नहीं चला। उसके हावभाव से लगा जैसे वो बात करना चाह रही है। उसकी तरफ देखकर चाय का कप दिखाकर पूछा “टी?” उसने अपना सिर हाँ में हिलाया। चाय की चुस्की में बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने की सोचते, उससे पहले ही वो चाय का कप लेकर, जिस तेजी से आई थी, उसी तेजी से चलकर अपनी जगह पर खड़ी हो गई। उस लड़की की हरकतें, उसकी गतिविधियाँ नजर में आने के बाद इतना निश्चित हो गया था कि वो अकेली सफ़र कर रही है। स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही उसका भी उतरना होता मगर उसको किसी से बात करते नहीं देखा। चेहरे पर सदैव एकसमान भाव, न हँसी, न मुस्कराहट, न दूसरा कोई भाव। उसके रहस्यमयी स्वभाव के बीच इस बार चाय लेकर बिना कुछ कहे चले जाना न केवल अचंभित कर गया वरन कुछ बुरा सा महसूस भी करा गया। बहरहाल, ट्रेन के संकेत करते ही हम वापस अपनी सीट पर जम गए।
मन प्रफुल्लित था, सोच-सोचकर कि चंद घंटों बाद हम उस धरती पर उतरेंगे जहाँ बरसों-बरस पहले एक युवा संन्यासी ने अपने क़दमों को रखा था। तीन-तीन सागरों के संगम-स्थल पर नितांत अकेले रहकर तीन दिन, तीन रात अपनी मौन साधना से समुद्रों के शोर, गहराई को आत्मसात कर सम्पूर्ण विश्व को वेदांत दर्शन दिया था। स्वामी विवेकानन्द की साधना के बारे में किंचित स्मरण ने दिल-दिमाग को झंकृत कर अजब स्फूर्ति से भर दिया। अब चारों तरफ बस कन्याकुमारी, विवेकानन्द रॉक मेमोरियल, तीन सागरों का संगम, ऊंची-ऊंची उछाल मारती लहरों का आभास होने लगा था। सम्मोहन की स्थिति उस समय टूटी जबकि लोगों के उतरने, सामान खींचने का शोर आसपास गूँजने लगा। कन्याकुमारी स्टेशन पर उतरने से पहले ही “आप फोटोग्राफी बहुत सुन्दर करते हैं” का स्वर उस लड़की का सुनाई दिया। पहली बार उसके कुछ बोलने के अचम्भे से ज्यादा हमारी स्थिति ठिठकने की थी। इसने कब, कैसे, कहाँ फोटो देख ली? शायद फोटो खींचने के अंदाज़ से अपनी राय दी हो? इससे पहले कि कुछ पूछ-बता पाते वो अपना एक छोटा सा बैग कंधे पर लटकाए प्लेटफ़ॉर्म की उस भीड़ में खो गई जो ‘कन्याकुमारी’ लिखे पत्थर के सामने खड़े होकर फोटो, सेल्फी लेने में व्यस्त थी।
पावन भूमि को और उस व्यक्ति की विराटता को नमन कर स्टेशन पर उतरे। ठंडी हवा ने, प्लेटफ़ॉर्म पर लगे हरे-भरे पेड़ों ने, कलरव करते पंछियों ने तनबदन में ताजगी भर दी। लग नहीं रहा था कि दो दिन से लगातार सफ़र में थे, एक वातानुकूलित डिब्बे में कैद थे। कमरे पर पहुँच सामान टिकाया, नित्य क्रियाओं से फारिग होकर जल्दी-जल्दी उसी पावन भूमि को छूने की तत्परता दिखाई, जिसके लिए यहाँ तक आना हुआ। तीन दिन कब उस शिला की पावनता के बीच, विवेकानन्द की आदमकद प्रतिमा के दर्शन में, ध्यान कक्ष की अपार शांति में लीन होने में, तीन सागरों की लहरों के उछाल मारने की होड़ निर्धारित करने में, दिवाकर के अपनी भव्यता से निकलने और पूर्ण सौम्यता से अस्ताचल में गमन करने के सम्मोहन में खोने में निकल गए पता ही नहीं चला। इन दिनों में न तो वो रहस्यमयी स्वभाव वाली लड़की याद आई और न ही वो कन्याकुमारी में कहीं घूमते दिखी।
मोबाइल के तेज अलार्म ने नींद में खलल पैदा किया। अनमने ढंग से मोबाइल उठाकर उसी आवाज़ को बंद किया और उठने के प्रयास में मुँह से आह निकल पड़ी। पैर की चोट अपने रौद्र रूप में भले नहीं थी मगर पैर की सूजन अपने चरम पर थी। मित्र ने हाथों के इशारे से लेटे रहने का संकेत किया। पैर को हल्के हाथों से मालिश करना शुरू किया। पूरी हिम्मत लगा देने के बाद इतनी हिम्मत नहीं कर सके कि उठकर चल सकते। जब दोस्त को ये तसल्ली हो गई कि ऐसी कोई और समस्या नहीं है कि अकेला छोड़ना दिक्कत न हो, वो अपनी सुबह की सैर और उदयाचल की स्थिति देखने निकल गया। दरवाजा बाहर से बंद करने को कहकर हम भी आराम से चादर तानकर लेट गए। लगभग आधा घंटे बाद ही दरवाजे पर आहट हुई। उनींदी स्थिति में समझ नहीं आया कि हमारा दोस्त जल्दी वापस आ गया है अथवा हम ही लम्बी नींद ले गए। दरवाजा खुलने जैसी आवाज़ होने पर लेटे-लेटे ही हमने सवाल दागा, “जल्दी लौट आये या हम ही देर तक सोते रहे?” उधर से कोई जवाब नहीं मिला। दरवाजा खुलने और फिर बंद होने की आहट हुई। फिर से वही सवाल तैराकर हम जवाब की प्रतीक्षा करने लगे। इस बार भी जवाब कोई नहीं मिला मगर साथ वाले पलंग पर किसी के बैठने का एहसास हुआ। चादर एक तरफ फेंक अधबैठे होकर ज्यों ही उस तरफ मुँह घुमाया हमारी चीख निकल गई। पलंग पर वही रहस्यमयी स्वभाव वाली लड़की इत्मीनान से बैठी मुस्कुरा रही थी। नींद, आलस, पैर का दर्द, गुस्सा, परेशानी एकदम गायब। इन सबके स्थान पर कई सारे सवाल उग आये जो पूरी ताकत लगाकर उस लड़की की तरफ उछाल दिए।
“आप परेशान न होइए। पिछले तीन दिन से आप हमारी नजर में थे, बस आपसे मिलने का मौका नहीं लग पा रहा था। मैं भी इसी जगह ऊपर वाले एक रूम में रुकी हूँ। अभी नीचे उतरते समय आपका दरवाजा खुला देखा तो सोचा कि आप लोगों से मुलाकात कर लूँ।” उस लड़की ने बिना किसी लागलपेट के सीधे-सपाट शब्दों में बताया। मैं मुँह खोले अवाक उसे निहार रहा था। ट्रेन की तरह अब उसके चेहरे पर वो ख़ामोशी नहीं थी। आँखों में काजलयुक्त चंचलता, होंठों पर सुर्ख रहस्यमयी मुस्कान, गालों पर स्वर्गिक लालिमा स्पष्ट दिख रही थी। ‘इसे भोर में भी श्रृंगार करने की फुर्सत है’ सोचकर कुछ कहते उससे पहले ही वो आग्रह सा करते हुए खड़ी हो गई, “चलिए सनराइज देखने चलते हैं।” उसकी आवाज़ में खनक थी, हावभाव में प्रफुल्लता। हमने बिना कुछ कहे अपना सूजन भरा पैर उसके सामने कर दिया। “मुझे मालूम है, कल शाम आप व्यू टावर के पास फिसल गए थे, पत्थरों पर।” आँखें आश्चर्य से फ़ैल गईं कि इसे कैसे पता कि हमारे साथ कल शाम ऐसा हुआ और कहाँ हुआ? ट्रेन यात्रियों के व्यवहार के विश्लेषण में ‘भटकती आत्मा’ के नाम से चिन्हित ये लड़की वाकई कोई आत्मा तो नहीं? भूत-प्रेत, आत्मा-परमात्मा आदि पर बिना सार्थक सबूत विश्वास न करने के कारण भय तो नहीं लगा किन्तु एक अनजाना सा डर अवश्य उपजा। वही डर जो ट्रेन में उपजा था, उस लड़की के आपराधिक चरित्र के होने को लेकर। कहीं ऐसा न हो कि इसके साथी आसपास छिपे हों और मौका पाकर हम पर हमला कर दें? सनराइज देखने के बहाने लूटपाट करने का इरादा तो नहीं इसका? अपने आपको संयमित कर, पैर की चोट का हवाला देते हुए उसके साथ जाने से मना किया।
तभी उस लड़की ने अपना पर्स खोल एक शीशी निकाल कर अपनी हथेली में दो-चार बूँदें डाली और बिना कुछ कहे चोट की जगह मालिश करनी शुरू कर दी। बर्फ जैसी ठंडक से चौंकना लाजिमी था। किसी लड़की के द्वारा पैर छूना खुद की सामाजिकता में न होने के कारण झटके से पैर हटा लिया।
“घबराइए नहीं, परेशानी में सारे रीति-रिवाज, संस्कृति, सामाजिकता को नजरअंदाज कर देना चाहिए।” कहते हुए उस लड़की ने दोबारा चोट की जगह मालिश करनी शुरू कर दी। पता नहीं वो कौन सा तेल था मगर उसकी भीनी-भीनी खुशबू में एक तरह की बेहोशी सी छाने लगी। हाथ-पैर शिथिल से लगने लगे। वो लड़की मंद-मंद मुस्कुराते हुए पैर की मालिश किये जा रही थी। पलकें बोझिल सी होते-होते लगभग बंद सी हो गईं। सम्मोहन की अवस्था से जब बाहर आये तो खुद को उस लड़की के साथ सड़क पर खड़े पाया। यहाँ तक कब, कैसे आये पता ही लगा। तभी ख्याल आया कि हम यहाँ चलकर कैसे आये, पैर में तो चोट लगी थी। गौर किया तो पैर की चोट ज्यों की त्यों थी मगर दर्द पूरी तरह से गायब था। चलने में भी किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं आ रही थी। उसकी तरफ कौतूहल से देखा तो उसने आँखें बंदकर सिर्फ मुस्कुरा दिया। उसके इशारा करते ही हम दोनों सड़क पर साथ-साथ चल दिए। पिछले तीन दिनों से इसी सड़क पर कई-कई बार घूमना होता था मगर इस समय ये सड़क कुछ विशेष लग रही थी। हम दोनों खामोश चले जा रहे थे। मंद-मंद बहती शीतल हवा देह में खुशनुमा एहसास भर रही थी।रॉक की तरफ मुड़ने वाली सड़क के ठीक पहले जाने वाली एक गली की तरफ चलने का इशारा कर वो लड़की उस तरफ मुड़ गई। बिना कुछ सोचे-समझे हम भी उसी के साथ मुड़कर उस गली में चल दिए। कोई दस-बीस कदम चलने के बाद बाँए हाथ पर एक छोटी मठिया सी बनी दिखाई दी। सामान्य सी, बिना किसी सजावट, बिना किसी विशेष आकर्षण के बनी वो मठिया सैकड़ों वर्षों पुरानी अवश्य लग रही थी। ‘आओ’ कहते हुए वो लड़की झुककर उस मठिया के दरवाजे में घुस गई। हम भी यंत्रवत उसके पीछे चल दिए।
अन्दर एकदम घुप्प अँधेरा। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। उस लड़की ने हमारी हथेली को अपनी हथेली में लेते हुए उंगलियों में उंगलियाँ फँसा ली। एकदम सर्द हाथ। बर्फ से भी ज्यादा ठंडक समूचे शरीर में तैर गई। उसने बिना कुछ कहे आगे बने रास्ते पर कदम बढ़ा दिए। हम वशीभूत से उस लड़की के पीछे-पीछे चल दिए। कुछ देर चलने के बाद ऐसा लगने लगा जैसे आसमान के तारे आसपास उतर आये हों। अनेकानेक रंग की मद्धिम रोशनियाँ आसपास तैर रही थी। अँधेरा होने के बाद भी आसपास की चीजों को महसूस किया जा सकता था। कहीं हलकी-हलकी हवा सा एहसास होता। कहीं-कहीं बादलों का सा आभास होता। कही-कहीं वैसी ही सुगंध से सामना होता जैसी कि लड़की द्वारा तेल लगाने पर महसूस हुई थी। उस लड़की के चलने के अंदाज से लग रहा था जैसे वो यहाँ नियमित रूप से आती-जाती हो। यहाँ की स्थिति से भली-भांति परिचित हो। हम उसके हाथ को थामे उसी के इशारे पर अपने कदम मिलाते हुए चलते जा रहे थे।
अचानक महसूस हुआ कि हम दोनों किसी चट्टान पर खड़े हैं। आसपास पानी ही पानी भरा हुआ है। उस लड़की ने हमारा हाथ छोड़ दिया और आगे बढ़कर एक छोटी सी चट्टान पर बैठ गई। सामने वही समुद्र उछाल मार रहा था जिसके दर्शन पिछले कई दिनों से हम कर रहे थे। लड़की शांत, निर्विकार भाव से बैठी एक दिशा में शून्य को ताके जा रही थी। हम भी उसके बगल में बैठ गए। दूर सामने क्षितिज पर उभरती लालिमा ये बताने को पर्याप्त थी कि जल्द ही सूर्योदय होने वाला है।
‘तुम कौन हो? यहाँ कैसे आ गई? मुझसे क्या चाहती हो? मुझे यहाँ क्यों लाई हो?’ जैसे कई सवाल उसी तरफ उछाल कर उसके चेहरे को गौर से देखने की कोशिश की। उसके चेहरे पर वही निर्विकार ख़ामोशी थी, जो ट्रेन में दिखती थी। होंठ वैसे ही खामोश। आँखें वैसे ही बेजान सी। उसने एक पल को हमारी तरफ देखकर आँखें बंद कर ली और अपने सिर को हमारे कंधे से टिका दिया। लगा कि समूची सृष्टि एक पल को रुक गई हो। रहस्यमयी घेरा और घनीभूत होने लगा। उगते हुए सूर्य ने अपनी गति को थाम लिया। शोर करती समुद्र की लहरों ने उछलना-कूदना बंद कर दिया। उस लड़की के चेहरे पर छाई ख़ामोशी की भांति ख़ामोशी चारों तरफ छा गई। निपट सन्नाटे में एक खनकती आवाज़ सी आती सुनाई दी। लाखों-लाख घुंघरुओं की खनक जैसा संगीत। हजारों पंछियों के कलरव सरीखी धुन। सैकड़ों बांसुरियों की स्वर-लहरियों का गान। न जाने कितनी शहनाइयों की उत्सवी सरगम की गूँज।
“क्या हर सवाल का जवाब आवश्यक होता है? क्या कुछ सवालों का सवाल बने रहना उचित नहीं? क्या निरुत्तर होना पराजय मात्र का द्योतक है? क्या निस्वार्थ नींव पर रिश्तों की बुनियाद को खड़ा नहीं किया जा सकता? क्या रिश्तों की सम्पूर्णता के लिए देह का होना अनिवार्य है? क्या आत्मिक रिश्तों का अपना कोई सन्दर्भ नहीं?
कई-कई सवालों के जवाब में कई-कई सवालों के उभर आने से हतप्रभ होने की स्थिति बन गई। उसका स्वरूप एकदम से विराट नजर आने लगा और खुद का वजूद उसी के साये में गुम होता लगने लगा। सम्मोहित सी करने वाली वही आवाज़ पुनः आभामंडल में गूँजने लगी।
“समूचा विश्व अपने-पराये के घरौंदों में कैद हो चुका है। ईश्वर, प्रकृति, नश्वरता, आस्तिकता, दर्शन, आत्मा, जीव, जगत, धर्म, संस्कृति, विचार, सम्बन्ध, रिश्ते, मर्यादा आदि को तिरोहित कर हम सब स्व में समाहित हो चुके हैं। सृष्टि को बचाने के लिए लौकिक-परालौकिक, सत्य-मिथ्या, ब्रह्म-जीव, आत्मा-परमात्मा, आकार-निराकार, जड़-चेतन, स्त्री-पुरुष आदि सब एकाकार होकर सृष्टि का ध्वंस कर एक नवीन सृष्टि की रचना करेंगे। हो सकता है तब तुम्हारे अनेकानेक सवालों का जवाब स्वतः मिल जाए।”
कंधे से उसने अपना सिर हटाकर आँखों में आँखें डाल दी। आँसुओं से गीली उसकी बेजान आँखों में चंचलता दिखाई दी। निर्विकार चेहरे पर रौनक उतर आई। खामोश होंठ लरज उठे। ‘अनामिका नाम है मेरा। चेन्नई में एक मीडिया ग्रुप में काम करती हूँ।’ कहकर उसने एक कड़ा अपने पर्स से निकाल ‘ये हमारी दोस्ती की निशानी’ कहकर हमारी कलाई में पहना दिया। उसकी चपलता देख प्रकृति भी अपनी जड़ता तोड़ने को व्याकुल हो गई। समुद्र की लहरों का शोर तीव्रता पकड़ने लगा। सूर्य-रश्मियाँ पूर्ण आभा के साथ बिखरने लगी।
“लेकिन हम तो कुछ ला ही नहीं पाए तुम्हारे लिए।” अपनी असमर्थता जताई तो उसने अपने दोनों हाथों में हमारी हथेलियों को पूरी ताकत से कैद कर लिया।
“तुमने बहुत कुछ दे दिया आज हमें” कहकर वो एक झटके में खड़ी हो गई। भोर का अँधेरा पूरी तरह से मिट चुका था। आश्चर्य हुआ कि जिस छोटी चट्टान पर हम दोनों बैठे कई घंटे बिता चुके थे उसके ठीक पीछे विवेकानन्द रॉक मेमोरियल पूरी शान से चमक-दमक रहा था। हम दोनों भी उसी की आभा में जगमगा रहे थे। एक कदम आगे बढ़कर उसने अपने होंठों को हमारे होंठों से लगा दिया। समुद्र की लहरों ने पूरी तीव्रता से उछाल भरना शुरू कर दिया।
“तुम मुझे कभी न छोड़ना” चिल्लाती हुई वो लड़की पूरी ताकत से हमसे लिपट गई। सागरों की उछलती-कूदती, शोर करती लहरों ने समूची शिलाखंड को अपने में समाहित कर लिया। सब कुछ बस पानी ही पानी हो गया। न आसमान नजर आ रहा था, न सूर्य, न ही सूर्य की किरणें। रॉक मेमोरियल भी पिघलकर समुद्र में मिल चुका था। हम दोनों एकदूसरे को आलिंगनबद्ध किये खुद में चट्टान बन गए थे, एक प्रतिमा नजर आ रहे थे। एक जगह स्थिर, एक जगह शांत, एक जगह खामोश बस भीगती, भीगती और बस भीगती।
हड़बड़ा कर आँखें खुल गईं। पूरी देह पसीना-पसीना। गला सूखता सा। समूची देह भयंकर बुखार में तपती लगी। हम कहीं समुद्र में नहीं, किसी चट्टान पर नहीं अपने होटल के कमरे में थे। पलंग से उतर कर फ्रिज में रखी पानी की बोतल निकाल एक साँस में पूरी गटक ली। पानी गले के नीचे उतरते ही जैसे तन्द्रा लौटी। ‘ये क्या, हम तो खड़े हो गए, कोई दर्द नहीं पैर में।’ पलंग पर बैठकर देखा तो चोट ज्यों की त्यों मौजूद। पैर में सूजन भी ज्यों की त्यों मगर दर्द बिलकुल नहीं। गहरी साँस लेकर वो खुशबू सूंघने की कोशिश की मगर किसी भी तरह का कोई एहसास नहीं। हाथ टटोला, वहाँ भी कोई कड़ा नहीं। दरवाजा खोलने की कोशिश की मगर वो बाहर से बंद समझ आया। घड़ी दोपहर बाद का एक बजा रही थी। मोबाइल उठाकर दोस्त को फोन किया। पता चला कि वो समुद्र किनारे व्यू टावर के पास लहरों का आनंद ले रहा है। अपनी तबियत या देखे सपने के बारे में कुछ न बताते हुए दरवाजे के बारे में पूछा। उसने बताया कि हमको गहरी नींद देखकर उसने बाहर से ताला लगा दिया है और चाबी होटल के रिसेप्शन पर है।
“फ्रेश होकर यहीं आ जाओ, बड़ी मौज आ रही है।” दोस्त ने आदेश सा देकर फोन काट दिया। रिसेप्शन पर फोन कर वेटर से कमरे की चाबी मँगवाई तो पता चला कि होटल की सबसे ऊपर वाली मंजिल पर हम लोग ही हैं। इसके ऊपर कोई कमरे नहीं हैं। दिमाग भन्नाता सा लगा। फ्रेश हो, चाय पीकर, हल्का सा नाश्ता किया और व्यू टावर पहुँच लहरों के किनारे बैठ गए। हमारा मित्र नारियल पानी पीते हुए लहरों का आना-जाना, उठना-गिरना, बनना-बिखरना देखने में मगन था। उसको पूरा सपना बताया तो उसने बिना कुछ कहे पॉलीथीन में बर्फ के बीच कैद एक कैन निकालकर हाथ में थमाई।
“ले, इसे गटक जा, इससे सर्द नहीं होगा उसका हाथ। तेरे दिमाग में चढ़ गई है वो भटकती आत्मा। वैसे सपने में सिर्फ किस ही हो पाया या और कुछ भी।।।।” कहते हुए उसने आँख मारी।
“क्या यार तुम भी।” कहकर कैन मुँह से लगा ली।
दो-तीन घंटे बैठने के बाद वापसी की ट्रेन पकड़ने की अनिवार्यता के कारण होटल पहुँचकर हिसाब-किताब निपटाने के बाद हम दोनों मित्र स्टेशन पहुँच गए। ट्रेन छूटने में अभी देर थी। तभी “ले तेरी अनामिका आ गई।” कहते हुए मित्र ने टोका। पहले लगा कि वो हमारी ही मौज ले रहा है। एक धौल उसकी पीठ पर जमाते हुए कुछ कहते, मित्र ने प्लेटफ़ॉर्म के प्रवेश द्वार की तरफ देखने का इशारा किया। आश्चर्य! वाकई वो लड़की उसी प्लेटफ़ॉर्म पर चली आ रही थी। हम दोनों हैरान से कभी एकदूसरे को, कभी उस लड़की को देख रहे थे। इस हैरानी का कारण ये था कि उसने वैसे ही कपड़े पहने हुए थे, जैसे कि हमने सपने में देखे थे।
“हेल्लो फ्रेंड्स!” हमारे सामने रुकते हुए वो बोली। पहले तो हम दोनों की समझ में नहीं आया कि ये हो क्या गया। हम दोनों को हैरान सा देखकर उसने अपना हाथ मिलाने के अंदाज में आगे बढ़ाया और बोली, “हाय, आय एम अनामिका।”
हम दोनों मित्र अवाक रह गए। समझ नहीं आया कि सब सच है या फिर वही सपना शुरू होने वाला है? वो लड़की एकदम शांति से हम दोनों की तरफ अभी भी अपना हाथ बढ़ाये थी। हड़बड़ी में मुँह से बस ‘हाय’ निकला। हम लोगों की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न होती देखकर उसने अपना हाथ पीछे खींचा और बड़े विनम्र स्वर में बोली, “एनीवे, एक काम सौंपना चाहती हूँ आप लोगों को, यदि कोई समस्या अथवा बोझ जैसा न समझें तो।”
“हाँ, हाँ, बताइये।” मित्र ने कुछ संयमित होते हुए कहा। हम अभी भी सामान्य होने की कोशिश में लगे हुए थे।
“दरअसल मैं चेन्नई में एक मीडिया ग्रुप से जुडी हूँ। रहने वाली झाँसी की हूँ। ये छोटा सा गिफ्ट पैकेट आप मेरे घर तक पहुँचा दीजियेगा।”
हम दोनों की आँखों में हैरानी-अनिश्चय सा देख बोली, “आपको बताया न कि मैं चेन्नई में एक मीडिया ग्रुप से हूँ। इंजीनियरिंग करने के बाद वहाँ जॉब के लिए आ गई थी। उसी दौरान मैंने अपने एक सहयोगी के साथ लव मैरिज कर ली। इससे मेरे परिवार के लोग बहुत नाराज हुए।”
“फिर ये गिफ्ट?” अचानक मुँह से सवाल निकला। “और हम लोगों के द्वारा क्यों?” मित्र ने अपनी शंका को सामने रखा।
“हालाँकि धीरे-धीरे और लोगों की नाराजी दूर होती रही मगर पापा अभी भी नाराज से हैं।” वो एक पल को शांत रही फिर बोली, “परसों मेरे छोटे भाई का जन्मदिन है। आप भी परसों झाँसी पहुँच जायेंगे। यदि दिक्कत न हो तो प्लीज़, आप इसे लेते जाइये।”
हम दोनों मित्रों ने एकदूसरे की तरफ देखा। शायद हम दोनों की आँखों में उभरे सवालों को वो समझ गई थी। “मेरा यहाँ नियमित आना होता है। इस कारण स्टेशन के लोग भी अच्छे से मुझे पहचानते हैं। उनसे ही पता चला था आज दो लोग झाँसी जाने वाले हैं। चूँकि उस दिन आपको आते देखा तो लगा कि शायद आप लोग ही हों।” कहते हुए उसने डिब्बे का ढक्कन हटाकर सामान दिखाया। एक लाल साड़ी और चार कंगन एक पॉलीथीन में, सीपियों, मोतियों का बना टेबिल लैंप तथा कुछ पुस्तकें डिब्बे में झांक रही थी।
“ये साड़ी और कंगन माँ के लिए, पापा के लिए किताबें, छोटे भाई के लिए टेबिल लैंप। और कुछ नहीं है इनके अलावा।” फिर “घबराइए नहीं, अपराधी प्रवृत्ति की नहीं हूँ।” कहते हुए जोर का ठहाका लगाया।
उसके ठहाके में एक तरह का रुंदन छिपा लगा। हँसी में करुणा बहती दिखी। पता नहीं किस सम्मोहन के वशीभूत उसके हाथ से वो पैकेट हम लोगों ने ले लिया।
“ये झाँसी, मेरे घर का एड्रेस, फोन नंबर और ये मेरा कार्ड। और हाँ प्लीज, घर फोन करने पर ये मत कहियेगा कि मैंने कुछ भेजा है या मैंने आपको भेजा है वर्ना पापा मिलने से मना कर देंगे। और हाँ, कभी चेन्नई आना हो तो खबर करियेगा, मैं मिलने अवश्य आऊँगी।”
“और हाँ, ये आप दोनों के लिए, मेरी दोस्ती की निशानी।” कहते हुए ठीक वैसे ही दो कड़े हम दोनों के हाथ में रख दिए जैसा कि उसने सपने में हमें पहनाया था। वास्तविकता सामने थी। लड़की सामने थी। ख़ामोशी तोड़ती हुई बातचीत जारी थी, इसके बाद भी रहस्यमयी लड़की और भी रहस्यमयी होती जा रही थी। उसकी रहस्यात्मकता गहराती ही जा रही थी।
इधर हम दोनों ने मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाया उधर ट्रेन ने चलना शुरू किया। जैसे उसने आते समय ट्रेन से उतरने पर चौंकाया था वैसे ही यहाँ ट्रेन में चढ़ने के दौरान चौंकाया। “अब आपके पैर की चोट कैसी है?” हम अवाक खड़े उसका मुँह ताक रहे थे। उसने चलती ट्रेन के साथ चलते-चलते अपना पर्स खोलकर कांच की एक छोटी शीशी निकाल कर हमें पकड़ाते हुए कहा, “इसे एक-दो बार लगा लीजियेगा, आराम मिल जायेगा।” मंत्रमुग्ध हो उसके हाथ से शीशी लेने में उँगलियों से उँगलियों का स्पर्श हुआ। उसी सर्द एहसास से समूचे शरीर में सिरहन दौड़ गई। ट्रेन ने अपनी गति बढ़ा दी, उसने अपना चलना धीमा कर दिया। हम दोनों डिब्बे के दरवाजे पर खड़े और वो प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हाथ तब तक हाथ हिलाते रहे जब तक कि हमारी नजरों में वो काला बिन्दु बनकर ओझल नहीं हो गई।
हम दोनों का दिमाग सुन्न था। नाम वही जो सपने में, काम वही जो सपने में, ड्रेस, कड़ा, शीशी, उसमें भरे तेल की सुगंध तक वही जो सपने में थी। आखिर वो लड़की थी कौन? क्या वाकई में कोई आत्मा थी? झाँसी पहुँचने तक कई-कई बार उसके द्वारा दिए गए गिफ्ट के डिब्बे को देखा। सारा सामान ज्यों का त्यों। कई-कई बार उस शीशी को देखा, वो भी मौजूद और उसमें भरा तेल भी उसी सुगंध के साथ मौजूद। जाने कितनी बार कड़े को पहना और उतारा मगर उसकी वास्तविकता में संदेह नहीं। उस लड़की द्वारा दिए गए झाँसी के पते को जाँचने के लिए दिए गए मोबाइल नंबर पर संपर्क किया, वो भी सही निकला। सम्बंधित व्यक्ति भी सही निकला। इसके बाद भी रहस्य की चादर ज्यों की त्यों थी क्योंकि उस लड़की के खुद के कार्ड पर दिए गए दो मोबाइल नंबरों में से किसी पर भी घंटी नहीं जा रही थी।
लौटती यात्रा रहस्य की खोज करने जैसी हो गई। न खाने का होश न पीने की सुध रहती। कब स्टेशन निकलते रहे; कब रात हो जाती, कब दिन आ जाता पता ही नहीं चला। दो दिन की यात्रा के बाद दोपहर झाँसी उतरे। गिफ्ट का डिब्बा हमारे हाथ में था। ऊहापोह की स्थिति दिमाग में थी। पैर रुकते-रुकते चलने की और चलते-चलते रुकने की स्थिति में आ जाते। समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये। चाय पीते हुए निर्णय लिया कि यदि लड़की की रहस्यात्मकता को दूर करना है तो एक बार उसके दिए गए पते पर जाना ही चाहिए। अपने सामान को एक मित्र के घर रख उसकी बाइक उठाकर सम्बंधित पते पर जा पहुँचे। अपना ही क्षेत्र होने के कारण झाँसी में वो घर खोजने में बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। जो थोड़ी बहुत समस्या आई वो दिए गए फोन नंबर के द्वारा जानकारी से दूर हो गई।
बड़ा सा मकान। सामने लॉननुमा खुला स्थान। बाउंड्रीवाल के सहारे खड़े पेड़। जगह-जगह चढ़ी लताएँ। बाइक खड़ी कर छोटे से लोहे के गेट को खोल अन्दर घुसे। बरामदे से लगा दरवाजा खटखटाने पर एक बुजुर्ग सज्जन बाहर आये। उनकी उम्र कोई 65-70 वर्ष के आसपास रही होगी। उन्होंने मुस्कुराकर आत्मीय भाव से हम दोनों के अभिवादन का जवाब दिया और अन्दर आने का इशारा किया। बेहद सलीके से सजा हॉल घरवालों की रुचि को स्पष्ट कर रहा था। बड़े-बड़े सोफे, शानदार पेंटिंग्स, दीवार के किनारे से लगे शो-केस, उनमें सजे पदक, मैडल, ट्राफी आदि सदस्यों के प्रतिभावान होने की कहानी कह रहे थे।
“आपकी बेटी अनामिका ने भेजा है, कन्याकुमारी में मिली थी हमें।” कहते हुए गिफ्ट पैकेट उन बुजुर्ग सज्जन को थमाया। एकाएक उनके चेहरे की भाव-भंगिमा बदल गई। हाथों में कम्पन स्पष्ट दिखने लगा। उन्होंने अन्दर की तरफ मुँह करके आवाज़ लगाई तो चन्द सेकेण्ड में एक बुजुर्ग सौम्य महिला ने हॉल में प्रवेश किया। “अन्नू ने भिजवाया है” पैकेट उनके हाथों में देते हुए बुजुर्ग सज्जन का गला भर्रा आया। दोनों बुजुर्गजन पनीली आँखों से हम दोनों की तरफ देखने लगे। टकटकी लगाकर देखने के बाद उन दोनों की निगाहों के साथ-साथ हम दोनों की निगाहें बगल वाली दीवार के कोने पर पड़ी। हम दोनों हतप्रभ, चौंक उठे। उस लड़की की माला चढ़ी बड़ी सी फोटो एक स्टूल पर टिकी थी। अपनी आँखों को पोंछते हुए उन्होंने हमसे बैठने को कहा। कहने-सुनने की स्थिति से इतर हम दोनों यंत्रवत सोफे पर बैठ गए। बुजुर्ग महिला ने उस पैकेट को लेकर काँपते हाथों से खोला। सामान देखकर वो फूट-फूटकर रो पड़ी। सांत्वना देने के लिए उठे बुजुर्ग सज्जन की आँखें भी बहने लगीं। हम दोनों असमंजस की स्थिति में बस बैठे हुए दो बुजुर्गों का रोना देखने को विवश थे।
उनसे विदा लेते समय मन बहुत भारी था। रहस्यात्मकता तोड़ने की कोशिश में उस लड़की की सत्यता तो पता चल गई मगर एक दूसरा रहस्य निर्मित हो गया। लड़की अनामिका ही थी। चेन्नई में किसी मीडिया ग्रुप में इंजीनियर थी। अपने किसी साथी संग प्रेम विवाह भी किया था। घर वाले नाराज भी थे क्योंकि लड़का सजातीय नहीं था। ये सत्यता तो अनामिका ने खुद बताई थी मगर इसके बाद की सत्यता पर उसने जो पर्दा डाल रखा था वो उसके माता-पिता ने हटाया।
अनामिका की असलियत जानने के बाद हम दोनों के अचंभित होने की कोई सीमा नहीं रही। हम झाँसी की सड़कों पर निरुद्देश्य बाइक दौड़ाने में लगे थे। वापस घर लौटना चाहते मगर घर जाने का मन नहीं करता। कभी किसी पार्क के सामने रोकते, कभी पहाड़ी पर चढ़ जाते, कभी किले की ऊँचाई से सारे शहर को नापते किन्तु विक्षिप्तता की स्थिति बढ़ती ही लगती। लग रहा था कि जैसे वो हमारे आसपास ही है। ऐसा लगता जैसे दिमाग की नसें अभी फट जाएँगी। ये समझ आया कि दो वर्ष पूर्व अपने साथी द्वारा धोखा दिए जाने के बाद उसमें हताशा, निराशा भर गई होगी। नाराज परिजनों के सामने आने से बचने के लिए उसे सबसे आसान उपाय अपनी जान गँवा देना लगा होगा। उसके द्वारा घरवालों के लिए खरीदे गए सामान को, उसकी मौत के बाद भी, उसके पिता द्वारा आक्रोश, गुस्से में समुद्र में फेंक दिया जाना भी समझ में आ रहा था। इसके बाद भी ये समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उसी सामान को अपने परिजनों तक पहुंचाने के लिए उसने हम दोनों को ही क्यों चुना? उसके द्वारा रिश्तों, संबंधों, आत्मा, परमात्मा के दर्शन को बताने का मकसद क्या था? ‘तुम मुझे कभी न छोड़ना’ कहकर पूरी ताकत से हमसे लिपटने में उसका क्या सन्देश छिपा था?
तमाम सत्यताओं, रहस्यों के बाद भी एक सत्य आज भी मौजूद है कि वो सुगन्धित तेल की शीशी आज भी हमारी सेल्फ में है। उसके द्वारा दोस्ती की निशानी वो कड़ा आज भी हमारी कलाई में है। अनामिका रहस्य बनकर आज भी हमारे दिल-दिमाग में है।