अनकही / जयश्री रॉय
पहाडी सडकों पर टहलती हुई उसदिन वह अकेली ही लवर्स पाइंट तक चली गयी थी। मन में कहीं यहाँ का प्रसिद्ध सूर्यास्त देखे का लालच भी था। जानती थी, गेस्ट हाउस में ऋषि चाय पर उसकी राह देख रहा होगा, मगर जबरन् भुलाये हुई थी। ऋषि से घंटेभर में लौट आने की बात कहकर वह घूमने निकली थी। ख्याल आया था, फिर ऐसा अवसर मिले-न-मिले...कल लौटकर तो फिर से शहर की उसी पागल भीड में खो जाना पडेगा !
यहाँ का सूर्यास्त तो ऋषि भी देखना चाहते थे, मगर सुबह से बुखार लेकर पड गये थे। कल देर रात तक ओस में भीगते रहे थे। ऊपर से ठंडा बीयर भी चला था। पुराने मित्र के यकायक मिल जाने से पुलक में उश्रृंखलता हो ही जाती है। कितने दिनों बाद देव बाबू मिले थे! साथ में पत्नी शिवानी भी थी। बातचीत का दौर चला तो देर रात तक चलती ही रही। फिर गाना-बजाना शुरू हो गया और सभी दुनिया-जहान भुला बैठे। ऋषि को संगीत का बडा शौक है, खुद भी अच्छा गा लेते हैं। शिवानी ने सबके अनुरोध पर थोडे-से न-नुकूर के बाद गाना शुरू किया तो फिर लगातार गाती ही चली गयी। वह स्कूल में संगीत की टीचर थी। पहाडों की मायावी ज्योत्स्ना रात, सुरा वीथ फिस प्राय और संगीत... सभी मूड में आ गये थे ! आखिर हारकर उसे ही महफिल खत्म करने के लिए कहना पडा था। तबतक ऋषि और देव बाबू काफी पी चुके थे। लाइम जीन के प्रताप से शिवानी के गाल भी दहक रहे थे। उसकी डागर काली बंगालन आँखों में रविंद्र संगीत का सुरूर अलग से था।
सुबह सभी देरतक सोते रहे थे। ऋषि उठे तो उनके सर में दर्द था, शरीर भी गर्म हो रहा था। काली कॉफी और क्रोसिन की गोलिया लेकर सारा दिन पडे रहें। वह भी मन मारकर टी.वी. के सामने बैठी रिमोट से खेलती रही। दोपहर को उसने रसोइये से कहकर पतली खिचडी बनवायी थी। उसे ऋषि के अस्वस्थ हो जाने से चिड-सी हो रही थी। एक तो बडी मुश्किल से इस शॉट वेकेशन के लिए समय निकाल पाये थे और जब आये तो ये जनाब बिस्तर पर पड गये ! वह अस्वस्थ सिर्फ अपने उश्रृंखल स्वभाव के लिए हुए थे। हर विषय में वह अति करता है और फिर भुगतता भी है। सारा मजा किरकिरा करके रख दिया था ! न जाने अब कब यहां आने का प्रोग्राम बन सके।
सोचते हुए एक तेज मोड पार करके न जाने कब वह लवर्स पाइंट पर आ खडी हुई थी। सामने गेरूआ आकाश का अछोर विस्तार था। सूरज से उसका इंतजार नहीं हो पाया था, अपने समय पर पाबंदी से डूब गया था। चारों तरफ उसीका अहसास अभी तक बना हुआ था - नीचे की तरफ आसमान का गहरा लाल रंग क्षितिज के पास जामुनी पड गया था। पहाडों की तीखी -गहरी उतारों में शाम का धुआं घना होकर ऊपर की ओर उठने लगा था। उसी में दूर- बहुत दूर घाटी में बहनेवाली नदियाँ चाँदी की जजीर -सी चमकती हुई दिखाई दे रही थीं। पक्षियों की घर लौटती कतारें यहाँ-वहाँ से काले मनकों की तरह टूटकर साँवली हवा में नामालूम बिला रह थीं।
उसका मन अनकही उदासी में डूब गया था। शाम की धूसर-नील परछाइयों से घिरी वह कुछ देर एकदम चुप खडी रह गयी थी। अंदर घुमडते हुए निराशा के बवंडर को वह अपने अंदर से धैर्यपूवक गुजर जाने देना चाहती थी, नहीं तो ये दूरतक पीछा करते हुए बढता ही जायेगा...ये उसका अनुभव रहा है। वह किसी भी अभावात्मक अनुभूति से पीछा नहीं छुडाती, वरन् उसमें पूरी तरह होकर उसे अपने सिस्टम से गुजर जाने देती है, ताकि जब वह उससे निकले तो सही अर्थों में पूरी तरह से निकल सके। ऋषि कहते हैं इंदु, तुम बहुत भावुक हो, हर बातपर आँखें भिगोती हो। मगर वह जानती है, यह क्राइसिस को सीघे आँखों में देखने का नतीजा है- देरतक पलकें झपकाये बिना देखते रहे तो आँसू आ ही जाते हैं... पहाडों पर तेजी से उतरती हुई रात को अपने बेहद करीब महसूसते हुए उसने फिर उधर देखा था, जहाँ थोडी देर पहले तक सूरज अपने सिमटते हुए उजालों के साथ रहा होगा। अब वहां एक फिकी -सी उदासी के सिवा कुछ भी न था। सूरज का डूब जाना न जाने क्यों मन को एक अनकहे विषाद से भर देता है। लगता है, पूरी दुनिया ही यकायक एक अभाव में डूब गयी है। उजाले का खो जाना शायद किसी को भी अच्छा नहीं लगता- अंधेरे को भी नहीं ! पूरी तरह से डूबने से पहले किरणों का सुनहरा जाल किसी मायावी स्वप्न-सा वादी में फैलता जाता है और फिर एक समय के बाद दूसरे सिरे से उसका सिमटना शुरू हो जाता है और फिर होते-होते पूरी तरह से सिमटकर पहाडी की दूसरी तरफ अपने पीछे ढेर सारा अंधकार छोडकर उतर जाता है। कैसा चीखता हुआ सन्नाटा होता है ऐसे में ! हजारों झिंगुर और कीट-पतंगे एकसाथ बोल पडते हैं।
पश्चिम में रोशनी का समंदर अब एक ठोस, स्याह दीवार में बदल चुका था। अदृश्य लहरों की तरह हवाएँ पहाडों से टकराने लगी थीं। इन पहाडियों में अप्रैल की हवा में भी एक खुनक-सी है। उसने हल्की ठंड में पानी हुई-सी सूती साडी का आँचल अपनी खुली बाँहों पर लपटा था। बालों का श्लथ जुडा भी खुलकर हवा में बिखरने लगा था। उन्हें समेटती हुई वह मुडकर चल पडी थी। सामने की घुमावदार सडक मोडपर तारों की उजास में हल्की-हल्की दिखाई दे रही थी। अभी-अभी बीती शाम की रोशनी भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई थी- जंगली फूलों और पुटुस की झाडियों पर उसकी फिकी नीली चमक अभी बाकी थी।
जब मन निसंग होता है, खुद के संग हो लेता है। इस चुप्पी को सहज काटने के लिए जैसे उसने स्वयं से हीे मनुहार किया और हल्के-हल्के गुनगुना उठी। कंकर-पत्थरों से टकराते उसके पद्चापों के साथ उसका गीत घाटियों के धुंधलके में प्रतिध्वनित होते हुए जैसे उसके साथ लहराता-सा चल पडा। इस पहाडी रास्ते पर निचाट अकेलेपन के अहसास से वह चाहकर भी छूट नहीं पा रही थी। हवा और पत्थरों के टकराने से जैसे वादियों की विराट नीली शून्यता धीरे-धीर थरथरा रही थी। एक अजीब-सा चुप भरा शोर तेजी से आसपास घनीभूत होता हुआ एक वृत्त-सा रच रहा था। किसी अकेली पड गयी टिटहरी का रह-रहकर बोलना भी उसे अनमन कर रहा था। जैसे उसका भी कहीं कुछ खो गया हो... सांझ की उदासी में टिटहरी का बोलना उसे हमेशा निसंग बना जाता है।
गेस्ट हाउस में ऋषि उसके लिए अबतक परेशान हो गया होगा। इन पहाडियों में नेटवर्क भी नहीं मिलता कि उसे फोन पर सूचित कर सके, सोचते हुए अंजाने ही उसके कद़म तेज हो गये थे। कुछ दूर तक तेज-तेज चलने के बाद न जाने क्यों वह अचानक ठिठककर रूक गयी थी और फिर पीछे की ओर मुडकर देखा था। उसे लगा था, इस सडक पर वह अकेली नहीं है, कोई और भी है जो उसके पीछे बेआवाज चला आ रहा है। उसकी बाँहों में काँटे -से उग आये थे। रीढ में आतंक की सनसनाहट वर्फ की तरह घुल गयी थी। अंधकार की काली परत चीरने में असमर्थ उसकी आँखें अधिक-से-अधिक पैनी होकर उसे घुरने लगी थी। कान भी क्षण-क्षण करीब होती आहट के प्रति सजग हो उठे थे। एक मन कह रहा था, अभी मुडकर भाग जाय, मगर दूसरा मन अपने ही कदमों पर भारी पर रहा था। भय ने ही जैसे उसे हौसला दिया, उसने अपनी तरफ बढती हुई अनजान आहट का सामना करने का फैसला कर लिया। उसकी तरफ जो कुछ भी बढ रहा था, वह उससे होकर ही गुजर सकेगा, उसे गिराकर या दरकिनार करके नहीं !... न जाने किस हौसले के बल पर उसने सोच लिया था! अब लरजते हुए ही सही, उसे थामकर खडी रहने को बाध्य थी। इसके सिवा दूसरा चारा भी क्या था...
अचानक वह अंधेरा बिल्कुल पास सरक आया था- अपनी गंध और लोच में ठोस होता हुआ- ‘तुम अब भी गाती हो इंदु...?‘ अप्रत्याशित गूँजी इस आवाज ने उसे बेतरह चौंका दिया था। गाढे अंधकार में भँवर-सी पड गयी थी। आवाज की अनुगूँज अब आसपास की पथरीली दीवारों पर थी, तरंगों में बदलकर खुद को दोहराती हुई-सी... सामने का स्याह परदा यकायक चमका था- आगन्तुक ने लाइटर जलायी थी। जलती हुई लाइटर की पीली लौ पर झुके हुए उस चेहरे को वह देखती रह गयी थी। सिगरेट सुलगाते हुए उसका चौडा माथा और नाक की नुकिली नोंक ही रोशनी की जद में थी. वही ठिठकी उसकी आँखों में पहचान की कौंध झट् जागी और बिला गयी थी- अनुप...यह नाम कहीं से आँखें मलता हुआ अनायास उठ आया था। वक्त की धूल मोटी परतों में हर तरफ बिछी थी, मगर वह साफ पहचान में आ रहा था- कुछ चीजों पर वक्त का असर नहीं होता, मौसम भी उनसे होकर गुजरने से रह जाता है... एक अर्से से उसका जिक्र उसके और ऋषि के बीच नहीं आया था। और यह शायद इसलिए कि उसकी चर्चा उनके बीच कुछ बोझिलता ला देती थी जो अनकही होकर भी अनदेखी नहीं रह पाती थी।
जीवन के कुछ पृष्ठ दुबारा पढने की मनःस्थिति में इंसान कभी नहीं हो पाता, मगर उसका कोना हमेशा मुडा रहता है, शायद यह याद दिलाने के लिए कि हम कहीं कुछ अधूरा छोड आये हैं और तभी हर कोशिश के बावजूद पूरा नहीं हो पा रहे हैं... आधी-अधूरी जिंदगियाँ आधी-अधूरी कहानियों की याद दिलाती हैं !... उन्हें पूरा न कर पाने की नियति इंसान को आधी सच, आधी झूठ जिंदगी के किरदार बनाकर रख देती है !... इस सच की विडंबना आज भी उसके जीवन में पूरी विलक्षणता के साथ है... इन्हें नकारते-बिसराते वह थक गयी है ! याद न करने का अर्थ भूलाना नहीं होता, बल्कि कभी-कभी इसका ठीक उल्टा भी हो सकता है।
इस नाम और चेहरे के साथ न जाने कितनी बातें एकसाथ सतह पर उठ आयी थीं, उसतक पहुँचने के लिए एक-दूसरे से होड ले रही थीं। उसे उस रोशन माथे पर अपने होठों की चमकती हुई छाप स्पष्ट दिख रही थी। बहुत पुराना होकर भी वे कँवल-सी ताजी लग रही थी। इन्हीं छुअनों से एकदिन उसने स्वयं को उसके वजूद के साथ चस्पां कर देना चाहा था, जोड देना चाहा था खुद को हमशा के लिए, मगर कच्चे धागे का रिश्ता कच्चा ही निकला था- तडक कर दोनों के बीच से हमेशा के लिए खो गया था। खुद को खो देने की हद तक उसने ढूँढा था उसे, मगर मुट्ठी में हवा बाँधने की असफलता के सिवा कुछ भी नहीं आया था। एक मटमैली धुंध में खो गयी कहानी का आधा हिस्सा अनकहा ही रह गया था। वह चाहती थी, अनुप के उलझी डोर-से शख्सियत को समझने का कोई सिलसिला निकल सके। जिसे कभी जिंदगी की तरह चाहा हो, उसे यूं एक अजनबी की तरह उसी जिंदगी के हाशिये में खडे हुए देखना केसा त्रासद, कितना तोड देनेवाला अनुभव था, वह कैसे बताती !
लाइटर के बुझते ही वह न जाने कैसी अनाम इच्छा से भर उठी थी। एक लंबे समय से अंदर-ही-अंदर घनीभूत होती आद्रता अब सबकुछ तोडकर सतह पर आ जाना चाहती है, आँखों के कोने नम पड रहे हैं। वह देखना चाहती है उसे आँख भरकर, मगर दृष्टि के सामने धुंध की दीवार ऊँची उठती जा रही है। जीवन का एकमात्र सुख उसके पीछे अपना चेहरा खोकर निःशब्द खडा है। वह अपने अंदर की चीख को टटोलती है और निराश हो जाती है। अब वहाँ एक सुगबुगाहट के सिवा और किसी बात की गुजांइश नहीं... वक्त ने बाढ चढी नदी की धारा को रेत में बदल दिया है। हरियाली के नाम पर काई के सिवा अब कहीं कुछ भी नहीं ! उसने अपने अंदर की आवेग भरी नदी को चुपचाप मर जाने दिया, जिंदगी का ये सवाल शायद अब कभी उसका पीछा नहीं छोडेगा... वह थककर अपनी पलकें मूँद लेती है, पलकों पर चुपचाप मरते सपनों की आवाजाही अब भी है, मगर उनका वजन खो गया है। अंधेरे के बावजूद वह अनुप के चेहरे की ओर देखती रही थी।
निगाह में घुप अंधेरा था, मगर परिचय उससे भी ज्यादा। कोई आँखों पर पट्टी बाँधकर भी इस शख्सियत से गुजरने के लिए कहे तो वह सहज गुजर जायेगी। ...इन आँखों, होठों, चेहरे की बनावट, तील-दाग, रेखाएँ...सबकुछ उसके अंदर बना हुआ है अपने वजूद की तरह। इस देह की गंध में कभी उसका आप सराबोर रहता था, यही सूरत पलकों पर ख्वाब बनकर उतरती थी, उसकी अनछुई कुंवारी इच्छाओं को इसी के स्पर्श ने पहली बार दुल्हन बनाया था। आज भी चाहे-अनचाहे इसी चेहरे की दहलीज पर वह कई बार ठिठक जाती है। निषिद्ध फल की तरह वर्जित सुख का स्वाद कभी भुलता नहीं... बार-बार निषेध की लक्ष्मण रेखा को लांघने पर आमादा होता है, मर्यादा की सीमाएँ तोडता है... दण्ड शायद इसका दूसरा सबसे बडा आकर्षण होता है- हर बार मन सजा की प्रत्याशा में हथेली फैलाकर खडा हो जाता है, दर्द का हिसाब रोमांच के आँकडों के आगे गौण हो जाता है।
सामने का अंधेरा अब शब्द बनकर लरजने लगा है, अनुप कह रहा है- ‘यहाँ क्या कर रही हो इंदु, तुम तो शायद मुंबई में थी? ‘
‘तुम भी तो... न जाने कहाँ थे...!‘ वह उसके सवाल में अपना भी सवाल जोड देती है और प्रतीक्षा के पलों को लाँघती हुई सीधे मुद्दे पर आ जाती है- ‘कल ही आयी थी, और अब तो कल सुबह चले भी जाना है। ‘
‘अच्छा...!‘ सामने खडी अंधेरे की दीवार ’अच्छा’ में अछोर हो जाती-सी प्रतीत होती है। अनायास वह इस इच्छा में हो आती है कि अब यह अंधेरा छंट जाय, वह अनुप को पलक भर देखना चाहती है। सब्र की सीमा कहीं करीब ही थी और अब चरमराकर टूट पडना चाहती थी। वह खुद को संजोये रखने के नाकाम-से प्रयास में लगातार लगी हुई थी. सारी ऊर्जा इसी में लगती जा रही थी। वह अपनी आवाज को यथासाध्य साधती है, अंधेरे की ओट बढकर साथ देती है- ‘तुम इधर...?‘ अधूरे सवाल में मुकम्मल सवाल है, वह जो कह नहीं पाती वह शायद सुन लिया गया है। संवेदना का एक सिरा शायद पूरी तरह से छूट नहीं गया है दूसरी तरफ से... वह महसूसती है और अपनी रूलाई को पीछे धकेलती है। पसलियों में जो बूँदें अनवरत दुःखती रहती हैं, उनका शायद अब कोई ईलाज नहीं... वह एकबार फिर स्वयं को समझाती है, अबाध्य मन बार-बार सवालों का जखीरा बनकर सामने आ खडा होता है ! अपने अंदर के फूलों को दगदगाते हुए घावों में बदल जाने देना उसकी सबसे बडी विवशता है और इसका साक्षी भी सिर्फ उसका आप ही है।
‘इंदु...‘ अनुप कुछ ठिठकते हुए-सा बोल रहा था- ‘यहाँ अपनी जिंदगी के बचे-खुचे दिन बीताने आया हूँ, डाँ. कहते हैं, ये दिन बहुत थोडे-से ही रह गये हैं, मगर कितना, नहीं जानता...‘ ‘क्यों, क्या हो गया...?‘ पूछते हुए उसे अपना ही स्वर किसी अजनबी का-सा लगा था। ऐसा सवाल करने के लिए वह अपनी आवाज लाती भी कहाँ से...! उसे यकायक अपनी फिक्र हो आयी थी। बडी मुश्किल से एक चीख- कई चीखें उसने अपने अंदर किसी महफूज-से क्षण के लिए उठा रखी थी और खुद को तैयार किया था जैसे एक समंदर से टकराने के लिए, समूचे आसमान को झेलने के लिए। अदालत में मृत्यु दंड सुनने से पहले किसी का चेहरा कैसा हो जाता है, वह नहीं जानती, मगर अपना चेहरा कल्पना कर सकती है- एकदम राख हुई रंगत में न देखती हुई-सी आँखों की भाषा अब सिर्फ आँसू और दर्द है... अनुप उसकी स्थिति से बेखबर अपने में डूबा हुआ कहे जा रहा है- ‘मेरे भटकाव को एक बदनाम-सा नाम मिल गया है इंदु- एडस्...तुम से अलग होकर फिर कभी किसी से जुड न सका... बंजारापन मेरी नियति हो गया, इस आवारागर्द तबीयत को एक लगाम, एक ठहराव चाहिए था, सो मिल गया... कुछ ही दिनों की बात है...‘
अनुप के शब्द वह सुन रही है, मगर ठीक से समझ नहीं पा रही है। तेजाब की बूँदों की तरह कहीं कुछ टपक रहा है, वह झुलस रही है अंदर तक। आँसुओं की एक शिला जो अबतक न जाने कहाँ जमी पडी थी, एकदम से पिघलने लगी है, उसे अपने तटबंधों की फिक्न हो आयी है, वह जानती है, वे किसी भी क्षण अब टूट जायेंगे... घृणा के रेत-रेत हुए अहसासों से इतने वर्षों से बंद पडा मुहाना टूटकर जो अबाध्य धारा एकदम से बह आयी है वह निर्घात प्रेम है- अपने उसी तेवर और मिजाज के साथ...! हर निर्णायक क्षण में प्यार ही क्यों जीतता है ! इतने वर्षों से ईधन जुटा-जुटाकर जिस घृणा के अलाव को जला रखा था, वह एकदम से बुझ गया है। अब वहा धुआं और राख के सिवा कुछ भी नही...! निसंग मन ने जिन स्मृतियों को ओट दे रखा था, वे इस आक्सिमिकता से बाहर निकल आयेंगे उसने सोचा न था। पहली बार अबतक अवांछित महसूस होते-से इस बेशक्ल अंधेरे के प्रति वह कृतज्ञ होती है। अपने अबाध्य बह आये आँसुओं को बाँहों से पोंछती है, मगर आवाज में घुल आयी नमी का कुछ नहीं कर पाती। अपने पाँवों में ताकत ढूँढती हुई वह लडखडाती हुई-सी चल पडी थी- ‘यहाँ क्या कर रहे हो...! तुम्हें तो शायद किसी अस्पताल में होना चाहिए... ईलाज की जरूरत होगी...! अपनी आवाज को स्वाभाविक बनाये रखने के प्रयास में वह और भी अधिक असहज होती जा रही थी।
‘मेरा अब कोई ईलाज नहीं है इंदु...! कुछ दिन खुले आसमान के नीचे साँस लेना चाहता हूँ, इन पहाडियों में... तुम्हें याद है, हम यहाँ...‘ अनुप क्या कहते-कहते रूक गया था, वह जानती थी, मगर सुनना नहीं चाहती थी। अपने जख्मों को कुरेदने के लिए नाखून कहाँ से लाये... अपने साथ हो लिए कदमों की ये आहट उसे अपने अंदर से आती हुई प्रतीत होती है। थोडी धीमी होते-होते वह फिर तेज चल पडती है- ‘तुम बडे बेफिक्र सुनाई देते हो, तुम्हें डर नहीं लगता...?‘ ये सवाल उसने प्रत्यक्ष रूप से अनुप से किया था, मगर खुद उसके जद में आ गयी थी। पीछे चलता हुआ अंधेरा सिगरेट की छोटी-सी बिंदु पर सुलग उठा था, हवा में बहुत पहचाना हुआ-सा कुछ अनायास बिखर गया था- एक चोर नजर, एक छुअन, एक गंध... पंद्रह साल पहले गुलमोहर के किसी खिलते हुए मौसम में ये वही है...!- आँखों में ढेर सारा काजल लगाये, गालों में नेह के लाल-सुर्ख गुलाब उगाये- प्यार के पहले स्पर्श से पिघलकर शहद की धार बनी बहती हुई-सी...
सिगरेट के गहरे कश लेता हुआ अनुप जैसे खुद से ही बोलता हुआ चल रहा है- ‘मुझे अपने जख्मों की नुमाइश पसंद नहीं... दूसरों की करूणा इंसान को और-और धंसा देती है। लगता है, अपनी रीढ खोकर जमीन पर रेंग रहा हूँ। सच, ये स्थिति बडी त्रासद होती है ! अंदर का कोई सीधा-तना हिस्सा हमेशा-हमेशा के लिए दोहरा हो जाता है, ये चाह कि फिर से सतर हो जाय जैसे खत्म ही हो जाती है।
‘ठीक कहते हो तुम शायद...‘ झिंगुरों की तेज आवाज में अपनी ही आवाज सुनने का प्रयास करती हुई-सी वह कह रही थी। पता नहीं, अनुप उसकी आवाज सुन पा रहा था कि नहीं... हालांकि वह ठीक उसके पीछे था। वह अपनी गर्दन पर उसकी भाप छोडती हुई-सी साँसें महसूस कर पा रही थी। हवा में उसकी देहगंध फैली थी। एक मन अपने बंधन खोलने के लिए कई बार छटपटा चुका था... उसने अनायास अपनी साँस रोक ली थी...!
‘तुम खुश तो हो इंदु...?‘ अचानक पूछे गये इस सवाल में कुछ अटपटा-सा था। वह जवाब देना नहीं चाहती थी। इस क्षण झूठ कहना कठिन होता। वह अनसूनी-सी चलती रही थी। इस क्षण उसका मन जैसे उसके कदमों पर लद गया है। इतना भारी तो वे कभी न हुए थे। वह अपनी इस बोझिलता से छुटना चाहती है। अनुप का दूसरा सवाल उसकी मदद में जैसे आगे आया था- ‘इंदु, आज न जाने यह जानने की इच्छा क्यों हो रही है कि मेरे उसदिन उस तरह से अचानक तुम्हारी जिंदगी से चले जाने को तुमने कैसे लिया था...उस वक्त तो तुम चुपचाप खडी रह गयी थी, बस, तुम्हारी आँखों का काजल जरा-सा लिसर गया था। ‘
‘तुम्हें उस दिन बिना प्रतिवाद के जाने दिया था अनुप, क्योंकि तुम जिस रास्ते पर चल रहे थे वह इतना संकीर्ण था कि किसी और के उसपर चलने की गुंजाइश नहीं थी। तुम जानते थे ये बात, मगर निर्द्वन्द्व उसपर चलते रहे। मैं जाते हुए तुम्हारी पीठ देखती रही... यही वह क्षण था जब हमारे जीवन का एक पूरा अध्याय अपने तमाम उजले-मैले अनुभवों और स्वाद-गंध के साथ यकायक खत्म हो गया था। पूर्ण विराम का वह क्षण चीख और सन्नाटे का था। मैं दोनों स्थितियों में जीने के लिए अभिशप्त थी। ‘
लगातार बोलते हुए वह अचानक थमी थी, आत्मविश्लेषण का एक क्षण उसे टोक गया था शायद, मगर उसने फिर कहना शुरू किया था। आज वह इतनी भरी हुई है कि खुद को हल्का करना निहायत जरूरी हो गया है, वर्ना स्वयं को देरतक अब ढोया नहीं जा सकेगा- ‘आज यहाँ, इस वक्त, प्नकृति के सारे पवित्र तत्वों के सामने एक कन्फेशन करना चाहती हूँ, जब भी मनके उस सिरे पर पहुँचती हूँ जो निहायत अपने लिए है- तुम मिल जाते हो ! तुमसे होकर नहीं, तुमसे बचकर गुजरना अधिक सालता है। वहाँ मौसम भी तुम्हारे ही मिजाज का होता है अनुप, हर क्षण कपडे बदलता हुआ, अलग-अलग दिखता हुआ- कभी उजला, कभी मैला, कभी एकदम बेरंग...कुछ चीजे अनुभूतियों से पडे जाकर भी अपना अस्तित्व नहीं खोतीं- बहुत-सी जगह घेरकर पडी रहती है जीवन में। हमलोगों का समय-असमय अनमन हो जाना, भीड में अकेला हो जाना इन्हीं की उपस्थिति का अक्समात् बोध होता है शायद... अपने ही अंदर के पत्थरों से टकराते रहना हमारी नियति होती है ! वक्त की वेआवाज धार इन्हें घिसती तो है, मगर इतना भी नहीं कि ये हमारे रास्ते की रूकावट बनने का माद्दा ही खो दे !‘
कहते-कहते वह जैसे अचानक चुक-सी आयी थी। अनुप उसकी बातें चुपचाप सुनता रहा था। हवा में सिगरेट की गंध के साथ वह भी छाया हुआ था। उसे अचानक ख्याल आता है कि वह अब भी खुलकर साँस लेने से बच रही है... कभी-कभी अपना ही मर्म ऐसे छल जाता है... कुछ वर्जित-सा घटने की ग्लानि मन में हो आती है, वह झूठी सफाई दे नहीं पाती। कुछ क्षण सिर्फ सच के लिए होते हैं, उनमें झूठ के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। ऐसे क्षणों में मुखौटा उतार देना पडता है, हथियार भी रख देना पडता है। -ऐसा डिफेंसलेश क्षण शायद तब आता है जब इंसान समर्पण के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाता है। अपने अहम् और छद्म से इस तरह निकलना जीवन में बहुत बार नहीं हो पाता है। सिर्फ प्यार में ये करिश्मा होता है। प्यार इंसान को अपने आप से ऊपर उठाता है, कन्फेशन और समर्पण के लिए प्रस्तुत करता है...
वह मन-ही-मन हिसाब लगाने की कोशिश करती है- वे कितने सालों के बाद मिल रहे हैं। जिन्हें रातदिन मन में गुनती रही है उन्हें याद करने का यह कैसा प्रयास है... अनुप उसकी सोच को सुनता हुआ-सा यकायक बोल पडता है- ‘दस साल, पूरे दस साल बाद हम मिल रहे हैं। ‘ वह प्रतिक्षण अपने भीतर जीवित इन पलों को यत्न से छिपाती है- यहाँ सबकुछ शब्द-शब्द धरा है- अपनी पूरी महक, गंध और स्वाद के साथ...। वह इस सहजता से पकड में आना नहीं चाहती। एक दिन अनुप बडी निर्ममता से उसे छोडकर चला गया था। वह अंदर-ही-अंदर मर गयी थी, मगर बढकर पुकारा नहीं था। तकलीफों की एक लंबी फेहरिस्त बनकर वह न जाने कितने अर्से से जीती रही थी !... भटकते-भटकते वह एकबार फिर अपने मौन से चौंककर जागती है- अनुप कह रहा था, शायद आज कन्फेशन का ही दिन था- ‘हमारी विडंबना क्या है जानती हो? हम घर की तलाश में अपने घर से आगे निकल आते हैं ! और इसी तरह उम्रभर का भटकाव अपने लिए चुन लेते हैं। दूसरों को इल्जाम देने का कोई अर्थ नहीं जब हम खुद चलकर अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाएँ लाँघते होते हैं... सोने के हिरण के पीछे राम भटक जाते हैं, हम तो साधारण इंसान ठहरे- ऐब और खोट की माटी से बने हुए...बार-बार गलतियाँ करने के लिए, उन्हें दोहराने के लिए आजन्म अभिशप्त ! अब अपनी कमियों को ओट देने के लिए दूसरों पर इल्जाम लगाने का बचपना नहीं रहा, ये मानसिकता सही नहीं, समझ सकता हूँ। ‘
उसकी खुली, ईमानदार बातों से उसके अंदर से गुजरे समय का अहसास होता है। वह उर्म से ही नहीं, सोच से भी परिपक्व हुआ है। आज न जाने क्यों उसे उसके सामने अपना मन भी खोल देना सुरक्षित लग रहा है। जो टकराहट कभी था, वह अब नहीं रह गया था, अंजाने ही गुजरे समय ने कई सिलवटें दुरूस्त कर दिया था, गिरहें सुलझ गयी थीं- ‘हम दोनों साथ थे तो बहुत टकराते थे। जब हम अपनी-अपनी मंजिलों की तरफ चल पडते हैं, हमारे कंधे अंजाने ही आपस में ठेलने-ठिलने लगते हैं। यह होता तो निर्दोष ही है, मगर हमसफर को विरक्त कर देता है। हमें एक बिंदु के बाद लगने लगता है, ये होड है- अपने-अपने लक्ष्य की यात्रा नहीं, एक-दूसरे को आगे बढने से रोकने की होड ! बस, एक युद्ध शुरू हो जाता है- कुछ-कुछ कुरूक्षेत्र जैसा, जहाँ अपने ही आमने-सामने होते हैं... बहते हुए लहू में अपना लहू कौन सा है, समझ नहीं आता। दूसरों की पीडा में हम कराह रहे हैं, युद्ध के उन्माद में इतना भी समझ नहीं आता। युद्ध की समाप्ति पर हम अपनी ही मृतदेह पर खडे होकर विजय पताका लहराते हैं, हारकर जीत का उत्सव मनाते हैं, ध्वंस को निर्माण की शुरूआत मानते हैं, संघार को श्रृजन मान लेते हैं... हम मनुष्यों की नियति कठपुतली से अलग कहाँ होती है? ‘
उसकी बातें सुनते -सुनते पीछे चलता हुआ अंधेरा थम-सा गया था। उसने भी पीछे मुडकर देखा था, न जाने क्या देखने के लिए...गनीमत है, अंधकार में आंसुओं के मोती नहीं चमकते...ये बात शायद एकसाथ दोनों के मन में आयी थी । बाहर से सयंत दिखने का सिलसिला अभी भी जारी था। अनुप ने दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी। एक सिरे की आग दूसरे सिरे पर छायी हुई थी। उसकी आँखों में कहा-अनकहा का जमघट है - ठीक ऊपर झिलमिलाते चाँद-तारों की तरह...वह अपनी सोचों को आज शब्द देना चाहता है, एक उम खामोशी से गुजार देने का पछतावा उसके अंदर भी कही-न-कही बना हुआ है शायद- ‘एक समय था जब अपनी तलाश में खुद को पीछे छोड आया था। असीम निसंगता का वह एक आतंक भरा दौर था। अपने ही पूरी तरह से चुक जाने का दारूण अनभव और स्वीकृति लिए जीना...पतिरक्षा के सारे साधन खोकर एकदम असहाय हो जाना- डिफेंसलेश, भलनरेवल... लगता था- आँखों में पट्टी बंधी है और सामने से कभी भी गोली चलकर सीना छलनी कर सकती है... इस डर की कोई सीमा नहीं हो सकती- एकदम अछोर, कल्पना की हदों के पार...उनदिनों मेरे चेहरे पर रंग का एक लेश नहीं होता था। हादसों ने मुझे पूरी तरह निचोड लिया था। अपने ही जीवित होने पर मुझे शक होता था, दूसरों की क्या बात करें...‘
अनुप की बातों से जैसे कई बातें यकायक साफ हो गयी थी। कई टुकडे जुडकर एक मुकम्मल तस्वीर बन गयी थी जो शायद इतनी कुरूप भी न थी। न जाने क्यों इंसान खुशी की तलाश में अपनी ही खुशियों पर रेत बिखेर देता है ! संदेह, आक्षेप और घृणा की लपलपाती नीली आग में अपनी दुनिया झोंक देता है... बहुत-सी बातें अनुत्तरित थी और शायद हमेशा रह भी जायेंगी... दोनों बातें करते हुए काफी दूर निकल आये थे। ढलानें अब सम पर आने लगी थीं। आगे सडक सीधी थी। दूर पहाडी बाजार की रोशनियाँ दिखने लगी थीं, वहाँ अभी भी कुछ चहल-पहल बाकी थी शायद। उनकी तरफ देखते हुए ख्याल आया था- मिलने का समय खत्म हो रहा है... कितनी अजीब बात थी कि जिससे बिछडे एक जमाना हो गया है उससे अलग होने का ख्याल आज भी दुःख पँहुचा रहा है... बिछडना सही मायने में शायद मानसिक ही होता है। इस बिंदु पर अलग हुए बिना बिछडना संभव नहीं। शारीरिक दूरी का कोई अर्थ नहीं होता जबतक ये मनों के बीच से न गुजडा हो।
न जाने कब दोनों धीरे-धीरे बिल्कुल ही थम गये थे। आगे के मोड से दुनिया और उसकी दुनियादारी शुरू होती है, अलग उन्हें यही से होना है...ये अनकहा सच दोनों के अंदर बना हुआ है और इससे पनपता विषाद का एक अमूत्त-सा अहसास भी। सर पर पीपल की चमकीली सरसराहट है, तारों की धुंधली छाँव में वे हजारों हथेलियों की तरह विदा में लहरा रही हैं। पहाडियों की गहरी नीली पृष्ठभूमि में खडे अनुप की आकृति को वह एक क्षण के लिए न जाने किस नजर से तकती है- वही ऊँचा कद, मगर भरा-पूरा नहीं... बीमारी ने उसकी देह को अंदर से खोंखला कर दिया होगा। चेहरा भी खो गया होगा, शायद हमेशा के लिए...उसके अंदर कुछ निःशब्द दरक रहा है, वेआवाज चीखें उठ रही हैं, एक मौत से होकर वह भी गुजर रही है जैसे। इस क्षण वह अनुप से कुछ अच्छा कहना चाह रही है, और शायद कुछ अच्छा सुनना भी। यहीं बातें अब आगे के सफर में साथ देंगी, दूर तक जायेंगी। यह संधि का क्षण है, इसकी शर्तों को आसान करना ही होगा। युद्ध की कडवाहट को दूर करने के लिए भी यह जरूरी हो गया है। अनुप अब सिगरेट की लंबी-लंबी कशे खींच रहा है। शायद वह भी इस क्षण की कैफियत को समझ रहा है। एकबार उसका जी चाहा था कि उसे इतनी सिगरेट पीने से मना कर दे, मगर फिर इस बात की अर्थहीनता का ख्याल आ गया था- अब क्या फर्क पडता है ! शायद अब जिंदगी की लगाम ढीली करके उसे सरपट दौड लेने की आजादी मिल जानी चाहिए। इस हालत का भी शायद अपना एक परवर्टेड किस्म का जायका है, सुख है... उसने अनुप की स्थिति में रहकर सोचने की कोशिश की थी।
अनुप ने सिगरेट का बट् जमीन पर फेंककर जूते से मसल दिया था। आग की नन्हीं चिंगारियाँ थोडी देरतक अंधेरे में सुलगकर बुझ गयी थी.। अनुप की आवाज में भी जैसे बुझी हुई चिंगारियाँ थीं- ‘तुमने एक छोटे-से सवाल का जवाब अबतक नहीं दिया इंदु, तुम खुश हो न? तुम्हारी जिंदगी कैसी चल रही है? ‘ ‘जिंदगी, जिंदगी तो अपनी मर्जी की मालिक होती है, हमें तो बस उसके साथ हो लेना होता है ! और खुशी का भी क्या कहें, क्या है इसकी परिभाषा... हंस लेती हूँ, गुनगुना लेती हूँ... ये सब तो कर ही लेती हूँ ! दरअसल जीना भी एक आदत ही होती है, हम जीते हैं और जीते चले जाते हैं, इसका कोई अच्छा-सा विकल्प भी तो नहीं हमारे पास... ‘ अपनी आवाज में एक खोयी हुई टिटहरी की-सी पुकार को वह चाहकर भी छिपा नहीं पायी थी।
‘और तुम्हारे पति...?‘
‘हाँ, मेरे पति... ये शब्द अपने अर्थ से मुझे थामे हुए है- वरना शायद अबतक खुद को शिनाख्त करना भी मेरे लिेए संभव नहीं रह जाता... अनका मेरे जीवन में होना ठीक सर पर आसमान के होने जैसा है- उसे हम छू नहीं सकते, मगर उसका हमारे ऊपर छाया होना भी बहुत होता है, उसके रहते हम कभी सही अर्थों में बेघर नहीं हो सकते। एक भावनात्मक सुरक्षा का भाव इंसान को निसंग होने नहीं देता। आकाश का होना असल में हमारे यकीन का बना हुआ होना है। अछोर आकाश हमें हमारा छोर दिखाता है- क्षितिज की रेखा बनकर...!‘ ‘चलो, मै निश्चिंत हुआ तुम्हारी तरफ से, वरना एक बोझ ये भी रह जाता...‘
‘कोई बोझ मत रखो मन पर, स्वयं को हल्का करो...‘
‘हाँ, ये अब बहुत जरूरी हो गया है...‘ अनुप की आवाज में पहली बार एक गहरी थकान बहुत स्पष्ट होकर उभरी है। पहाडी चडाइयों पर चलते हुए उसकी फुली हुई साँसें भी सुनाई पडने लगी हैं। अचानक न जाने एक कैसी अजीब-सी इच्छा से वह भर आयी है- इस शिफॉन-से तिरतिराते अंधकार को चीरकर अनुप तक पहुँच जाय और उस चेहरे को ढूँढ ले जो आज भी उसे यहाँ-वहाँ से बुलाता है, कहीं बसने नहीं देता है, घर भी बंजारों का डेरा बनाकर रख दिया है ! अनुप जैसे एकबार फिर उसकी अनकही सुन लेता है, आगे बढकर उसका एक हाथ अपने दोनों हाथों में ले लेता है- ‘मुझे एकबार देखना चाहोगी इंदु? बहुत बदल गया हूं...‘ अपनी आद्र हथेली में अनुप का स्पर्श अनुभव करते हुए वह जैसे एक पल के लिए अपनी भाषा खो बैठी थी। कुछ क्षण सिर्फ मौन के लिए होते हैं, स्पर्श के लिए होते हैं, वहाँ शब्दों का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। अपनी बोलती हुई हथेली को वह चुप नहीं करा पा रही है और शायद यही उसे अप्न्नस्तुत कर रहा है। मगर एक बात जो इस मौन से बहुत स्पष्ट होकर उभरी है वह यह कि वर्षों के अभाव ने उसे अंतिम बूँद तक निचोड लिया है। अपने अंदर अबतक पे्न्नम के होने का यकीन शायद एक मरीचिका के सिवाय कुछ भी न था। जहां कभी प्रेम था, वहां अब नये जीवन में बने नये रिश्ते का साहचर्य है, विश्वास है, जीते चले जाने की एक आदत है... और इनका होना भी किसी माने में कम नहीं है। वह अनुप को छूती है, मगर स्पर्श का सुख नहीं मिलता। संवेदनाएँ कभी ऐसी खत्म होती है कि सारी अनुभूतियों के पार चली जाती हैं। हाथ रह जाता है तो बस एक अबुझ-सा स्वाद जिन्हें हथेलियाँ नहीं पहचानतीं।
इस आत्मस्वीकृति ने उसे हल्का कर दिया था। वर्षों से वह दोहरे जीवन का बोझ झेलती चली आ रही थी। न अपने अतीत को मिटा पा रही थी, न अपने वर्तमान को जी पा रही थी। दो हिस्सों में बँटकर जीने की विडंबना ने उसे किस तरह भरे-पूरे घर में अकेली कर दिया था यह उसका ही मर्म जानता था। आज यकायक भांति के बादल छँट गये थे- अनुप उसका अतीत है और उसे अब अतीत के ही किसी सुरक्षित-से कोने में रहना पडेगा। वर्तमान में उसकी स्मृति है, वह नहीं ! अंदर नासूर बनती-सी घृणा भी उसके साथ ही समाप्त हो जायेगी, उसे इसका भी भरोसा हो चला है। घृणा की इस नीली नदी में वह एक उम से बहती-डूबती रही है। मगर अब वह किनारे पर है, दूसरी तरफ अनुप, उसका पेम, उसका विश्वासघात, और यातनाएँ हैं जिन्हें वह देख तो सकेगी, मगर वे उसे कभी छू नहीं सकेंगी ! यातनाओं की स्मृतियाँ वक्त के सूने गलियारे में अनजाने ही धूसर पड गयी हैं, टिसते घावों का मवाद बह गया है। अब कुछ बचा है तो बस एक लंबी यात्रा की क्लांति- और कुछ नहीं। यकायक उसने अपना हाथ छुडा लिया था।
अनुप ने कई बार लाइटर जलाने का प्नयास किया था, मगर न जाने क्यों लाइटर जल नहीं पाया था। उसने एक तसल्ली की साँस ली थी। ... अच्छा है, स्मृतियों के पन्ने में वही चेहरा संजोया रहे जिसे कभी बहुत चाहा था। इस यातना भरे वर्तमान को इसी अंधेरे का हिस्सा बनकर खो जाने दो। जिस अंधकार की कोई सूरत नहीं, उसी के अपरिचित साये में दफन हो जाय आँसुओं और तकलीफ की ये अनकही कहानी।
‘अच्छा...‘ वह धीरे-धीरे चल पडी थी- अपने पीछे- बहुत पीछे छुट जाते हुए अनुप को महसूस करते हुए। अनुप ने कुछ भी नहीं कहा था, शायद वह समझ रहा था- अब उनके बीच कहने-सुनने के लिए कुछ भी नहीं रह गया है। शायद दोनों ने ही एक-दूसरे का सामान एक-दूसरे को लौटा दिया है। अब उनके पास जो है उसे आजीवन रखा जा सकता है- बिना किसी ग्लानि या तकलीफ के।
सरसराते हुए अंधेरे का एक अडोल हिस्सा बनकर वह वहीं खडा रह गया था। उसे आज कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थी। सामने रास्ता है, मगर कहीं पहुँचने का विकल्प नहीं। वह समझ सकता है और तभी बेफिक है। मगर इंदु को जल्दी गेस्ट हाउस पहुँचना है। बहुत देर हो गयी है और ऋषि उसका इंतजार कर रहा होगा। पीछे रात की हल्की नीली उजास में पीपल की हथेलियां अब भी हिल रही थीं। हवा में उसी की सरसराहट थी। ... यह क्षण विछोह का भी था और मिलन का भी। वह कहीं से टूटकर अनायास ही कही और जुड गयी है- बहुत-बहुत मजबूती और यकीन के साथ !... इसमें प्यार नहीं, न सही, मगर प्यार से भी आगे की कोई बेशकीमती चीज है, इसीकी तलाश में तो एक उमर गुजर गयी थी। अब प्रेम के नामपर इस सोने के हिरण का पीछा और नहीं !