अनजान रिश्ते / राजेंद्र त्यागी

Gadya Kosh से
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असगर आज अपने गाँव चला गया। जाते-जाते खुद तो रोया ही हमारी आँखें भी नम कर गया। जाते-जाते ही क्यों, जाने के एक दिन पहले से ही वह इस तरह सुबक रहा था, मानों अपने अपने प्रियजनों से हमेशा-हमेशा के लिए बिछुड़ रहा हो। नहीं, साल-छह महीने बाद फिर उसे रोजी-रोटी की तलाश में अपना गाँव छोड़कर फिर उसे इस शहर की किसी झुग्गी को आबाद करना है! फिर भी हमसे बिछुड़ने के गम ने उसे रोने के लिए मजबूर कर दिया था। जब कभी असगर की मासूम सूरत मन में उतर आती है, मैं उसके साथ अपने रिश्तों के बारे में विश्लेषण करने लगता हूँ। सोचने लगता हूँ, अनजान रिश्तों के बारे में। और, कुछ अनजान रिश्ते भी होते हैं, इस मान्यता को स्वीकारने के लिए मजबूर हो जाता हूँ।

असगर गंभीर प्रकृति का इनसान था। उसे कभी हँसते हुए नहीं देखा, मगर कभी उदास भी नहीं। बस गुमसुम अपने काम में लगा रहता। हाँ, एकबार मेरे कुछ सवालों पर वह मुस्कराया अवश्य था और फिर मौन हो गया था। शाम का वक्त था। राज-मिस्त्री काम समेट कर अपने-अपने घर चले गए थे। आदत के अनुसार असगर अभी भी साफ-सफाई के काम में जुटा था। मैं तभी दफ्तर से लौटा था। हाथ-मुँह धो कर कपड़े बदले और प्रेमलता से चाय के लिए गुजारिश की। प्रेमलता ने मुझे चाय का कप पकड़ाते हुए रोजाना की तरह असगर को भी चाय के लिए आवाज दी। असगर भी मेरे पास ही फर्श पर बैठ कर चाय पीने लगा। चाय के साथ उसे एक कागज के टुकड़े पर रख कर दो लड्डू भी दिए गए। लड्डू कुछ दिन पहले ही हमारे गाँव से आए थे। खाते-खाते हम लोगों का मन भर गया था, अत: हम नहीं खा रहे थे। असगर को न दिए जाते तो शायद बाहर घूमते आवारा जानवरों को खिलाए जाते।

असगर बड़ी मासूमियत के साथ चाय के साथ लड्डू खा रहा था, तभी मेरे मन में एक शरारत सूझी। इसे शरारत ही कहूँगा, क्योंकि जिस तरह के सवाल मैंने उससे पूछने की चेष्टा की वे न तो उसके स्तर के थे और न ही उसके मतलब के। जिन लोगों से जिन सवालों का मतलब नहीं होता, उनसे बे-मतलब के सवाल पूछने के पीछे कभी हमारे जैसे इनसानों का अहम् और कभी दूसरों को छेड़ना, अर्थात परिचित्तानुरंजन करना उद्देश्य होता है। यह एक इनसानी फितरत है। असगर से सवाल पूछने के पीछे मेरा उद्देश्य भी चाय के साथ-साथ आफिस के बोझ से दिमाग को हल्का करना था, यानी के उसे छेड़ना। मैंने सोचा, उससे पूछा जाऐ, “असगर, क्या जिहाद का मतलब आतंक फैलाना है? कश्मीर भारत में रहना चाहिए या पाकिस्तान में? तुम्हें पाकिस्तान अच्छा लगता है या भारत? क्रिकेट में भारत की विजय पर खुश होते हो या पाकिस्तान की विजय पर?'

असगर मेरे सवालों को सुनकर मुस्करा दिया। जवाब देना शायद उसने व्यर्थ की कवायद समझा होगा, इसलिए वह मौन था। मैंने उसके चेहरे की ओर देखा और एकाएक मुझे अहसास हुआ कि वह नहीं, उसका मासूम चेहरा मेरे सवालों के जवाब दे रहा है, “बाबू जी का हमार सुझाव, बेवहार राऊर सवाल के उत्तर नाइरवे। ई इनसानी सवाल हा ऽ! कवनो इनसाने से पूछेब!

वह सुबह मुझे आज भी याद है। वही सुबह क्यों, उसके साथ गुजरी हर सुबह मेरे मन में पुरातत्व संग्रहालय में प्राचीन पांडुलिपियों की भांति सुरक्षित है। उस दिन की सुबह, मौसम कुछ मेहरबान सा था। कई दिनों के बाद सूरज ने कोहरे के बीच से मुँह चमका या था। कोहरे के झीने दुशाले के बीच से मंद-मंद मुस्कराता सा सूरज, ऐसा लग रहा था, मानों दुशाले की ओट से चोरी-चोरी प्रकृति के सौंदर्य को निहार रहा हो।

सुबह की गरम-गरम चाय की चुसकी लेकर मैं शरीर में ऊर्जा संचार करने की चेष्टा कर रहा था। तभी एक मासूम से चेहरे के साथ ठेकेदार कृष्णा सुबह के अखबार की तरह मेरे सामने था। हम कई दिन से उसका इंतजार कर रहे थे कि वह आए और कैसे ही मकान की ऊपर वाली मंजिल की चिनाई का काम शुरू हो। उसके साथ केवल एक अदद इनसान देख मेरे माथे में बल पड़ गए थे। गुस्सा जाहिर करते हुए मैंने उससे कहा था, “कई दिन इंतजार कराने के बाद आज आए और आज भी इस मरियल छोकरे के साथ! क्या इसी तरह ऊपर की मंजिल खड़ी करोगे?”

कृष्णा ने मुझे आश्वस्त किया और मासूम से उस छोकरे को छत की मुँडेर तोड़ने पर लगा दिया था। छोकरा मशीन की तरह अपने काम पर जुट गया और अकेला ही जुटा रहा। मरियल से उस छोकरे ने एक दिन में ही इतना काम कर दिया कि कृष्णा को अगले दिन राज-मिस्त्री लाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वही मरियल सा छोकरा ही असगर था।

गाँव जाने से पहले लगभग एक-डेढ़ मास तक असगर हमारे यहाँ बेलदारी करता रहा। इस दौरान तकरीबन आधा दर्जन राज-मिस्त्री और बेलदार आए-गए हुए होंगे, मगर वह हमेशा ही समय से पहले बिना नागा काम पर मुस्तैद रहा। धरती में गड़ा-गड़ा सा वह मासूम चेहरा सुबह-सबेरे सबसे पहले दरवाजा खुलवाता और बिना किसी से पूछे जो कुछ करने को दीखता उसमें जुट जाता।

खुद तो काम में जुटा ही रहता, अनधिकार चेष्टा करता हुआ राज-मिस्त्री और दूसरे बेलदारों को भी निर्देश देता रहता, “मिस्तरी जी मसाला मत खराब कर। ..अरे फैलाव मत!”

वह बेलदार था, मिस्त्री भला उसकी कहाँ सुनने वाले थे। असगर की नसीहत को अनसुना कर वे बेपरवाह दिहाढ़ी मजदूर की तरह 'माले मुफ्त बेरहम दिल' की तर्ज पर हाथ चलाता रहता।

किसी बेलदार को बीड़ी सुड़कते देखता, तो उस पर बरस जाता, “सुन! मालिक से मजूरी त पूरी लेबा। रेत के चार गो कट्टा चढ़वले बानी। मसाला खतम हो जाई त मिस्तरी बइठ जाइहें। चल तू मसाला पकड़वा!” वह बेलदार पर बरसता और उसके हाथ से कट्टा छीनकर खुद दूसरी मंजिल पर रेत ढोने लगता। दिन भर उसका यही क्रम रहता। कभी रेत ढोता, तो कभी मसाला पकड़ाता, मगर राज-मिस्त्रियों को बीड़ी सुड़कने का बहाना बनाने का मौका न देता।

दिन ढलते-ढलते राज-मिस्त्री औजार साफ कर अपने-अपने घरों की तरफ रुख करने की तैयारी करते और असगर की बक-बक शुरू हो जाती, “फोकट के माल बुझ राखि लिए है कि! बनल-बनावल मसाला छोड़ के चल जईब जा! सबेरे तक मालिकार के सिरमिट खराब हो जाई! मिस्तरी जी एक तसला मसाला बचला बा! आव एक हाथ लगा द!”

मैं जब-कभी राज-मिस्त्रियों को काम समझाता, वह काम में लगा-लगा ही वह सारी बात ध्यान से सुनता। मेरे कहने के बावजूद परिवार के सदस्य जिस काम से कन्नी काट जाते, दिहाड़ी का काम पूरा कर वह उस काम में जुट जाता। यह उसकी ईमानदारी ही थी कि दिहाड़ी के समय वह केवल ठेकेदार का काम करता और दिहाड़ी-वक्त से पहले और बाद सुबह-शाम बाकी काम निपटाता। इस तरह सबसे पहले आता और सबके बाद अपनी झुग्गी की तरफ लौटता।

गाँव जाने से एक दिन पहले भी सुबह-सबेरे काम पर आ गया था, मगर उदास-उदास सा। दफ्तर जाते-जाते मैंने प्रेमलता से कहा था- ऊपर जाकर देख आओ राज-मिस्त्रियों को किसी समान की जरूरत तो नहीं है? प्रेमलता ऊपर पहुँची, तो एक मिस्त्री ने बताया कि पता नहीं असगर आज क्यों उदास है? प्रेमलता ने उसका चेहरा देखा, असगर की आँखें भरी हुई थी। प्रेमलता ने सहज भाव से ही उससे पूछ ही लिया, “क्या बात है, उदास क्यों हैं, असगर?” जवाब में असगर के आँखों से आँसू झरने लगे। प्रेमलता ने सांत्वना देते हुए फिर कहा, “ ठेकेदार ने कुछ कह दिया, क्या?”

“ना-ना अम्मी जी!” इतना कहते ही असगर के झरते आँसुओं का बहाव तेज हो गया था। अप्रत्याशित इस व्यवहार से प्रेमलता हतप्रभ थी। सांत्वना देते हुए उसने फिर पूछा, “अरे बता तो सही क्या हुआ?”

सुबकते-सुबकते असगर बोला, “अम्मी जी काल्ह हम गाँव चले जाई।”

उसके रोने का कारण सुन प्रेमलता हतप्रभ थी। उसने असगर को दिलासा देने का प्रयास किया, “अरे! इसमें रोने की क्या बात है। माँ के पास जा रहा है, अच्छी बात है। खुशी-खुशी जाना चाहिए।”

प्रेमलता के मुँह से निकले सांत्वना के कृत्रिम बोल शायद असगर पर असर नहीं कर पाए और पलकों के बांध तोड़ उसके आँसू फिर बहने लगी।

“कोई बात नहीं, रो मत। अच्छा! गाँव से कब लौटेगा?” प्रेमलता ने बात बदलने की मंशा से पूछा।

“एक महीना बाद।” उसने जवाब दिया।

असगर का स्नेह देख प्रेमलता की आँखें भी भर आई थी। आँखें पोंछती-पोंछती तेज कदमों के साथ वह भूतल की तरफ चली आई। और, आँखों में स्नेह के बूंदे लिए असगर फिर अपने काम में जुट गया।

पल्लू से अपनी आँखें पोंछते-पोंछते प्रेमलता ने पूरा किस्सा परिवार के बाकी सदस्यों को सुनाया और फिर मिस्त्री-बेलदारों के लिए चाय ले जाने के लिए पुत्रवधू सुमन से कहा। जग में चाय भर कर सुमन ऊपर गई। उसे देख, असगर की आँखें फिर झरने लगी।

“भोजी! काल्ह हम अपने गाँव चले जाई।”

“इसमें रोने की क्या बात है? घर जाते समय रोया नहीं करते, भइया! ..गाँव से लौटकर फिर काम पर आजाना!” सुमन ने उसे दिलासा दी।

“नहीं, भौजी! हमने ठेकेदार से कहलें रहीं कि हमार आठ तारीख के टिकट बा। काम फुर्दी से करद। लेकिन वा देर कर देन। हम चाहत रहीं के काम पूरा करके ही गाँव जाई। पता नहीं दूसरा बेलदार कइसे आ गईल।”

रोने के कारण के पीछे नि:स्पृह मूल कारण सुन, सुमन की भी आँखें भर आर्ई थी। उस दिन असगर रह-रह का पूरे दिन आँसू बहाता रहा और हमारे परिवार का जो सभी सदस्य उसे मिलता उसे ही अबोध किसी बालक की तरह सुबक-सुबक कर बताता-

'बड़का भइया, काल्ह हम गाँव चले जाई।'

'छोटका भइया, काल्ह हम गाँव चले जाई।'

'छुटकी भोजी, काल्ह हम गाँव चले जाई।'

दोपहर का भोजन करने मैं घर आया। सीधा ऊपर गया जहाँ काम चल रहा था। रोज़ की तरह सभी का हालचाल पूछा। सभी ने कुछ न कुछ जवाब दिया। मगर असगर का उदास चेहरा देख कर कुछ असहज सा लगा। प्रेमलता से पूछा, “क्या बात है? आज असगर नाराज है क्या, ..क्यों?”

चुप रहने का रहस्यमयी इशारा करते हुए प्रेमलता ने होंठों पर उँगली रख ली। मैं उसके साथ नीचे उतर आया। नीचे आकर पूरा किस्सा सुनाया। मेरे मुँह से निकला, “पागल!”

भोजन करने के बाद जब मैं दफ्तर जाने के लिए कार में सवार हुआ, तो असगर खिड़की के पास खड़ा था और उसके मुँह से वही वाक्य फूट रहा था, “काल्ह हम गाँव चले जाई।”

मेरी निगाह असगर की तरफ उठी। उसकी आँखें बरसाती पतनारे की तरह बह रहीं थी। मैं उससे बात करने की हिम्मत न जुटा पाया। उसका सामना नहीं कर पाया। मैं कमजोर निकला और सांत्वना के बोल मुँह में दबाए-दबाए कार का एक्सिलेटर दबाया और भाग खड़ा हुआ। असगर का व्यवहार कभी-कभी मुझे सोचने के लिए मजबूर करता, आखिर हमारे साथ उसके लगाव का कारण क्या है? आजकल जाति, पंथ, गाँव-गवांड, क्षेत्र, आर्थिक, सामाजिक समानता के जिन पैमानों से संबंधों की पैमाइश की जाती है, उनमें से कोई भी कारण हमारे और उसके मध्य नहीं था।

कोई स्वार्थ का कारण हो सकता है, मगर उसने तो दिहाड़ी से अतिरिक्त काम करने के लिए कभी मजदूरी नहीं माँगी। हाँ, हाड़ ठिठुराती ठंड में अन्य राज-मिस्त्रियों के साथ दिन में एक दो बार उसे भी एक गिलास चाय का पानी जरूर मिल जाता था। हाँ, वह चाय नहीं, चाय का पानी ही होता था, क्योंकि चाय नाम के उस पनीले-पनीले द्रव्य का एक घूँट भी लेना मुझे गवारा न था।

चाय का पानी पिलाने में भी परिवार के अन्य सदस्य मुँह बनाते। मैं उन्हें समझाता, “क्या हुआ, बहुत ठंड है। पुण्य मिलेगा।”

चाय का वह पानी भी नि:स्वार्थ नहीं था। उसमें भी पुण्य कमाने के स्वार्थ की मिलावट रहती।

नाश्ते में एक दिन परांठे बने थे। चिकित्सीय प्रतिबंध के बावजूद मेरा मन पराठे उड़ाने के लिए कर रहा था। इसके साथ ही एक और पुण्य कमाने का ख्याल मन में आया। क्यों न काम पर लगे सभी लोगों को मूली का भरवा एक-एक पराठा खिलाया जाए! पत्नी के सामने इच्छा जाहिर की। पत्नी ने जवाब में अनिच्छा जाहिर की, “क्यों आदत खराब करते हो?”

ठिठुरती आवाज में मैं ने कहा था, “रोज-रोज थोड़े ही खिला रहे हैं, एक दिन में कहीं आदत खराब नहीं होती!” मेरा इतना कहना था कि पुत्रवधू सुमन ने व्यंग्य बाण चलाया, “मम्मी! खिला भी दो, नहीं तो पापा का दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा!”

मैं उसी ठिठुराते अंदाज में फिर बोला, “दिल टूटने का सवाल नहीं है, बेटे! कोई ज्यादा खर्च थोड़े ही हो जाएगा! जानवरों को भी तो खिला देते हैं। वे तो फिर भी इनसान हैं!” उस दिन असगर सहित उन सभी को पराठे खिला तो दिए थे। मगर 'जानवार और इनसान' के अपने तर्क पर मैं खुद ही शर्मिदा था, लेकिन तर्क मेरी मजबूरी थी। और, इसके साथ ही मेरे सामने एक प्रश्न खड़ा था- स्वार्थी कौन! हम या असगर!

शुक्रवार दो जनवरी की सुबह थी। हाड़काँप ठंड, इंसानियत की तरह गिरता तापमान चार डिग्री के आसपास पहुँच गया था। घमंड की तरह घने कोहरे की चादर चारों तरफ तनी थी। हाथ को हाथ नहीं दिखाई पड़ रहा था। किसी ने दरवाजा खटखटाया। मुँह से निकला, “इतनी ठंड में कौन आ गया, कमबख्त।”

ठंड के मारे कोई भी दरवाजा खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।लिहाजा सभी एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। प्रेमलता ने दरवाजा खोला। मैंने भी रजाई से मुँह बाहर निकाला। फटी सी चादर और एक कमीज पहने दरवाजे पर असगर खड़ा था। काम पर उस दिन केवल वही आया था, बाकी सभी छुट्टी मार गए थे। ठिठुराती ठंड में हमें उसके आने की भी उम्मीद नहीं थी।

बिना सहारे की लता की तरह काँपते असगर को देखा और निवेदन के लहजे में प्रेमलता से कहा, “ठंड बहुत है, बेचारा बीमार पड़ गया तो काम रुक जाएगा। उसे पुराना कोई स्वेटर, लोई दे दो ओढ़ लेगा!”

मुझे मालूम था, जवाब क्या आना है! प्रेमलता की तरफ से न सही, परिवार के किसी अन्य सदस्य की तरफ से तो अवश्य ही तेज आँच में जली रोटी सा जवाब आएगा।

प्रेमलता मेरा मुँह ताक रही थी, तभी छोटी पुत्रवधू प्रीति की आवाज आई, “मम्मी! पापा की रजाई भी दे दो, असगर को।”

प्रीति के उलाहना भरे जवाब से मैं शर्मसार था। झेंप मिटाने के लिए मैं बोला, “कौन पहनता है, उस स्वेटर को, घर में कौन ओढ़ता है, लोई? बेकार ही तो रखे हैं। किसी के काम आ जाएँगे तो इसमें हर्ज क्या है!”

असगर के आँसू देख मैं शर्मिदा था। मेरे मन में ग्लानि भाव उत्पन्न हो गया था। हमने उसे कुछ दिया भी, मगर अपना हित देख कर अथवा अनुपयोगी वस्तु होने के कारण! उस सौगात को उसके निश्छल स्वभाव व नि:स्वार्थ आँसुओं के साथ नहीं तौला जा सकता। ऐसा किया गया तो कबाड़ के साथ किसी की कोमल भावना तौलने के समान ही होगा!

ठंड में सिकुड़ते असगर को प्रेमलता ने सौ रुपए के जूते पहनाए थे। वह भी इसलिए कि केवल सौ रुपए के थे। उसके पीछे भी वही भाव प्रमुख था, “क्या हुआ सौ रुपए के ही तो हैं। सौ रुपए में हजार रुपए का पुण्य प्राप्त होगा! ..सौ रुपए तो अंकित ही खेल-खेल में खर्च कर डालता है।”

गाँव जाते वक्त प्रेमलता ने उसे कुछ और भी सौगात दी थी। वहाँ भी हम पर हमारा अहम भाव हावी था। सभी सामान जो हमारे लिए बेकार था, सौगात के रंग-बिरंगे पैकिंग में लपेट कर हम उसे सौंप रहे थे। मानो घर में मौजूद कबाड़ रंगीन कागज में लपेट कर किसी को ठगने का प्रयास कर रहे हों। हमारी नीयत कहीं भी तो उसके आँसुओं की तरह नि:स्वार्थ और निश्छल न थी।

सौगात के रंगीन कागज में लिपटा कबाड़ सौंपते हुए पत्नी ने उससे कहा, “असगर! जब गाँव से लौट कर आए तो हमसे मिलने जरूर आना।”

पत्‍‌नी के स्वार्थ पूर्ण दया-भाव के बदले कमबख्त जाते-जाते फिर एक निश्चल स्नेहिल सौगात दे गया। जाने से पहले उसने कहा था- हाँ, अम्मी जी! जब हम लौट कर आएँगे, तो हमारी 'वो' आपके घर काम करेगी। अम्मी जी उसे पैसे मत देना। अब हम आप से पैसे नहीं लिया करेंगे!

मैं यहाँ 'बदला' शब्द का गलत इस्तेमाल कर रहा हूँ। बेकार की वस्तु और स्वार्थ से पगे स्नेह के बदले में कोई भी इनसान ताउम्र मुफ्त में काम करने का इरादा क्यों जाहिर करेगा? वह भी तब, सभी प्रकार के दबाव से भी मुक्त, वह हमसे विदा होकर जा रहा हो।

वह जाते-जाते हमें हमारी औकात बता गया। वह खुलासा कर गया, तुम्हारा स्वार्थी स्नेह, तुम्हारी सौगात भी मेरे निश्चल स्नेह, मेरे नि:स्वार्थ आँसू का कारण नहीं है।

मैं महसूस कर रहा हूँ, जिसे हम संबंधों का कारण मान रहे थे, वह भी हमारा मात्र अहम ही है।

वह हमारे यहाँ बेलदारी करता था, मगर उसका बेलदार होना भी उसके साथ हमारा सीधा संबंध नहीं जोड़ता था। वह हमारा नहीं ठेकेदार का बेलदार था, दिहाड़ी उसे ठेकेदार ही देता था। न जाने कितने घरों की नींव रखी होगी उसने? क्या काम पर से विदा होते समय वह सभी के यहाँ इसी तरह आँसू बहाता होगा?

शायद नहीं!

फिर हमारे यहाँ क्यों?

अनसुलझे से इस सवाल का जवाब प्रेमलता ने दार्शनिक लहजे में देने का प्रयास किया था, “जरूर पिछले किसी जन्म में हमारा सगा-संबंधी रहा होगा!”

प्रेमलता का अपना दर्शन है, अपनी सोच है। परिचित-अपरिचित जब भी कोई हमारे परिवार के साथ आत्मीय-भाव प्रदर्शित करता है, वह उसके साथ ही पूर्वजन्म के काल्पनिक संबंध जोड़ने लगती है। यहाँ तक कि पालतू कुत्ता भी उसे पूर्वजन्म का ही कोई सगा-संबंधी लगता है।

उसके इस दार्शनिक सिद्धांत का खंडन करते हुए मैंने कहा, “क्या बात करती हो, इस जन्म के सगे-संबंधी तो मरने पर भी इस तरह आँसू नहीं बहाते। पूर्वजन्म के सगे-संबंधी भला क्यों आँसू बहाने लगे।”

“फिर, असगर?” प्रेमलता ने मेरे तर्क के संबंध में प्रश्न जड़ते हुए आगे कहा, “चलो, एक बात तो माननी पड़ेगी, चाहे जो भी हो असगर है, भला इनसान।”

“क्या बात करती हो इंसान और भला!” व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में बेवजह दखल देने वाले नाते-रिस्तेदारों की एक लंबी फेहरिस्त पत्‍‌नी के समक्ष खोल कर रख दी और पूछा, “ क्या वे सभी इनसान नहीं हैं?”

“नहीं, जानवर!” प्रेमलता के मुँह से निकला।

“ उन्हें जानवर मत कहो। ऐसा कहना तो बेचारे जानवरों का अपमान होगा।”

“फिर?”

“ इनसान के मायने बदल गए हैं। इन्सानियत की परिभाषा बदल गई है। अब निष्ठा-स्नेह, मेहनत-ईमानदारी जैसे इनसानी गुणों का स्थान प्रोफेशनल व प्रैक्टिकल जैसे व्यावसायिक सदगुणों ने ले लिया है। वे इनसानी गुण अब इनसान में नहीं जानवरों में पाए जाते हैं।”

“ इसका मतलब! असगर इनसान नहीं, जानवर है?”

“हाँ! वह इनसान के रूप में जानवर ही है, सच्चा जानवर।”

“यह तो एक भले आदमी का अपमान हुआ!”

“नहीं, यह अपमान नहीं उसका सम्मान है, हकीकत है! असगर यदि निपट इनसान होता तो प्रोफेशनल होता, प्रैक्टीकल अप्रोच वाला होता। वह फिर खुद न रोता, उसके प्रोफेशनल और प्रैक्टिकल कारनामे याद कर-कर हम आँसू बहाते। तब वह हमारे साथ अनजान रिश्ते न कायम करता!”