अनपढ़ / बसंत कुमार शतपथी / दिनेश कुमार माली
बसंत कुमार सत्पथी-(1914-1994)
जन्म-स्थान :- वंगीरिपोषी, मयूरभंज
प्रकाशित-गल्पग्रंथ-“आंटी रोमांटिक”,1970,”मांसांसी मानंक उदेश्य रे “,1980, “गोटे आलू “,1982, “गंगा ओ गांगी “,1981, “नीडाश्रयी”,1983, “अजागा घाआ “,1983,”मुखाग्नि”,2005
सुहागरात बीते आज चार दिन हो गए थे। रिश्तेदारों के अलावा लगभग सभी चले गए थे। माताजी- पिताजी की इच्छा थी कि बहू-बेटा बाहर आकर चाची, फूफी, मामा-मामी आदि के चरण-स्पर्श कर विदाई दे, मगर कमरे का दरवाजा नहीं खुला। पता नहीं क्या सोच रहे थे वे लोग...।
दिन हो या रात उसी कोठरी के अंदर चप्पलें पहनकर बाथरूम को जाते समय कई बार चप्पलों के घिसने की न होने पर भी पायल की छम-छम की आवाज दो मिनट सुनाई देने के बाद फिर से दरवाजा बंद हो जाता था। सुबह की चाय से लेकर शाम के दूध तक उसी कमरे में पहुँचते थे। नाश्ते और खाना ले जाकर ठक-ठक करने पर दरवाजा जरा-सा खुलता था। दरवाजे की फांक में से कैदी की तरह दोनों में से कोई हाथ डालकर सब सामान ले लेते थे। उस समय अगरबत्ती की जोरदार महक आती थी और रेडियो अथवा टेपरिकार्डर से मधुर फिल्मी संगीत सुनाई पडता था। फिर से दरवाजा बंद, फिर से एकदम सन्नाटा। मगर स्काईलाइट या दरवाजे के फाटक की सूक्ष्म फांक से कुछ कुछ शब्द हर वक्त सुनाई पडते थे। वास्तव में नहीं सुनाई पड़ने पर भी सुनने जैसे लगते थे।
लोग या मां-बाप जो भी सोचे, मगर अंदर में जीवन-मरण की समस्या का एक समाधान चल रहा है, यह बात बहू-बेटे को अच्छी तरह मालूम है। लोकाचार या लोकापवाद से दूर थे वे दोनो। जीवन सिर्फ साठ- सत्तर वर्ष का नहीं है। कई संघर्षमय और कई सुखमय दिनों पर ही एक खाते-पीते परिवार यानि सारे जीवन का सुख निर्भर करता है।
उसके अलावा यह प्रेम विवाह नहीं था। प्रशांत की इच्छा थी कि महिला छात्रावास से उन दो-तीन के भीतर से एक को चयन करेगा। पठने, प्रेम और पैसा पाने के लिए सभी वहाँ जाना चाहते है। कौन पहले जाकर लौटता है,यह दूसरी बात है।
बहुत हिम्मत करके प्रशांत ने पिता के पास मां के सामने एक प्रस्ताव रखा था। मगर पिताजी विजातीय- विवाह, हम-उम्र विवाह, यहां तक कि पढी- लिखी लडकी को अपनी बहू बनाने के घोर विरोधी होने के कारण बेटे की इच्छा पूर्ति नहीं हो पाई। पंद्रह साल की सुंदर स्वस्थ गांव की लडकी खोजकर उन्होने बेटे को पूछा था, “लडकी देखोगे? ” पितृभक्ति की पराकाष्ठा दिखाते हुए या फिर दुखी मन से प्रशांत ने जोर से नहीं कहते हुए कहा था, “मां- बाप जिसे पसंद करेंगे उसी के साथ मेरी शादी होगी।“ वही बात हुई। उस समय केवल एडजस्टमेंट की जरूरत थी। शारीरिक सुंदरता से तो संतुष्ट था प्रशांत मगर आत्मिक सौंदर्य के बारे में कैसे कहा जा सकता? छात्रावास में शारीरिक या रूपरंग से सुंदर नहीं होने पर भी आत्मिक या बौद्धिक सौंदर्य बहुत ज्यादा होता है। प्रशांत के जीवन की यह ट्रेजडी थी कि उसकी शादी एक अशिक्षिता के साथ हुई थी और उसके जीवन का आदर्श छिन्न-भिन्न हो गया था। इसलिए वह पूरी तरह कोशिश कर रहा था कि किस तरह वह दोनो त्रिभुज को समान कर सके।
प्रथम मिलन के समय से ही अनबन शुरु। प्रशांत जानता था कि लडकी अनुभूतिहीन है, ज्ञान की कमी है और वह किसी भी काम में आगे नहीं आ सकती है। गुफा के अंदर से उसको खींचकर लाने में अनेक बातें, उपदेश देने पड रहे है। सभी छात्रावास की उन लडकियों को ध्यान में रखकर कि कौन किस होटल में जाती है, कौन किसकी गाडी में जाती है और किसने माता-पिता का विरोध कर शादी कर लीं, इस प्रकार की कई कहानियां। अपनी बातें नायक की बातों में परिणत होकर नायक की असफलता और प्रेम-विपर्यय प्रदर्शित करती थी। यह जानकर नववधू बहुत खुश हो जाती है कि उसके स्वामी का किसी और से कोई संबंध नहीं है। प्रशांत की बातें खत्म होने लगी। चार दिन पहले जो लडकी मुंह तो क्या अपने हाथ पैर की अंगुलियां छिपाती थी, ‘हाँ’ ‘ना’..... वह आज कितनी दूर आगे आ गई, प्रशांत ने कल्पना भी नहीं की थी। खूब प्रगल्भता के साथ उसकी हर बात का जबाब देती, यहां तक कि आदेश देने की अवस्था में भी आ गई।
“ अब तुम मेरे जीवन की अनुभूतियाँ और ज्ञान के बारे में मुझसे सुनो। ”
“ तुम्हारी अनुभूतियाँ और ज्ञान तो बाजार में बिकता है। कितनी पढ़ी-लिखी हो? तुम्हारा दिमाग तो है नहीं।पढ़ी-लिखी होती तो कुछ जानती भी मैने सुना था तुम पढ़ रही थी। बीच में से पढाई क्यों छोड़ दी? छोड़ो, सब कुछ ठीक है, मगर पढाई ना करना ...छोड़ो, इसे कहते है अधछल गगरी छलकत जाए।”.
“नहीं कह रही हूँ, मगर तुम बाध्य कर रहे हो, कहूंगी मगर एक शर्त पर। तुम हर समय बहुत छटपटा रहे हो। कसम खाओ, पंद्रह मिनट तक मुझे डिस्टर्ब नहीं करोगे। पंद्रह मिनट तक कोई प्रश्न नहीं पूछोगे। कसम तोडने पर तुम्हें पाप लगेगा, मेरी कहानी भी आधी रह जाएगी। ”
“ चलो कसम खाली, अब कहो, दाल-रोटी कमाकर दोगी? ”
“नहीं, रूको रहने दो। बात शुरु कर रही हूं, शांति से सुनो। हर दिन तुरूडा चौक से बैठती वह लडकी...”
“बडी लड़की या छोटी? ”
अगर नियम टूट गया तो बातचीत बंद। बडी लड़कियां सभी एक-एक कर तुम्हारे महिला छात्रावास से बस में बैठती थीं। मैं केवल छोटी लडकी की कहानी सुना रही हूं। जीवन भर बहुत सारी प्रेम की कहानियां सुन ली है। प्रेम न होने वाली एक कहानी सुनो।”
“जिसकी कहानी कह रही हो वह तुम तो नहीं हो? ”
“आखिर बार कह रही हूं चुप रहो अन्यथा कहानी सुनना छोड दो।”
“पंद्रह मिनिट इतना समय।”
“कितने स्वार्थी हो ! अपने लिए घंटे-घंटे बात कर सकते हो। मेरे लिए पंद्रह मिनट के लिए धैर्य नहीं। सुनिए,फिर से दुहरा रही हूं।”
रोजाना तुरूडा चौक से बैठती वह लडकी। रविवार और स्कूल के छुट्टी के दिनों को छोडकर। साढ़े आठ की बस में। धूप, बारिश-सर्दी कुछ भी हो, ठीक समय पर जरुर जगह पर जाकर वह खड़ी हो जाती। सुनसान जगह। बड़े-बड़े घने बरगद के पेड़ों के साथ दूसरे पेड़ मिलकर वहां एक छोटा जंगल हो गया था। माताजी के पेड़ के नीचे देवस्थान पर अनपूजे मिट्टी के हाथी-घोड़ों पर दीमक चढ़ गई थी। उस जगह भय लगता था।
चौक पहुंचने से एक किलोमीटर पहले गाडी की गति मंद पड जाती थी। पुलिया के ऊपर से राक्षस की तरह बस जब भी आती तब वह लडकी अपना सामान लेकर तैयार हो जाती थी.। जब गाडी पूरी तरह से रुक जाती थी। हेल्पर बस का दरवाजा खोलकर श्रद्धापूर्वक बुलाता, “आओ, बेटी आओ।” लडकी के चढते ही ड्राइवर बोलने लगता है, हमारी बेटी आ गई, हमारी बेटी हर दिन सही समय पर आकर खडी हो जाती है। वह लडकी जल्दी से कूदकर चढ़ जाती थी।
बस के यात्री लोग नए छोटे यात्री की ओर देखने लगते। ऊपर में सफेद कुर्ता जिसमें से थोडा-सी नीली पेंट दिखती थी। शहरों में माताएं मिशन स्कूल जाने वाली लडकियों को जिस तरह सजाती हैं, उन्ही की नकल करते हुए शहर के पास वाली गांव की माताएं भी अपनी बेटियों को वैसे ही तैयार करती। लेकिन गांव की छाप पुरी तरह से मिटा नहीं पाती। लड़की के दोनों गाल हलके-हलके लाल। कंघी कर चोटी में पंचमुखी मंदार की तरह लगी हुई लाल चोटी पर लाल रंग का रिबन फूल की तरह सुंदर दिखती। नजर न लगे इसलिए काला टीका भी लगाया जाता।
सुबह-सुबह नहा धोकर नाश्ता-वाश्ता करके आने पर वह लड़की सुंदर दिखती। बड़ा काम करने का मन में गर्व। नाक पर पसीने की बूंदे। सीट मिलते ही अपनी कापी, किताबें, ज्योमैट्री बॉक्स आदि के भार को आराम से संभाल लेती। वास्तव में उसको देखकर बस्ते का वजन कुछ ज्यादा लगता। ग्याहरवीं कक्षा में पढने वाली बड़ी लडकी की तरह छाती में बस्ता लटकाकर ले जाने में या तो संकुचित हो जाती या शर्म अनुभव करती। उसे इस तरह ले जाना पड़ता है। बैठने के बाद वह लडकी हिरणी के बच्चे की तरह आराम की सांस छोडती। बीच- बीच में मुहावरे भाषा का इस्तेमाल नहीं करने से तुम्हें कहानी अच्छी नहीं लगेगी। जैसे मां पास में नहीं होने पर हिरणी के बच्चे की तरह बेचैन होकर बस के भीतर आगे-पीछे यात्रियों की तरफ देखने लगती। मां-बाप जिस गांव में है, उस तरफ देखते-देखते पेड-पौधे के आड़ में गांव पार हो जाता था। वास्तव में लडकी असहाय अनुभव करने लगती, यदि ड्राइवर, कंडक्टर, हेल्पर से लेकर सभी जवान बुजुर्ग उसे आदर के साथ न बुलाते।
चेकिंग होने का जब डर होता, केवल उसी दिन लडकी को टिकट का टुकडा बढा देता कंडक्टर (शायद कंडक्टर अपने हाथ से पैसा देता)। हेल्पर पूछता,
“बेटी,आज क्या खाकर आई हो? ”
“पखाल”
“और सब्जी? ”
“आलू.... चिंगुडी..।”
जिस दिन भीड़ ज्यादा होती, थोड़ी-सी भी जगह नहीं मिलती उस दिन वह लड़की कंडक्टर के पास बैठती। पैसा गिनते या टिकट काटते कंडक्टर पूछता-
“बेटी, कल कौन-सी बस में लौटी? हमें आने में काफी देर हो गई।”
“उस खटारा भाड़ा-गाड़ी में।”
“कितने पैसे लिए? ”
“पचीस पैसे। ”
कभी-कभी मौका मिलने पर ड्राइवर भी पीछे की तरफ देखकर कहने लगता, “अभी याद दिलाना बेटी के लिए कॉलेज चौक से हैदराबादी अंगूर लाना है।”
भले ही, लडकी को गुस्सा नहीं आता, मगर ज्यादा बातचीत करने की इच्छा नहीं होती थी। कई दिनों से आदमियों के साथ यात्रा करने से उसका डर खत्म हो चुका था। प्रश्नों के उत्तर तपाक से देने लगी। प्रश्नों का जबाव देने से लोग प्यार की दृष्टि से देखते और उत्तर नहीं देने पर मुंह फेरने लगते। उसकी अंतरात्मा की छोटी-सी दुनिया में बड़े-बड़े लोग न घुसे, वह चाहती थी। एक दिन जब वह अपने स्कूल और पढाई अथवा माता-पिता के बारे में सोच रही थी, अचानक एक बुजुर्ग ने उसे धमकाते हुए लहजे में पूछा- “ए लड़की, तुम्हारा नाम क्या है? ” अगर एक बार उसने उत्तर दे दिया तो फिर प्रश्नों की झड़ी लग जाती थी।
वह लोगों के मुंह को कम देखती थी। मगर लोग उसके भोले-मुंह की तरफ देखते, उसके बात करने की शैली पर ध्यान देते, उसकी बातों का मजा लेते।
मोटर स्टॉफ के साथ घरेलू आदमी की तरह बात करते देख यात्री लोग भी तरह-तरह की बातें पूछते। वही “तुम्हारा नाम क्या है? ” से आरंभ।
“पिताजी क्या करते हैं? ”
“कुछ नहीं करते घर पर बैठे है, खेती करते हैं।”
“जमीन जायदाद कितनी है? ”
इतने बड़े-बड़े प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकती। बोलती थी, मुझे नहीं पता। पास के यात्री उत्साह से फिर प्रश्न पूछने लगते -
“तुम कितने भाई-बहिन हो? ”
“दो भाई, बहिन मैं अकेली। ”
“भाई बड़े हैं? ”
“नहीं, मैं बड़ी हूँ।”
पीछे वाली सीट पर बैठा हुआ बदमाश यात्री आम बात नहीं करके दूसरी बातें कहने लगता।
“तुम क्या हर दिन हमारी बस में जाती हो? ”
“हां।”
गांव के पास क्या स्कूल नहीं है?
“हमने इंस्पेक्टर को कहकर उस इलाके में स्कूल तो खुलवा दिया है। जब तक घर- घर में स्कूल नहीं खुलेगा तो हम छोडेंगे नहीं। हमारी पार्टी ने निर्णय किया है।”
“गांव में शाला है। पास गांव में माइनर स्कूल।”
“हमारी बात तब ठीक है न ! वहां नहीं पढ़ती हो। हमारी बस में आ जाकर पढाई कर रही हो? ”
“बीच में नदी है। माँ-बाप छोड़ेंगे नहीं। मुझे मगरमच्छ से बहुत डर लगता है।”
फिर कोई और पूछता,
“किस स्कूल में पढ़ती हो? ”
“आगे में है।”
“भाड़ा कितना लगता है? ”
“जाने के सत्ताइस आने के सत्ताइस।”
“बाप रे ! इतने पैसे खर्च करके पढ़ रही हो छोटी-सी लड़की। मां-बाप की किस्मत फूटी। पढ़ाई नहीं करने से जैसे लड़की घर-संभालने के योग्य नहीं बन पाएगी।”
वे आश्चर्यचकित होते। सभी की नजरें उस लड़की पर। सभी उसको प्यार करते। कोई खुश होता, किसी को आश्चर्य होता तो कोई उसके साहस की तारीफ करता तो कोई उसकी पढाई के प्रति लगन को पसंद करता, मगर कभी-कभी बीच में चौदह साल का हाई स्कूल बच्चा अगर बस में चढ़ता तो उसके साथ में वह आत्मीयता नहीं कर पाती। थोड़ा रास्ता। दस मिनट में पूरा हो जाता है। बस रूक जाती थी। जिस प्रकार से कापी-किताबें लेकर वह लडकी चढ़ती थी, वैसे ही वह नीचे जाती है। उसके उतरने के बाद फिर से जांच-मुकदमे, चुनाव, मंत्रीमंडल, खेतीबाडी, मौसम की जानकारी की बातों से बस कोलाहलमय हो जाती।
(सुनो, ऐसा लग रहा है तुम्हें नींद आ रही है, मेरी बात अच्छी नहीं लग रही है ! दस मिनट हो गए क्या घड़ी देख रहे हो? मुझे कहानी कहने को कह मगर सुन नहीं रहे हो, यह अच्छी बात नहीं है। इसके अलावा बीच-बीच में गुदगुदी करके मेरे मन को इधर-उधर भटकाते हो। कसम है, और थोडा धीरज से सुनो।)
साढ़े चार बजे बस लौटती थी। फिर से उसी कहानी और घटना की पुनरावृति। लड़की उसी प्रकार कापी किताबों को बगल में डालकर खडी हो जाती है। वही अपनी बेटी खडी है। वहां से फिर आरंभ। उसके बस में चढ़ते ही तेल-नमक, दुनियादारी की बातें बस वाले भूल जाते थे। यात्री लोग भी मान- अपमान, जंजाल की बातें भूल जाते थे। कोई अपने घर पानी को छोडकर आया है, कोई अपने भतीजे, कोई जैसे अपने को बचपन के दिनों में खोया हो। उस लडकी के अंदर सभी अपनी- अपनी बेटियों को देखते।
लडकी के बैठते ही प्रश्न शुरु हो जाते थे, कहां है तुम्हारा स्कूल? टिन के छप्पर वाले लंबे घर की तरफ इशारा करते हुए लडकी कहती- ‘वह घर’
“खाली लड़कियां पढ़ती है या लडके-लडकियां दोनो? ”
“कितने बच्चें पढ़ते हैं? ” और दूसरा आदमी पूछता।
“सब मिलाकर 112 लडके-लडकियां। ”
“तुम्हारी तरह सभी छोटे-छोटे? ”
“मेरे से बड़े-बड़े हैं।”
“तुम कौन सी कक्षा में पढती हो? ”
ड्राइवर प्रश्न को सुनने के बाद कहने लगा, “हमारी बेटी को छोटा समझते हो क्या। सात या आठ कक्षा पढ़ चुकी है। अच्छा पढ़ती है। क्लास में प्रथम आती है।
“तुम्हारे स्कूल में प्रधानाध्यापक है या प्रधानाध्यापिका? ” एक बुजुर्ग ने पूछा।
“प्रधानाध्यापक है और मैडम भी हैं।”
“इन कान की बालियों की क्या कीमत है? ”
एक और ने चुपके से पूछा। औरतों के प्रश्न का उत्तर देने में लड़की को कष्ट होता था।
तुरुडा चौक पहुंचने में एक किलोमीटर का रास्ता बचा था कि लडकी उठकर खडी हो जाती थी। ड्राइवर कहने लगा, “इतनी जल्दी क्या है बेटी, चौक आने दो, बस रूकेगी, हम क्या तुझे लेकर चले जाएंगे? ” सर्दी के दिनों में बर्फीली हवा बहने से कोई यात्री उसे चद्दर ओढ़ा देता था। बारिश होने पर कंडक्टर अपनी तरफ से छाता मंगा देता था।
एक दिन लड़की के उतरते समय जल्दबाजी में ज्योमैट्री बॉक्स खिसककर गिर पड़ा। साथ ही साथ इंजिन बंद। रोशनी हो गई। कंडक्टर हेल्पर यात्रियों में एक- दो ने खोजकर रबर, त्रिभुज, चाक, छुट्टे पैसे, पेंसिल, सेफ्टीपिन और कई चीजें खोजकर बॉक्स में डाल दिए। गाड़ी पांच मिनट खडी रही। किसी को भी कोई आपत्ति नहीं थी।
और एक दिन की कहानी। तुरुडा चौक में बस पहुंचते समय शाम ढल चुकी थी। घना बरगद का पेड राक्षसी के पांव की तरह दिख रहा था। अंधेरा धीरे धीरे पंख फैलाए हुए बाज की तरह नीचे उतर रहा था। पतंगे बारिश होने का संकेत दे रहे थे। लडकी के उतरने के बाद उसे कोई लेने नहीं आया, शायद मां की तबीयत ज्यादा खराब थी। लड़की की असहाय अवस्था ड्राइवर को बताते हुए अभीन कहने लगा, “बेटी को कोई लेने नहीं आया।”
इंजिन बंद, कंडक्टर कहने लगा, “अभीन, जाओ, छोड़कर आओ।” अभीन उतर गया। लडकी का गांव दो सौ गज की दूरी पर। आज गाड़ी को देर लगने से यात्रियों और कंडक्टर में बहसा - बहसी शुरु हो गई, क्योंकि किसी यात्री के पिताजी के लिए बस पांच मिनिट भी नहीं रुकी थी। इसी विषय पर रास्ते में यात्री लोग चर्चा कर रहे थे। लगभग पंद्रह- बीस मिनट बस खडी रह गई, किसी भी यात्री ने ऊं तक नहीं किया इतना प्रेम था उस लड़की पर।
रविवार के दिन लडकी नहीं आती थी। सभी यात्री उसको याद करते हैं। “आज बेटी नहीं आएगी।” किसी के मुंह से अचानक यह बात निकल गई।
इतने प्रेम से साल-डेढ साल गुजारा। यात्री, बस-स्टाफ सभी उसे प्रेम तो करने लगे, उसके प्रमाण-स्वरूप टॉफियां, चॉकलेट, अंगूर, केला आदि नहीं चाहने पर भी चीजें देने लगे। प्रेम से देने वालों की चीजें वह मना नहीं कर पा रही थी।
किंतु आश्चर्य की बात थी इतना प्रेम पाकर भी वह धीरे-धीरे म्रियमाण हो गई। सभी का ध्यान लडकी के चेहरे की तरफ गया। वह पहले से और ज्यादा दुबली हो गई थी। आंखों और चेहरे पर दुखों की छाया। गाडी पर चढती है, बैठती है, उतरती है, कहीं भी जैसे कोई उत्साह नहीं। मानो वह कोई प्राणी नहीं होकर एक मशीन बन गई हो। वर्ष-डेढ़ वर्ष पहले जो प्रश्न पूछे जाते थे आज भी वही पुराने प्रश्न ! उत्तर देने में उसकी कोई इच्छा नहीं। विरक्ति-भरा खट्टा-मीठा मिजाज। जिन लोगों को देखने से उसे अच्छा लगता था, वही लोग आज उसे खा जाएंगे, ऐसी उसकी धारणा बन गई।
“बेटी, तुम्हें क्या हुआ है? एकदम चुपचाप रहती हो? माँ की तबीयत ठीक हो गई? ”
“हां।”
“चेहरा सूख गया है, छोटा हो गया है, आसूं भी सूख गए जैसे लग रहे है। आंखों के नीचे काले- काले धब्बे। मास्टर लोग क्या गाली देते हैं। परीक्षा में पेपर खराब हुए हैं? ”
“नहीं” वही एक शब्द का उत्तर।
सभी ने महसूस किया कि बूढी को कोई न कोई बहुत बडी तकलीफ है, नहीं तो इतना प्रेम-प्यार पाकर खुश होने की जगह दुखी क्यों है।
उन्हें क्या पता बच्ची स्कूल में कैसे रहती है, क्या करती है। लड़की को बस में जितना प्यार मिलता था, उससे भी बहुत ज्यादा उसको स्कूल में मिलता था। प्यार देने के लिए मास्टर- मास्टर के अंदर स्पर्धा थी। वह अच्छा पढ़ती थी। गणित, अंग्रेजी, साहित्य के अध्यापक सभी उसकी मदद करने के लिए तैयार रहते थे। उसका संदेह दूर करने के लिए आग्रह करते थे। लड़की के गाल, चेहरा, चोटी, आंखें बहुत सुंदर थी। सब तरह-तरह से उसका आदर सत्कार करते थे। दूसरी लडकियां उससे ईर्ष्या करती थी। वह क्या प्रेम मांगती हुई घूमती? उसको तो सभी बिना बोले देते थे। परीक्षा में हमेशा वह प्रथम रही। साथियों ने कहा, सर मैडम लोग सब पक्षपात करते हैं। उसको सब बता दिया होगा। नहीं तो... वह खुद कहां मेहनत करती है। प्यार की वजह से वह फर्स्ट आई है।
लड़की और बस से आना- जाना नहीं करती हैं। जो लड़की आखिरकर कितनी दूरी तक लोगों को आनंद देती थी, उसकी छोटी याददाश्त कमजोर होते- होते खत्म हो गई। लड़की ने पढाई छोड दी।
एक दिन हेडमास्टर ने उसके बाप को बुलाकर कहा कि बेटी आजकल और नहीं आ रही है, क्या हुआ? अच्छा पढ़ती थी, सभी उसे आदर और प्यार करते थे। उसको पढाओ एक डेढ़ साल में मैट्रिक फर्स्ट डिवीजन में पास कर लेगी।
पिता कहने लगे, “ मैने लडकी को बहुत समझाया, उसने एक ही जिद्द लगा रखी है और नहीं पढेगी। ज्यादा समझाने पर जोर-जोर से रोने लगी। इसके अलावा इसकी तबीयत और मन भी ठीक नहीं रह रहें है। मैने सोचा नहीं पढ़ने से भी चलेगा ! पढाई करने से कोई स्वर्ग मिलता है? कोई अच्छा वर देखकर उसकी शादी कर देंगे, जितना पढ़ी उतने में अपना घर संभाल लेगी।”
लडकी ‘अनपढ’ रह गई, आठ दिन हुए उसे शादी हुए।
प्रशांत बाबू चुप्पी तोड़ते हुए कहने लगे - “मैं तुम्हारी पंद्रह मिनट की कहानी कब से समझ गया था कि बेटी कौन है? यह तो तुम अपनी आत्मकथा कह रही थी इसलिए मैं चुपचाप सुन रहा था, नहीं तो कौन आदमी इतना वक्त बरबाद करेगा।”
“यह कहानी क्यों सुनाई, जानते हो? ”
“मैने कहा था न तुम्हें अगर तुम पढ़ी-लिखी होती तो मैं तुमको और अधिक प्यार करता।”
“फिर किस प्यार की बात करते हो। इस प्यार की खातिर ही तो मैने अपनी पढ़ाई अधूरी छोडी। तुम्हारा पैर कहने से हाथ, होंठ कहने से मुँह, हमेशा तुम्हें खलबली मची रहती है मुझे बहुत डर लग रहा है, ये जो नया पाठ पढ़ा रहे हो वह भी कहीं आधा न रह जाए।
“तुम्हारे भीतर मैं एक गुरु को देख रहा हूँ ” यह कहकर प्रशांत कहने लगा, “अभी ट्यूब लाईट बंद करके बेड-लैंप जलाओ।”