अनबीता व्यतीत / कमलेश्वर / पृष्ठ 1

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दूर-दूर तक फैली अरावली पर्वतमाला की गोद में एक ऊँची समतल-सपाट पहाड़ी पर बने सुमेरगढ़ की दुर्गनुमा कोठी पर रात तेजी से उतरती चली आ रही थी।

सुमेरगढ़ की इस प्राचीन दुर्गनुमा कोठी में लाल-पत्थरों तथा संगमरमर से बने महलों और विशाल सूने प्रकोष्ठों और गलियारों में अंधेरा भरता जा रहा था।


सुमेरगढ़ के विशाल दुर्ग में गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। सुमेरगढ़ राज्य भारत देश में विलीन हो चुका था। इसलिए अब दुर्ग की वह आन-बान, शान और चहल-पहल नहीं रही थी। भारत में विलय हो जाने के बाद ही दुर्ग के सैनिकों और पहरेदारों को ही नहीं, दर्जनों दास-दासियों को भी छुट्टी दे दी गई थी। नाम मात्र की जागीरों से गुजारा होता न देख राज-परिवार के लोग सुमेरगढ़ छोड़कर अन्य नगरों में चले गये थे और उनके तलवार उठाने वाले हाथों ने तरह-तरह के व्यवसाय करने आरम्भ कर दिए थे। तलवार छोड़कर तराजू उठा लेने वाली कहावत यथार्थ में परिवर्तित हो गई थे।

नानी माँ महारानी राजलक्ष्मी अपने महल की सबसे ऊपरी छत पर इस छोर से उस छोर तक बड़ी बेचैनी से चक्कर लगा रही थीं। उनके सुन्दर और तेजस्वी चेहरे पर पीड़ा की गहरी रेखाएँ स्पष्ट उभरी दिखाई दे रही थीं। बड़ी-बड़ी आँखों में भय तथा विषाद की छाया झाँक रही थी। आज उनका मन बहुत ही अशान्त था। रह-रहकर वह इस तरह चौंक पड़ती थीं जैसे कोई देखा हुआ भयानक दृश्य उनकी आँखों के आगे एक बार फिर साकार हो उठा हो।


सचमुच बहुत भयानक दृश्य था वह। विशाल दीवान खाने के संगमरमर के सफेद फर्श पर दूर-दूर तक खून फैला हुआ था। महल के जोहड़ में कई आकार-प्रकार के छोटे-बड़े पक्षियों के मृत शरीर पड़े थे। एक कोने में एक बड़ी-सी मादा हिरणी की रक्त रंजित लाश पड़ी थी। उसका मुँह दीवान खाने की छत की ओर उठा हुआ था। उसकी बेजान आँखें शून्य से टिकी हुई थीं। उन आँखों की पथरीली पुतलियों पर उदास इंतजार झलक रहा था। एक अजीब-सा दर्द चमक रहा था उन बेनूर आँखों में। नानी माँ महारानी राजलक्ष्मी देर तक हिरणी की उन पथराई आँखों को नहीं दे सकीं, क्योंकि उनकी आँखों से उमड़ते आँसुओं की चादर ने पुतलियों को ढँक दिया था। वह जैसे देखने की शक्ति खो बैठी थीं। उनका सिर बुरी तरह चकराने लगा था।

अपने चकराते सिर को थाम कर वह कुछ देर दीवान खाने की एक दीवार के साथ पड़ी संगमरमर की उस चौकी पर बैठ गईं, जिस पर मखमल का गद्दा बिछा था। ‘‘हे भगवान ! जब तूने इन जीव-जन्तुओं को जीवन दिया था तो इन्हें इतनी शक्ति भी देता कि ये बेचारे अपने जीवन की रक्षा कर पाते।...तेरी दी धरोहर को उन निर्दयी हाथों से बचा पाते जो तूने इन्हें दी थी। विचित्र है तेरी माया,...जीवन-मृत्यु का यह दुःखदायी संयोग...काश इन्सान इसे समझ पाता...।’’

दर्द की तेज लहरों से बेचैन होकर उन्होंने आँखें मूँद लीं। खून में डूबी पशु-पक्षियों की लाशें देख पाने का साहस उनमें नहीं रह गया था। अपने पिता के राजमहल में

ऐसे वीभत्स दृश्य उनकी आँखों के आगे से कभी नहीं गुजरे थे।

एक लम्बी सांस छोड़ती हुई वह उठीं और अपने शयनकक्ष की ओर चल पड़ीं।


अमावस की अँधियारी और काजल-सी काली रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। अरावली पर्वत पर श्रेणियों की ऊँची समतल पहाड़ियों पर बने सदियों पुराने सुमेरगढ़ दुर्ग के सिंहद्वार पर लटका विशाल घड़ियाल काफी देर पहले रात के बारह बजने की सूचना दे चुका था। सुमेरगढ़ दुर्ग जितना प्राचीन और विशाल था, सिंहद्वार पर लटका घड़ियाल भी उतना ही प्राचीन और विशाल था। उसकी आवाज कई मिनट बीत जाने के बाद भी अभी तक दुर्ग की प्राचीरों को लाँघ कर अरावली पर्वत के चारों ओर खड़ी पहाड़ियों से टकरा कर गूंज रही थी। सुमेरगढ़ दुर्ग में बने हुए बेशुमार राजमहलों की इमारतों की छतों और दीवारों से टकरा कर आती हुई अनुगूंज अभी तक महारानी राजलक्ष्मी के कानों से टकरा रही थी।

घड़ियाल की आवाज ने महारानी नानी माँ की सोने की कोशिश एक बार फिर विफल कर दी थी। तंग आकर वह उठकर अपने बिस्तर पर बैठ गईं। उन्हें जैसे विश्वास हो गया था कि आज रात उन्दें नींद नहीं आयेगी, क्योंकि सोने की कोशिश में जब भी वे आँखें मूँदतीं, शाम का वीभत्स दृश्य उनकी आँखों की सतह पर साकार हो उठता था। वे बार-बार यही सोचने लगती थीं कि आखिर इन्सान इतना निर्दयी, इतना बेरहम और इतना जालिम कैसे बन जाता है ? सोचते-सोचते उनकी नजर अपनी नातिन समीरा के बिस्तर की ओर घूम गई। समीरा अभी तक सोयी नहीं थी। वह आँखें मूँदें बिस्तर पर करवटें बदल रही थी। ‘‘क्या बात है समीरा, तुम अभी तक सोयी नहीं !’’

रानी माँ राजलक्ष्मी ने समीरा को बिस्तर पर करवटें बदलते देखकर पूछा और अपने बिस्तर से उठकर समीरा के बिस्तर पर आईं। ‘‘आज नींद नहीं आएगी नानी माँ !’’ समीरा ने धीरे से उत्तर दिया और फिर करवट बदल ली। महारानी राजलक्ष्मी समीरा को इस तरह करवटें बदलते देख बेचैन हो उठीं। उन्होंने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे सहलाती हुई बोलीं, ‘‘तुम्हारी तबियत तो ठीक है न बेटी कहीं सिर-विर में दर्द तो नहीं है ?’’

‘‘जी नहीं !’’

‘‘फिर नींद क्यों नहीं आ रही ?’’ नानी माँ ने चिन्ता भरी आवाज में पूछा और एक पल रुककर बोलीं, ‘‘सारे दिन दिव्या के साथ धमा-चौकड़ी मचाती रहती हो। पता नहीं दिन भर में तुम दोनों नीली झील के कितने चक्कर लगा डालती हो ? पढ़ने के समय के अलावा मैंने तुम्हें आराम से बैठे कभी नहीं देखा...।’’

‘‘आजकल नीली झील पर परदेसी पंछी आ रहे हैं नानी माँ, उन्हीं को देखने चली जाती हूँ।’’ समीरा ने कहा और उठकर बैठ गई।

‘‘अभी तो सर्दियाँ शुरू भी नहीं हुई है लेकिन परदेसी पंछियों ने आना शुरू कर दिया है। रंग-बिरंगे, भाँति-भाँति के पंछी...कुछ तो नानी माँ चुनमुन चिड़िया से भी छोटे और कुछ सारस से भी बड़े।’’

‘‘अच्छा...!’’


‘‘कल आप हमारे साथ नीली झील पर चलिए न नानी माँ...। ऐसे रंग-बिरंगे और अनोखे पंछी आए हैं इस बार कि उन्हें देखकर आप खुशी से झूम उठेंगी। मेरा तो जी चाहता है नीली झील के किसी घाट की छतरी में जाकर रहने लगूँ और रात-दिन उन परदेसी पंछियों को देखती रहूँ...उनमें से हर एक की आवाज अलग-अलग है। जब वे एक साथ चहचहाने लगते हैं तो ऐसा लगता है जैसे आर्केस्ट्रा बज रहा हो ! जैसे अनगिनत कलाकार मिल कर एक साथ अलग-अलग साज-समवेत स्वर में बजा रहे हों।’’

‘‘तू भी मेरी तरह ही पगली निकली समीरा।’’ नानी माँ ने उसके बालों पर हाथ फेर कर उसे प्यार कर लिया, ‘‘तू इतना पसन्द करती है इन पंछियों को...तेरी माँ को तो पशु-पक्षियों के नाम से जैसे चिढ़ थी। मैं रंग-बिरंगे पंछी बहेलियों से माँगकर सोने के पिंजरों में रखती, लेकिन विजया को जब भी मौका मिलता, मेरी और दास-दासियों की नजरें बचाकर वह पिंजरों के दरवाजे खोल देती और पंछियों को उड़ा देती थी...मैं नाराज होती तो कहती-माँ साब, चिड़ियाँ पिंजरों में नहीं पेड़ों और आकाश में उड़ती हुई ही अच्छी लगती हैं...।’’


‘‘तब तो माँ साब चिड़ियों से नफरत नहीं प्यार करती हैं’’, समीरा ने अपनी नानी के सामने अपनी माँ का पक्ष लेते हुए कहा, ‘‘नानी माँ उसका मतलब है कि हम तीनों को ही पशु-पक्षियों से बेहद प्यार है।’’

‘‘विजया की वह बात कि ‘पंछी आकाश और पेड़ों पर ही अच्छे लगते हैं’, मुझे बहुत अच्छी लगी थी। इसलिए मैंने काकातुआ का जो जोड़ा पाला है उसके लिए पिंजरे नहीं, सोने के झूले बनवाए हैं। उन्हें उड़ने, चलने-फिरने की पूरी-पूरी आजादी दी है, फिर भी वे दोनों राजमहल से बाहर नहीं जाते। उड़ते हुए इस कमरे से उस कमरे में चक्कर काटते रहते हैं। काकतुआ मुझे अपने...।’’

‘‘नानी माँ, काकातुआ पुराण न सुनाकर आप मुझे कोई मजेदार कहानी सुनाइए ! जब से दाई माँ अपने गाँव गई हैं, कहानी सुने बिना बोर हो गई हूँ।’’ नानी माँ राजलक्ष्मी कुछ देर खामोश बैठी रहीं। फिर खंखार कर गला साफ करती हुई बोलीं, ‘‘बचपन में मैंने अपनी दाई माँ से एक कहानी सुना थी। शायद मेरी दाई माँ को बस एक यही कहानी याद थी, वह इसी को बार-बार सुना देती थीं और सच पूछो समीरा तो यह कहानी मुझे भी बहुत अच्छी लगती थी और इसीलिए मुझे अभी तक याद है वह कहानी...।’’

‘‘तो फिर वही कहानी सुनाइए न नानी माँ’’, समीरा ने अपनी नानी के दोनों हाथ थाम कर आग्रह किया।

‘‘अच्छी बात है’’, महारानी ने कहा और कुछ देर रुककर कहानी सुनाने लगीं...सुनो समीरा बहुत दिन की बात है। एक राज्य में एक राजकुमार रहता था। एक दिन राजकुमार अपने साथियों के साथ शिकार खेलने जंगल में गया। शिकार की तलाश करते हुए वह अपने साथियों से बिछुड़ गया और एक बहुत ही घने जंगल में जा पहुँचा।