अनवर शमीम और धनबाद की स्मृतियां / श्याम बिहारी श्यामल
वाराणसी और धनबाद के रेलवे स्टेशनी इलाकों में यदि एक साम्य यह है कि दोनों रात्रि के अंधेरा और सन्नाटाभरी निद्रित छवि को सिरे से खारिज करते हैं तो दूसरा यह भी कि इन पर हिन्दी के क्रमश: ऐसे एक-एक वरिष्ठ व युवा कवियों का मन बसता है जो इन पंक्तियों के लेखक की अतरंग संपर्क-परिधि में आते हैं । जिस तरह वाराणसी में शायद ही कोई शाम हो जब स्टेशनी इलाकों में वरिष्ठतम कवि ज्ञानेंद्रपति को टहलता हुआ न देखा जा सके, उसी तरह धनबाद में दिन चाहे जैसा हो, तेज बरसात में भीगता या बरसती अग्नि-धूप में धुंधुआता हुआ, स्टेशन के आसपास युवा कवि अनवर शमीम को एकाधिक बार देखे बिना नहीं रहा जा सकता। दोनों कवियों में किसी समालोचकीय दृष्टि से कोई युग्म चाहे कदापि न बनता हो, निजी संपर्क-वृत के चलते तो मेरे दिमाग में ऐसा फिलहाल अवश्य निर्मित हो रहा है।
वाराणसी रेलवे स्टेशन के पैदलपार पुल पर ज्ञानेंद्रपति की चर्चित कविता उनके प्रशंसकों को याद होगी जबकि अनवर शमीम ने शुरू से ही अपना डाक का पता स्टेशन रोड को बना रखा है। पहले 'गणेश टी स्टॉल, स्टेशन रोड, धनबाद' था जबकि उक्त दुकान का प्रबंध अस्त-व्यस्त हो जाने के बाद यह 'हुसैन बुक सेंटर, स्टेशन रोड, धनबाद' हो गया। वह स्वयं से मिलने पहुंचे किसी भी रचनाकार साथी को लेकर तत्काल स्टेशन रोड की चाय दुकानों की ओर बढ़ जाते हैं।
शुरू में गणेश टी स्टाल ही लेखक-पत्रकारों का अड्डा रहा जहां पूरी रात कोई न कोई पत्रकार समूह जमा ही रहता। रात्रि-ड्यूटी के दौरान अनवर शमीम का आना-जाना लगा रहता। बातें वह सबसे खूब करते किंतु उनके आ जाने के बाद माहौल में साहित्य का संदर्भ चमक उठता। कहां क्या खास छपा है, किसकी कौन-सी कविता या कहानी अथवा कोई किताब, किस पत्रिका का नया अंक आया है तथा उसमें क्या उल्लेखनीय लग रहा है अथवा किसी की कोई चिट्ठी का प्रसंग। जाहिरन इस रूप में अन्य साथी प्राय: श्रोता की मुद्रा में आ जाते और चर्चा हमदोनों के बीच होने लगती।
ऐसी कोई भी चर्चा ताजा अखबारों के बंडल सामने खुलते ही एक झटके के साथ बंद हो जाती। इसके बाद तो सूर्योदय होने तक ताजे अखबार की खबरों पर ही चर्चा-बहसें। चाय की अंतिम चुस्की के साथ लोग विदा होते। इस अड्डे पर कभी-कभार या अनयिमित ढंग से आने-जाने वाले पत्रकारों की सूची में तो धनबाद के लगभग सारे पत्रकारों के नाम शामिल रहे किंतु लंबे समय तक स्थायी उपस्थिति चलाने वालों में सलमान रावी, रंजन झा, विनय झा, अजय कुमार सिन्हा और इन पंक्तियों के लेखक के अलावा रेलवे यूनियन के लोकप्रिय नेता सतराजित सिंह आदि प्रमुख रहे।
दुनिया के तमाम विषयों पर मंथन-मर्दन करने वाली चर्चाएं अक्सर आग और गर्मी पैदा करती चलतीं। कभी दो लोग आपस में तर्क-युद्ध करते भिड़ जाते तो कभी किसी एक से कई लोगों का मोर्चेंबंद वैचारिक संघर्ष। अनवर शमीम अक्सर ऐसे अवसरों पर सतर्कता से हस्तक्षेप करते या मौन मुस्कान के साथ बंद-बंद खड़े रह जाते। ऐसी भिड़ंत-बहसें देखने में कभी अप्रिय भी लग जातीं किंतु स्मरण नहीं कि ऐसे में कभी कोई उल्लेखनीय कटुता ठहर पाई हो। सच तो यह कि ऐसे माहौल हमेशा आगे कुछ नया लिखने-पढ़ने की मनोभूमि की ही सृष्टि कर जाते।
अनवर शमीम की निकटता अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध में कवि मदन कश्यप से रही जो जल्दी ही धनबाद से चले गए। बाद में रविशंकर रवि उनके अंतरंग रहे जिन्होंने कुछ ही समय बाद असम का रुख कर लिया। 1988 में दैनिक आज में नौकरी शुरू करने मैं धनबाद पहुंचा तो मेरी जेब में इकलौता नाम अनवर शमीम था जिनसे मुझे मिलना था। याद है, उनसे मिलने मैं अंतिम प्लेटफार्म स्थित उनके टीएक्सआर कार्यालय पहुंचा था। वह पतले फ्रेम का चश्मा लगाए हुए थे। तपाक से मिले, कुछ ऐसे जैसे पुराने परिचित हों और मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे हों। तुरंत स्टेशन रोड पर गणेश टी स्टाल... संभवत: चाय चुस्की से पहले हमलोगों ने छोला-भटूरे का स्वाद लिया था। फिर तो मिलना-बतियाना दिनचर्या में शामिल हो गया। हमदोनों काफी अभिन्न हो गए। इसकी एक वजह 'लघुकथा' विधा में हमदोनों की जरूरत से ज्यादा सक्रियता रही। डाल्टनगंज से संभवत: 1985-86 में 'लघुकथा शिविर' के आयोजन की तैयारी इन पंक्तियों के लेखक ने की थी जिससे संबंधित समाचार झारखंड में उस समय के प्रमुख दैनिक पत्र 'रांची एक्सप्रेस' में छपा था। कुछ कारणों से यह कार्यक्रम नहीं हो सका किंतु बाद में बगैर किसी आपसी संवाद के बावजूद अनवर शमीम ने ऐसा आयोजन धनबाद में संभव किया। सोच-समझ की यह परस्पर परिपूरकता निश्चय ही दो लोगों के बीच निकटता के लिए नाकाफी नहीं थी।
अनवर शमीम की कविता में गहरी समझदारी कायल करने वाली थी। इसकी वजह उम्र में उनका कुछ बड़ा होना ही नहीं, बल्कि मदन कश्यप की निकटता मिल पाना भी संभवत: रही हो। वह कवि भारत यायावर से भी जुड़े हुए थे जो उस समय बोकारो में रह रहे थे। उसी तरह, कथाकार संजीव वहीं निकटस्थ कुल्टी में रहते थे जो दैनिक आवाज में सामयिक विषयों पर लेख आदि भी लिखते थे। इस क्रम में वह अक्सर धनबाद आना-जाना करते और हर बार खोजकर अनवर शमीम से मिलते।
दैनिक आज के मुकाबले दैनिक आवाज में काम करने की अधिक गुंजाइश मिली थी। कहां वहां समाचार के पन्नों में आंशिक योगदान और कहां यहां पूरा फीचर विभाग। प्रतिदिन दो पृष्ठ और हर हफ्ते एक पूरा रविवारीय परिशिष्ट। हर हफ्ते 'अपना मोर्चा' में साहित्यिक-सांस्कृतिक संदर्भ पर पूरे दो कॉलम की टिप्पणी लिखने लगा। देश भर में कहीं कोई प्रतिकूल घटता या लिखा-छपा दिख जाता उसकी जमकर खबर ली जाती। कभी इस मठाधीश पर हमला तो कभी उस गिरोह का ध्वज-भंग। यही नहीं, सकारात्मक संदर्भों पर भी वैसी ही धारसार बातें। देखते ही देखते इसकी काफी नोटिस भी ली जाने लगी। परिशिष्ट की प्रतियां देश भर में संबंधित लेखकों को डाक से भेजी जातीं। कवि कुमारेंद्र पासरनाथ सिंह के निधन का समाचार आने पर 'अपना मोर्चा' में बिहार की सरकार और साहित्यिक महकमों की शिथिलता पर तीखी टिप्पणी लिखी गई थी, जिसे 'पहल' ने ' दैनिक आवाज से साभार' लिखकर उद्धृत ही नहीं किया बल्कि संबंधित अंक में सबसे पहली सामग्री के रूप में स्थान दिया था। उसी तरह कई अन्य महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने समय-समय पर सामग्री का प्रयोग शुरू किया तो उत्साह बनता चला गया।
अनवर शमीम ज्यादातर विमर्श में किसी न किसी रूप में शामिल रहते। उनके साथ रोज रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्मों पर विचरण के दौरान ऐसे संदर्भ परिपक्व होते रहते। हर प्लेटफार्म पर एक न एक चाय दुकान ऐसी थी जो उनका अनौपचारिक संपर्क-सूत्र जैसी थी। कभी इस तो कभी उस प्लेटफार्म पर चाय और चर्चाएं चलतीं। एक दिन ओवरफ्लाई की प्लेटफार्म नंबर दो पर उतरने वाली चौड़ी सीढि़यों से उतरते हुए उन्होंने मुझसे संजीदगी से कहा कि लघुकथा और कविता के छिटपुट लेखन से बात नहीं बनने वाली, हमलोगों को कहानी लिखनी चाहिए...। हालांकि मेरी एक कहानी 'माधो चाचा' नौवें दशक के आरंभिक वर्षों में ही 'आजकल' में छपी थी और कुछ कविताएं भी। वह संभवत: इससे अवगत भी रहे हों किंतु उनका मूल अभिप्राय यह कि लघुकथा में लेखन से अधिक बहस या उखाड़-पछाड़ जैसी गतिविधियां चल रही हैं, जो लाभप्रद नहीं, लिहाजा कुछ जमकर लिखा जाए। ऐसा कुछ इधर भी दिमाग में चल ही रहा था। ठीक-ठीक याद नहीं कि कुछ दिन बाद या ऐन उसी वक्त मैंने उन्हें पलामू के अकाल और वहां के एक धपेल बाबा को लेकर कुछ अधबुनी-सी कथा सुनाई। अकाल में भुखमरी की कहानी और इसमें बहुत ज़्यादा भोजन करने वाले धपेल बाबा का प्रतीकात्मक केंद्रीय चरित्र, जिसके लिए खाने से बड़ा कोई विमर्श नहीं।
ऐसे कथा-फलक पर धपेल का यह बिम्ब उन्हें खूब जंचा। उन्होंने अधिकारपूर्वक दबाव बनाया कि मैं अब अधिक मंथन न करूं और इसे लिखना शुरू ही कर दूं। सचमुच देर नहीं हुई, तत्काल 'धपेल' का लिखा जाना और दैनिक आवाज में ही धारावाहिक प्रकाशन शुरू हो गया। इसकी काफी चर्चा होने लगी। उधर, कुछ समय बाद उन्होंने भी मेरे दबाव पर रेलवे कॉलोनियों के जीवन पर उपन्यास 'लोहे की बस्ती' की शुरूआत की। बाद में इसकी भी कुछ किस्तें छपीं किंतु उन्होंने इसे 'बाद में' कहकर टाल दिया। कवि आदमी के लिए उपन्यास का श्रमसाध्य कार्य कदापि अनुकूल न था, यह ऐसा टला कि संभवत: आज तक जहां का तहां अटका पड़ा हो। इधर, करीब दो साल तक धारावाहिक छपने के बाद 'धपेल' 1998 में राजकमल प्रकाशन से पुस्तकाकार भी आ गया किंतु इस श्रम-अभ्यास ने छोटी रचनाओं की राह से जैसे विमुख ही कर डाला। अखबारी अस्त-व्यस्तता में प्रतिदिन निर्णायक गंभीरता के साथ माथापच्ची करने के मुकाबले लंबी रचना पर रोज थोड़ा-बहुत कुछ काम कर लेना अधिक सुविधाजनक लगने लगा। फिर तो वहीं उसी तरह 'अग्निपुरुष' उपन्यास का भी लेखन, धारावाहिक प्रकाशन हुआ और यह भी पुस्तकाकार राजकमल से ही आया।
...तो, 08 जुलाई 2012 की शाम वाराणसी रेलवे स्टेशन के सामने थे वही अनवर शमीम। औचक मुलाक़ात। धनबाद में दसियों साल तक लगभग रोजाना मिलने-जुलने वाले और हमारी शादी के तुरंत बाद हमदोनों को अपने घर भोजन पर आमंत्रित करने वाले पुराने दोस्त से ऐन अपनी शादी की सालगिरह ( 17 वीं) के दिन यह मिलना मेरे लिए किसी उपहार से कम नहीं। संयोग यह भी कि हमदोनों ( यानि संग में सविता जी ) घर से साथ ही निकले भी थे, सविता जी ने क्लिक करने में देर नहीं की। अत्यंत सुखद अनुभूति। वाराणसी रेलवे स्टेशन के सामने पेट्रोल पंप के पीछे यादव यादव चाय दुकान पर चाय की चुस्कियां लेते हुए मैंने कवि ज्ञानेंद्रपति ( वाराणसी ) को फोन लगाकर अनवर शमीम के आने के बारे में सूचना दी और बात करा दी। इसके बाद कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी ( इलाहाबाद ) से भी फोन पर संपर्क और शमीम से बातें।...
अनवर शमीम धनबाद से गोरखपुर जाने के रास्ते में कुछ घंटे बनारस रेलवे स्टेशन पर रुके, वहीं भेंट। प्रसंगवश यहां उल्लेखनीय यह कि उनका पहला कविता-संग्रह 'यह मौसम पतंगबाजी का नहीं' करीब दशक भर पहले आया था अब दूसरा 'कंकड़-पत्थर' ( शिल्पायन से ) शीघ्र प्रकाश्य है। इस बीच उनकी गजलों की एक पुस्तिका भी कुछ समय पहले आई है। वह समकालीन हिन्दी कविता में एक मौलिक स्वर हैं किंतु अब तक लगभग अरेखांकित रचनाकार। उल्लेखनीय यह कि नागार्जुन जिन कुछेक युवाओं को उनकी काव्य-दृष्टि के लिए तवज्जो देते थे, अनवर शमीम उनमें प्रमुख हैं।
धनबाद-यात्रा के दौरान बाबा एक बार रिक्शे से दुरुह रास्ते से होकर उनके डायमंड क्रासिंग स्थित रेलवे क्वार्टर भी पहुंच गए थे और पूछकर उन स्थानों पर घूम-घूमकर कई घंटे तक तफरी-बैठकी की थी जहां उनका यह पसंदीदा युवा कवि रोजाना अड्डेबाजी करता था। इस क्रम में वह डायमंड क्रॉसिंग वाली चाय दुकान पर सबसे ज्यादा देर तक बैठे और वहां नियमित जमने वाले लोगों से एक-एककर मुलाकात-बात भी की थी।
अब से करीब दो दशक पहले 'नाट्य महोत्सव' के दौरान बाबा के धनबाद-आगमन पर मैं और शमीम उनसे मिलने साथ-साथ ही गए थे। 'कतार' के संपादक प्रो. बृजबिहारी शर्मा के विनोदनगर स्थित आवास पर। बाबा ने शमीम को देखते ही अंतरंगता से हाथ बढ़ाया और मिलाया था। इससे उनके प्रति बाबा की उदार सद्भावनाओं का स्पष्ट संकेत मिले बगैर नहीं रह सका था। कहना न होगा कि इसका आधार अनवर शमीम की संभावनाशील काव्य प्रतिभा के प्रति बाबा का आश्वस्ति-भाव ही रहा, कुछ और नहीं।