अनहद नाद / भाग-1 / प्रताप सहगल

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उसका नाम शिवा है। शिवा साहनी। उसके पिता कट्टर आर्य समाजी थे। उन्हें ऐसे ही नामों से बड़ा प्यार था, जैसे शीवाजी, महाराणा प्रताप, सुभाषचन्द्र बोस वगैरह-वगैरह। उन्हें यह यकीन था कि बच्चे का ऐसा नाम रखने से उसमें वैसे ही गुण आ जाते हैं, जैसे कि उस नाम वाले महापुरुष में थे। शिवा में शिवजी वाले गुण आए कि नहीं, मालूम नहीं। शिवजी जैसी संगठन शक्ति, जुझारूपन, साहस, शौर्य, राष्ट्र-प्रेम और कट्टरता जैसी बातें उसके व्यक्तित्व में हैं या नहीं, इसका फैसला तो पूरी कथा पढ़ने के बाद आप ही करेंगे। लगता यह भी है कि उसके पिता उसमें शिवाजी ही नहीं, बल्कि सुभाष, प्रताप, भगतसिंह, लाला लाजपत राय वगैरह सभी का एक मुकम्मल रूप देखना चाहते थे। अक्सर वे ऐसी ही बातें उससे किया भी करते थे।

14 और 15 अगस्त। देश का विभाजन हुआ तो लाला जगतनारायण को भी अपना सारा कारोबार और घर छोड़कर पश्चिमी पंजाब से भागना पड़ा। तब साम्प्रदायिकता की काली आँधी ने कितनी ही लाशें इधर-उधर बिछा दी थीं। जगतनारायण की गोद में उसका छोटा-सा बच्चा शिवा था। साथ ही पत्नी शकुन्तला। सरहद के उस पार से इस पार तक आने की उसकी कहानी दूसरे लोगों से कोई अलग नहीं थी। वाघा बार्डर पार करके जब जगतनारायण समेत सैकड़ों लोगों का जत्था अटारी पहुँचा तो ‘हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद’के नारे सुनकर जगतनारायण कुछ क्षण के लिए अपना सारा दर्द भूल गया। थोड़ी ही देर में गोद में पड़ा शिवा कुलबुलाया तो उसे ध्यान आया कि सबसे पहले शिवा के लिए दूध की व्यवस्था करनी होगी। पिछले तीन दिनों से शकुन्तला के दूध से ही शिवा ज़िंदा था, पर अब तो जैसे शकुंतला के दुग्ध-कलश खाली हो गए थे। शिवा माँ की छाती से चिपका बार-बार माँ का स्तन मुँह में लेता और थोड़ी ही देर बाद छोड़ देता। दूध तो था नहीं, शिवा थक जाता और थोड़ी देर के लिए सो जाता।

शिवा की उम्र यही कोई साल के लगभग थी। दूध मिलता नहीं था, कुछ और वह खा नहीं सकता था। जगतनारायण और शकुन्तला बार-बार शिवा का मुँह देखते और कुछ भी न कर पा सकने की स्थिति में मायूस होकर बैठ जाते। तभी कुछ लोग रोटियों से भरी टोकरियाँ लाते और रोटियाँ हवा में उछाल देते। चील-कौवों की तरह से झपट पड़ते लोग। जगतनारायण दूर बैठा देखता रहता। ऐसे में ही कभी एकाध रोटी उछलकर उसके पास आ गिरती तो वह उठा लेता और पति-पत्नी दोनों बाँटकर खा लेते। सब्ज़ी मिलने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था।

समय ऐसे ही निकलने लगा।

यह तथा ऐसी ही अनेक बातें शिवा को बाद में पिता ने ही बताई थीं, कि मुसलमानों ने ‘अल्ला हू अकबर’के नारे लगाते हुए कैसे-कैसे हिन्दुओं के घरों को लूटा, जवान लड़कियों को अगवा किया, कैसे कत्लो-आम हुआ और जगह-जगह आग लगा दी गई। शिवा यह सब बातें बचपन से ही सुन रहा था। एक दिन उसके पिता ने यह भी बताया कि दूध न मिलने की वजह से उसे सोकड़ा हो गया और बड़ी मुश्किल से बकरी दूध मिलने से वह धीरे-धीरे ठीक हो सका।

अटारी से जगतनारायण अमृतसर पहुँचा। वहाँ स्वर्ण मंदिर में लंगर की अच्छी-खासी व्यवस्था थी, जो लोगों के रेलों के दबाव में चरमरा रही थी। स्वर्ण मंदिर के रास्ते में भी जगह-जगह लोगों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था थी, पर लोग इतने ज़्यादा थे कि हर इन्तज़ाम की चूलें हिल रही थीं। इसी बीच उन्हें बलवीर मिला। बलवीर भी यही कोई तीस साल के आसपास ही था। वह अमृतसर का ही रहने वाला था। उसने शिवा को देखा तो न जाने क्यों उसके मन में करुणा उमड़ आई। झपटकर रोटियाँ पकड़ना जगतनारायण के बस की बात नहीं थी, यह बलवीर समझ गया था। अमृतसर में उसके काफी संपर्क थे। उसने ऐसे ही लोगों की मदद करना शुरू कर दी थी, जो स्वभाव से संकोची थे। लूट-खसोट करने से मरना उन्हें बेहतर लगता था। बलवीर सुबह ही दस-बारह रोटियाँ, कुछ सब्ज़ी और दूध वगैरह लाकर देता जाता। इससे जगतनारायण और शकुन्तला का काम दिन-भर चल जाता। बलवीर ने उन्हें दो कंबल और कुछ पुराने कपड़े भी लाकर दिए। शकुन्तला के मन से वीर बलवीर के लिए ढेरों असीसें उठतीं और वह फिर शिवा को लेकर चिंतित हो जाती। शिवा बचेगा भी कि नहीं! बलवीर एक दिन एक डॉक्टर को भी ले आया और उसने शिवा को देखकर कहा कि ऐसे हालात में बच्चे का बचना मुश्किल है। शकुन्तला सारा दिन शिवा को सँभाले हुए अपने तंबू वाले नए घर में बैठी रहती और जगतनारायण कभी दवा की व्यवस्था करता तो कभी अपने बिछुड़े हुए भाइयों को ढूँढ़ने निकल पड़ता। उसे हमेशा यही आशंका घेरे रहती कि बाकी चारों भाई भी बार्डर के इस ओर जि़न्दा पहुँचे हैं कि नहीं।

रोटी मिल गई तो जगतनारायण को अपने भाइयों का ध्यान भी आया और यह चिंता भी जगी कि अब वह करेगा क्या? बहुत पढ़ा-लिखा वह था नहीं, पर हाथ में हुनर था। उस जैसा पेंटर दूर-दूर तक नहीं मिलता था। पंजाब में उसकी अपनी दुकान थी, चलती हुई। वह पुरानी साइकिलों पर पॉलिश करता, भट्ठी में उन्हें पकाता, साइकिलों के फ्रेम और चिमटे पर लाइनें इतनी खूबसूरत खींचता था कि पुरानी साइकिलें नई-सी चमचमाने लगतीं। पर अब? कहाँ मिलेगी दुकान? कहाँ बनेगी भट्ठी? कौन जानता था उसकी बारीक कारीगरी? अमृतसर में इतने लोगों को देख वह वैसे ही घबरा गया था और फिर शिवा की बीमारी! वह जल्द से जल्द बच्चे को स्वस्थ देखना चाहता था। सरकारी तौर पर जो दवा मिलती, उससे शिवा को कुछ भी आराम नहीं मिला।

एक दिन उसने बलवीर से कहा, “बलवीर, हम यहाँ से जाना चाहते हैं।”

“क्या हुआ भा जी?” बलवीर ने पूछा।

“दिल नहीं लगता यहाँ।”

“कहाँ जाओगे?”

“जालन्धर।”

“जालन्धर ही क्यों?”

“वहाँ मुझे मेरा बड़ा भाई मिलेगा।”

पंजाब छोड़ने से पहले बड़े भाई सत्यनारायण ने सभी भाइयों से कहा था कि जो सरहद पार कर जाए वो जालन्धर कैंप में मिले। सो इस तरह जगतनारायण एक दिन बीवी-बच्चे के साथ जालन्धर के शरणार्थी कैंप में आ पहुँचा। बलवीर उन्हें जालन्धर तक छोड़ने आया और जब भाई-भाई मिल गए तो यह कहकर लौट गया, “कभी कोई ज़रूरत पड़े तो खत लिख देना।”

जगतनारायण की आँखें छलछला गईं। शकुंतला ने भी बलवीर को ढेरों असीसें दीं और फिर शिवा की खैर मनाने लगी।

जगतनारायण ने अपने बड़े भाई सत्यनारायण के साथ मिलकर दूसरे दो भाइयों को भी ढूँढ़ निकाला। सबने शुक्र मनाया कि कत्लेआम के इस दौर में सभी सही-सलामत जालन्धर पहुँच गए। आगे क्या हो? यानी मुआवज़े के लिए फार्म भरने थे। सभी भाइयों ने यह काम बड़े भाई के कंधों पर डाल दिया। असली समस्या तो थी लुटने-पिटने के बाद नए सिरे से अपना-अपना काम जमाने की। सत्यनारायण ने जालन्धर में ही रहने का फैसला किया। दो छोटे भाइयों ने कहा कि हम दिल्ली जाएँगे, पर जगतनारायण न तो जालन्धर में रहना चाहता था और न ही दिल्ली जाना। जालन्धर में न रहने के पीछे उसका तर्क था कि अमृतसर की तरह से यह भी सीमावर्ती इलाका है और कभी भी पाकिस्तान के साथ लड़ाई हो सकती है। आशंका की तलवार हमेशा सिर पर लटकी रहेगी। बड़े भाई ने समझाया भी कि अगर लड़ाई होती भी है तो दिल्ली तो उससे प्रभावित होगी और दूसरे शहर भी। पर जगतनारायण को यह बात समझ में नहीं आई। शकुन्तला ने भी उसकी हाँ में हाँ मिला दी। चुनाँचे बिना कोई गंतव्य निश्चित किए वह अपने दो छोटे भाइयों विजयनारायण और रूपनारायण के साथ जालन्धर छोड़कर चल दिया। दिल्ली की गाड़ी सभी ने पकड़ी। अगले ही दिन जगतनारायण गाजि़याबाद चला गया और वहीं आर्य समाज के एक मंदिर में शरण ली। शिवा की हालत पहले से भी ज़्यादा खराब हो गई थी। वह सूखकर काँटा हो चुका था। डॉक्टरों ने लगभग जवाब ही दे दिया था, पर शकुन्तला को अभी भी आस थी। आर्य समाज में रविवार को ही सत्संग होता था। इस रविवार को वैद्य महेशनाथ का प्रवचन था। वह धर्म पर कम और स्वास्थ्य पर अधिक बोले। विषय था- ‘शरीर आद्यं खलु धर्म साधनम्’। प्रवचन खत्म होने के बाद शकुन्तला ने शिवा को वैद्य महेशनाथ के चरणों में डाल दिया। वैद्य महेशनाथ ने शिवा को ग़ौर से देखा। उसकी नब्ज़ टटोली और कहा- “बेटा! अब दवा का असर धीरे होगा और कम भी, पर इसे बकरी का दूध पिला सको तो फायदा होगा।” वैद्य महेशनाथ ने दवा भी दी। इस दवा और बकरी के दूध ने चमत्कार कर दिया। शिवा धीरे-धीरे अच्छा होने लगा।

जगतनारायण काम के चक्कर में सुबह ही निकल जाता। हाथ का हुनर काम आ गया। कहीं कोई साइन बोर्ड मिल जाता, तो कहीं रंग-रोपन का काम। आर्टिस्ट था जगतनारायण। मजबूरी में अब वह दरवाजे़ वगैरह पर रंग-रोगन भी कर लेता। घर-गृहस्थी का खर्चा चलने लगा। बकरी के दूध की व्यवस्था महँगी थी। तब वह महात्मा गांधी को कोसता कि कैसे वह बकरी का दूध रोज़ पीता है, वह भी उस बकरी का जो सूखे मेवे खाती है और वह है कि अपने मरते बच्चे के लिए साधारण-सी बकरी का दूध भी नहीं जुटा पा रहा।

जगतनारायण वैसे भी गांधी को पसंद नहीं करता था। वह मानता था कि गांधी की नरम नीतियों और नेहरू की अधिकार-लिप्सा के कारण ही देश का बँटवारा हुआ है। बात-बात पर सत्याग्रह का इस्तेमाल करने वाले गांधी ने बँटवारे जैसे भयंकर फैसले के खिलाफ सत्याग्रह क्यों नहीं किया? क्यों नहीं आमरण अनशन रखा? शायद गांधी ने बँटवारे को अपनी गुप-चुप स्वीकृति दे दी थी। वह यह भी कहता था कि आज़ादी मिली है तो भगतसिंह, खुदीराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, सुभाषचन्द्र बोस और ऊधमसिंह के कारण। शाहनवाज़, ढिल्लों और सहगल की भी तारीफ करता, पर बाकी कांग्रेसियों के प्रति उसके मन में किसी भी तरह की प्रशंसा का कोई भाव नहीं था। हाँ, कभी-कभी पटेल की प्रशंसा अवश्य करता, साथ यह भी कहता कि पटेल भी इन लोगों की अदूरदर्शिता, जल्दबाज़ी और अधिकार-लिप्सा के सामने खामोश क्यों रहा? जिन्ना से उसे सख्त नफरत थी और तमाम मुसलमानों को वह देश का ग़द्दार मानता था। कांग्रेस उसके लिए एक बहुत बड़ा दुश्मन थी, जिसने उसका बसा-बसाया घर और चलता हुआ काम बर्बाद कर दिया था। वह कांग्रेस को कभी माफ नहीं कर सकता और जीवनपर्यन्त उसने किया भी नहीं। जगतनारायण अपने विचारों से बहुत कट्टर आदमी था। वह कट्टरता उसे आर्य समाज के संपर्क से ही मिली।

आर्य समाज के साथ उसका संपर्क आठ-दस साल पुराना ही था। उसके एक दोस्त महेन्द्रनाथ ने ही उसका परिचय आर्य समाज से करवाया। इससे पहले जगतनारायण के घर कोई भी आर्य समाजी नहीं था। उसके पिता सनातनी थे। माँ भी सनातनी और सौतेली भी। माँ का व्यवहार सत्यनारायण और जगतनारायण के लिए अच्छा नहीं था, पर अपने दो बच्चों के लिए वह माँ ही थी। जब नई माँ आई तो जगतनारायण की उम्र आठ साल की थी। पिता ने इन बच्चों की कभी चिंता नहीं की थी, न माँ ने। उनके इस व्यवहार से जगतनारायण के मन में बड़ा रोष था, पर वह उसके बारे में कुछ कह न पाता। एकाध बार उसने हिम्मत की तो चटाख से पिता का हाथ गालों पर पड़ा और जगतनारायण बिस्तर में दुबक गया। पढ़ने में मन नहीं लगता था जगतनारायण का, पर बुद्धि तार्किक थी। पढ़ने के बजाय तर्क करता। जगतनारायण के पिता रायज़ादा गोधामल को कभी भी अच्छा नहीं लगता था। एकाध बात सुन लेने के बाद डाँट या फिर थप्पड़। यह दो ही जवाब होते थे गोधामल के। गोधामल के रायज़ादा बनने की कहानी इतनी ही है कि गोधामल के पिता सूरजमल ने अंग्रेज़ों की चाकरी विश्वासपात्र बनकर की। अपने गाँव में अंग्रेज़ी फरमानों को जारी करने, मनवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और अपनी इन्हीं सेवाओं के बदले उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया गया। रायबहादुर सूरजमल का बेटा गोधामल अपने आप ही रायज़ादा हो गया और फिर यह तगमा पीढ़ी-दर-पीढ़ी यों ही चलता रहा। बाद में जब जगतनारायण ने अपना काम-धंधा शुरू किया तो रायज़ादा के नाम से ही किया। उसे शायद कहीं यह खयाल था कि इस खिताब का रौब-दाब यहाँ भी पड़ेगा और काम चलने में आसानी होगी, या वह रायज़ादा कहलवाने में गौरव का अनुभव करता था या इस खिताब के साथ जुड़ी संपन्नता और अधिकार को छोड़ने के लिए ज़हनी तौर पर अब भी तैयार नहीं था।

रोहतक। दिल्ली से लगभग 60 किलोमीटर। एक छोटा-सा कस्बाई शहर। तब रोहतक पंजाब का ही हिस्सा था। दिल्ली के पास होते हुए भी दूर। जगतनारायण ने अन्ततः यहीं बस जाने का फैसला किया। हालाँकि गाज़ियाबाद में उसका काम चल निकला था और रोज़ी-रोटी चलने लगी थी। गाज़ियाबाद दिल्ली के करीब भी था। पर जगतनारायण को दिल्ली के नाम से ही चिढ़ होने लगी थी। उसे लगता था कि दिल्ली ने उसे और उस जैसे लाखों लोगों को बर्बाद किया है, पर मन में दिल्ली के लिए एक अबूझ आकर्षण भी था। एक तरह का प्रेम-घृणा संबंध बन गया था दिल्ली के साथ। शायद इसीलिए वह दिल्ली के पास भी रहना चाहता था और दिल्ली से दूर भी।

रोहतक में बस जाने का फैसला रामस्वरूप की वजह से हुआ। रामस्वरूप रोहतक का ही रहने वाला था। वह किसी काम से गाज़ियाबाद आया और उसकी मुलाकात जगतनारायण से आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संग में हुई। बाद में रामस्वरूप ने जगतनारायण का काम देखा तो मुग्ध हो गया। रामस्वरूप के पास रोहतक में एक खाली दुकान थी। झज्जर रोड पर। झज्जर रोड रोहतक की व्यस्ततम सड़क थी और वहाँ कोई भी पेंटर नहीं था। रामस्वरूप की अपनी ही साइकिलों की दुकान पास ही थी। साइकिल मरम्मत और रंग-रोगन के लिए लोग आते थे। रामस्वरूप कब से ऐसी ही एक दुकान खोलने की सोच रहा था, पर कोई ठीक आदमी न मिलने की वजह से उसका यह सपना पूरा नहीं हो पा रहा था। उसे जगतनारायण आदमी भी अच्छा लगा और कारीगर भी। उसी ने जगतनारायण के सामने प्रस्ताव रखा। अंधे को क्या चाहिए! जगतनारायण भटकन छोड़कर एक ही जगह काम करना चाहता था। जगह, दुकान और प्रतिष्ठा रामस्वरूप की और काम जगतनारायण का। पचास-पचास प्रतिशत पर भागीदारी तय हुई और इस तरह से जगतनारायण गाज़ियाबाद से रोहतक चला आया। हाँ, उसने एक शर्त और भी रखी थी, कि उसे शिवा के लिए बकरी का दूध ज़रूर मिलना चाहिए। रामस्वरूप ने तीस रुपए में बकरी ही खरीद दी, जिसकी कीमत बाद में जगतनारायण ने चुका तो दी, पर वह कभी भी रामस्वरूप के इस अहसान से मुक्त नहीं हो सका।

झज्झर रोड पर ही फर्नीचर, रंग-रोपन, कपड़ा और खाने-पीने के सामान की कुछ दुकानें थीं। 1947-48 के ज़माने में भी खूब चलती हुई सड़क। जगतनारायण ने दुकान सँभाली। साफ की। खुद ही चूना किया, रंग किया और साइकिलों पर पक्का रंग करने के लिए भट्ठी लगा दी। भट्ठी के लिए उसने लोहे का एक बड़ा ट्रंक खरीदा और एक बड़ा-सा चूल्हा बनाकर उसे खड़ी शक्ल में फिट कर दिया। शुरू-शुरू में दिक्कत हुई। भट्ठी गर्म करने के लिए कम से कम सात साइकिलों की ज़रूरत होती और इतनी साइकिलें एकदम मिलती नहीं थीं। रामस्वरूप की दुकान साइकिल मरम्मत की थी और इस दुकान में भी उसकी साझेदारी थी। उसने अपने ग्राहकों को समझा-समझाकर सात साइकिलें इकट्ठा की। जगतनारायण को कुछ तसल्ली हुई। उसने पहले उन साइकिलों को खुलवाया। उनके फ्रेमों, चिमटों और मडगार्डों को चिता की शक्ल में सजाया और आग दे दी। साइकिलों का पुराना रंग उस आग में जल गया। ठंडा करके उन्हें पानी से धोया और फिर लोहे वाला रेगमार रगड़ा। फ्रेम, चिमटे, मडगार्ड सबका लोहा साफ दिखने लगा तो उसने उन पर पहले कच्चा रंग किया, फिर रेगमार किया। फिर पक्का काला रंग चढ़ा दिया। उन्हें ट्रंक की बनी उस भट्ठी में व्यवस्थित तरीके से जमा कर दरवाज़ा बंद कर दिया और नीचे आग जला दी। जगतनारायण खुश भी था और आशंकित भी। खुश इसलिए कि काम शुरू हुआ और आशंकित इसलिए कि न जाने उसका काम यहाँ के लोगों को पसंद आएगा कि नहीं।

झज्झर रोड से थोड़ी ही दूर पहाड़ा मुहल्ला था। वहीं पर जगतनारायण ने एक कमरे का मकान दो रुपए महीना किराए पर ले लिया था। कमरा काफी बड़ा था। दीवारें मज़बूत, छत ठीक-ठाक, पर फर्श कच्चा था। कमरे के ऊपर भी एक कमरा था। उसमें मकान-मालिक रहता था। वह और उसकी पत्नी। बस। नीचे ही कोने में संडास था। शुक्र किया उन्होंने कि जंगल-पानी के लिए बाहर जाने की ज़रूरत नहीं।

शकुन्तला दिन-भर बच्चे में लगी रहती और अपने बीते हुए अच्छे दिनों को याद करती। मुहल्ले की दूसरी औरतों से उसका संपर्क जल्दी ही हो गया। वह खुद मिलनसार और दूसरों के दुःख-दर्द में साथ देने वाली थी और किसी से लड़ाई हो जाए तो मन-मन भर की गालियाँ देने से भी नहीं चूकती। उसके इस रूप से मुहल्ले की दूसरी औरतें जल्दी ही खौफ खाने लगी थीं। शकुन्तला शिवा को लेकर अब आश्वस्त थी। वह अब चलने लगा था। उसे चलता देख जगतनारायण और शकुन्तला दोनों बड़े प्रसन्न होते। एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते और लिपट जाते।

शकुन्तला ने चूल्हे पर दाल चढ़ा दी थी। शाम ढलते ही वह अक्सर यही काम करती। उसे मालूम था कि आठ बजे से पहले-पहले उसके पति घर पर होंगे और उन्हें ज़ोर की भूख लगी होगी। दिन की रोटी जगतनारायण साथ ही बाँध ले जाता, पर शाम की रोटी दोनों साथ ही खाते थे। रोज़ सुबह शकुन्तला गाय का गोबर लाकर चौका लीपती। कभी-कभी पूरा कमरा लीप देती। दोपहर तक शिवा ही उसे व्यस्त रखता। बाद में वह चरखा लेकर बाहर गली में ही धूप में बैठ जाती। यहीं पर मुहल्ले की दूसरी औरतें भी इकट्ठा हो जातीं और खूब खुलकर बातें होतीं। एक-दूसरे की निंदा, चुगली, बीते दिन, फिर किसका आँख-मटक्का किससे चल रहा है, किसका आदमी ज़्यादा जवान है, किसका बूढ़ा हो गया है। कौन सात खसम करेगी और कौन तरस-तरस मरेगी। पता ही नहीं चलता कि कब चार बजे, शाम ढली, ठंड बढ़ी। तब सबको रात के खाने की सूझती और सभी अपना चूल्हा गरम करने लगतीं।

जिस दिन जगतनारायण ने अपनी पहली भट्ठी चढ़ाई उस दिन वह घर कुछ देर से लौटा। शकुन्तला परेशान हो रही थी। उसने शाम को दाल के साथ-साथ खीर भी बनाई थी। रोहतक में दूध और सब्ज़ी बहुत सस्ते थे। पशु मंडी होने की वजह से दूध तो औने-पौने में ही मिल जाता, सो खीर सभी का प्रिय व्यंजन था। जगतनारायण भट्ठी को ठंडा किए बिना आ नहीं सकता था। चूल्हे की आग ठंडी होने के बाद ही वह घर लौट पाया। रात के नौ बज चुके थे। सर्दियों में नौ बजे रात गहरा जाती है। कहीं कोई अपरिचित आशंका शकुन्तला को घेरने लगी। जगतनारायण आया तो उसने थोड़ा रोष से पूछा-”कहाँ लगा दी इतनी देर?” जगतनारायण खुश था, और वक्त होता तो वह भी गुस्सा हो जाता। एक बार तो ऐसी ही बात बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ गई कि उसने ज़ोर से दो चाँटे ही शकुन्तला के मुँह पर जड़ दिए। शकुन्तला उस रात बहुत रोई थी। तब जगतनारायण को उस पर तरस आया और अपने पर ग्लानि हुई। पर आज जगतनारायण ने उसके रोष की कोई चिन्ता न करते हुए उसे बाँहों में भरते हुए कहा-”आज पहली भट्ठी चढ़ाकर आया हूँ, पूरी सात साइकिलें।”

शकुन्तला भी रोष एकदम भूल गई और जल्दी से एक कटोरी में खीर डाल दी। दोनों ने मिलकर खाई। जगतनारायण ने एक नज़र शिवा पर डाली। शिवा सो चुका था। अक्सर वह उसे जागता मिलता। वह रोज़ थोड़ी देर बच्चे के साथ खेलता। उसकी थकान मिट जाती। मुक्त हो जाता था चिंताओं से। शिवा हँसता। उसके छोटे-छोटे दाँत चमकते। जगतनारायण को शिवा के दाँत दुनिया की सबसे प्यारी चीज़ लगते। उसने सोए शिवा के सिर पर हाथ फेरा। उसे चूमा और फिर हाथ धोने लगा।

रात को पति-पत्नी जब सोने लगे तो शकुन्तला ने कहा-”देखो, शिवा दिन-भर ज़मीन पर सोता है।”

जगतनारायण बोला-”मेरी दुकान के सामने ही है भरतू बढ़ई। बहुत बढ़िया कारीगर है। उसे कहा है एक पलंग बनाने को।”

“पहले पंघूड़ा।”

“वो भी बनेगा, पलंग से तीनों का काम चलेगा।”

“नहीं, पहले पंघूड़ा।” शकुन्तला ने कहा और दोनों फिर कहीं अतीत में खो गए।

बँटवारे से तीन महीने पहले ही जगतनारायण और शकुन्तला ने मिलकर बड़े चाव से शिवा के लिए पालना खरीदा था। पालना बहुत कीमती था। उन्हें भी पैसे की कोई परेशानी नहीं थी। पहले बच्चे के साथ जुड़े हर शौक को वे पूरा कर लेना चाहते थे। उस पालने में उन्होंने चाँदी की झाँझरें लगवाईं। पालना हिलता तो झाँझरें बजतीं। मधुर-मधुर। शिवा ध्यान से सुनता और फिर ज़ोर-ज़ोर से पालने में ही अपनी टाँगें फटकारने लगता। वे दोनों उसे देख मुग्ध होते। उन्हें क्या मालूम था कि जो पालना वे शिवा के लिए इतने चाव से लाए थे, वह जल्दी ही वहीं छूटने वाला है। न उन्हें यह मालूम था कि जिस बच्चे को वे राजकुमार की तरह पालना चाहते हैं, वह बूँद-बूँद दूध का मोहताज होकर सोकड़े का शिकार हो जाएगा।

कुछ लोग जो ज़्यादा समझदार या दूरदर्शी थे, वे बँटवारे से पहले ही इधर निकल आए थे। अपना सारा माल-असबाब लेकर। पर जगतनारायण ने भी लाखों लोगों की तरह से यही सोचा कि उनके नेता जब कह रहे हैं कि ‘पाकिस्तान बनेगा तो उनकी लाश पर’तो ठीक ही कह रहे हैं। तब घबराने की क्या बात! वे मरेंगे तो हम भी मरेंगे, पर हिन्दोस्तान बँटने नहीं देंगे। हुआ बिल्कुल उलटा। नेता तो सब बच गए। मरे हम। लुटे-पिटे हम। बस, जो कपड़े थे तन पर, सिर्फ वही। उन्हीं कपड़ों के साथ भागन पड़ा। जगतनारायण ने यह सब सोचते-सोचते करवट दूसरी ओर ले ली। शकुन्तला समझ गई कि बात क्या है। उसने जगतनारायण को कंधों से पकड़कर अपनी ओर बुला लिया और कहा-”अच्छा, पहले पलंग ही बनवा लेना, पर पंघूड़ा बनवाना ज़रूर, वैसा ही चाँदी वाला छन-छन-छन करता हुआ।” और वह जगतनारायण के सीने में दुबक गई।

वही हुआ जिसकी रामस्वरूप को आशा थी। रामस्वरूप ने पालिश की हुई एक साइकिल को फिट कर नई साइकिलों के बीच रख दिया और जो भी पहचान वाला ग्राहक आता, उसे कहता, “पहचानो इनमें नई कौन-सी और पुरानी कौन-सी? वाकई ग्राहक असमंजस में पड़ जाते थे। रंग इतना चमक लिए हुए और इतना साफ था कि कई ग्राहकों ने तो नई साइकिलों को ही पुरानी कहा। तब रामस्वरूप पूरी अकड़ के साथ पुरानी साइकिल पर हाथ रखकर बताता-”यह है पुरानी।” और व्यापारी वाली भेदक दृष्टि ग्राहर पर गाड़ देता। उसने दो ही दिन में एक और भट्ठी चढ़ाने का जुगाड़ कर लिया। बस, फिर तो सात से चौदह, चौदह से चौबीस और चौबीस से पचास जैसी गिनती शुरू हो गई। पहले लोगों को रंग वगैरह करवाने के लिए दिल्ली जाना पड़ता था और इसी चक्कर में कि कौन जाए दिल्ली साइकिल लेकर, सभी बदशक्ल साइकिलें लिए ही घूमते थे। अब जैसे सबको मौका मिला तो कोई भी यह अवसर चूकने से रहा। धीरे-धीरे आसपास के गाँवों, कस्बों में भी पता चला। लुब्बे-लुबाब यह कि काम चल निकला। जगतनारायण की ज़िन्दगी भी सुधरने लगी। पलंग बन गया, घर का छोटा-मोटा सामान भी जुट गया, पर चाँदी वाला पंघूड़ा आना अभी शेष था। उसने भरतू बढ़ई से बात की, उसने औज़ारों की कमी का रोना रोया कि इतने महीने काम वाली लकड़ी का पालना बनाना उसके बस का नहीं था। पलंग उसने बहुत जानदार बनाया था। जगतनारायण और शकुन्तला अपना पलंग पाकर बड़े प्रसन्न थे। बीच में वे शिवा को लिटा लेते और आसपास खुद लेट जाते। शिवा इस तरह उन्हें सुख भी देता और परेशान भी करता। जब तक पालना बने, तब तक शिवा कहाँ सोऐ, सो उसके लिए एक छोटा-सा खटोला आया।

रामस्वरूप का एक भाई नारायण दिल्ली में था। एक दिन नारायण ने अपने भाई को दिल्ली बुलावा भेजा। नारायण ने साइकिलों की चेन बनाने का एक छोटा-सा कारखाना शुरू किया था, जो चल निकला। साइकिल उद्योग उन दिनों सबसे ज़्यादा प्रगति पर था, इसलिए चेन की खपत भी बहुत थी। उनका माल दिल्ली के साथ सोनीपत और पानीपत भी जाने लगा था। रामस्वरूप के मन में था कि एक दिन वह खुद साइकिल बनाने का धन्धा शुरू करेगा, पर अभी पूँजी के अभाव में हिम्मत नहीं पड़ रही थी। जब नारायण ने बुलवाया तो रामस्वरूप ने अपनी दुकान भी जगतनारायण के जिम्मे की और दिल्ली चला गया। चार महीने बाद रामस्वरूप लौटा और उसने जगतनारायण से कहा-”रायज़ादा साहब, काम तो दिल्ली में है, वहाँ चलो, यहाँ कुछ नहीं बनेगा।”

जगतनारायण अमृतसर, जालन्धर और गाज़ियाबाद छोड़कर बड़ी मुश्किल से अभी व्यवस्थित हो पाया था। रायज़ादा पेंटर की धूम पूरे शहर में और आसपास भी थी। अब वह उखड़ना नहीं चाहता था। इधर शकुन्तला भी फिर माँ बनने वाली थी, सो उसने हाथ जोड़कर मना कर दिया और पूछा-”दुकानों का क्या होगा?”

“अपनी दुकान पर भतीजे को बिठा रहा हूँ। बाकी रही तुम्हारी, ऐसा करो...” कहकर रुक गया।

जगतनारायण रामस्वरूप का मुँह ताकने लगा, कहा-”मैं अपना और इंतज़ाम कर लूँगां”।

“नहीं, मेरा मतलब यह नहीं। अच्छा हो हम साझेदारी खत्म कर दें और तुम दुकान का किराया मुझे दिल्ली भेजते रहना। तीस रुपए महीना।” जगतनारायण को किराया कुछ ज़्यादा लगा, पर उसने ना नहीं की। सोचा, थोड़ी मेहनत और कर लेगा, पर बना-बनाया ठिकाना नहीं छोड़ेगा।