अनहद नाद / भाग-21 / प्रताप सहगल

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प्राइवेट दफ्तर और सरकारी का तंत्र शिवा को एकदम अलग लग रहा था। वहाँ समय की पाबंदी थी, यहाँ आज़ादी है। वहाँ मेज़ पर बैठकर सचमुच काम करना पड़ता था, यहाँ काम का दिखावा ही काफी है। वहाँ बात करने की फुरसत कम मिलती थीं, यहाँ बातों की ही फुरसत सबसे ज़्यादा है। डाह, द्वेष वहाँ भी था, पर उसके पार्श्व में छिपी कहीं एक स्पर्धा भी थी। यहाँ द्वेष तो था, स्पर्धा की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। बाबू संस्कृति को देखना हो तो इन सरकारी दफ्तरों में ही देखना चाहिए। हर काम में टालमटोल करना, बनते काम में नियमों के हवाले देकर रोड़े अटकाना, फाइलें इधर-उधर कर देना, समय पर दफ्तर कभी नहीं आना, पर समय से पहले ही खिसक जाना। चाय, लंच, फिर चाय का समय निश्चित, बीच-बीच में कोई व्यक्तिगत काम हो तो उसे भी दफ्तर के समय में ही निपटा आना। दफ्तर के अंदर दफ्तर के माहौल और सरकार को कोसना, पर दफ्तर से बाहर सरकार से मिल रही कुछ सुविधाओं की शेखी बघारना, कभी ऊँघना, कभी कुर्सी में ही सो जाना जैसी बातें थोड़ी-बहुत प्रायः सभी बाबुओं पर लागू होती थीं। शिवा के लिए यह दुनिया नई थी। समय पर दफ्तर पहुँचता तो देखता सिवाय सेक्शन ऑफिसर के कोई पहुँचा ही नहीं। फिर दफ्तरी आता। झाड़-पोंछ करता। फिर कोई असिस्टेंट, फिर बाबू। शुरू-शुरू में तो शिवा को अटपटा लगा। बाद में उसने रास्ता निकाल लिया। जल्दी पहुँच जाता और अपने कोर्स की कोई किताब निकालकर पढ़ने लग जाता। पढ़ने में मस्त होता तो देर तक पढ़ता। दूसरे बाबू उसे घूरते कि यह ‘विदेशी बाबू’ कहाँ से आ गया।

स्कूल से कॉलिज में प्रवेश करते ही व्यक्ति की दुनिया बदलने लगती है। थोपे हुए अनुशासन की जगह स्व-शासन ले लेता है। आत्मनिर्भरता बढ़ती है। मस्तिष्क के कपाट सभी ओर से खुलने लगते हैं। कई बार उच्छृंखलता भी आती है, पर उसके रू-ब-रू होकर भी व्यक्ति कुछ सीखता है। ईवनिंग कॉलिज में आने वाले छात्रों के लिए यह परिवर्तन अप्रत्याशित नहीं था। सभी कामकाजी थे। कुछ तो शिक्षकों की उम्र से भी बड़े होते। थोड़ा-बहुत सब ने ज़िन्दगी को करीब से देख रखा होता है। ज़िम्मेदारियाँ भी होती हैं। कुल मिलाकर ईवनिंग कॉलिज का माहौल पढ़ने-पढ़ाने वाला था। यूँ तो शिवा का सामना और साक्षात्कार कई प्राध्यापकों से हुआ। हिन्दी के डॉ. कमला और डॉ. वर्मा। अंग्रेज़ी के निगम, जुत्शी और राव भी। शिवा की सबसे अधिक निकटता संस्कृत के प्राध्यापक अनूपलाल से हुई। अपनी पहली ही क्लास में अनूपलाल ने शिवा को और संभवतः शिवा ने भी अनूपलाल को अपनी ओर आकृष्ट किया। एक-दूसरे पर अलग-अलग तरह से प्रभाव छोड़ा। अनूपलाल का कद छोटा और शरीर गठीला था। सिर पर बाल कम, रंग साँवला। आँखों में एक तेज़ चमक और रोम-रोम में फुर्तीलापन। शिवा को अपने प्राध्यापकों के साथ टकराने में विशेष आनंद आता। भले ही दयाराम शिवा की अंग्रेज़ी को अच्छा कहता था, पर शिवा जानता था कि अंग्रेज़ी उसे बहुत अच्छी नहीं आती थी। जब अंग्रेज़ी की क्लास में जुत्शी ने कश्मीरी रंगत के साथ कैम्ब्रिज उच्चारण वाली फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलना शुरू की तो शिवा सिकुड़ ही गया। ऐसे ही जब डॉ. राव ने हॉकी की कमेंटरी की रफ्तार से मद्रासी रंगत वाली अंग्रेज़ी बोली तो शिवा के हाथों के तोते उड़ गए। उसे समझ ही नहीं आया कि इनका सामना वह अंग्रेज़ी में कैसे करे। यह तो डॉ. राव ने एस्से लिखने को कहा और शिवा ने कुछ ठीक-ठाक लिख दिया तो उसका कुछ-कुछ तालमेल राव के साथ बनने लगा। तब वह कुछ प्रश्न उठाकर कक्षा पर अपनी धाक जमाने लगा। हिन्दी के डॉ. अग्रवाल ने आत्मा-परमात्मा के संबंधों का प्रश्न उठा दिया। गीता का भी हवाला दिया। शिवा के लिए अपना पांडित्य-प्रदर्शन करने के लिए इससे अच्छा अवसर और मिलने वाला नहीं था। अनूपलाल के साथ उसकी पहली टकराहट कुछ इस प्रकार से थी-अनूपलाल ने पहले ही दिन ‘शकुन्तला’ पढ़ाना शुरू किया। श्लोक का अनन्वय करके अंग्रेज़ी में अनुवाद कर दिया। शिवा के लिए यह एक बहस का विषय था।

“सर, संस्कृत और अंग्रेज़ी में!”

“यस, एनी प्रॉब्लम?”

“सर, संस्कृत पढ़ाने का माध्यम अंग्रेज़ी कैसे हो सकता है?”

“व्हाइ नॉट!” कहकर वे थोड़ा हँसे।

दूसरे लड़के भी यही बात कहना चाहते थे, न जाने किस डर के मारे खामोश रहे। आर्य समाज ने शिवा को तर्क करने की शक्ति और निर्भीकता तो दी ही थी। शिवा इन गुणों को अन्तिम परिणति तक ले जाना चाहता था। यह बात और है कि अन्तिम परिणति की कोई स्पष्ट सीमा-रेखा उसके सामने नहीं थी।

“सर, संस्कृत हिन्दी की जननी है। इतने करीब है, फिर अंग्रेज़ी की यहाँ क्या ज़रूरत है?”

“इट्स ए क्वेश्चन ऑफ मीडियम ओनली एंड बाई दि वे आइ मस्ट टैल यू इंगलिश ग्रामर इज़ मोर क्लोज़ टू संस्कृत दैन हिन्दी ग्रामर।”

“इम्पॉसिबल।” शिवा भी अंग्रेज़ी में ही बोल गया। फिर सँभला। “लेकिन सर, जो भी हो, हमें तो हिन्दी में ही पढ़ाइए।” हम संस्कृत अंग्रेज़ी माध्यम में कैसे पढ़ सकते हैं?”

“डिड्न्ट यू रीड द प्रॉसपैक्टस, मीडियम ऑफ इन्स्ट्रक्शन इज़ इंगलिश हियर।”

“इको, पोल साइंस, ओ.के. बट व्हाइ संस्कृत!”

“लैट अस सी, ट्राई टू अंडरस्टैंड व्हाइ आई से...वी विल डिस्कस दिस प्रॉब्लम लेटर ऑन।” कहकर अनूपलाल ने पढ़ाना शुरू कर दिया। शिवा के लिए संस्कृत अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ना-कल्पना से भी बाहर। परेशान शिवा पीरियड खत्म होने का इन्तज़ार करता रहा और घंटा बजते ही उसने अनूपलाल को घेर लिया। अनूपलाल कॉलिज के पास ही एक कॉलोनी में रहते थे। शिवा भी उनके साथ हो लिया। साइकिल हाथ में पकड़े-पकड़े शिवा और अनूपलाल बातें करते चले। अनूपलाल ने शिवा के परिवार के बारे में पूछा। अपने पढ़ाने के ढंग की प्रशंसा के लिए शिवा को उकसाया और संस्कृत साहित्य से इतर बहुत-सी बातें कीं।

एक दिन शिवा करीब रात आठ बजे कॉलिज से लौट रहा था। सर्दियाँ शुरू होने को थीं। रास्ते में कई कालोनियाँ पड़ती थीं। वेस्ट पटेल नगर के पास आकर रुकती हुई बस के पीछे उसने साइकिल को ब्रेक लगाया और सड़क पर पाँव टिकाकर खड़ा हो गया। उसकी नज़र बाईं ओर मुड़ी। वहाँ सुमन खड़ी थी। उसने भी शिवा को देख लिया था। उसका एक पाँव सड़क पर और दूसरा बस के पायदान पर था। कंडक्टर ने बस चलने के लिए घंटी बजा दी। सुमन ने पायदान से पाँव नीचे खींच लिया। शिवा ने उसके पास जाकर कहा-”तुम यहाँ, इस वक्त!”

“हाँ।”

“कैसे?”

“यहाँ पढ़ती हूँ।”

“क्या?”

“मैट्रिक कर रही हूँ।”

शिवा ने सरसरी तौर पर सुना तो था कि सुमन ने भी फिर से पढ़ना शुरू कर दिया है, लेकिन इतने दिनों के अन्तराल ने सुमन के प्रति उसकी दिलचस्पी कुछ कम कर दी थी। सुमन का इस तरह से अप्रत्याशित मिलना और बस पर चढ़ते-चढ़ते लौट आना उसे अच्छा लगा। वह समझ नहीं पा रहा था कि इतने दिनों बाद सुमन उसके लिए रुकी क्यों है।

“आप क्या कर रहे हैं?” सुमन के मुँह से ‘आप’ संबोधन शिवा को काट-सा गया। सोचा, अन्तराल ही औपचारिकता पैदा करता है। दो-तीन बसें आईं, चली गईं। सुमन वहीं खड़ी रही। शिवा ने ही पूछा-”चलें?”

“हाँ।”

और दोनों चुपचाप सड़क के किनारे-किनारे चलने लगे।

“पढ़ने का विचार कैसे बन गया?” शिवा ने पूछा।

“आप जो पढ़ रहे हो।”

शिवा के लिए यह उत्तर भी अप्रत्याशित था। वह पढ़ रहा है तो क्या! इतने दिनों तक तो कभी मिली नहीं, हमेशा कन्नी काटती रही। आज अचानक मिली और एकाएक दूरी को निकटता में बदल देना चाहती है। उसे सुमन के साथ गुज़ारे हुए दिन याद आने लगे। उसने कहा-”चलो घर छोड़ देता हूँ।” सुमन खामोशी से साइकिल के डंडे पर बैठ गई। शिवा साइकिल पर सवार होकर धीरे-धीरे पैडल मारने लगा। सुमन ने सिर को हलका-सा शिवा के दाएँ कंधे पर पर टिका दिया। बोली-”आपसे बात भी करनी है।”

“पहले यह आप-आप छोड़ो।”

“इतने-इतने दिन नहीं मिलोगे तो तुम से आप तो हो ही जाओगे।”

“मिला मैं नहीं या तुम?”

“मैं तो न जाने कब से मिलना चाहती थी।”

“बेकार बात। कोशिश मैं करता रहा। भागती तुम रहीं और आज यकायक...।”

“तुम नहीं समझोगे शिवा! लड़की का दिल नहीं समझोगे तुम...लेखक हो न, सिर्फ कल्पना करते हो, हकीकत नहीं जानते।”

तर्क शिवा की समझ में नहीं आया, फिर भी कहा-”हो सकता है, पर बात तो ठीक ही कह रहा हूँ।”

“मैंने बहुत कोशिश की कि तुम्हें भूल जाऊँ।”

“क्यों?”

“इसलिए कि मैं तुम्हारे काबिल नहीं रही।” ऐसे-ऐसे संवाद उसने रोमानी उपन्यासों में पढ़े थे। फिल्मों में भी देखे-सुने थे। वही बात सुमन कह रही थी तो उसका अर्थ ही कुछ और निकल रहा था।

“मैं समझा नहीं।”

“मैं राह से भटक गई थी।”

“यानी?”

“नहीं, ऐसी-वैसी बात कुछ नहीं है। बस, कुछ लोग मुझे परेशान करने लगे थे। मुझे बदनाम कर दिया...तुमने भी कुछ सुना तो होगा?”

“सुना तो बहुत है...।” तभी उसे चावला की बात याद आई कि ऐसी लड़कियाँ बीवी बनाने के काबिल नहीं होतीं। उसकी इस बात का शिवा ने प्रतिरोध किया था तो उसने कहा था, “पैसे खर्च करो, उसे आज ही रात तुम्हारे सामने लाकर खड़ा कर देता हूँ।” शिवा सहम गया था। वह जानता था, चावला हवा में बात करने वाला आदमी नहीं है। बात टाल गया था। उसे कुछ यकीन नहीं हुआ था और आज सुमन खुद कुछ वैसी ही बात कर रही है। उसने सुमन को कुछ नहीं कहा। बस, उसके बालों में हलका-सा हाथ फेर दिया।

इतनी ही देर में शादीपुर डिपो के पास पहुँचे कि सुमन ने कहा-”इधर से चलते हैं।”

शिवा ने बलजीत नगर की ओर साइकिल मोड़ दी। रास्ता बेहद खराब था। वह साइकिल से उतर गया। सुमन थी। दोनों पैदल चलने लगे। रास्ते में रेल की पटरी थी। उसे पार किया। सारे रास्ते सुमन अपनी बहनों और सहेलियों की बातें करती रही। अपने भविष्य की बातें और शिवा के मन से अपने खिलाफ जमी किसी भी बात को निकालने की कोशिशें।

सुमन शिवा को बता ही रही थी कि पीछे दो-तीन गुंडे पड़े हुए हैं और उसे उनसे बड़ा डर लगता है कि अचानक दो लड़कों ने ठीक शिवा के सामने आकर अपनी-अपनी साइकिल रोक दी। सुमन से मुखातिब होकर एक ने कहा-”कहाँ जा रही है?”

“क्या लगता है यह तेरा?” दूसरे ने पूछा।

“कज़िन!” सुमन ने हलके से जवाब देते हुए कहा, “शिवा! यह जस्सी है और यह पम्मी।”

शिवा ने दोनों को देखा। जस्सी 22-23 साल का होगा। शरीर गठा हुआ, रंग काला। आँखें बड़ी-बड़ी और चढ़ी हुई। जैसे बोतल शराब पी रखी हो। पम्मी थोड़ा पतला था। रंग भी साफ और सिर पर घने बाल।

“इधर कहाँ घूम रहे हो?”

शिवा को क्षण-भर समझ नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। कहना चाहता था कि वह सुमन का कोई कज़िन-वज़िन नहीं है। प्रेमी है या फिर ज़्यादा से ज़्यादा एक दोस्त है। सुमन ने ‘कज़िन’ कहकर उसका परिचय क्यों करवाया? यह कोई रणनीति है, विवशता है या कायरता? वह मन ही मन कई समीकरण बिठा ही रहा था कि जस्सी ने सुमन से कहा-”चल चाय पीते हैं।”

रेल की पटरी पार करके थोड़ी दूर जाने के बाद एक छोटा-सा रेस्तराँ था।

“मैं चलूँ?” शिवा ने पूछा।

“नहीं’ नहीं। तुम भी हमारे साथ चलो।” जस्सी ने इतने रौब से कहा कि शिवा न नहीं कर सका। चारों रेस्तराँ में दाखिल हुए। एक कोने में चारों बैठ गए। जस्सी ने चाय का ऑर्डर दिया और शिवा से सीधा ही कहने लगा-”देखो शिवा! हम जानते हैं कि तुम इसके कोई कज़िन-वज़िन नहीं, इसके प्रेमी हो। शायद हमसे पहले के...इसने तुम्हें धोखा दिया है, मुझे भी धोखा दे रही है। मैं इससे तो निपट लूँगा, पर तुम इसके चक्कर में पड़ोगे तो मारे जाओगे।” सुमन नज़रें नीची किए चुपचाप बैठी रही। शिवा को काटो तो खून नहीं। सब कुछ इतनी तेज़ी से घट गया कि वह समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या कहे, क्या न कहे। सुमन भी तो कुछ बोल नहीं रही थी। पम्मी ने कहा-”हम बस इतना ही कहने आए हैं और तू भी सुन ले, तूने अगर इससे मिलने की कोशिश की तो हम इसके हाथ-पैर तोड़ देंगे।”

अब शिवा से नहीं रहा गया-”मज़ाक है क्या, हाथ-पैर तोड़ देंगे। मेरे हाथों में चूड़ियाँ हैं क्या?”

जस्सी ने पम्मी का हाथ दबाते हुए कहा-”छोड़ न, मालूम है शिवा हमसे ज़्यादा समझदार है।”

“धमकी भी, होशियारी भी...।” शिवा ने कहा।

तभी चाय आ गई।

“मेरी इच्छा नहीं है।” शिवा ने कहा। सुमन ने भी कहा।

जस्सी बोला-”चाय पी ले यार! हम तेरे से लड़ने नहीं आए, समझाने भी नहीं आए, बस बताने आए हैं इसकी असलियत। सारी बात बोल दूँ न तो तुम कभी भी इसकी शक्ल देखना पसन्द नहीं करोगे।”

“ऐसी क्या बात है?” शिवा ने पूछा।

“जाने दो।” जस्सी ने जवाब दिया और चाय पीने लगा। पम्मी भी खामोशी से चाय पीता रहा।

“चाय तो पी लो यार! ज़हर नहीं है इसमें। यह लड़कियाँ तो आती-जाती रहती है। कभी मिलोगे न तो सब समझा दूँगा।”

शिवा सोच रहा था कि जिन्हें सुमन गुंडा कह रही थी, वे तो ठीक तरह से ही पेश आ रहे हैं। हाँ, पम्मी ने थोड़ी तेज़ी ज़रूर दिखाई थी, उसे भी जस्सी ने डाँट दिया। आखिर चक्कर क्या है? इनके पास इतनी देर से बैठी सुमन कुछ भी बोल क्यों नहीं रही? क्या चावला, श्रीचन्द और दूसरे तमाम लोगों की बातें सही हैं? क्या सुमन वाकई गश्ती हो चुकी है? हो चुकी है तो? तो? यह ‘तो’ उसके ज़हन में लटक गया। सोचा, जो भी हो, वह इस बात का पता लगाएगा। फिलहाल उसे जस्सी की नम्रता का जवाब भी विनम्रता से ही देना चाहिए। उसने चाय पी ली। सुमन ने भी।

अगले दिन शिवा फिर उसी समय वेस्ट पटेल नगर के स्टैंड पर पहुँचा। उसकी आशा के विपरीत सुमन वहाँ नहीं थी। वह इन्तज़ार करने लगा। शायद क्लास देर से छूटे। शायद कोई और वजह हो। लगभग आधा घंटा इन्तज़ार करने के बाद भी जब सुमन नहीं आई तो शिवा चलने को तैयार हुआ। तभी उसके कंधे पर एक ठोस हाथ पड़ा। “सुमन का इन्तज़ार कर रहे हो?” उसने घूमकर देखा, जस्सी था। अकेला। उभरी हुई डरावनी-सी आँखें शिवा पर टिकी थीं-”वह अब नहीं आएगी।”

“कुछ कहा उसने?”

“क्या कहेगी स्याली। चल रसगुल्ला खाते हैं।” जस्सी का सुमन को ‘स्याली’ कहना अच्छा तो नहीं लगा, उसने कोई प्रतिरोध भी नहीं किया। उसके दिमाग में स्कूल के दिन तेज़ी से घूमने लगे। भूषण उसे बहुत याद आने लगा। जस्सी ने किसी तरह की भी बदतमीज़ी तो शिवा से नहीं की थी, फिर भी शिवा उसकी सूरत और नम्रता-भरी बातों से अंदर ही अंदर कहीं डरने लगा था। उसे जस्सी किसी जासूसी उपन्यास का रहस्यमय चरित्र लगने लगा।

दोनों सड़क किनारे ही एक छोटे-से रेस्तराँ में जा बैठे। जस्सी ने रसगुल्लों का ऑर्डर दे दिया।

“तुम इसके चक्कर में क्यों पड़े हो?” जस्सी ने सीधे ही शिवा पर सवाल दागा।

“हमारी पहचान बड़ी पुरानी है।” शिवा ने कहा।

“पहचान ही है न?”

शिवा अचकचाया-”मैं उसे प्यार करता हूँ।”

जस्सी हलका-सा मुस्कराया-”वो तो कल तुम्हें कज़िन बना रही थी।”

“पता नहीं, क्यों कहा उसने।”

“मैं जानता हूँ।”

“क्या?”

“छोड़ो, वो तुम्हारे लिए ठीक नहीं है।”

“यह बताने वाले तुम कौन हो?”

“कोई भी नहीं। बस, कल तुम्हें देखा, बात की। तुम मुझे अच्छे लगे। इसलिए आज भी चला आया। वैसे बन्दा पार करना हमारे लिए कोई मुश्किल नहीं है।”

रसगुल्ला काटते-काटते शिवा रुक गया-”मतलब?”

“छोड़ो, तुम्हें कुछ नहीं होगा। तुमसे तो मैं दोस्ती करना चाहता हूँ।”

शिवा ने रसगुल्ले का टुकड़ा मुँह में डालते हुए कहा-”तुम सुमन के पीछे क्यों पड़े हो?” “उसने मुझसे प्यार किया है...ग़लत...प्यार नहीं, प्यार का नाटक।”

“यानी?”

“हाँ शिवा! यह नाटक कई दिन चलता रहा। फिर मुझे तुम्हारे बारे में पता चला। मैंने सोचा ऐसा तो ज़िन्दगी में होता है। मेरी ज़िन्दगी में भी कई लड़कियाँ आईं-गईं, कोई फर्क नहीं पड़ा। प्यार का नाटक कहीं नहीं हुआ। इसने मुझे कई महीनों तक पागल बनाए रखा और एक दिन मैंने इसे राजघाट पर किसी और के साथ घूमते देखा। मैंने पूछा, वह भी इसका कज़िन था। मैं भी कई जगह इसका कज़िन बन चुका हूँ। बहुत दबाव देने के बाद भी जब इसने नहीं बताया तो मैंने खुद पता लगा लिया। वह उसके साथ भी प्यार का नाटक खेल रही थी। फिर पता चला कि यह भारी रकम लेकर धंधा करती है। बस, मुझे तो आग लग गई। तुम चौंकना मत शिवा! अगले दिन जैसे-तैसे मैं इसे अपने एक दोस्त के होटल में ले गया। पूरी रात दस आदमी निकाले इसके ऊपर से। मैंने तो बदला ले लिया, पर इस स्याली को पूरा बरबाद करके ही मुझे चैन मिलेगा।”

शिवा सन्न-सा खामोश बैठा रहा। रसगुल्ले खाने के बावजूद मुँह में कसैलापन भरने लगा। उसने सोचा, जस्सी झूठ बोलकर शायद उसे भड़काना चाहता है, ताकि मैं सुमन के करीब न जाऊँ और जस्सी ही जैसे चाहे, उसे रखे। नहीं लेकिन जस्सी झूठ क्यों बोलने लगा। जब वह बयान कर रहा था तो उसकी आवाज़ में एक तल्खी के साथ ही बेचैनी भी थी। कुछ रोष भी था।

“मुझे यह सब बताने का मतलब?” शिवा ने फिर से कुछ टटोलना चाहा।

“सुमन एक कुआँ है शिवा! यह जानकर भी तुम उसमें गिरना चाहते हो तो गिरो...हाँ, यह ध्यान रखना कि मैं उसे छोड़ूँगा नहीं।”

“धमकी!”

“जो समझो।”

“यह कैसी दोस्ती!”

“जो भी समझो।”

शिवा को अंदर ही अंदर गुस्सा आया कि अभी एक थप्पड़ जस्सी के मुँह पर दे मारे और कहे-‘तुम झूठ बोलते हो। तुम मुझे भड़काकर सुमन से अलग करना चाहते हो।’ पर उसने कुछ नहीं कहा। बाहर साइकिल उठाकर चल दिया। परेशान। सारे रास्ते उसे जस्सी की बातें कचोटती रहीं। दस आदमी। सुमन, श्रीचन्द, चावला। लोग, बकवास। यह नहीं हो सकता। सुमन को बदनाम करते हैं। वह खुद ही सुमन से पूछेगा और जस्सी को तो वह ज़रूर सबक सिखाएगा। गुंडा कहीं का! तभी उसे घई का ध्यान आया। क्यों न वह घई उस्ताद से मिलकर मदद ले। नहीं, एक गुंडे को मरवाने के लिए दूसरे गुंडे की शरण में जाना ठीक नहीं है। लड़ाई हमेशा अपने बलबूते पर ही लड़नी चाहिए। दूसरों के सहारे लड़ी लड़ाई कभी भी हार में बदल सकती है। शिवा ने सोचा, वह क्यों न सारी बात अपने प्रोफेसर अनूपलाल के सामने रखकर उनसे राय ले। पर अभी वह खुद को उनके इतना करीब महसूस नहीं कर रहा था। सबसे पहले उसे सुमन से ही बात करनी चाहिए।