अनहोनी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
तीन बरस केनां बीती गेलै जैवा केॅ पतेॅ नै चललै। भंसा-भात, झाड़ू-बुहारू, गोबर-काठी, बरतन-बासन लेली सेथरोॅ नौकर-चाकर छेलै। आठ-दस जनानी अगहनोॅ सें चैत तक ढ़ेकी में धान कूटतैं रहै छेलै। सोनमनी मड़रोॅ के अकबाल बुलन्दी पर छेलै। ऐन्हा में जैवा आपनो पूरा समय पढ़ै में ही लगाय देनें रहै। तीन सालोॅ में किरपा नीलमोहन पंडीजी केॅ, जैवा हुट्टा, कट्ठा, एगरगरहां सब खोड़ा पढ़ी लेलकै। कोय भी किताब झाड़ी केॅ पढ़ेॅ लागलै। जे लिखावै नीलमोहन पंडीजी फटाफट लिखी दै। जैवा केॅ रोजे पंडीजी खैला-पीला के बाद रामायण पढ़ै लेॅ बैठाय देॅ। बड़का पक्का रो दुआर, तीस-पैंतीस हाथों से कम नै होतै। पूरब मुँहोॅ रो ई दुआरी के आगू में दस-बारह बीघा केॅ बथान। बथानी पर गाय, बैल खुट्टा में पंझडै़।
दुआरी में उत्तर-दक्खिन दोनों बगलोॅ में दूगो कोठरी छेलै। उतरवारी कोठरी में पंडीजी रहै छेलै आरो दखनवारी कोॅर कुटुमोॅ लेली सुरक्षित रहै छेलै। बंगला के ठीक बीचोॅ में एक बड़ोॅ चौकी पर सोनमनी मड़र सूतै छेलै। सभ्भेॅ नौकर-चाकरोॅ के कामोॅ सें फुसरत होय के वहेॅ बेरा छेलै आरो तखनिये जैवा रामायण पढ़ना शुरू करै। साथोॅ में पंडीजी राग-रागिनी, स्वर के उतार-चढ़ाव रो गियान भी बताबै।
रात के शांत, निस्तब्ध पहर में जबेॅ रामायण पाठ के स्वर गूंजै तेॅ टोला-पड़ोसोॅ तक केॅ वातावरण पवित्रा होय जाय। आवाज सुनथैं सुतवोॅ छोड़ी केॅ हुमा, शलिगराम आरो चकरधर दौड़ी केॅ दुआरी पर आबी जाय। "बोलोॅ शियावर रामचन्द्र की जै" के मिललोॅ-जुललोॅ समवेत ध्वनि सें पत्थर भी पसीजी जाय छेलै। एक-डेढ़ घंटा रोज के ई क्रम सालोॅ भर पंडीजी के बिना कोय बाधा रो चलतें रहै छेलै।
बियाह केॅ तेसरोॅ साल पूरा होतैं, ससुरारी सें गौना लेली कठमंगिया ऐलै। कठमंगिया लैकेॅ एैलोॅ ठाकुर (लौआ) के स्वागत-सत्कार खूब होलै। घरोॅ में जोॅर-जनानी कठ पर एैलोॅ कपड़ा, साड़ी, सिंगारोॅ के सामान देखी-देखी खूब खुश छेलै, मतुर देर रात जबेॅ सोनमनी एैलेॅ तेॅ गोस्सा से आग बबूला होय गेलै। बड़का बेटा लालजी आरो सोनमनी के बीचोॅ में कहासुनी होय गेलै। बाप गौना दैलेॅ एकदम तैयार नै छेलै। जबेॅ कि लालजी रो विचार छेलै कि गौना दै देना ही चाहियोॅ। घरोॅ में लगभग सभ्भै लालजी के विचारोॅ सें सहमत छेलै लेकिन सोनमनी मड़रें जे नै के जिद पकड़ी लेलकै से फेरू हों नै बोललै।
लालजी आपनोॅ पक्ष राखतैं हुअें कहलकै-"बाबू, एैलोॅ कठ घुरैला सें कुटुम नाराज होय जैतौं।"
"हमरा बिना पूछनें कुटुमें कठ भेजलकै कैन्हेॅ। कत्तेॅ दूर बाजा गाँव छै। दै वाला कोय सामान बनलोॅ नै छै। पलंगे बनै में महिना भर लागी जैतेॅ। तोसक, तकिया, चादर तेॅ दू-चार दिनों में होय जैतेॅ मतुर ।" सोनमनी के कहना भी उचितेॅ छेलै। आगू फेरू सोनमनी कहलकै-"आभी जैवा के ससुराल बसै के उमर भी कहाँ होलोॅ छै। हम्में तेॅ शुरूवे सें पाँच बरसोॅ में गौना दैकेॅ बात मनोॅ में सोचनें छियै। रोजे हम्में बेटी केॅ निरियासी केॅ देखै छियै आरो औंगरी पर उमरे जोड़तें रहै छियै। नै हो, हम्में पाँच बरसोॅ के पैन्हें गौना नै दियै परबै। यहेॅ साल-दू साल तेॅ बेटी खेलतै-खैतेॅ। ससुराल बसला के बाद बेटी लेली सुख आरो आरामोॅ के दिन सपना होय जाय छै।"
लालजी यै तोड़ोॅ में कोय जवाब नै दियै पारलकै। एतन्हें टा बोललै-"अच्छे सोचनें छोॅ बाबू। मतुर ठाकुरोॅ पर गोसाय केॅ नै बोलिहो। आखिर बेटी वहेॅ घोॅर जैतौं न।"
सोनमनी आय ज़रूरत सें जादा शांत आरो गंभीर छेलै। लालजी केॅ समझैतें हुअें कहेॅ लागलै-"जीवन में जौं तोरा बापें गोस्सा करनें रहतियौ तेॅ आय अत्तेॅ संपति, जमीन ने अरजै पारतिहौ। शुन्नां सें सौ तांय पहुँचैनें छियै हम्में। हजार-बारह सौ गाय, चार-पाँच सौ बीघा जमीन यही बुद्धि सें कमैनें छियै। बड़का-बड़का घर-खानदानोॅ में बियाह-शादी करलियै। बसुआ पौरा में नागेसर मड़रोॅ कन तोरो वियाह की साधारण बात बूझै छैं लालजी. तोरा ससुरोॅ दुआरी पर हाथी झूलै छौ।"
"जैवा रो ससुरार भी कम नै छै। सौसे बाजा गांव ऐकरे ससुरोॅ के जमींदारी।" लालजी घरोॅ-ओसरा पर खाड़ोॅ सभ्भेॅ परिवारोॅ केॅ कम, माय पीछू में नुकैली-छिपली जैवा केॅ वेशी सुनाय केॅ बोललै। "तहियो बेटा, जनानी वासतें ससुरार जेलोॅ सें कम नै होय छै। सास-ससुर, भैसूर, पति सबके कड़ा पहरा में रहै लेॅ पड़ै छै। ... आरो जत्तेॅ बड़ोॅ घोॅर वोत्तेॅ खटनी वेशी। माय आरो कनियाय केॅ नै देखै छैं। दिन-रात, चौबीसोॅ घंटा घोॅर संभालतें बेदम होय जाय छै। कहावतोॅ में की झूठ कहनें छै-" बड़ोॅ घोॅर नै जाइयें बेटी, ईंटो ढ़ोय-ढ़ोय मरबें बेटी"। यहेॅ सब सोची केॅ जैवा रौ गौना टारी रहलोॅ छियै।" सोनमनी आपनोॅ बातोॅ के आरो स्पष्ट करलकै।
गौना तेॅ खैर टरिये गेलै। गौना टलवोॅ सें सबसें बेशी खुश छेलै जैवा। माय-बाप, भाय-भौजाय, बहिन केॅ छोड़ी केॅ कोय केनां चल्लोॅ जाय छै, है कलपनें सें जैवा केॅ मोॅन केनां-केनां न करेॅ लागै छेलै। सबसें बेशी मोह, प्रेम जैवा के आपनोॅ बड़ोॅ भाय लालजी के बेटा शालिगराम आरो चकरधरोॅ सें छेलै जे सुततें-जागतें हरदम साथैं खेलै-खाय छेलै। हुमा आरो कारी गाय जैवा के प्राण छेलै। की मजाल करकी गाय रो दूध कोय एक्को बूंद बखरा करी लियै।
जैवा रो ससुर भी समझदार छेलै। समधी के बातोॅ केॅ मानी लेलकै। फगुआ के पैन्हेॅ कठ लैकेॅ ठाकुर ऐलौेॅ छेलै। पुरकस मंजर ऐलौ छेलै आमोॅ में। छोटोॅ-छोटोॅ टिकोला भी फूटेॅ लागलोॅ छेलै। बगीचा में कोयल कूकै रात, दिन आरो आगोॅ सें तपलोॅ दुपहरिया तक में। बेटी पराया धन होय छै ई सौसे मड़र परिवारें समझी केॅ जैवा परकोॅ लगैलोॅ रोक-टोक में ढ़ील दै देनें छेलै। जैवा भी सबकुछ बिसरी केॅ जेरोॅ-साथी साथें बगीचा में अट्टागोटी खेलै या टिकोला तोड़ी केॅ घुघनी बनाबै, खाय, खेलै। साँझ केॅ सभ्भेॅ साथें मिली केॅ रामायण पाठ रो काम बिना कोय रोक-टोक के चलै छेलै।
इसकूल जायके कोय सवाले नै छेलै। बेटी के इस्कूल जैवो मान-मरजादा के खिलाफ मानलोॅ जाय छेलै। जैवा स्कूल जाय के जिद करी केॅ थक्की गेलोॅ रहै। सोनमनी के छोटका बेटा अधिकलालें बांका रानी महकम कुमारी हाई स्कूल में पढ़ै छेलै।
आखिर जैवा के उमरे कत्तेॅ छेलै। खेलै-खाय में दिन बीतेॅ लागलै। फागुन-चैत बीतलै। बैशाख-जेठ के बाद सौेॅन-भादोॅ भी बीतलै। रोपा के बाद आसिनोॅ में धानोॅ गंभड़ेॅ लागलै। कातिक शुरू होय गेलोॅ छेलै। ई महिना में चाहे जे कारण हुअेॅ गाँव गड़बड़ होय छेलै। गड़बड़ रो माने हैजा फैलबोॅ होय छेलै। शायदे कोय गाँव हैजा रो परकोप सें बचतें होतै। घोॅर-रो-घोॅर, गाँव रो गाँव मुरदघट्टी में बदली जाय छेलै। पांती लगी केॅ मुरदा जलै छेलै। 'दोहाय काली माय की जै' जपी केॅ रात कटै छेलै। कन्ना-रोहट, चींख पुकार सें सरंगोॅ के छाती तक दहली जाय छेलै। कोय मदद करै वाला नै। अंगरेज सरकारोॅ केॅ ऐकरा सें कोय मतलब नै। मरै छै कारोॅ असभ्य लोग, हिन्दुस्तानी, मरेॅ दहीं रो भावोॅ में ही काम चलै छेलै।
ऐन्हें में बाजा गाँव में भी हैजा होलै। आरो जैवा के सुहाग उजड़ी गेलै। जवान गभरू रंग लंबा-चौड़ा, हट्टा-कट्ठा जवान, आभी मोछोॅ रो रेख होले आबै छेलै कुलदीपोॅ केॅ, बेचारा हैजा के भेंट चढ़ी गेलै। दुनियां देखै के सपना संजोलेॅ हैजा रूपी कालें हुनका निगली गेलै।
मिर्जापुर खबर ऐलै। खबर देवैया गाँव सें एक बहियार दूरैं सें खबर दैकेॅ उलटे गोड़ें लौटी गेलै। गाँव आवेॅ के सवाले नै छेलै। सभ्भें जानै छेलै, ई भयानक छूत रोग, जहाँ-जहाँ कदम पड़ते वहाँ फैलेॅ पारै छै।
समदियां कहलकै-"सांझें पेटोॅ में दरद उठलै। सांग भीसै वाला दरद; पैखाना, उलटी दोनों हुअेॅ लागलै। दोनों कोठी शुरू होला के बाद के बचाबै पारै छै। भोरे पहरें दम छूटी गेलै।"
सौसे मड़र परिवार दुख आरो शोकोॅ में डूबी गेलै। गाँव, गोतिया जें जहाँ सुनलकै भोकार पारी केॅ कानै लागलै। समझ आरो जवानी के देहरी पर गोड़ धरतें जैवा के अरमानोॅ रो दीया बूती गेलोॅ छेलै।
"हे विधाता, हे गे काली माय! हमरै माथा बज्जड़।" कही केॅ जैवा रो माय मनरूपा खाड़े ऐंगना में चार चित गिरी गेलै। दांती लागी गेलै मनरूपा केॅ। कानले दौड़लै सोनमनी मड़र आरो बेटा लालजी. पानी रो छींट्टा मुँहोॅ पर मारलकै, दांती छोडै़लकै।
मरद तेॅ मरद होय छै। धीरज, धरम तेॅ ओकरै निभाना छै। ई सोची केॅ दुनूं बाप-बेटा बुक बान्हलकै। करेजा पर पत्थर राखी केॅ जैवा केॅ खोजै लागलै। सभ्भेॅ केॅ कानतें-हकरतें देखी केॅ लालजी रो भंसियां पंचोॅ जैवा केॅ संभारलेॅ छेलै। जैवा केॅ मुकमुकी लागी गेलोॅ रहै। नै आँखी में लोर नै मुंहों में बोली। वियाह की होय छै, ऐकरो स्वाद को रंग होय छै, यै बातोॅ सें अनजान जैवा बाबू और भैया केॅ देखतैं बच्चा नांकी बिलखी-बिलखी कानै लागलै।
नीलमोहन पंडीजी एैलेॅ आरो जैवा के माथा पर हाथ धरी केॅ कहलकै-"होनी केॅ के टारेॅ पारेॅ। धीरज राखोॅ।" कहै रो तेॅ पंडीजी धीरज के बात कही गेलै मतुर हुनी आँखोॅ केॅ रोकेॅ नै पारलकै। कपसी-कपसी कानें लागलै-"बज्र गिरबोॅ ऐकरै कहै छै। एकरा से बड़ोॅ दुख की होतै।"
तखनी सांझ होय रहलोॅ छेलै। जैवा के सूरज डूबाय केॅ खुद भगवान सूरज डूबै लेॅ जाय रहलोॅ छेलै।
पंडीजी कहलकै-"दुपहरिया सें सांझ होय गेलै। कानतें-कपसतें मरी जैभोॅ, जे मरी गेलै उ$ लौटतै नै। जैवा केॅ नभावोॅ, ओकरोॅ कपड़ा बदलोॅ, चूड़ी फोड़ोॅ, सीथी रो सिनूर ..." आगू पंडीजी बोलेॅ नै पारलै। " है सीनी खटकरम तेॅ करै लेॅ पड़थौं। बोलतें आरो आँख पोछतें नीलमोहन पंडीजी बंगला दिस चल्लोॅ गेलै।