अनागत का भविष्य / योगेश गुप्त

Gadya Kosh से
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आधी रात निकल चुकी है। रेल तेज़ चाल से चली जा रही है। लक्सर का स्टेशन आने वाला है। यहाँ काफ़ी देर गाड़ी रुकेगी। फर्स्ट क्लास के डिब्बे में एक बर्थ पर सिल्क की चादर ओढ़े छाया लेटी है। उसकी बर्थ पर की रोशनी बुझी है। पास ही शैलेन्द्र बैठा कोई किताब पढ़ रहा है। रोशनी की कमी में किताब उसने बिल्कुल आँखों से लगा रखी है। पता नहीं वह पढ़ भी रहा है या नहीं। पर काफ़ी देर से वह कुछ बोला नहीं, न ही किताब पर से नज़र हटाई है। छाया जाग रही है, इस बात का उसे पता है।

पूरे डिब्बे में उन दिनों के सिवाय कोई नहीं है।

रेल बहुत तेज़ चाल से बढ़ी जा रही है। काफ़ी देर उसे चलते हो गई है। हवा में हल्की सर्दी महसूस हो रही है। कुछ देर पहले शैलेन्द्र ने आसपास की सब खिड़कियों को बंद करना चाहा था, पर छाया ने मना कर दिया। उसे नींद नहीं आ रही है, रोशनी बुरी लग रही है। वह नहीं चाहती कि शैलेन्द्र इस समय पढ़े। उसकी इच्छा थी कि कुछ बातचीत हो जाए। शैलेन्द्र बातें नहीं कर पा रहा है। इसीलिए वह चुपचाप बत्ती बुझाकर लेट गई है। लेटकर वह एक खास तरह का आनन्द ले रही है। शैलेन्द्र के किताब में दुबके चेहरे को देखकर उसे मज़ा आ रहा है। बोलना लेकिन वह भी नहीं चाहती।

छाया के ऊपर की खिड़की खुली है। वह उठकर बैठ गई। अपनी पूरी बाँह खिड़की में फँसा ली और अपना सिर बाँह पर टिका लिया। छाया के काले लम्बे बाल एकदम खुले हैं। धोती के पल्लू में सिमटे बाल पूरी तरह उड़ नहीं पा रहे हैं। हवा में ठण्ड की कुनक बढ़ रही है। छाया ने सिल्कन चादर बदन पर उतार कर पैरों पर रोक ली है। वह एकदम बाहर फैले अँधेरे को देख रही है।

‘‘कितना अँधेरा है।’’

शैलेन्द्र ने किताब रख दी। कुछ देर वह चुपचाप छाया को देखता रहा। फिर बत्ती बुझाकर अपनी बर्थ पर लेट गया। उसके पास ओढ़ने को कोई भी चादर नहीं रखी है।

‘‘कितन अँधेरा है’’, छाया फिर कह रही है।

खिड़की मे टिकी बाँह पर थमा उसका सिर ज़रा ढीला हो गया है। वह बाहर अँधेरे में देख रही है। कहीं जरा भी रोशनी नहीं है। बाहर ज़रूर पेड़, पौधे, मकान, जानवर होंगे। कुछ नहीं दिख रहा है। रेल के सैकड़ों पहियों की आवाज़ अँधेरे को और गाढ़ा कर रही है। हवा में चिल और बढ़ गई है। छाया की रह-रहकर धुरधुरी आ रही है, पर बाहर देखना बंद नहीं किया है।

शैलेन्द्र पास आकर खड़ा हो गया।

‘‘सर्दी लग जाएगी, खिड़की बंद कर लो’’

‘‘अच्छा। तुम भी सो जाओ।’’

खिड़की बंद कर छाया भी लेट गई। अन्दर डिब्बे में भी अँधेरा है। सिर्फ़ एक छोटी बत्ती चल रही है। छाया ने आँखें मूंद लीं चादर ऊपर तक खिसका ली। रेल के पहियों की आवाज़ सुनाई दे रही है। हवा के रूख के हिसाब से आवाज़ कभी तेज़ हो जाती है, कभी बिल्कुल मंदी। छाया को एहसास है कि शैलेन्द्र पास ही लेटा है। वह चुप है, एकदम चुप। छाया और शैलेन्द्र देहरादून जा रहे हैं। वहाँ दो-तीन महीने रहेंगे। छाया गर्भवती है। आठवाँ महीना है। एक-डेढ़ महीने में वह निपट जाएगी। एक-डेढ़ महीना सेहत पाने में लगेगा। फिर दोनों अपने-अपने घर चले जाएँगे। छाया और शैलेन्द्र दोनों दोस्त हैं।

रीत को रेल का चलना बहुत अच्छा लगता है। वह वक्त की लम्बी डोरी को कट्-कट् खट्-खट् काटते हुए रेल के पहिए मन में न जाने क्या-क्या जगा रहे हैं। छाया शायद सो गई है। पर रह-रहकर वह करवट ले रही है, उसे शायद गर्मी महसूस हो रही है। शैलेन्द्र भी सोया है और वह करवटें ले रहा है। बाहर चारों तरफ गहरा अँधेरा है। उस अँधेरे में से यह डिब्बा कैसा लग रहा होगा? बिल्कुल अँधेरा डिब्बा कैसा लग रहा होगा? बिल्कुल अंधेरा डिब्बा जिसमें सिर्फ एक छोटी-सी बत्ती जल रही है और बाहर हवा की चिल खूब चढ़ गई है। तेज़ ठण्डी हवा और उस पर गीदड़ों की आवाज़ें, तैरती हुई। गीदड़ रो रहे हैं । रेल उस आवाज़ को चीरती हुई बढ़ती जा रही है।

लक्सर आया, गाड़ी ने अपनी दिशा बदली और फिर चल दी। छाया और शैलेन्द्र दोनों पड़े सोते रहे और करवटें बदलते रहे।

देहरादून में छाया ने जो मकान किराए पर लिया है वह शहर से काफ़ी दूर है। चारों तरफ़ घना जंगल है। कोई फ़र्लांग की दूरी पर एक और कोठी है। उस कोठी की रोशनी तक यहाँ से दिखाई नहीं देती। मकान के चारों तरफ मजबूत चहारदीवारी है। एक नौकर है। एक कुत्ता है। छाया खाना ख़ुद नहीं बनाती, नौकर बनाता है। शैलेन्द्र को इस सबसे बड़ा संकोच होता है पर छाया हँसकर टाल देती है। छाया को पैसे की कोई चिन्ता नहीं है।

शैलेन्द्र ज्यादातर चुप रहता है। लम्बा, चौड़ा और ख़ूबसूरत शैलेन्द्र चुप बैठा बहुत अच्छा लगता है। वह हर तरह की कुर्सी पर एक ही तरह से बैठता है और चुप होता है तो उसके होंठ बड़ी नरमी से जुड़े रहते हैं। जो हो चुका है उसको लेकर वह छाया की तरह निश्चन्त नहीं है। उसमें बहुत संकोच है। विशेष तौर से इस तरह छाया के साथ आने पर। छाया उसे देखकर हँसती रहती है। ‘‘अरे तो क्या हुआ? तुम तो ऐसे हो रहे हो जैसे जाने क्या हो गया। आदमी के कपड़े क्या मैले नहीं होते। वह धोता है और फिर पहन लेता है। तुम्हारी तरह हीनता से मर थोड़े ही जाता है कोई।’’

शैलेन्द्र बड़े कमरे की खिड़की पर खड़ा चुपचाप यह सब सुनता रहता है। सुनकर वह बाहर देखने लगता है। बाहर शाम होती है। आसमान में धूल-ही-धूल छाई है। एकदम किरकरी रूखी धूल। लाल-लाल। बादल, हों तो मन नम हो। पर यह धूल तो जैसे शरीर के भीतर-बाहर की सब नमी सुखा देती है। खिड़की के नीचे यह गहरी खाई है। सामने मसूरी के पहाड़ हैं। मसूरी में रोशनी होने लगी है। धूल में से रोशनी कैसी लग रही है। नीचे की खाई में बहुत गहरे जाकर एक छोटा-सा झरना है। उस पर धोबी और एक धोबन अब भी कपड़े धो रहे हैं। धूल उन्हें शायद परेशान नहीं कर रही। नीचे से ऊपर आने वाली पगडण्डी पर कई बकरियाँ भागी आ रही हैं।

सूरज डूब रहा है।

शैलेन्द्र खिड़की पर से हट आया है। कमरे में बिछे कीमती सोफ़ा सेट पर आकर बैठ गया है। छाया बाहर कारीडोर में बिछी एक इजी-चेयर में बैठी है। वह एकदम स्वस्थ है। धीरे-धीरे गुनगुना रही है। अपने ठीक सामने के लॉन पर उसकी दृष्टि है। लॉन मे कुत्ता भाग-भागकर किलोल कर रहा है। नौकर खाना बना रहा है। कोठी के दरवाज़े पर न जाने कौन बैठा सुस्ता रहा है। जाने कौन है?

शैलेन्द्र बहुत देर चुप बैठा रहा है। वह उतावला-सा दीखता है। उठकर बाहर छाया के पास आ गया है। कुछ देर उसकी कुर्सी के पीछे खड़ा उसके कुर्सी में धँसे शरीर को देखता रहता है। फिर एकदम उसके बालों में उँगलियां डालकर कहता है, ‘‘चलो छाया, अन्दर चलो।’’

‘‘क्यों ?’’

‘‘बाहर सर्दी बढ़ेगी।’’

‘‘मुझे अच्छा लग रहा है। अभी बढ़ी नहीं है।’’

‘‘ज़िद बहुत करती हो।’’

‘‘कहाँ ज़िद करती हंू। मैं तो कभी ज़िद नहीं करती। मुझे ज़िद करना अच्छा ही नहीं लगता। पर अब तो...’’

छाया ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी है। कुत्ता अब खेल नहीं रहा। चुपचाप एक किनारे खड़ा हो गया है। अँधेरा एकदम घुट गया है। हवा में तेज़ी आ गई है। ठण्ड भी है। आसमान में अब धूल नहीं है। सामने मसूरी के सब चिराग जल गए हैं। सपनों के लोक की तरह दीखती मसूरी को देखना छोड़ दोनों अन्दर कमरे में आ गए हैं।

‘‘छाया तुम्हें डर नहीं लगता ?’’

‘‘तुमसे ? लगता है । उहं, नहीं लगता।’’

कमरे की तमाम खिड़कियाँ खुली हैं। छाया एक-एक करके सब बंद कर देती है। ‘‘लो, अब तो ठण्ड नहीं लगेगी ना। कितनी चिन्ता करते हो तुम मेरी। सुनो, शैलेन्द्र! चलो यहाँ से कहीं और चलें। यह जगह ख़ास अच्छी नहीं है। तुम्हारा यहाँ शायद मन नहीं लगा। है ना ?’’

शैलेन्द्र सिर्फ छाया की तरफ देख रहा है।

‘‘आज तुम्हारा किसी चीज़ में मन नहीं है ?’’

शैलेन्द्र चुप है।

‘‘मैं कुछ बुरी लगने लगी हूँ।’’

शैलेन्द्र उठता है और दोनों हथेलियों में छाया का मुँह दबा लेता है। कहता है, ‘‘तुम बहुत ‘क्रुएल’ हो, छाया। खाना आए तो मुझे बुला लेना।’’

कहकर वह अपने कमरे में अपने पलंग पर जाकर लेट गया है।


छाया बहुत ख़ूबसूरत लड़की है। कॉलिज में वह अकेली लड़की थी जो प्रोफ़ेसरों से लेकर लड़कों में समान रूप से चर्चित रहती। उसकी बेनियाजी पर लोगों को आश्चर्य होता रहा है। उसकी चिकनी सफ़ेद मखमली खाल पर वक़्त की कोई बूँद रुक नहीं सकी। उसने किसी को गिनती में नहीं लिया। वह सबकी तरफ मुग्ध दृष्टि से देखती और भूल जाती। उचटती नज़रों से देखती तो भी भूल जाती। बातें करती तो कहीं दुविधा न होती। चलती-फिरती तो स्वच्छन्द भाव से। पढ़ती तो जमकर और हमेशा ऊपर की पाँणच-सात लड़कियों में से एक रही।

शैलेन्द्र हमेशा टॉप करता था।

छाया शैलेन्द में अटक गई। पर निर्द्वन्द्व वह तब भी रही। कोई यह सोच भी नहीं पाया कि वह शैलेन्द्र से प्यार करने लगी है। उससे कोई पूछता तो वह झूठ नहीं बोलती। कहती, ‘‘हाँ, वह मुझे अच्छा लगता है।’’ पर कार पर एक सैकिण्ड उसका इन्तज़ार नहीं कर सकती थी। वह कहता, ‘‘मैं तो ज़रा... ‘‘और कार खिसककर आगे चल देती। दोनों घूमने जाते, पिक्चर जाते, शॉपिंग करते और यों ही घूमते। पर छाया ने किसी दिन शैलेन्द्र की घरेलू स्थिति जाननी नहीं चाही। वह कहता, ‘‘मेरे पास तो सुविधा नहीं है कि वहाँ चलूँ ।’’ वह कहती, ‘‘मेरे पास है, चलो।’’ शैलेन्द्र चल पड़ता। छाया ने कभी अपने अमीर होने का भार शैलेन्द्र पर नहीं डाला। उसका तमाम संकोच भाव वह ऐसे हँस-हँसकर उड़ा देती कि आश्चर्य होता और कभी-कभी तो शैलेन्द्र स्वयं चकित रह जाता। छाया के सामने उसके जन्मजात गुण न जाने कहाँ चले जाते थे।

एक दिन छाया ने सूचना दी, ‘‘अरे कमाल हो गया। मैंने अपने डॉक्टर को दिखाया था। वह कहता है - यू हैव कन्सीव्ड।’’

शैलेन्द्र छाया के कहने के ढंग में अटककर रह गया था। वह ख़बर पर स्तम्भित हो ही नहीं पाया था। कहने का ढंग इतना सहज था।

छाया आकर कुर्सी पर बैठ जाती है। हल्की-हल्की बूँदें गिरने लगी हैं । छाया को अच्छा लग रहा है। हवा में सर्दी आ गई है। अभी घण्टा भर पहले काफ़ी उमस थी। उमस से घबराकर ही शैलेन्द्र शायद कहीं बाहर निकल गया है। जाने कहाँ चला गया। तेज़ बारिश आने वाली है। भीग जाएगा।

छाया चिन्तित होते-होते हँस पड़ती है। सोचती है पत्नी की तरह चिन्ता करने लगी हूँ। पर यह क्या उसका साथ निभा पाएगा? डरता है। मैं जो इतनी साफ-सुथरी हूँ -- उससे डरता है।

बारिश तेज़ आ गई है। छाया चली गई है।

छाया का मन आज अनमना है।

वह खिड़की के पास आकर खड़ी हो जाती है। नीचे वही गहरी खाई। ऊपर से तेज़ बारिश की बूँदें खाई में समा रही हैं। दूर-दूर कोई पंछी तक दिखाई नहीं देता। नीचे न धोबी है, न धोबिन । झरना ज़रा तेज़ होकर बह रहा है। कीकर, आक, नीम और बबूल के पेड़ों के पत्ते पानी की बूँदों के दबाव से झुके जा रहे हैं। खिड़की से होकर पानी की बूँदें छाया पर पड़ रही हैं। खिड़की उसे बन्द कर लेनी चाहिए। पर वह बाहर देखे जा रही है। आसमान में कुछ दिखाई नहीं दे रहा। सामने भी ख़ूब ध्यान देने से ही कुछ दिखाई देता है। पर ख़ूब ध्यान देने से देखने पर भी उसे कुछ दिखाई नहीं दिया है और एकदम चौंक उठी है। वह वहाँ क्यों गया ? इतने गहरे में ? मेरे से अलग उसके लिए ‘एडवेन्चर’ के तौर पर कुछ भी क्यों हो? तो क्या मुझसे इतना डरने लगा है? मैं तो उससे नहीं डरती, किसी से नहीं डरती। यह जो है से निपट जाए तो उससे कहूँगी कि घर जाए, आराम करे। मेरे लिए चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है।

कुछ मिनटों को छाया उदास दिखी, पर तत्काल ही उसने अपनी सब उदासी झटककर फेंक दी और स्वस्थ होकर कमरे में घूमने लगी। नौकर को आवाज़ दी और कॉफ़ी बनाने को कहा। कहा कि कॉफ़ी गर्म रखे और उसकी किसी समय भी ज़रूरत पड़ सकती है।

वह फिर आकर खिड़की के पास खड़ी हो गई। बारिश अब ढीली पड़ गई है। शैलेन्द्र पेड़ के नीचे से निकल आया है और संभल-संभलकर ऊपर चढ़ रहा है। उसकी कमीज़ और पैण्ट उसके ऊँचे सुडौल बदन से चिपट गई हैं। छाया ने दोनों कुहनियों को खिड़की में फँसा लिया है फिर दोनों हथेलियों में अपना हलका पीला चेहरा टिकाकर वह शैलेन्द्र का संभल-संभलकर ऊपर चढ़ना देख रही है। बारिश बिलकुल रुक गई है। पगडण्डी पर जरूर फिसलन होगी, तभी शैलेन्द्र इतना रुक-रुककर चढ़ रहा है।

छाया भीतर आकर फिर कुर्सी पर बैठ गई है। उसने सामने रखी कुर्सी पर अपनी टाँगें पसार ली हैं और गर्दन पीछे टिका ली हैं। शैलेन्द्र का इन्तज़ार कर रही है। नौकर को बुलाकर उसने एक बार फिर पूछ लिया है कि कॉफ़ी तैयार है या नहीं। शैलेन्द्र आ रहा होगा।

शैलेन्द्र आ रहा है। उसने डरते-डरते मेनगेट खोला है। वह एकदम भीगा है। कोठी की सपाट सड़क पर भी वह ऐसे ही चल रहा है जैसे पगडण्डी पर चढ़ रहा हो। छाया की आँखों में एक काली छाया तैर गई है। वह चुप होकर बैठ गई है। शैलेन्द्र कमरे के दरवाज़े पर दिखाई दे रहा है।

छाया ने ज़ोर से आवाज़ दी है, ‘‘कपड़े बदल लो, कॉफ़ी तैयार है।’’

शैलेन्द्र के लिए यह अप्रत्याशित था।

छाया तो कभी किसी की चिन्ता नहीं करती।

कॉफ़ी पर शैलेन्द्र बताता रहा है कि वह कहाँ गया था और छाया चुपचाप बैठी सुनती रही। शुरू से आख़िर तक कुछ नहीं बोली।

‘‘तुम सुन नहीं रही ?’’

‘‘क्यों, सुन तो रही हूँ ।’’

‘‘कोई ‘रिएक्शन’ नहीं ?

छाया सिर्फ़ मुस्कुरा दी। कॉफ़ी ‘सिप’ करती रही।

वह कोठी जिसमें छाया और शैलेन्द्र रह रहे हैं, काफ़ी बड़ी है। मसूरी के रास्ते पर शहर से कोई दो मील दूर सड़क की दायीं तरफ़ वह खड़ी है। सड़क छोड़कर कोई आधा फर्लांग पथरीली ऊबड़-खाबड़ पगडण्डी पर चलना पड़ता है। तब कोठी का बाहर का लकड़ी से बना गेट आता है। कोठी के चारों तरफ़ जंगल है। कीकर की गहरी झाडि़याँ। उन झाडि़यों में कोठी बिल्कुल छिप जाती है। लॉन में कुर्सी पर बैठी छाया को उन सब झाडि़यों को चीरकर सड़क पर से गुज़रते ट्रक, बस, कार साइकिल और आदमी की एक फटी-सी शक़्ल दिखाई देती है। वह कभी-कभी उसे देखती रहती है। देखकर ख़ूब ख़ुश होती है। वह देखकर नहीं पहचान पाती कि सड़क पर क्या जा रहा है तो ध्यान से आवाज़ सुनने की कोशिश करती है। इसी तरह आवाज़ों की अब उसे ख़ूब पहचान हो गई है। पहले वह पहचान लेती है। फिर ध्यान से सड़क की तरफ़ देखती है। लॉन में वह कभी कहीं बैठती है, कभी कहीं बैठती है। इसीलिए आदमी का कभी उसे सिर चलता हुआ दीखता है, कभी खाली टाँगें। मोटर का पहिया अकेला सड़क पर भाग रहा है और साइकिल तो है पर ऊपर कोई नहीं है। वह शैलेन्द्र को बुलाती और यह सब दिखाती। शैलेन्द्र अनमना हो उठता। कुत्ते के साथ खेलने लगता।

‘‘तुम्हें यह सब अच्छा नहीं लगता ?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘क्यों ?’’

‘‘चीज़ें पूरी अच्छी लगती है।’’

‘‘अरे वाह, जो दीखता है सो दीखता है। झाडि़यों के पीछे का हम अन्दाज़ा क्यों करें? अच्छा छोड़ो। चलो, उधर चलकर खड़े होंगे। छत पर से चारों तरफ़ देखेंगे। वह तो ठीक है ना ? शैलेन्द्र, तुम उदास रहते हो। तुम्हें शायद यहाँ अच्छा नहीं लगता। तुम चाहो तो वापस घर चले जाओ। मैं निपटकर आ जाऊँगी।’’

‘‘चलो, ऊपर चलें।’’

‘‘वापस नहीं जाओगे ?’’

‘‘मुझे मालूम है तुम बहुत निडर हो। तभी तो मुझे डर लगता है।’’

छाया ने एकदम ठण्डी आवाज़ में कहा, ‘‘डरना नहीं चाहिए शैलेन्द्र! जाने कैसा महसूस होता है! चलो।’ दोनों चल दिए। शैलेन्द्र ने छाया का हाथ पकड़ लिया। हाथ कुछ रोज़ से अधिक ठण्डा था। वह बोला तो कुछ नहीं, हाथ को धीरे-धीरे मसलने लगा। शैलेन्द्र की मुट्ठी में छाया का पूरा हाथ आ जाता है। उसने उसे दबोच लिया है। लॉन पार हो गया है। कोठी का कारीडोर पार करके दोनों सीढ़ियों की तरफ़ जा रहे हैं। कोई पन्द्रह-बीस गोल सीढ़ियाँ। दोनों धीरे-धीरे चल रहे हैं। चुपचाप। चुप्पी वक़्त पर बोझ डाल रही है। शाम का वक़्त है। सूरज डूब चुका है। धरती बचे-खुचे उजाले को उफक-उफककर पकड़ने की चेष्टा कर रही है। पर हाथ उसके अँधेरा ही आता है। वह शान्त हो जाती है। अँधेरा बढ़ रहा है। वक़्त की डोर खिंच रही है। छाया और शैलेन्द्र सीढ़ियों पर चढ़ रहे हैं। शैलेन्द्र ने छाया का हाथ पकड़ रखा है।

‘‘तुम्हारा हाथ बहुत छोटा है, छाया।’’

‘‘शैलेन्द्र, तुम्हें पछतावा हो रहा है।’’

‘‘नहीं तो।’’

‘‘अच्छा।’’

छत की हवा में हल्की ठण्ड है। अगस्त का महीना है। बारिशें हो रही हैं। दिन में धूप निकलती है तो गर्मी महसूस होती है। कभी-कभी बहुत तेज भी होती है। दमघोंट देने वाली। बादल आते हैं तो हल्की ठण्ड महसूस होने लगती है। शाम के वक्त हल्की ठण्ड होती है। इस समय भी ठण्ड है। आसमान में बादलों के छोटे-छोटे टुकडे़ हैं। छत के चारों तरफ का सब दीखता है। दूर तक फैला हुआ देहरादून। चारों तरफ पहाड़। देहरादून में सूरज के डूबने से अंधेरा नहीं होता है। पहाड़ों की छाया से अंधेरा होता है। सूरज तो बहुत देर बाद डूबता। डूबते हुए उसकी किरणें पहाड़ों की चोटियों को और आसमान को रोशन किए रखती हैं। तमाम शहर अंधेरे में डूब जाता है।

कोठी के पीछे की खाई में बिल्कुल अंधेरा छा गया है। धोबी और धोबिन पगडण्डी से ऊपर चढ़ रहे हैं।

‘‘उस दिन मैं वहां तक गया था।’’

शैलेन्द्र ने छाया को अपने से सटा लिया है। उसका हाथ कसकर पकड़ लिया है।

छाया खड़ी है। चुपचाप सामने देख रही है। उसने साड़ी पहन रखी है। अंधेरे में उसका चेहरे कुछ अधिक पीला लग रहा है। उसकी साड़ी रेशमी। खिसककर नीचे गिर रही हैै। उसके पेट का उभार बड़ा स्पष्ट होकर दीख रहा है। सामने मसूरी में रोशनियां जल रही हैं।

चारों तरफ का अंधेरा गहरा हो गया है।

‘‘छाया!’’

छाया चुप है।

‘‘छाया, बच्चे का क्या करोगी ’’

छाया अब भी चुप है और पूर्ववत् खड़ी है। वह सामने ही देख रही है। सूरज भी डूब चुका है। अंधेरे ने सबको एकदम एकाएक कर दिया है। नौकर ने नीचे कोठी की बत्तियां जला दी हैं। मसूरी खूबसूरत लगने लगी है। पहाड़ पर बसी है मसूरी। पर पहाड़ अंधेरे में छिप गया है। मसूरी की तमाम बत्तियां जगमगा उठी हैं। आसमान में टंका एक परीलोक। शैलेन्द्र के हाथ की पकड़ ढीली हो गई है।

दोनों के बीच में जरा-सी दूरी आ गई है।

‘‘छाया, हम दोनों कुछ अपरिचिति-से-होते जा रहे हैं । पहले...’’

‘‘छोड़ो, चलो नीचे चलें।’’

रात के जानवरों ने सुर बांधकर पहली आवाज दी है।

दोनों के कॉफी ली और आमने-सामने कोच पर बैठे गए। शैलेन्द्र ने एक सिलकन कमीज और समर की नीले रंग की पैंट पहन रखी है। छाया जामुनी रंग की साड़ी में लिपटी है। दोनों के बीच में एक गोल मेज है जिस पर पानी के दो गिलास आधे खाली रखे हैं। नौकर कॉफी के बर्तन ले गया है और किसी काम में लग गया है। पर गिलास रखे हुए अच्छे लग रहे हैं। शैलेन्द्र ‘फैमिना’ देख रहा है और छाया के हाथ में कोई भारी-सा नॉवल है। कोठी में उस कमरे के सिवाय चारों तरफ अंधेरा है। रसोई में खाना बनाने की आवाज इस कमरे में नहीं आ रही। बाहर से तेज हवा, किसी जंगली जानवर या पेड़ की डालियों के आपस में टकराने की आवाजें आ रही हैं। खाई की तरफ की खिड़की खुली है।

‘‘यह खिड़की बंद कर दें।’’

‘‘हां, ठीक है।’’

दोनों में से उठकर खिड़की बंद करने कोई नहीं जाता। नौकर आता है। गिलास उठाकर चला जाता है। खिड़की बंद करने का उससे भी जिक्र नहीं आता। खिड़की से तेज ठण्डी हवा भीतर आ रही है।

‘‘ठण्ड कुछ बढ़ती जा रही है।’’

‘‘शॉल ले लो।’’

‘‘हाँ।’’

शैलेन्द्र ने फैमिना रख दिया है। छाया नॉवल में बहुत तत्लीन हो गई है। उसने टांगें जरा फैला ली हैं। शैलेन्द्र की कुर्सी से पैर छू रहे हैं। लम्बा खिंचने से टांगें घुटने से जरा नीचे तक नंगी हो गई हैं। शैलेन्द्र की टांगें उन टांगों के ऊपर से होकर जमीन पर टिकी हैं। छाया का रंग कितना गोरा है।

‘‘तुम्हें इस तरह फैलाकर बैठने में तकलीफ नहीं होती ?’’

‘‘नहीं तो।’’

शैलेन्द्र हंस पड़ता है, ‘‘कितनी भारी हो गई हो। पहले इस तरह टांगे फैलाकर बैठती थी तब भी धोती पैरों तक पहुंचती थी।’’

छाया नजर उठाकर शैलेन्द्र की तरफ देखती है।

‘‘नहीं ?’’

‘‘ठीक तो है, पर क्या करूं ?’’

रात के शायद नौ या दस बज गए हैं... शायद इससे भी ज्यादा हों। बाहर अंधेरा बहुत गहरा हो गया है। छाया बाहर देख रही है। खिड़की में से सारा अंधेरा एक प्रोजेक्शन में कटा हुआ दीख रहा हैं वह ऊपर से गिर रहा है। खिड़की से ऊपर कुछ दिखाई नहीं देता। खिड़की से नीचे देखना भी मुश्किल है। अंधेरा गिर ऊपर से ही रहा है। है भी बहुत गहरा अंधेरा।

‘‘खिड़की बंद कर दो ना?’’

‘‘एकदम ‘पिनड्रॉप साइलेन्स’ अच्छी नहीं लगती।’’

‘‘हां, लगती तो नहीं। रहने दो।’’

छाया कहकर चुप ही रही। कुछ देर बाद फिर बोली, ‘‘तुम्हारा नाम बहुत खूबसूरत है शैलेन्द्र। सॉरी, शैलेन। जी करता है तुम्हें शैल कहा करूं। बुरा तो नहीं मानोगे ?’’

‘‘यह तो लड़कियां का नाम है ?’’

छाया हंस पड़ी। बोली, ‘‘छोड़ो, यह भी कोई बात हुई! बात अच्छा लगने की थी....खाना नहीं आया ? बाहर तो शायद बादल घिर आए हैं। अंधेरे में भी दिखाई देते हैं। बादल अंधेरे से कुछ कम काले होते हैं। तुम्हारी सेहत शैल कुछ गिर नहीं गई है?... लो, खाना आ गया।’’

छाया ने खुद उठकर खान लगा दिया। खिड़की बंद कर आई। नौकर को घंटी देकर बुला लिया, ‘‘यहीं बैठो, किसी चीज की जरूरत पड़े। यहीं बैठना चाहिए... आज मोहन, कोई डाक नहीं आई ? मोहन खाना बहुत अच्छा बनाता है। शैल, कुछ चाहिए? मोहन को छुट्टी दे दें। आज तुम शैल, यहीं सोना, इसी कमरे में।’’

‘‘अच्छा।’’

न जाने कै बजे हैं कि छाया बिस्तरे में से निकलकर ऊपर छत पर आ गई है। शैलेन्द्र पास ही बिस्तरे पर सो रहा था। गहरी नींद में या शायद गहरे सपनों में। उसके दायें पैर का अंगूठा बिस्तर से निकलकर छाया के पलंग को छू रहा था। पर छाया ने कुछ देखा नहीं और अकेली छत पर आकर खड़ी हो गयी है। आसमान साफ है। बादल शायद निकलकर जा चुके हैं। दूर-दूर तक अंधेरा हैं। अंधेरे में भी पहाडि़यों की छायाएँ साफ दिखाई दे रही हैं। क्यों इतना अंधेरा नहीं होता कि दूर का, पास का कुछ भी दिखाई न दे। यह मटमैलापन बुरा लगता है। कई चीजें जिन्हें दीखना नहीं चाहिए, दीखती हैं और रूप बदल-बदलकर दीखती हैं। रूप बदलता हुआ आदमी भयावना होता है। यह मिलावट न हो तो कोई क्यों रूप बदले। पर शायद वह अनिवार्य है। यों ही कभी कोई चीज कैसी, कभी कैसी और सब गड्डमड्ड।

छाया ने अपनी रेशमी साड़ी को पेट पर जरा खिसका लिया। नीचे के पेटीकोट का नाड़ा जरा ढीला किया और अपने बढ़े पेट पर हाथ फेरकर उसे महसूस करने लगी। कितना बढ़ गया है। कितनी अजीब शक्ल है, यह जब खाली हो जायेगा तो इस खाल में बारीक-बारीक सिलवटें पड़ जाएंगी। उन सिलवटों से भय लगने लगेगा। पेट फिर तनेगा फिर खाली होगा। फिर... सिलवटें लम्बी-लम्बी धारियां बन जाएंगी और फिर एक दिन पेट तनना भी बंद हो जायेगा। और ये धारियाँ सारे शरीर में फैल जाएँगी। तो कैसी लगेंगी ? कैसी क्या लगेंगी? आनन्द रहेगा। एक झुर्रियांे बाला बदन पलंग पर लेटा होगा। फिर भी कोई आएगा और पल को उनको टालकर उसमें यौवन भर देगा। उसे छाती से लगा लेगा।

वह कौन होगा ?

शैलेन्द्र ?

नहीं। वह तो अभी से मेरे शरीर से डरता है। वह तो डरता है। सबसे डरता है- वह निकम्मा है। नपुन्सक और किसे कहते हैं? जो उसका है, उसे ही स्वीकृति नहीं दे पाता। पहले तुम कैसी थीं, इसी तरह बैठती थीं तो भी तुम्हारी टांगें नहीं उघड़ती थीं। उसका बस चले तो उघड़ी टांगों को गंड़ासे से तराश कर फेंक दे। अगली दफा थोड़ी और, अगली दफा थोड़ी और। फिर सिर्फ जांघें रहे जाएंगी और फूला पेट और दूध पिलाने को ये दो लम्बी मछलियां, लटकी हुई, थुल-थुल, और हड्डियों वाला मुह। कोई चूमे तो लगे कुत्ता हड्डी चूस रहा है। नहीं, शैलेन्द्र से नहीं चल सकेगा। मैं मरने तक पहुंचने के लिए खुलकर जीना चाहती हूँ । हर समय जीने की लालसा में पल-छिन मृत्यु-सुख का उपयोग करना नहीं।

छाया छत की मुण्डेर के पास आ गई है। नीचे की खाई में देख रही है। सामने का विस्तार देख रही है। अंधेरे में उभरी पेड़-पौधों और पहाड़ों की गहरी काली छायाओं को देख रही है। कीकर की झाडि़यों की ओट में बनी मोहन की झोंपड़ी में अब तक चिराग जल रहा है। मसूरी उतनी ही खूबसूरत लग रही है। आसमान में बादल नहीं हैं। यह मोहन की झोंपड़ी में चिराग कैसे जल रहा है। मोहन शादीशुदा है? या कोई आया है ? रंगीन तो लगता है। जाने कोई कितनी दूर से आया होगा। क्या मौसम है, क्या अंधेरा है, और क्या जंगल है। फिर भी चिराग जल रहा है। आने वाले को जरा डर नहीं लगा। जरा डर...

छाया का हाथ मुंडेर पर रखे एक पत्थर पर छू गया है। उसने उसे हाथ में उठा लिया है और धीरे से नीचे छोड़ दिया है। पत्थर खाई में लुढ़कता जा रहा है। जाने-किस-किस चीज़ से टकराता, तेजी से, अनाश्वस्त भाव से, और अंधेरे के भार से दबी छाया खड़ी हुई उस पत्थर के सफर को महसूस कर रही है।

‘‘ओहो, कहीं कोई उस पगडण्डी से ऊपर न चढ़ रहा हो, वह धोबी-धोबिन या कोई बकरी या शैलेन।’’

‘‘मैं ऊपर आई हूँ और वह कहीं नीचे उतर गया हो।’’

आशंका के बावजूद छाया धीरे-धीरे नीचे उतर रही है। दबे पांव कमरे में आयी है। चुपके से अपने बिस्तर से खिसक गई है। शैलेन्द्र सो रहा है। उसका दायें पैर का अंगूठा अब भी छाया के बिस्तर पर पड़ा है। छाया को अच्छा महसूस नहीं हो रहा।

अगले दिन सुबह उठकर छाया ने घूमने चलने की बात चलाई।

‘‘कहीं चलें?’’

‘‘सहस्र-धारा चलो, या चलो मसूरी ही चलें।’’

शैलेन्द्र पल भर चुप रहा। बोला, ‘‘तुम्हें कष्ट नहीं होगा ?’’

‘‘नहीं तो’’

‘‘डॉक्टर कहता था, तुम्हें आराम करना चाहिए।’’

‘‘हां, कहता तो था। चलो रहने दो यहीं खिड़की के किनारे बैठेंगे। पूरी पिकनिक का मजा आता है। नीचे घाटी में देखना बहुत अच्छा लगता है। शैलेन्द्र, तुम्हें तो इस जगह बड़ा बोर लग रहा होगा?’’

‘‘नहीं तो, बोर क्यों लगेगा ?’’

‘‘अकेला, सुनसान जंगल!’’

‘‘अकेला कहां हंू, तुम जो हो।’’ ‘‘मैं तुम्हारा मन कहां बहला पाती हंू।’’

शैलेन्द्र जाने क्या सोचता हुआ चुप हो रहा।

छाया कोच पर शैलेन्द्र के पास आकर बैठ गई। उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। पल भर को रखा। फिर वही हाथ अपनी गोद में रख लिया और बांह के घने काले बालों को अपनी सफेद कोमल उंगलियों से सहलाने लगी। सहलाती रही। फिर बोली, ‘‘शहर अच्छा होता है। मोटर, टांगे, साईकिल, पैदल, ऊंचे घरों और रेस्ट्रांओं को शोर। आदमी अकेला महसूस करते ही भीड़ में डूब सकता है। भीड़ उसे शांति नहीं देती पर इस तरह सूने-सूने रहने से वह कम भयानक है। मैं तुम्हारे साथ रहते हुए भी साथ नहीं हूँ । हम दोनों के बीच में यह न जाने क्या आ गया। मैं सोचती रही, चलो क्या है, कोई बात भी तो हो, परेशान होने की, सब ठीक हो जाएगा। पर तुम परेशान हो। मुझसे परेशान हो। मैं अकेली तुम्हें भीड़ भी लग रही हंू और तुम्हारा सूनापन भी दूर नहीं कर पा रही हूँ ।’’ शैलेन्द्र छाया की तरफ देखता रहा और चुप बैठा रहा।

‘‘तुम वापस चले जाओ, शैल।’’

‘‘नहीं, वापस नहीं जाऊंगा।’’

‘‘तुम किस कदर दुखी हो!’’

‘‘हूँ वापस नहीं आऊंगा।’’

छाया ने हाथ छोड़ दिया। उठ खड़ी हुई और खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई। उसकी साड़ी की सलवटें बहुत गहरी दीख रही हैं। आदत के अनुसार उसने पीठ पर से साड़ी को झटका नहीं है। शैलेन्द्र उसकी पीठ पर देख रहा है। उसे वे सलवटें बहुत ऊब दे रही हैं। छाया का फूला पेट उसे दिखाई नहीं दे रहा पर इन सलवटों में इतना फूहड़पन है कि उसे मितली आ रही है। पर वह बैठा है और पूरे जोर से बैठा रहना चाहता है। उठकर जाना उसे जैसे अपना अपमान लग रहा है। चुप रहना और भी घुटन दे रहा है।

‘‘वहां क्यों खड़ी हो गई ?’’

छाया ने पीछे मुड़कर देखा और हल्के-से मुसकुरा दी।

शैलेन्द्र को धुरधुरी-सी उठी। सारा शरीर एकदम कांटों से भर उठा। उसे लगा जैसे अभी उसे उल्टी हो जाएगी। उसने मुसकराते चेहरे पर से नजर हटा ली।

‘‘हंस क्यों रही हो?’’

छाया जोर से खिलखिकर हंस पड़ी।

शैलेन्द्र के शरीर में से रोमांच खत्म हो गया। वह धीरे से कोच पर से उठा और छाया के पास खिसकर आया।

‘‘डॉक्टर कहती थी, अब खास देर नहीं।’’

‘‘अच्छा ही तो है।’’

‘‘तुम्हारा इस तरह उछलना-कूदना ठीक नहीं है।’’

‘‘अच्छा जी, अच्छा।’’

शैलेन्द्र फिर छोटा होकर रह गया।

कई मिनट दोनों चुपचाप खड़े रहे। मोहन आकर इधर-उधर से कमरे को झाड़ने लगा। बाहर घाटी में खूब धूल फैल गई। सारे पेड़-पौधे पत्थर अभी तक भीगे हैं। धूप ने उन्हें उजला कर दिया। दोनों ने यह सब देखा। मोहन का निर्द्वन्द्व चेहरा देखा। अचानक छाया ने शैलेन्द्र की बांह में बांह डाल ली और उसे घसीटकर कोच पर बैठा दिया। मोहन से कहा, ‘‘मोहन, आज नाश्ता जल्दी ले आओ।’’

फिर शैलेन्द्र से कहा, ‘‘पूछो।’’

‘‘क्या ?’’

‘‘जो तुम पूछना चाहते हो ?’’

शैलेन्द्र एकदम कुछ बोल नहीं सका। छाया भी चुप रही। मोहन नाश्ते का सामान लाकर रखने लगा।

कितनी ही देर बाद शैलेन्द्र ने कहा, ‘‘बच्चे का क्या करोगी?’’

‘‘तुम बताओ, क्या करूं ?’’

‘‘कुछ तो करना होगा।’’

‘‘हां।’’

‘‘यहां किसी आरफेनेज में दें देंगे।’’

‘‘नहीं।’’

‘‘तो....?’’

दोनों चुप रहे। मोहन कॉफी ले आया था। बनाकर उसने एक-एक कप दोनों के सामने रख दिया और चला गया। छाया ने कहा, ‘‘शैलेन्द्र, तुम मानते हो हमसे गलती हुई है, इसलिए इतनी दुविधा में हो।’’

‘‘नहीं हुई।’’

‘‘ना।’’

‘‘तो बच्चे को पास रखें।’’

‘‘रखना चाहिए था, पर उस हालत में तुम्हें भी पास रहना पड़ेगा। पर वह मैं नहीं चाहती। तुम मुझसे डरते हो, इसलिए उम्र भर डर-डरकर क्यों जिओगे। मैं चाहती हूँ शैलेन्द्र कि बच्चे को एकदम नष्ट कर दो।’’ शैलेन्द्र सिहर उठा। उसने विह्वल भाव से छाया को तरफ देखा।

छाया ने कॉफी का एक सिप लेकर कहा, ‘‘कुंआ-जंगल में छोड़ जाना, आरफेनेज, मुझे बड़े ‘क्रुएल’, बड़े ‘इनह्यूमन’ लगते हैं।’’

‘‘फिर ?’’

‘‘मेरा ख्याल है, हम उसकी अन्त्येष्टि करें, जला दें।’’

‘‘छाया!’’

छाया कॉफी पीती रही और सोचती रही। फिर बोली, ‘‘कुछ दुविधा, कोई डर बाकी नहीं बचेगा। नही तो आदमी जिंदगी भर कुत्ते, बिल्लियों के मुंह की हड्डियों को पहचानता फिरता है। यह कहीं ‘उसकी’ न हो। यह ‘उसकी’ न हो, यह...’’ शैलेन्द्र के सारे शरीर में आग-सी लग उठी। वह एकदम चुप बैठा रहा।

छाया ने घूँट घूँट भरके कॉफी खत्म की। मुंह में नाश्ते में से कुछ डाला। फिर मुंह चलाते-चलाते बोली, ‘‘कितना अमानवीय है कि एक आदमी उम्र भर यही सोचता रहे कि मेरी मां कौन है, बाप कौन है... तो ठीक रहा न शैल ?’’ शैलेन्द्र का शरीर कांपने लगा।

‘‘ऐसा करना, पहले मार देना, फिर सब गंदे रद्दी कपड़ों में रखकर जला देंगे।’’

‘‘ब्रूट, ऐनिमल।’’

छाया खिलखिलाकर हंस पड़ी। बोली, ‘‘तुम मुझसे डरते हो, तुम जानवर नहीं हो ?’’

‘‘तुमसे तो डरना ही चाहिए।’’

‘‘मैं अकेले यह सब नहीं कर सकूँगी शैल, तुम्हें कुछ दिन ठहरना ही पड़ेगा। और कॉफी नहीं पिओगे ?’’

पर शैलेन्द्र कॉफी नहीं पी सका। एक बिल्ली मुंह में चूहा दबाये कूदकर मेज पर से निकलते हुए खून की कुछ बुँदे कॉफी में टपका गई।

छाया पल को सहमी पर फिर हंसने लगी, ‘‘तुम जानवरों से बहुत डरते हो शैलेन्द्र। क्या बात है ?’’

शैलेन्द्र चकित रह गया है। वह जानता है कि छाया जो भी कहती है वही करती है। इसीलिए उसे बहुत डर है। वह छाया से और भी डरने लगा है। छाया कितनी खूबसूरत है। इन दिनों में उसने रह-रहकर उसे बहुत पास से बहुत ध्यान से देखा है। वह उसे अधिक से अधिक खूबसूरत लगी है। अब छाया विशेष इधर-उधर घूमती नहीं है। या तो दिनभर पलंग पर लेटी कोई किताब, पत्र-पत्रिका पढ़ती रहती है। या फिर शाम को खुली छत पर हल्के-हल्के कदम लेती हुई घूमती रहती है। धोती का पल्लू कटि-प्रदेश पर ही लपेट कसकर बांधकर और जम्फर को जरा ढीला छोड़, बाल खोलकर वह छत पर घूमती रहती है। पैरों में हल्की चप्पल। आवाज बिल्कुल नहीं। पूरी बांहें असम्पृकत, लटकी, झूलती हुई और अपनी अवस्था से पूर्णरूपेण निर्विकार। शैलेन्द्र घूमने नीचे घाटी में या उधर पहाड़ों पर निकल जाता है। जाने कितनी-कितनी रात तक लौटता है। मोहन भी चला जाता है। उनकी झोपड़ी के बाहर रोज एक चिराग जलता है। कभी-कभी सोते-सोते छाया उस चिराग को देखने आती है, और पलंग पर लेटकर, सिरहाने की बत्ती जलाकर वह कोई किताब पढ़ने लगती है। शैलेन्द्र अब दूसरे कमरे में ही सोता है।

छाया ने मोहन से पूछा, ‘‘रात-भर तुम्हारी झोपड़ी का चिराग जलता रहता है।’’

मोहन ने छाया की तरफ देखा। हंसकर बोला, ‘‘आप...!’’

और चला गया।

छाया हल्के-से संकुचित हो गई। मोहन दोनों की मानसिक स्थिति को समझता है। शैलेन्द्र को घर चले जाना चाहिए। जाने क्यों वह अपने आपको यहां रोके है। उसे मुझसे सहानूभूति है। सहानूभूति क्यों है ? छाया ने मोहन को फिर बुलाया, कहा ‘‘मोहन, अच्छा एक टैक्सी तो बुला दो।’’

‘‘जी, अच्छा।’’

‘‘और सुनो, एक बात बताओ।’’

‘‘जी।’’

‘‘तुम हत्या कर सकते हो?’’

मेहन हंस पड़ा।

‘‘किसकी?’’

‘‘किसी की भी?’’

मेहन फिर हंस पड़ा। बोला, ‘‘शैलेन्द्र बाबू की?’’

पल भर के लिए छाया दमित रह गई।

फिर रुककर बोली, ‘‘हां, मान लो।’’

‘‘नहीं।’’

‘‘क्यों ?’’

‘‘वे आपसे बहुत लगाव रखते हैैं।’’

‘‘तूने कैसे जाना?’’

‘‘मुझे कहते थे।’’

‘‘क्या कहते थे कि मैं...’’

‘‘कहते थे, उनका ध्यान रखा कर, कहीं इधर-उधर जाएं, या छत पर अकेले घूमें तो साथ ही रहा कर, कहीं चोट-फोंट न लग जाए। वह आजकल जरा...’’

‘‘रुक क्यों गया?’’

‘‘कहते थे, वह आजकल जरा मुझसे नाराज है।’’

‘‘तू जा मोहन। टैक्सी रहने दे। एक कप कॉफी ले आ।’’

‘‘अच्छा।’’

छाया बाहर आकर लॉन में बैठ गई। उसे कुछ अजीब-सा महसूस हो रहा है। घास-फूस, फूल-पत्ती कुत्ता और झाड़ी के पार सड़क पर चलते लोग नजर में टिक नहीं रहे, तिरमिरा रहे हैं। कभी-कभी हल्की-सी एक तसवीर हिल जाती है तो लॉन में दो कुत्ते दिखने लगते हैं। यही अनुभूति उसके लिए नई है। उसका कारण उसके लिए अस्पष्ट है। क्या उसकी नजरें खराब हो चुकी हैं, या मन बहुत खराब है? शैलेन्द्र से काफी प्रेम किया है। वह धारणा अब टूट गई है। क्यों टूट गई है? कोई जरूरी है कि कोई उसी तरह सोचे जैसे वह सोचती है। उसका निर्णय निर्मम नहीं है? और निर्णय हो ही नहीं सकता। कम से कम इससे कम निर्मम कुछ भी नहीं है। हम फैसले से डरते क्यों हैं? उसे नजरों से बचाकर अपने आपको ‘ग्लोरिफाइड’ क्यों महसूस करते हैं ? निकम्मे, नपुन्सक! ईश्वर के भरोसे छोड़ा। क्यों किसी को किसी के भरोसे छोड़ा। नहीं, ऐसे ही करना होगा।

...यही उचित है, यही सबसे अधिक मानवीय है।

शैलेन्द्र आकर पास खड़ा हो गया।

मेहन ने कुर्सी लाकर रख दी।

शैलेन्द्र बैठ गया।

बहुत देर दोनों चुप बैठे रहे।

आखिर छाया ही बोली, ‘‘कहां गए थे शैलेन्द्र?’’

‘‘डाक्टर की तरफ।’’

‘‘क्या कहती है?’’

‘‘इसी हफ्ते में सब निपट जाएगा।’’

छाया ने सुना और ध्यान से शैलेन्द्र को देखा।

‘‘तो बच्चे के बारे में तो वही फैसला रहा न?’’

‘‘हां... मैं जानता हंू, तुम बदलोगी नहीं।’’

‘‘ऐसा नहीं है, पर कुछ सुझाओ शैल। तुम मेरे पास रह सकते तो मैं उसे लेकर ही पहुंचती। पर उसे मैं किसी के भरोसे छोड़ना नहीं चाहती, वह चाहे जानवर हो, या आदमी हो, या भगवान हो।’’

‘‘तो... यही अंतिम...

‘‘हां।’’

‘‘अच्छा, मैं चाहता था चला जाऊं। पर एक हफ्ते की तो बात है। फिर...।’’

‘‘फिर तुम चले जाना। मैं तो एक महीना बाद जाऊंगी।’’

‘‘हां, तुम्हें तो रहना चाहिए।’’

छाया अब रसोई में बहुत जाने लगी है। रसोई कोठी के एकदम कोने में है। पूरे कारीडोर को पार करके जाना होता है। छाया काफी टाइम खाना बनाने में लगाने लगी है। मोहन को साथ लेकर वह तरह-तरह के खाने बनाती और उन्हें खूब स्वाद से बैठकर खाती है। शैलेन्द्र होता तो बार-बार उससे उस खाने का प्रशंसा कराती। फिर शैलेन्द्र को वहीं छोड़कर दोबारा रसोई में चली जाती और कुछ ही देर में एक और खाने की चीज बनाकर ले आती और पूरे आयोजन से उसे खाना शुरू कर देती।

शैलेन्द्र इस सब आयोजन में थोड़ा हल्का हो आता। पर कुछ पल पश्चात् ही उसे भय लगने लगता। पहले दिन का छाया का स्वरूप याद हो आता। वह नीचे घाटी में था। आधी ही गहराई में। कोठी की छत वहां से साफ ही दिखाई दे रही थी। पगडण्डी पर एक पल को खड़े होकर उसने ऊपर आकाश में और छतों पर सुनहरा प्रकाश छाया था। छाया छत पर खड़ी थी। उसने धोती को पेटीकोट की तरह बांध रखा है। खाली कोटी पहन रखी है। बाल एकदम खुले हैं, बल्कि बिखरे हैं। उसने दोनों हाथ ऊपर कर रख हैं। उसके गोरे चेहरे पर सुनहरी धूप पड़कर चेहरे को प्रकाशमान कर रही है।

पता नहीं क्यों, शैलेन्द्र, एकदम सुन्न रह गया था। भयताडि़त।

छाया सामने बैठी है। अचानक शैलेन्द्र के मंुह से निकल गया, ‘‘छाया, पहले का जमाना भी खूब था।’’

‘‘क्यों ?’’

‘‘वह जो जादूगरिनयां होती थीं न...’’

"हूँ।’’ ‘‘उन्हें ज़िन्दा जला देते थे।’’

छाया खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली, ‘‘मैं जादूगरनी हूँ। मुझे...।’’

‘‘नहीं, वह नहीं, मैं तो....।’’

‘‘यह खाओ शैल, देखो क्या चीज है।’’

दोनों फिर खाने में लग गए। कोई चार बजे होंगे। आज आसमान में बादल नहीं है। गहरी उमस में, शरीर की नसों में, एक खास किस्म का तनाव रहता है। वह अच्छा भी लगता है, बुरा भी। दिमाग की धुंध नशे का मजा देती है। चारों तरफ की चीजें या तो खूबसूरत दिखाई देती हैं या बदसूरत।

छाया और शैलेन्द्र दोनों बैठे अलग-अलग तरह की चीजें खा रहे हैं।

‘‘तुमने कभी गरीबी महसूस की है छाया।’’

‘‘हां, देखी है। भय का दूसरा नाम गरीबी है। मैं उससे बहुत नफरत करती हंू।’’

शैलेन्द्र से जवाब नहीं बन पड़ा।

‘‘चलो, तुम्हें एक तमाशा दिखऊं।’’

शैलेन्द्र ने उसकी तरफ देखा।

‘‘उठो।’’

छाया शैलेन्द्र को उठाकर रसोई में ले गई।

रसोई में मोहन काम कर रहा है। जो बनना था बन चुका है। बर्तन-भाण्डे निपटाए जा रहे हैं।

रसोई के एक कोने में टैप है और उसके ठीक नीचे टैप के पीछे से आकर चींटियों की एक कतार धीरे-धीरे बढ़ी चली जा रही है। छाया पल को रुकी फिर उसने अचानक ही टैंप खोल दिया।

पानी की एक धारा बही।

सैकड़ों चीटिंयां अनिच्छा से बह गई।

छाया ने टैप बंद कर दिया।

शैलेन्द्र की तरफ देखकर बोली, ‘‘कैसा रहा खेल?’’

‘‘अच्छा।’’

‘‘कल तुम तो थे नहीं, मैं सारा दिन यही खेल खेलती रही।’’

‘‘अच्छा किया।’’

‘‘चीटियां झिझकती हैं, घबराती हैं, कांपती है फिर डूब जाती हैं।’’

शैलेन्द्र चुप रहा और रसोई से बाहर निकल कमरे में आ कपड़े बदल नीचे घाटी में घूमने निकल गया।


लाल-लाल बादलों के गाले आसमान में छाए हैं। शैलेन्द्र कोठी में कम ही रहता है। इस समय भी नहीं हैं। नीचे घाटी में खड़ा बादलों के लाल कतलों को देख रहा है। छाया को दर्द शुरू हो गया है। वह चुपचाप अपने पलंग पर लेटी है। वही वैजंती रंग की साड़ी। छाती तक सिल्कन चादर और चेहरे पर विकृति। छाया चाहती है कि किसी को खबर न दे। पर यह दर्द उसे घबरा रहा है। वह चारों तरफ देख रही है। बहुत देर से उठा नहीं जा रहा है। वह खिड़की पर जाकर नीचे घाटी में शैलेन्द्र को देखना चाहती है।

मोहन भी घर में नहीं है शायद।

घाटी में शैलेन्द्र नीचे उतरा जा रहा है।

आसमान की गोट पर लाल रंग के धब्बे कुछ काले, कुछ कत्थई होते जा रहे हैं।

हवा बंद है। गर्मी ने तमाम दिन दिमाग को पिघलाए रखा है।

वह खड़ी, सुनसान कोठी इस समय एक ऐसे बड़े अस्पताल जैसी लग रही है, जिसमें सिर्फ एक मरता हुआ मरीज हो, न डॉक्टर हो, न नर्स, न कोई सगा-संबंधी।

छाया का दर्द बढ़ता जा रहा है।

वह उठती है। कारीडोर तक जाती है। मोहन को आवाज देती है। मोहन नहीं है। सामने लॉन में कुत्ता खेल रहा है। एक कुर्सी पड़ी है, सामने की झाडि़यां पार कर सड़क पर से आदमियों का एक लम्बा काफिला गुजर रहा है। छाया कुत्ते को पास बुलाने की कोशिश कर रही है। शाम को कुत्ता घास पर खेलना बहुत पसंद करता है।

समय बीतता जा रहा है।

आसमान पर खून के धब्बे काले पड़ गए हैं।

घाटी में से जानवरों की आवाजें आने लगी हैं।

छाया कारीडोर में एक कुर्सी पर कराहती हुई बैठी है।

चारों तरफ पीला अंधेरा है।

घास के तिनके अंधेरे में उड़ते हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं, सिर्फ आवाजें सुनाई दे रही हैं।

घाटी में मोर, गीदड़, झींगुर, मेंढ़क और गिरगिट बोल रहे हैं।

छाया की दबी कराह कोठी में गंूज रही है।

खट्-खट्, खट्-खट् कोई कोठी में धुस रहा है।

वक्त कभी बहुत तेजी से और कभी बहुत धीमे-धीमे बीत रहा है।

छाया चीख-चीख उठ रही है।

घाटी में से डालियों के एक-दूसरे से टकराने की आवाजें आ रही हैं।

झरने के बहने की घुटी-घुटी आवाजें आ रही हैं।


कोई मोहन को पुकार रहा है।

जानवरों की आवाजों में बहुत-सी आवाजें डूब रही हैं।

शैलेन्द्र छत की मुंडेर पर बैठा है।

उसने आंखे मूँद रखी हैं। चारों तरफ की आवाजें सुन रहा है। छाया के चीखने की आवाज से वह सिहर-सिहर उठ रहा है।

चारों तरफ घनघोर अंधेरा है।

शैलेन्द्र के भीतर कोई हूक देकर रो रहा है।

आवाज दसों दिशाओं में फैल रही है।

कोई रो रहा है।

शैलेन्द्र के भीतर कोई रो रहा है।

कौन रो रहा है। इतनी रात गए, इतने अंधेरे में, सुनसान में कौन, रो रहा है।

मोहन पास आकर खड़ा है।

‘‘चलिए, नीचे डॉक्टर आपको बुलाती हंू।’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘छाया ठीक है?’’

‘‘चलो।’’

वक्त गुजर रहा है।


वक्त क्यों गुजर रहा है? कोई आवाज चलते वक्त को रोक नहीं पाती। एक आवाज हवा में गंूज रही है। रोने की आवाज में खुशी है। कोठी से उतरकर आवाज घाटी में उछलती-कूदती जा रही है। झरना क्या रुक गया है? झरना कब रुक सकता है? ढलान क्या नहीं रहेगा ? ‘‘सुनो छाया, तुम ठीक हो तो मैं घूम आऊं?’’ ‘‘मैं ठीक हंू।’’ छाया क्यों ठीक है, वह हमेशा क्यों ठीक रह सकती है? वह यहां न रहे या वह नहीं ही रही रहे तो ठीक होगा.... प्यारा बच्चा है ? हां, वह तो है। है तो सही। शैलेन्द्र घाटी में एक बेल के नीचे बैठा है। बेल का चढ़ना देखना उसे अच्छा लग रहा है। बेल चढ़ रही है। शैलेन्द्र को हंसी आ रही है।

धोबी और धोबिन कपड़े धो रहे हैं।

शैलेन्द्र एक पत्थर पर बैठा मैले पानी की बूँदों को अपने ऊपर सहन कर रहा है।

पानी पर एक छोटी सी नाव तैर रही है। उस पर कुछ बैठा है। कुछ छोटा सा।

छाया अपने पलंग पर चित्त लेटी है।

उसके पास बच्चा नहीं है। मोहन उसे रसाई में ले गया है।

छाया के पास एक छोटी सी शीशी है, स्टूल पर। एक सुराही है। सिरहाने। एक शीशे का गिलास है। पलंग के नीचे। छाया को प्यास लगी है। उसका सिर तकिये से हटकर टिका है। उसके होंठों पर पपड़ी जमी है। उसे प्यास लगी है।

‘‘मोहन, ओ मोहन!’’

मेहन सुन नहीं पा रहा है। बच्चा रो रहा है।

छाया कुछ देर आंखें ूमंदे लेटी रहती है। वह आंखें खोलती है। उसके पैरों के पास चादर नहीं है। वह अपने बदन को एक करवट देकर नीचे की चादर का आधा हिस्सा मोड़ लेती है। फिर तेजी से दूसरी तरफ करवट लेती है। दूसरा हिस्सा भी स्वतंत्र हो जाता है। वही चादर वह ओढ़ लेती है। सिर तक ओढ़ लेती है। सपाट बहुत देर तक पड़ी रहती है। उसका दम घुट रहा है। चादर से छनकर रोशनी उस तक पहुंच रही है। छाया को डर लग रहा है। वह आंखें खोल लेती है और चादर को उलट देती है। डर लगता है। गहरी शिथिलता है। वो प्यास से मरी जा रही है।

‘‘मोहन, ओ मोहन’’

मेहन नहीं सुन पा रहा। बच्चा रो रहा है।

पानी उसे खुद ही पीना पड़ेगा।

बच्चा रो रहा है।

वह झुककर गिलास उठाती है। उठकर सुराही से पानी उंडेलती है। सुराही से पानी के गिरने की आवाज तैरती हुई नीचे घाटी में चली गई है। छाया गिलास मुंह तक ले जाती है। खाली पानी कड़वा होता है।

दो गोलियां सटकने के लिए सिर्फ दो घूंट पानी पीती है। और वह नहीं पीती। प्यास से उसका दम निकला जा रहा है। वह लेट जाती है।

‘‘मोहन, ओ मोहन।’’

मोहन सुन नहीं पा रहा है.... बच्चा रो रहा है।

हवा में रेत रमय होती है। तेज धूप में वह खूब चमकाती है। तेज धूप पड़ रही है। ऊपर छत पर से सारा देहरादून दीखता है। छत पर पानी छिड़क दिया गया है। एक कोने में छाया एक मूढ़े पर बैठी है। छत के चारों तरफ मुंडेर है। मुंडेर पर काफी मोटी काई जमी है। काई का रंग काला और हरा है।

छाया मूढे में बैठी है। उसने अपनी दोनों बांहें मूढ़े की बांहों पर टिका रखी हैं। छाया कमजोर हो गई है। इस समय उसका रंग गहरा पीला है। उसका शिथिल बदन सरकण्डों पर भारी बोझ की तरह पड़ा है।

आसमान में सूरज चमक रहा है। गर्म और उत्तेजित। सुबह बारिश बरसी है। सूरज नाराज है, दुखी है। तमाम घाटी के पेड़, पौधों, पत्थरों पर का सुबह का पानी सुन्त गया है। वह फिर प्यासे दीखने लगे हैं।

छाया के पैरों में पानी का एक गिलास रखा है।

‘‘मोहन, ओ मोहन।’’

मेहन सीढि़यां चढ़ रहा है।

पास आकर खड़ा हो जाता है। ‘‘उसे वह पिला दिया है।’’

मोहन शायद ‘हूँ ’ कहता है।

‘‘शैलेन्द कहां है ?

मोहन फिर कहता है, ‘‘हैं नहीं।’’

‘‘नपुंसक!’’

मोहन फिर कहता है, ‘‘पत्ता-पत्ता कांप रहा है।’’

‘‘नहीं मोहन, नहीं। मैं नपुंसक के पुत्र को नहीं बचा सकती। तुम उसे ले आओ।

मोहन चुप है।

‘‘मेरी.... वह शीशी और पानी भी।’’

मोहन चला जाता है।

छाया उठकर खड़ी हो जाती है। उसकी टांगे अभी कांपती हैं। चार ही दिन तो हुए हुए है। ब्लीडिंग अभी खूब हो रही है। आए आधा घंटे बाद कपड़े बदलने पड़ते हैं। छाया को वह सब घिनौना लता है। जुगुप्सा होती है। और औरतें जाने कैसे करती हैं। बड़ा घृणित है।

सभी कुछ घृणित है।

शैलेन्द्र नीचे घाटी में होगा। उस पर जाने क्या दबाव है कि नीचे घाटी में उतर जाता है। वह वहां बैठा होगा। नपुंसक । मेरा पुत्र नपुंसक का पुत्र है।

मैं उसे नष्ट कर दूंगी...

भागा फिरता है।

झुकने से छाया को तकलीफ होती है। वह फिर आकर कुर्सी पर बैठ जाती है। नीचे से उठाकर दो घूँट पानी पीती है। फिर बैठकर इंतजार करने लगती है। मोहन का, बच्चे का, अपनी दवा की शीशी का, पानी का।

उसके कान में कोई फुसफुसा रहा है, ‘तुमने नपुसंक के पुत्र को पैदा किया।’’

‘तुम नपुंसक की पत्नी हो।’

‘तुम नपुंसक के बेटे की मां हो।’

‘तुम्हारे शरीर से आज एक नपुंसक के कारण खून बह रहा है। तुम भी... चारों तरफ सब शांत है। मोहन की सीढि़यों पर चढ़ने की आवाज आ रही है। वह दबे पांव आ रहा है। छाया अपने मूढ़े में सतर्क हो गई है।

‘‘सो रहा है ?’’


‘‘हां।’’

‘‘वहां रख दो।’’

‘‘...’’

‘‘मेरी गोलियां नहीं लाएं?’’

‘‘...’’

‘‘उसे रख दो, पहले लेकर आओ, और सुनो, माचिस। वह सब कपड़े भी जो इससे सबंधित है।

मोहन दवे पांव नीचे चला गया है।

छाया को मोहन का यह दबे पांव चलना अच्छा नहीं लगता है। कोई चोरी कर रहे हैं? मैंने इसे पैदा किया है। नष्ट सिर्फ इसलिए कर रही हूँ कि स्वीकार नहीं कर सकती। फिर यह मोहन दवे पांव क्यों चल रहा है ? कहीं यह शैलेन्द्र को बुलाने तो नहीं गया? गया होगा। शैलेन्द्र आ जाए तो अच्छा है। पर जिसके रोंगेटे ही खड़े नहीं होते, उसे क्या...।

‘‘मोहन, ओ मोहन...’’

मोहन आ गया है और सब कुछ ले आया है।

‘‘मोहन देखना, घाटी में से कोई आ तो नहीं रहा ? आ रहा हो तो जरा आवाज देकर कहो कि जल्दी आए। कहीं उसके आने से पहले सब निपट न जाए।’’

मोहन घाटी की तरफ जाकर खड़ा हो जाता है।

‘‘नीचे का गेट बंद कर आए हो ना?’’

‘‘हां।’’

‘‘सुनो, नीचे जाकर डॉक्टर से कहो कि अब उसकी जरूरत नहीं हैं’’

‘‘...’’

‘जाओ..’

मोहन फिर दवे पांव नीचे जा रहा है।

छत के बीेचोबीच कपड़ों के एक ढेर पर बच्चा लेटा है.... वह सो रहा है। एक कोने में मूढे पऱ छाया बैठी है। उसने अभी-अभी शीशी में से निकालकर चार गोलियां एक साथ खाई हैं।

छाया उठती है और फिर छत के बीचोबीच आकर खड़ी हो गई है।

बच्चे के चारों तरफ के कपड़ों को संगवाती है।

बच्चे के कमीज का बटन बंद करती है। माथे पर लगे एक दाग को पोंछ देती है। छाया को कुछ नींद-सी आ रही है। कोई दवे पांव आ रहा है।

मोहन है।

छाया फुर्ती से हट मूढ़े पर आ जाती है। खून से लथपथ एक कपड़ा अचानक उसकी धोती में से चू पड़ता है।

छाया उस कपड़े को देखकर डर रही है।

‘‘मोहन, तुम दबे पांव क्यों चलते हो?’’

‘‘मैं फोन कर आया।’’

‘‘मैं, मोहन, बच्चे तक इसलिए गई थी कि ये सूखे कपड़े.... मोहन एक बोतल मिट्टी का तेल ले आओ। और इस तरह दबे पांव न चलो। तुम्हारे चलने फिरने की खूब आवाज आनी चाहिए। हम कोई चोरी नहीं कर रहे हैं। अपना घर जला रहे हैं। इसलिए कि.... तुम जाओ, तेल लाओ।’’

मोहन फिर दवे पांव नीचे आता है।

छाया उठती है। खून से सने कपड़े को हाथ से उठाकर कपड़ों के ढेर के नीचे दबा देती है। पानी का एक गिलास पीती है। खाली पानी कड़वा होता है। इसलिए दो गोलियां और सटक जाती है।

डसकी पलकें झुकी जा रही हैं।

वह घाटी में देखती है।

पेड़ ही पेड़, पौधे ही पौधे, झरने ही झरने, पत्थर ही पत्थर और शैलेन्द्र ही शैलेन्द्र ! पर सब घाटी में उतरते हुए !...

छाया निश्चिन्त भाव से फिर आकर मूढ़े पर बैठ जाती है।

कपड़ों के ढेर पर अब उसे कोई दिखाई नहीं दे रहा है। सिर्फ खून से लथपथ कपड़े दिखाई दे रहे हैं।

घाटी में शैलेन्द्र एक पत्थर पर चुपचाप बैठा है। बायीं तरफ की सड़क पर एक कटे-फटे लोगों का काफिला जा रहा है। लॉन में कुत्ता अकेला खेल रहा है। छत के एक कोने में मोहन घुटनों में सिर दिए बैठा है। कपड़ों के ढेर पर बच्चा लेटा है। सो रहा है। दोनों घुटने मुड़े हैं। मुंह छाया की तरफ है। एक हाथ सीधा खड़ा है। एक में कुछ करेव है। छाया अपने मूढ़े में बैठी है। उसने दो गोलियां और खा ली हैं। उसकी पलकें झुकी जा रही हैं। उसके हाथों में दियासलाई है। वह तीली जलाती है। लौ से डरती है और दूर फेंक देती है। दियासलाई खाली हुई जा रही है। छाया की पलकें झुकी जा रही है।

उसे गहरी नींद आ रही है। सूरज ठण्डा है, बर्फ की तरह।

सब शांत है।

शैलेन्द्र नीचे घाटी में झरने के किनारे बैठा है और कोठी की तरफ देख रहा है। इतने नीचे से वह इतनी बड़ी कोठी एक पिंक रंग की गुडि़यां-सी लग रही है। बीच में कितने ही पेड़-पौधे आ रहे हैं। आदमी-जानवर आ रहे हैं। पर कोठी साफ दीख रही है।

शाम आने वाली है।

कोई रो रहा है।

शैलेन्द्र के खूब भीतर कोई रो रहा है।

उसका सारा शरीर एकदम शिथिल है।

चारों तरफ जाने कैसी बदबू फैल रही है।

...रो रहा है।

बदबू से आसमान ढंक गया है।

अंधेरा छाने लगा है।

शैलेन्द्र वहीं लेट गया है।

कोठी की छत पर कोई आया है। उसने पोटली भर राख हवा में बिखेर दी है।

अब सब चुप है, सब सुनसान है।

शैलेन्द्र लेटा है।

रात का जाने कौन-सा पहर है। छाया की नींद टूटी है। मोहन पास खड़ा है। उसके हाथ में खाली दियासलाई है।

‘‘उठिए। हवा में ठण्ड बढ़ गई है।’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘सब समाप्त हो गया ।’’

‘‘बाबू नहीं आए।’’

छाया निढ़ाल हो गई है। उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकलता।

‘‘तुम जा रहे हो, शैल।’’

‘‘हां।’’

‘‘जाओ, मिलना।’’

‘‘अच्छा।’’

बाहर टैक्सी खड़ी है। शैलेन्द्र आज वापस जा रहा है। छाया अभी महीना भर ठहरेगी। एक नर्स उसने अपनी देखभाल के लिए तय कर ली है।

‘‘ठीक हो गया न शैल ?’’

शैलेन्द्र चुप है

‘‘तुम्हें मैंने सब भयों से बचा दिया।’’

शैलेन्द्र की आंखें खुश्क हैं।

‘‘तुम कुछ सोच रहे हो शायद।’’

‘‘नहीं।’’

‘‘अच्छा, जाओ।’’

शैलेन्द्र टैक्सी में बैठ गया है।

‘‘तुम मन पर मैल क्यों लाते हो शैल, जो किया है मैंने किया है।’’

शैलेन्द्र पलभर को छाया को देखता है और नजरें झुका लेता है। टैक्सी चल देती है।

शैलेन्द्र चला गया।

छाया बुदबुदा रही है।

‘‘न स्वीकार... न हत्या!’’

मोहन रसोई में कुछ बना रहा है।

लॉन में पड़ी एक कुर्सी पर कुत्ता बैठा है। कारीडोर एकदम खाली पड़ा है। कोठी की सफेद दीवारों पर पीली रोशनी पड़ रही है। छाया छत की मुंडेर पर बैठी है झरने के पास बकरियां हैं, धोबी है, धोबिन है। एक तख्ता है, थोड़ी रेती है। और कपड़े पटक-पटककर साफ कर रहे हैं।

छाया ने अपनी छातियां में दूध निकालने की बोतल लगा रखी है। बोतल भर जाती है तो छाया उसे घाटी में उंडेल देती है।

हवा में कुछ राख के टुकड़े उड़ रहे हैं।

हवा में कुछ दूध के कतरे फैल जाते हैं।