अनाथ असफलता की वेदना/ जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :01 जुलाई 2017
प्राय: कहा जाता है कि सफलता के दस बाप परंतु असफलता अनाथ होती है। कोई जवाबदारी लेने को तैयार नहीं होता। एक खेल शुरू होता है, जिसमें एक सदस्य दूसरे को दोष देता है और बात इतनी बढ़ जाती है कि वर्षों का याराना टूट जाता है। दोस्त दुश्मन और दुश्मन दोस्त हो जाता है। खबर यह है कि इस धारा के विपरीत सलीम खान विचार कर रहे हैं कि उन वितरकों को कुछ धन लौटाया जाए, जिन्हें 'ट्यूबलाइट' में घाटा हुआ है। यह बात स्पष्ट नहीं है कि क्या वितरक उन सिनेमाघरों को धन लौटाएंगे, जिनसे उन्होंने प्रदर्शन पूर्व धन लिया था? फिल्म उद्योग के तीन घटक हैं- निर्माता, वितरक एवं प्रदर्शक। अगर धन लौटाया जाता है, तो लागत के अनुपात में तीनों घटकों में बंटना चाहिए। यह एकमात्र उद्योग है, जिनमें उपभोक्ता के धन से निर्माण खर्च कुछ हद तक निकल जाता है। सिनेमाघर का मालिक दर्शक से प्राप्त धन वितरक के माध्यम से निर्माता तक पहुंचाता है। अत: दर्शक ही आंशिक पूंजी भी जुटाता है और वही टिकट खरीदकर लागत व उस पर मुनाफा भी पहुंचाता है। इस पूरे खेल में सरकार फिल्म उद्योग की स्लीपिंग पार्टनर है अर्थात वह कुछ नहीं करके भी बहुत कुछ पाती है। आज इसी दर्शक के धन का कुछ अंश सिनेमा मालिक को लौटाया जाए ताकि वह दर्शक को सुविधाएं दे सके। इस प्रकरण में भी सरकार को दस रुपए प्रति टिकट सिनेमा के रखरखाव के खाते में देना है, अत: उसके अपने पास से कुछ नहीं जा रहा है। प्रांतीय सरकारें अवाम के मनोरंजन के एकमात्र साधन सिनेमा को बचाए रखने के लिए एक अदद अादेश तक जारी नहीं कर पा रही है।
एक बार 'हीर-रांझा' चेतन आनंद ने बनाई थी, जिसके संवाद पद्य में थे परंतु इसके पूर्व बनी 'हीर रांझा' के निर्माता ने वितरकों को धन लौटाया धा। निर्माता जुगलकिशोर ने एक दर्जन असफल फिल्मों के बाद अमजद खान अभिनीत 'दादा में सफलता पाई तो अपने पुराने वितरकों को कुछ पैसा लौटाया था। विख्यात कैमरामैन नरीमन ईरानी अपनी पहली फिल्म अमिताभ बच्चन अभिनीत 'डॉन' के निर्माण के अंतिम चरण में दिवंगत हो गए तो सलीम खान ने फिल्म को पूरा किया और अपने रसूख से फिल्म को लाभप्रद बनाया तथा सारा धन निर्माता की विधवा को दिया था। 'वांटेड' के बाद सलमान खान की दूसरी पारी में 'ड्यूबलाइट' पहली असफलता है। वर्तमान में आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'टाइगर जिंदा है' निर्माणाधीन है, जो एक सफल फिल्म की अगली कड़ी है। चोपड़ा अत्यंत चतुर फिल्मकार हैं अत: वे इस फिल्म में भी सलमान खान की स्थापित छवि के अनुरूप ही फिल्म बनाएंगे। प्राय: सफल सितारा अपनी छवि के परे कुछ अलग करने जाता है और उसके प्रशंसक उस फिल्म को अस्वीकार कर देते हैं। यह एक दुष्चक्र है।
अभिनेता इफ्तिखार खान ने इतनी फिल्मों में इंस्पेक्टर की भूमिका अभिनीत की कि जब वे कार में बैठे कहीं जा रहे होते थे तो ट्रैफिक पुलिस के जवान उन्हें सैल्यूट करते थे। इस टाइपकास्टिंग से यह लाभ होता है कि ताउम्र अभिनेता को काम मिलता रहता है। जहां एक ओर टाइपकास्टिंग अर्थात एक सी भूमिका बार-बार करने से कलाकार की प्रतिभा पूरी तरह उजागर नहीं होती वहीं दूसरी ओर इसी कारण निरंतर काम मिलता रहता है। 'शोले' में सांभा की भूमिका अत्यंत छोटी थी। उसे केवल गब्बरसिंह के 'कितने आदमी थे' का जवाब देना होता है और इसी फिल्म के बाद उन्हें बहुत काम मिलने लगा। वे ताउम्र सांभा ही अभिनीत करते रहे।
मोटे तगड़े असित सेन अपनी खा संवाद अदायगी के कारण हमेशा एक-सा काम करते रहे। वे विमलराय के विश्वस्त साथी और बंगाल से उन्हीं के साथ मुंबई आए थे। विमल राय ने उन्हें 'दो दुनी चार' नामक फिल्म का निर्देशन भी दिया था, जिसे गुलजार ने 'अंगूर' के नाम से बाद में बनाया।
इन दोनों फिल्मों का निर्माण शेक्सपीयर के 'कॉमेडी ऑफ एरर्स' से प्रेरित है। गुलजार ने 'अंगूर' में इस ढंग से शेक्सपीयर की प्रेरणा स्वीकार की है कि एक दृश्य में दीवार पर शेक्सपीयर की तस्वीर लगी है और फ्रेम में जड़े शेक्सपीयर एक दृश्य में आंख मारते हुए मुस्कराते भी हैं। स्वयं शेक्सपीयर के नाटकों की प्रेरणा उन्हें ग्रीक साहित्य से मिली थी। सारा मामला जुदा जुदा अंदाजे बयां का है। मनमोहन देसाई ने दोस्तोवस्की की एक रचना से प्रेरित 'छलियाal146 बनाई, जिसमें राज कपूर, नूतन और रहमान ने अभिनय किया था। उसी रचना से प्रेरित संजय लीला भंसाली ने रणवीर कपूर अभिनीत 'सांवरिया' बनाई, जो घोर असफल फिल्म साबित हुई। मामला अंदाज-ए-बयां पर ही जाकर टिकता है। फिल्म को इसलिए निर्देशक का माध्यम कहते हैं, क्योंकि उसी के आकल्पन पर अन्य सारे सहयोगी काम करते हैं।