अनाथ / रंजना वर्मा
रामू अनाथ था। पता नहीं कब और कौन उसे लाकर नई कॉलोनी की गलियों में छोड़ गया था। उसे अपने बचपन की कोई स्मृति नहीं थी। जब से उसने होश सँभाला था स्वयं को नई कॉलोनी की सड़कों और गलियों में भटकता पाया था। वह भीख मांगकर पेट भरता और रात होने पर वहीं सड़क के किनारे सो जाता। कालोनी वाले दया करके उसे कुछ न कुछ खाने को दे दिया करते थे। ठंड लगने पर उन्हीं लोगों से फटे पुराने कपड़े मांग कर पहन लेता और रात में चौराहे वाली चाय की दुकान पर भट्ठी के पास दुबक कर सो जाता। उसका रामू नाम भी किसने रखा था उसे याद नहीं। नई कॉलोनी में रहने के कारण रामू को उस मोहल्ले से लगाव हो गया था। वहाँ के निवासी उसे अपने परिवार के समान लगते। उनकी सेवा या उनके काम करने में उसे बड़ा आनंद आता था किंतु वे उस पर विश्वास नहीं करते थे। इसलिए रामू अक्सर उदास रहा करता था। कॉलोनी के बच्चे जब स्कूल यूनिफार्म में सज कर स्कूल जाते थे तब वह बड़ी हसरत से उन्हें देखा करता था। कभी-कभी सोचता कि यदि मेरे माता-पिता होते तो मुझे भी पढ़ने के लिए स्कूल भेजते। लेकिन उसका तो अपना कहने वाला कोई भी नहीं था।
उसी कॉलोनी में एक जज साहब का भी बंगला था। उनकी एक बूढ़ी नौकरानी थी जो सुबह शाम उनके घर झाड़ू पोछा किया करती थी। उसे रामू से बड़ा स्नेह हो गया था। रामू उसे 'बूढी मां' कहा करता।
बूढ़ी माँ के कोई संतान नहीं थी उसे रामू का बूढ़ी माँ कहना बहुत सुहाता था। अक्सर वह उसे कुछ खाने के लिए दे दिया करती थी। वह भी कभी-कभी उसके काम में सहायता कर दिया करता था।
एक दिन जज साहब का छोटा बेटा लान में खेल रहा था। खेलते-खेलते न जाने कब वह बंगले का फाटक खुला पा कर सड़क पर आ गया और वहीं गेंद खेलने लगा।
रामू कुछ दूर पेड़ के नीचे खड़ा होकर जज साहब के बेटे का खेल देख रहा था और प्रसन्न हो रहा था। तभी झाड़ी के पास से निकलकर एक काले सांप को बच्चे की ओर बढ़ता देख कर रामू घबरा गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उस बच्चे को कैसे बचाए. बच्चा अपने खेल में मस्त था। रामू को कुछ न सूझा तो वह बच्चे की ओर झपट पड़ा और दौड़कर बच्चे को गोद में लेकर साँप से दूर ले गया। बच्चा खेल में बाधा पढ़ने से चीख-चीख कर रोने लगा। रामू अभी भी साँप को देख रहा था जो तेजी से सरसराता हुआ झाड़ी की ओर वापस जा रहा था।
उसी समय जज साहब का बड़ा बेटा रमेश अपने दोस्तों के साथ स्कूल से लौट रहा था। उसने रामू की गोद में अपने भाई को रोता देखा तो गुस्से से भर उठा। उसने रामू की गोद से अपने भाई को छीन लिया और उसे थप्पड़ मार कर बोला-
"बदतमीज! तूने मेरे भाई को क्यों उठाया? बच्चे चुराता है?" रामू ने भयभीत होकर उसे देखा और डरते-डरते उंगली उठाकर सांप की ओर संकेत किया-
"भैया जी, वह... वह सांप ..."
"सांप? कहाँ है सांप?" रमेश ने पूछा।
"वह-...वह..." रामू ने भरे हुए गले से बताया।
रमेश ने उस काले सांप को देखा जो आधा झाड़ी में घुस चुका था। वही उसके छोटे भाई की गेंद पड़ी थी। यह देखकर उसका मित्र पूरी बात समझ गया।
ब उसने रमेश को समझाते हुए कहा-
"बेकार इस बेचारे पर क्यों क्रोध करते हो? इस ने तुम्हारे भाई को उस सांप से बचाया है। देखो, अभी तक इसकी गेंद वही पड़ी है।"
"क्या यह ठीक कह रहा है?" रमेश ने डपट कर पूछा।
"हाँ ..." रामू ने रोते हुए कहा।
"ठीक है ...ठीक है। जा यहाँ से।" रमेश बोला तो रामू आँसू पोंछता हुआ वहाँ से चला गया।
उस दिन उसे अपने माता-पिता की कमी बहुत खली। रमेश ने उसे अकारण पीटा था इस कारण वह अधिक दुखी था। उस समय बूढ़ी माँ जज साहब के यहाँ काम निपटा कर लौट रही थी। फाटक के पास से उसने पूरी घटना देखी थी। उसी समय वह बंगले में लौट गई और जज साहब की पत्नी को सारी बात सच-सच बता दी। तभी रमेश भी अपने मित्र के साथ भाई को गोद में लेकर आ गया। उसने भी बूढ़ी माँ की बातों की पुष्टि की। रमेश की माँ भली महिला थी। उन्हो ने रमेश को समझाया-
"बेटा! बिना सच्चाई को जाने किसी पर क्रोध करना ठीक नहीं है। रामू ने तुम्हारे भाई की जान बचाई और तुमने उसे उसके इस नेक काम का पुरस्कार उसे थप्पड़ मार कर दिया। यह तो ठीक नहीं हुआ। तुम्हें इसके लिए लज्जित होना चाहिए और रामू से क्षमा मांगकर उसे धन्यवाद देना चाहिए."
"लेकिन मम्मी! मैं उस गंदे लड़के से क्षमा नहीं मांगूंगा। यह मत भूलो रमेश के उसने तुम्हारे भाई के प्राणों की रक्षा की है।" माँ ने उसे समझाया लेकिन रमेश को हिचकिचाते देखकर उसकी माँ ने कहा-
"ठीक है। यदि तुम्हें क्षमा मांगने में लज्जा आती है तो मैं उससे तुम्हारे लिए क्षमा मांगूँगी।" उन्होंने छोटे बच्चे को गोद में लिया और बूढ़ी नौकरानी से कहा-
"चलो माई, मुझे रामू के पास ले चलो। अब उसका कोई घर ठिकाना तो है नहीं मालकिन, जहाँ मैं आपको ले चलूँ। आप कहें तो मैं आज ही उसे ढूंढ कर ले आऊँ। न जाने अभागा कहाँ रो रहा होगा।"
"ठीक है माई, तुम जाओ और वह जहाँ भी मिले उसे समझा बुझा कर मेरे पास ले आओ." रमेश की माँ ने कहा तो बुढ़िया चल दी। बहुत ढूंढने के बाद रामू उसे एक कूड़ेदान के पीछे घुटनों में सिर दिये बैठा दिखाई दिया। बुढ़िया ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और जज साहब की पत्नी का संदेश सुना दिया। पहले तो रामू वहाँ जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसे डर था कि रमेश उसे फिर मारेगा और उसकी माँ भी बच्चे को उठाने के लिए उसे डांटेगी किंतु बुढ़िया ने किसी प्रकार उसे समझा बुझाकर जज साहब के घर जाने के लिए राजी कर लिया।
जज साहब की पत्नी ने उसको प्यार से बैठाया और उसके विषय में सारी बातें जान ली। पति से परामर्श करके उन्होंने रामू को अपने घर में रख लिया और उसकी इच्छा जानकर उसे भी पढ़ने के लिए भेजने लगे। जज साहब के घर रहकर वह उन के छोटे-मोटे काम कर दिया करता और बड़े परिश्रम से पढ़ता। धीरे-धीरे सेवा भाव से उसने परिवार के सभी सदस्यों का मन जीत लिया। रमेश तो उसे अपने भाई के समान ही प्यार करने लगा।
समय बीतता रहा। कुछ वर्षों बाद रामू ने अपने परिश्रम और लगन से इंटर की परीक्षा पास कर ली और एक संस्थान में लिपिक की नौकरी पा गया। अब वह अनाथ नहीं था। उसे जज साहब का परिवार ही अपने परिवार के रूप में मिल गया था।