अनाम रिश्तों की तलाश / प्रताप दीक्षित
बीच-बीच में उसका अपने शहर लौटना होता ही। कभी वह पारिवारिक उत्सव – शादी-ब्याह जैसे अवसर पर औपचारिकता का निर्वाह करने आता, कभी पारिवार के लोगों से मिलने की एक दबी ललक उसे यहाँ खींच लाती या इस शहर में, जहाँ उसका जन्म से युवावस्था के प्रारंभ तक का समय बीता था, जागती आँखों से देखे सपनों के बचे-खुचे अवशेष ढूढ़ने आता।
वह जब भी आता, हर बार नए सिरे से लगता कि पैतृक जर्जर हवेली हिस्सों में बंट चुकी है, सम्बंध उससे कहीं ज्यादा। शहर नितांत बेतरतीबी और बदहवासी के साथ एक विशाल दैत्य की भांति पंजे पसार रहा है। उस दैत्य की आँखों में अपने लिए निपट अपरिचय, एक हद तक उपेक्षा का भाव, ही महसूस करता।
इस बार काफ़ी समय बाद आया था। चचेरे भाई की लड़की कि सगाई में। पत्नी बच्चों की पढ़ाई के कारण नहीं आ सकी थी। वह अकेले ही शहर में घूमने निकल गया। पुराने चेहरों को, जिन्हें देखे अरसा गुजर गया था, पहचानने की कोशिश करता रहा।
सुबह से ही इतनी भीड़, ट्रैफिक की भागमभाग शुरू हो गई थी – उसे आश्चर्य हुआ। उन दिनों शहर को विभाजित करती इस सड़क को ठंडी सड़क कहा जाता था। दोनों ओर घने पेड़ों से आच्छादित चौड़े फुटपाथ। सड़क के एक ओर विशाल पार्क, दूसरी ओर दूर-दूर फैशनेबिल दुकानें। फुटपाथ पर चलते लोग पूरी तरह फुरसत में लगते, जिन्हें किसी तरह की जल्दी न होती।
सड़क की सीमा के इस तरफ़ पुराना शहर, दूसरी ओर कैंटोनमेंट का फैला हुआ इलाक़ा और उन दिनों बस रहे कुछ उपनगर। कैंट में ही शहर का सबसे पुराना चर्च, उससे सम्बद्ध स्कूल और एक अस्पताल था। उसके आस-पास एक छोटी-सी साफ़ सुथरी बस्ती थी। खपरैल की ऊँची, ढलवा छतों वाले रिहायशी क्वार्टर। धीमे आवाज़ में बोलते, हँसते, खिलखिलाते सभ्रांत दिखते लोग। उन दिनों उसे लगता वह एक नए तरह का संसार है। अभावों, कुंठाओं और बंधनों से मुक्त। यह तो बाद में पता चला कि वह भी उसकी जैसी ही दुनिया थी। वैसे ही आभाव, तनाव और चिंताएँ।
रविवार को चर्च और बस्ती में चहल-पहल बढ़ जाती। शहर के अन्य हिस्सों में रहने वाले ईसाई परिवार भी यहाँ प्रार्थना के लिए आते। मर्द धुले इस्तरी किए पैंट-कमीज-टाई में लकलक। औरतें रंग बिरंगी स्कर्ट, फ्रॉक, कुछ साड़ियों में भी। बड़े दिन और नव वर्ष पर तो उबल्लास चरम पर होता। घरों की रंगाई-पुताई होती। हफ़्तों तक रंगीन बल्बों की झालरें जगमगाती रहतीं। उस पार की लड़कियाँ लाली, लिपस्टिक से सजी-धजी, कटे बाल, ऊँची स्कर्ट या फ्रॉक में सब्जी या रोजमर्रे की चीजें खरीदने निकलतीं, खिलखिलाती, गिटपिट बोलतीं। लोग आश्चर्य से मेमों को देखते रह जाते। बड़ों की मुमानियत के बाद भी शहर के युवा लड़के, विशेषकर नए साल के मौके पर वहाँ चक्कर लगाते, घुमते नज़र आते
उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई. निकला तो वह भी सिमी में साहब के यहाँ जाने के लिए ही था। शहर आने पर सिमी वाट्सन के यहाँ जाना निश्चित था। उसे सब क्रम से याद आ गया। इसी सड़क पर एक टाइप स्कूल हुआ करता था। पिछली बार आने पर उसने देखा था कि वहाँ एक विशाल मल्टीप्लेक्स विकसित हो चुका था। टाइप स्कूल एक पूर्ण वातानुकूलित संस्थान – कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र, इंटरनेट कैफे के साथ विज्ञापन एजेंसी में बदल चुका था।
उन दिनों वह हाई स्कूल का छात्र था। नौकरी की किल्ल्तें और चिंताएँ, भले ही आज जितनी नहीं, उस समय भी थीं। टाइप सीख लेने पर आगे नौकरी मिलने में सहूलियत होगी, यह सोच उसका एडमीशन टाइप स्कूल में करा दिया गया था। वाणिज्य का छात्र होने के के कारण स्कूल में यह एक विषय था ही। ताऊ जी के मित्र, रिटायर्ड नायब साहब के युवा पुत्र ने नया-नया टाइप स्कूल खोला था। सड़क की ओर खुलने वाले, दुकाननुमा एक छोटे से कमरे के बाहर ‘न्यू इंडिया टाइप इंस्टीटयूट’ का बोर्ड लगा था। अंदर दीवारों के साथ लगी मेजों पर पुरानी टाइप मशीनें रखी रहतीं। बीच में सड़क की ओर मुंह किए एक छोटी से मेज के पीछे रिटायर्ड नायब साहब लगभग पूरे दिन ड्यूटी बजाते। स्कूल के मालिक, उनके युवा पुत्र, के आने-जाने का समय निश्चित नहीं था। वह सुबह, शाम या दिन में किसी भी समय कुछ देर के लिए आता। बिल्कुल शुरुआत के विद्यार्थियों को निर्देश देकर चला जाता। बूढ़े पिता अधिकतर ऊँघते रहते। किसी छात्र को कुछ पूछना होता अथवा मशीन में कुछ समस्या होती तो वह उनसे कहता। वह वे अनमने भाव से उठ कर मशीन खटखटाते, ठक-ठक करते। पुरानी मशीन चालू हो ही जाती।
वह प्रारंभिक पाठ ए.एस.डी.एफ.जी. से आगे एल्फाबेट (वर्णमाला) पर आ चुका था। अब नायब साहब नए छात्रों की समस्याएँ उससे सुलझाने को कहते। इसका उसे अतिरिक्त लाभ मिल जाता। निर्धारित अवधि के बाद तक वह अभ्यास करता रहता। उसके इंस्टीटयूट में रुकने से उन्हें मदद ही मिलती। उस दिन वह इंस्टिट्यूट पहुँचा नायब साहब उसी तरह ऊँघ रहे थे। उसके साथ सहपाठी शोएब भी था। तो दो लड्कियाँ टाइप कर रही थीं। टाइप स्कूल में एडमीशन लेने वाली पहली लड़कियाँ। उनकी उम्र 20 -25 या 30 कुछ भी हो सकती थी। लड़कियों की उम्र का अंदाज़ लगाने की शुरुआत होने के बिल्कुल पहले की बात थी यह। एक लंबे कद की, गोरा रंग, कंधों तक कटे बाल, बिना बाहों की घुटने तक की फ्रॉक। दूसरी अपेक्षाकृत छोटे कद की और सांवली। सदा का खाली-खाली लगने वाला इंस्टीटयूट भरा-भरा-सा लग रहा था। उसने ठंडी सड़क पर, कैंट में, चर्च के पास अक्सर इस तरह की लड़कियों को चहकते-खिलखिलाते देखा था। परंतु इतने पास से बिल्कुल बगल में पहली बार ऐसा हुआ था। उसके मन में कौतूहल के साथ एक आकर्षण का भाव भी था। यद्यपि उसने घर, मोहल्ले में इतना कुछ इन लोगों के बारे में सुन रखा था कि यह तो तय था कि यह अच्छी लड़कियाँ नहीं ही होंगी। लेकिन उन दिनों अच्छी-बुरी लड्कियों की पहचान विकसित होने में समय था। धीरे-धीरे वह कोशिश तो कर ही रहा था। घर में होती कानाफूसी, उसकी कल्पना और अनुभवी की सलाह इसमें मददगार थे। उस दिन घर लौटने के बाद वह इस सम्बंध में किसी को बताना चाहता था। परंतु बताता किसको? बड़े भाई लोग उससे बहुत बड़े थे। उसे सदा बच्चा समझते। सदा लड़ने वाली चुगलखोर बहन। नौकर रामू, पड़ोस में रहने वाला गोपू! उसने किसी से कुछ नहीं कहा। ताऊ जी ने पूछा भी था, ‘तेरी टाइपिंग का क्या चल रहा है?’
‘जी, ठीक है। एल्फाबेट पूरी कर ली है।’ उसने कहा।
‘गुड’, किसी दिन नायब साहब से आकर मिलूँगा।’ ताऊ जी की बात सुन कर वह आशंकित हो उठा था। अगले दिन टाइप स्कूल जाने के पहले उसने नई कमीज, जो शादी-ब्याह जैसे अवसरों के लिए रखी थी, पहन ली थी। किसी के टोकने के पहले ही निकल गया था।
कई दिन बीत गए. उस दिन लंबी वाली लड़की की टाइप मशीन में कुछ गड़बड़ी आ गई. पहले वह स्वयं उलझी रही, फिर नायब साहब से कहा। वे भला क्या देखते? पहले उन्होंने एक-दो बटन दबाए. अंततः उससे ही कहा। उसने जाकर देखा। मशीन की रिबन एक ओर ख़त्म हो गई थी। मशीन पुरानी होने से उसका ऑटो रिवर्स काम नेहीं कर रहा था। उसने कार्बन-रिबन घुमाते हुए एक ओर कर दिया। उठते समय उसका सिर, ऊपर झुकी देखती लड़की की छाती से टकराया था। कोमल स्पर्श की पहली छुअन। जैसे लहरों से छू गया हो। पूरे शरीर में एक करेंट-सा दौड़ गया। एक सुगंध का झोंका उस लड़की के पास से पहले ही आ रहा था या बाद में उठा था, उसे याद नहीं। लड़की ने दूसरी लड़की से कुछ कहा। उस पर घड़ों पानी पड़ गया था। वह फिर रुक नहीं सका था। अगले दिन उसकी हिम्मत जाने की नहीं हो रही थी। परंतु जाना तो था ही। ठीक है वह माफ़ी मांग लेगा। स्कूल में लड़की उसकी ओर देख मुस्कराई थी।
एक दिन उसे टाइप स्कूल के बाद अपने वाणिज्य के अध्यापक के यहाँ जाना था। समय का पता नहीं चल रहा था। घड़ी न तो उसके पास थी, न ही सहपाठी शोएब के. शोएब ने इशारा किया कि वह लड़की से टाइम पूछ ले। उसने इनकार करते हुए प्रत्युत्तर में इंगित किया – वह ख़ुद पूछ ले। उनकी फुसफुसाहट जारी ही थी कि वह घूमी, ‘इट इज़ फिफ्टीन पास्ट फोर।’
उसे लगा जैसे चर्च की घंटियाँ बजी हों और मौसम कई दिनों तक सुहावना रहा था। वह इंस्टीटयूट आने पर अब उससे नमस्ते करता। वह सिर हिला कर मुस्करा देती। सीनियर होने के कारण टाइपिंग में दिक्कत आने पर मदद भी करता। पूरी एहतियात से ध्यान रखता कि टकरा न जाए. उसका नाम भी मालूम हो गया था – सिमी वाट्सन।
उन्ही दिनों क्रिसमस पड़ा था। उसने अपने पास इक्कट्ठे किए पैसे गिने थे। पांच-छह रूपये रहे होंगे। उसने ठंडी सड़क पर कोने वाली दुकान से बुके बनवाया था। सफेद लिली के फूलों का बुके वह इंस्टीटयूट ले गया था। आज वे नहीं आई थीं। वह निराश हुआ। तभी सिमी वाट्सन अकेले आई थी। वह चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गई. वह बहुत उदास लग रही थी। नायब साहब स्कूल में नहीं थे। वह झेंपता-झेंपता अपनी जगह से उठ कर उस तक गया, ‘हैप्पी क्रिसमस टू यू’ उसने जल्दी से कह कर बुके उसकी ओर बढ़ा दिया था। सिमी ने अप्रत्याशित दृष्टि से उसकी ओर देखा था।
‘ओह, वेरी हैप्पी क्रिसमस टू यू, माई यंग फ्रेंड।’ वह अभिभूत हो गई थी। बुके दोनों हाथों से पकड़ अपने होठों, सीने और आँखों से लगा लिया था। उसकी आवाज़ भर आई थी, ‘थैंक यू, लव।’ उसकी आँखें भीग गई थीं। उसने एकाएक झुक कर उसे चूम लिया था। उसने घबरा कर इधर-उधर देखा, किसी ने देखा तो नहीं। वह खिलखिलाई थी।
इसके बाद चौदह जनवरी – मकर संक्रांति का दिन था। सिमी बहुत खुश थी। उसने कहा था, ‘यंग ब्वाय, मेरे यहाँ एक छोटा-सा फंक्शन है। कल शाम मेरे यहाँ आ रहे हो। यू आर कोर्डयली इनवाईटेड।’ वह कुछ समझ नहीं सका फिर कहा ‘मैं अपने दोस्त को ले आऊँ?’ में
‘ओह, श्योर।’ फिर अपना पता बताया था। अगले दिन वह और शोएब, सजे-धजे चर्च के पीछे बस्ती पंहुचे थे। खपरैल की ऊँची छत वाला कमरा गुब्बारों, झंडियों से सजा हुआ था। एक टेबल पर केक और मोम बत्तियों थीं। उसे बाद में मालूम हुआ था कि सिमी के जन्मदिन की घरेलू पार्टी थी। कमरे में चहल-पहल थी। सिमी लोगों से घिरी हुई थी। टाइप स्कूल वाली उसकी सहेली ने सिमी को कोंचा था, ‘योर लव!’ वह उसकी ओर तेजी से चलती हुई आई थी। वह झुकी, वह घबरा कर पीछे हट गया। उसे टाइप स्कूल में बुके देने के बाद की याद हो आ गई – ‘इसका क्या! कहीं इतने लोगों के सामने । । ।’ वह खिलखिला कर हंसी. तभी एक गोरा, लंबा-सा युवक पास आया, सिमी की ओर आँख मार मुस्कराया, ‘तो यह हैं तुम्हारे छोटे आशिक!’ वह सिम के कान फुसफुसाया। वह बुरी तरह शरमा गया था। सिमी ने केक काटा था। उस दिन पहली बार उसने केक चखा था। परिवार में केक-पेस्ट्री आदि अंडे से बने होने के कारण वर्जित थे। बाद के दिनों में सिमी के घर जाने के सिलसिले के बाद कितनी वर्जनाएँ टूटी होंगी।
हाई स्कूल के बाद उसने टाइप स्कूल छोड़ दिया था। इंटरमीडिएट में टाइपिंग की जगह वाणिज्यिक गणित ले लिया था। सिमी ने भी जिस उम्मीद में टाइप सीखना प्रारंभ किया था, वह पूरी नहीं हुई. वह स्कूल में अस्थायी रूप से काम कर रही थी। स्थायी होने के लिए टाईपिंग का ज्ञान ज़रूरी था। परंतु टाइपिंग सीखने के बाद भी वह स्थायी नहीं हुई. प्रबंधक बोर्ड के चेयरमैन का एक रिश्तेदार उस स्थान पर रख लिया गया था। सिमी पर इतनी ही कृपा बहुत थी कि उसकी अस्थायी नौकरी चलने दी गई. दरअसल उसके पिता और माँ ने संस्थान में पूरे जीवन सेवा की थी। उसकी माँ वियना से एक मिशन के साथ भारत आई थी। मिशन के काम से गाँव-गाँव जाना होता था। यहीं उनकी मुलाकात पद्मनाभन, सिमी के पिता, से हुई थी। दोनों में प्रेम हुआ था। सिमी ने किसी समय बताया था – दोनों को प्रेम में बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ी। यहाँ तक कि उस अनन्य प्रेम के कारण माँ को मिशन और पिता को अपना धर्म छोड़ना पड़ा। लेकिन उन्हें कभी इसका पछतावा नहीं रहा। दोनों पूरी तरह एक-दूसरे को को समर्पित रहे थे। पिता जब तक जीवित रहे और माँ के असहाय होकर बिस्तर पर पड़ने के पहले तक, उनकी एक ही आकांक्षा रही थी – सिमी को डॉक्टर बनाने की। लेकिन पिता की असमय मृत्यु और माँ की लंबी बीमारी के बाद उसे विवश होकर यह अस्थायी नौकरी करनी पड़ी थी।
वह अक्सर सिमी के यहाँ चला जाता। उम्र बढ़ने के साथ वह बहुत कुछ उसके सम्बंध में जान गया था। ओलिवर – उसका प्रेमी, जिसके साथ उसकी सगाई भी हो गई थी, आस्ट्रेलिया जाने के लिए तय हो गया था। उसके लिए एक-एक दिन यहाँ काटना मुश्किल था। सिमी की उससे बहस होती रहती। प्रत्यक्षतः सिमी में देशप्रेम का जज़्बा अथवा अपनी माटी की गंध जैसी कोई भावना दिखाई नहीं देती। फिर भी वह वह उस बेतरतीब से शहर की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थी कि उस छोड़ कर जाने के लिए, जहाँ से शायद कभी लौटना संभव ना हो, इतनी जल्दी में निर्णय के पक्ष में नहीं थी। वह कहती ‘मैं नहीं जानती, माँ को कौन-सा सम्मोहन यहाँ से बाँधे रहा। हो सकता है वह मेरे पिता रहे हों। पर इसके अलावा भी तो बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे हम देख नहीं सकते, शायद महसूस भी नहीं कर सकते। लेकिन कुछ होता ज़रूर है।’
ओलिवर कहता, ‘इस सड़े से मुल्क, ऊपर से इस धूल भरे शहर में रखा क्या ही क्या है?’ उसे अपना भविष्य, करियर सब अंधकारमय दिखाई देते। सिमी बहस करती-करती रो पड़ती। फिलहाल वह अपनी बीमार माँ को छोड़ कर जाने में असमर्थ थी। उस पर उदासी और अवसाद का दौरा पड़ जाता। जिसका प्रभाव कई-कई दिनों तक बना रहता।
एक दिन ओलिवर ने कहा था, ‘माँ के न रहने पर तो तुम चल सकती हो। हाँ, यह ज़रूर है कि इसका इन्तजार भी एक सीमा तक ही किया जा सकता है।’ उस दिन सिमी को लगा था कि ओलिवर का अश्लीलतम रूप प्रकट हो गया है। उसके सम्बंध अंतिम रूप से ख़त्म हो गए थे। ओलिवर एक दिन चला गया था। उसे कई दिनों बाद मालूम हुआ था कि उसी सप्ताह सिमी की माँ की मृत्यु भी हो गई थी। वह शाम को उसके घर गया था। कमरे में अँधेरा था। उसके जाने पर उसने लाईट जलाई थी। लाल हुई आँखें पोंछ कर मुस्कराने का प्रयास किया था। उसके मन में आया, पता नहीं, यदि माँ की मृत्यु कुछ पहले हो गई होती तो उसका निर्णय क्या होता? उसने कुछ नहीं कहा। वे बिना किसी संवाद देर तक बैठे रहे। सिमी ने धीमे स्वर में, आवाज़ जैसे तल से आ रही हो, कहा था, ‘मुझे मालूम था, माँ को को एक दिन जाना ही है। बीमारी ही ऎसी थी। जगह, शहर, देश बदलते ही हैं। मेरी माँ ने ही सब कुछ छोड़ दिया था या नहीं? वक़्त धीरे-धीरे सब कुछ करा लेता है। परंतु इसके लिए क्या एक झटके में, निर्ममता पूर्वक, सब कुछ तोड़ देना आवश्यक है?’
फिर सब कुछ बदलता चला गया था। स्कूल की अस्थायी नौकरी छूटने के साथ ही आवासीय क्वार्टर छोड़ने की नोटिस भी उसे मिल गई थी। वह आक्रोश में थी। जो कुछ उसने बताया और जो वह समझ सका था, उसका मतलब यही था कि कमेटी के चेयरमैन से लेकर अन्य स्टाफ तक उससे जो कुछ चाहते थे, वह समझौता नहीं कर सकी थी। उसने कहा था, ‘मेरे लिए इस सबका, देह ऐसी किसी चीज का, कोई विशेष महत्त्व नहीं, अब तो माँ भी नहीं रहीं। लेकिन बिना सहमति? मेरी ज़िद है कि मैं मजबूरी में कोई समझौता नहीं करूंगी’
उसने क्वार्टर खाली नहीं किया बल्कि नौकरी और क्वार्टर दोनों के लिए कोर्ट में केस दायर कर दिया था। उसे शहर के दूसरे कोने में एक स्कूल में पार्ट टाइम अस्थायी नौकरी मिल गई थी। चिलचिलाती धूप में जाती, केस की तारीखों पर वकील के बस्ते और अदालत दौड़ती फिरती। फिर भी उसमें कोई ख़ास अंतर नहीं आया था। उसकी आँखों में चंचलता, चेहरे पर शरारत और आवाज़ में शोखी बरकरार थी। दूसरों की सहायता को पहले ही कि तः तत्पर रहती। पड़ोस ही नहीं, पूरी बस्ती में, कोई बीमार हो, मेहमान आए हों, हर ज़रूरत में वह हाज़िर रहती। लोग उसके सहारे अपने छोटे बच्चे या वृद्ध माता-पिता को छोड़ बाज़ार या पिक्चर चले जाते।
वह भी उम्र के संघर्षों से रूबरू हो रहा था। पढ़ाई के साथ नौकरी की तलाश में तलाश में रोजगार दफ्तर के चक्कर लगाता। सुबह-शाम ट्यूशन करता। संयुक्त परिवार बिखर रहा था। पिता चिड़चिड़ाते। वह कभी टाइप स्कूल, कभी शोएब या सिमी के यहाँ चला जाता। एक दिन सिमी ने बताया था, ‘ओलिवर का पत्र आया है। वह शायद अगले महीने इंडिया आएगा।’
‘ठीक है। अब यहाँ की झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी।’ उसने कहा था।
‘तुम क्या समझते हो वह मेरे लिए आ रहा है। वह अपनी आस्ट्रेलियाई पत्नी को भारत घुमाने, ताज दिखने आ रहा है और यदि ऐसा न भी होता तो कैसे सोच लिया कि मैं जाने को तैयार बैठी हूँ।’
‘लेकिन यहाँ की परेशानियाँ, मुकदमें, नौकरी... यह सब अकेले?’
‘क्यों तुम नहीं हो क्या?’ वह एक आँख दबा कर खिलखिलाई थी। वह अचकचा गया था।
वह व्यस्त होता गया था। सिमी के यहाँ गए अरसा गुजर गया था। एक दिन शोएब ने बताया था, ‘तुम्हारी सिमी के आजकल बहुत चर्चे हैं।’
शहर छोटा तो नहीं था परंतु उन दिनों इतना बड़ा भी नहीं था कि इस तरह की बातें फ़ैल न पातीं। वह उस दिन, एक लंबे समय बाद, उसके यहाँ गया था। पर कमरे में ताला बंद था। उसके बाद कई बार जाने पर भी वह नहीं मिल सकी थी। पड़ोस के लोग उसके सम्बंध में अजीब-अजीब बातें करते। उसने मन में सोचा – मालूम नहीं सच क्या है? परंतु क्या प्रत्येक का सच अलग नहीं होता? दूसरे के सच से नितांत भिन्न, केवल अपने अनुभव का सच।
बहुत दिनों बाद किसी से पता चला था कि सिमी बहुत बीमार है। उसके जाने पर बड़ी मुश्किल से उसने उठ कर दरवाज़ा खोला था। उसके चेहरे की हड्डियाँ निकल आई थीं। दरवाज़ा खोलते-खोलते वह हाँफ गई थी। अचानक उसे खांसी का दौरा पड़ा। खांसते-खांसते वह बेदम हो गई. उसने पानी पिलाया। पूरा कमरा धूल से अटा पड़ा था। पता चला पंद्रह दिनों से बिस्तर पर है। हल्का बुखार और खांसी तो बहुत दिनों से थे। कभी तकलीफ ज़्यादा होती तो दवा ले लेती। काम वाली चाय और नास्ता दे जाती थी। आज दो दिनों से वह भी नहीं आ रही थी। उसने चाय बनाई. एक कप उसे देकर दूसरा ख़ुद लेकर बैठ गया।
वह उसे लेकर अस्पताल गया था। जांच के बाद उसे टी0बी0 निकली थी। उसके एक मित्र के पिता ज़िला क्षय रोग चिकित्सालय में कार्यरत थी। उनकी मदद से इलाज़ शुरू हुआ। अस्पताल से दवाएँ मिल जातीं। पंद्रह दिनों में दिखाने जाना होता। अस्पताल की भीड़ में लाइन में लग कर दवा लेने आदि में देर लगती। वह इतनी कमजोर हो गई थी कि अकेले उसके लिए यह सब करना असंभव था। वह कई महीनों तक उसके साथ रिक्शे पर अस्पताल जाता, डॉक्टर को दिखा, दवा दिलवा कर वापस घर छोड़ता। उसके सिमी के साथ अस्पताल और घर जाने की चर्चा मोहल्ले और परिवार में होने लगी थी। एक दिन वह सिमी के यहाँ से लौटा था। ड्राईंगरूम में पिता के साथ पड़ोस के पेशकार साहब बैठे हुए थे।
‘बरखुरदार, आजकल तो ऐश हो रही है। कहाँ से तशरीफ ला रहे हैं?’ उन्होंने अजीब ढंग से मुस्कराते हुए पूछा था। वह उनके लहजे से सिर से पाँव तक जल उठा था। उनके रंगे हुए बाल, आँखों में सुरमा और इत्र से गमकते कपड़ों से उसे उबकाई आने को हुई. उसने जज्ब करते हुए कहा, ‘जी ट्यूशन पढ़ा कर।’
‘वाह!’ उन्होंने किंचित हँसते हुए, एक आँख बंद करके, रहस्यमय अंदाज़ में कहा था, ‘पढ़ाने या पढ़ने! कौन स पाठ पढ़ा जा रहा है।’
वह कुछ कहता तभी पिता ने समझने की कोशिश की थी, ‘मैं समझता हूँ कि तुम्हारा इरादा ग़लत नहीं है लेकिन बदनामी तो होती है न!’
अब उसे अपने को रोक पाना मुश्किल लगा था, ‘एक बीमार को अस्पताल ले जाने में बदनामी होती है। लेकिन रात में वहाँ के चक्कर लगाना शायद किसी धार्मिक अनुष्ठान का काम है।’ उसने पेशकार साहब को घूरते हुए कहा था। चोट भरपूर थी परंतु प्रतिक्रिया सुनने के लिए वह रुका नहीं था।
किस आशा में जी रही थी सिमी। क्षय की एडवांस स्टेज होने पर भी वह अपनी जिजीविषा और दवाओं के नियमित सेवन से ठीक होने लगी थी। कुछ दिनों बाद उसने काम पर भी जाना शुरू कर दिया था। दवाएँ तो लंबे अरसे तक चलनी थीं। उसका जाना फिर अनियमित हो गया। सिमी ने स्वयं मना कर दिया था।
उन्ही दिनों सर्विस सेलेक्शन बोर्ड का परिणाम घोषित हुआ था। उसका चयन हो गया था। उसकी पोस्टिंग दूसरे राज्य में हुई थी। नौकरी ज्वाइन करने और शहर छोड़ने के पहले वह सिमी के यहाँ गया था। उसकी नौकरी लगने की बात सुनकर वह बहुत खुश हुई थी, ‘ओह तुमने पहले क्यों नहीं बताया? यह तो सेलिब्रेट करने की बात है। खैर, इस बार तुम्हारी लाई मिठाई ही सही। अगली बार बीयर और । । । ‘ वह शरारत से मुस्कराई.
उस दिन वह देर तक रुका था। कहते समय वह भावुक हो गई थी, ‘मई लव, तुमने मुझे जिन्दा रखा है, ज़िन्दगी के कितने मोडों पर अकेले पड़ने से बचाया है। जब कभी लौटना इधर ज़रूर आना। तुम जानते हो कि शहर के इस कोने में घर की यादों में तुम्हारा हिस्सा भी है। मैं तुम्हारा इन्तजार करूंगी।’ उसकी आँखें भीग गई थीं।
इसके बाद वक़्त की नदी में कितना पानी बह गया था। वर्ष पर वर्ष बीतते गए. दूसरे शहर में नौकरी, लगातार होने वाल स्थानांतरण, विवाह, माता-पिता की मृत्यु, संपत्ति का बंटवारा कितना कुछ घटित होता चला गया। वह विवाह के बाद पहली बार अपने शहर आया था। पत्नी को उसने सब कुछ बता दिया था। पत्नी उससे मिलने को उत्सुक थी। सिमी उन्हें देखकर जैसे पागल हो गई थी। ज़रा-सी देर में उसने बहुत तैयारी कर डाली थी। केक, पेस्ट्री, समोसे, रसगुल्ले जाने क्या क्या। खिलने-पिलाने के बाद उसने ज़िद की थी, ‘तुम्हारी नई शादी हुई है। अभी मधुमास चल रहा है। मैं दूसरा कमरा तुम्हारी मधुयामिनी के लिए सजा रही हूँ। यह रात यहीं बितानी है।’ उसके चेहरे पर वात्सल्य, अधूरे अतृप्त सपनों की आकांक्षाएँ, लालसा, प्रेम जाने कितने भाव एक साथ उभरे थे। उन्होंने बहुत समझाया, मनाया लेकिन वह रात उन्हें वहीँ बितानी पड़ी थी। अगले दिन चलते समय सिमी ने माँ का पुराना बक्सा खोल कर एक सोने की चेन निकाली। चेन में एक छोटा-सा क्रास लगा था।
‘देखो, अब इस मन मत करना। यदि तुमने कुछ भी कहा तो मैं सब कुछ तुम्हारी पत्नी को बता दूंगी।’ उसे चेहरे पर हमेशा आ जाने वाली शरारती मुस्कान थी। वह मन नहीं कर सका था। सिमी ने पत्नी के माथे को चूमते हुए कहता था, ‘गॉड ब्लेस यू. इसको सदा पहनना। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम्हारा हजबैंड बहुत नेक इंसान है, फरिश्ता है। इसे ख़ूब प्यार करना।’ इस समय संसार की सबसे सुन्दर स्त्री वह लग रही थी।
धीरे-धीरे उसका आना कम होता गया था। कई-कई वर्ष बीत जाते। परंतु जब भी आता तो सिमी के यहाँ तो जाना होता ही। समय भाग रहा था। मुश्किल से पैंतालिस की होगी लेकिन साठ-पैंसठ की दिखाई देती। हर बार आने पर कुछ नए परिवर्तन दिखाई देते, जो चाहने पर भी रुचिकर न होते। परिवर्तन बाहर-अंदर दोनों ही जगह आए थे। मालूम नहीं कि भीतर के परिवर्तन अधिक गतिशील थे या बाहर के. सिमी की दूसरी नौकरी भी छूट गई थी। उसने दो-तीन ट्यूशन कर लिए थे। रविवार के दिन चर्च के बाहर छोटी-मोटी धार्मिक पुस्तकें, चेन, की-रिंग आदि बेचती। अधिकांश पुस्तकें, बिना मूल्य बांटने के लिए होतीं। घर में अभावों की छाया स्पष्ट दिखाई देती। अकेले होने से किसी तरह चल रहा था। वह जो भी उसकी सामर्थ्य में होता, करने की कोशिश करता। पहले तो वह मन कर देती थी। परंतु बाद में वह बिना कुछ बताए चलते वक़्त टेबिल पर पांच-छह सौ रख देता। वह अनदेखा कर जाती।
बस्ती की मुख्य सड़क एक व्यस्त बाज़ार में पर्तिवर्तित हो चुकी थी। बैंक, बीमा कंपनियों के दफ्तर, दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं के डिपार्टमेंटल स्टोर से लेकर इलेक्ट्रानिक उपकरणों की बड़ी-बड़ी दुकाने खुल गई थीं। पिछली बार, दो वर्ष पूर्व, जाने पर पता चला था कि स्कूल ट्रस्ट ने रिहायशी क्वार्टरों वाली ज़मीन एक बिल्डर को लीज पर दे दी थी। वह वहाँ बहुमंजिला कॉम्प्लेक्स बनवाना चाहता था। वहाँ के अधिकांश निवासियों ने जगह खाली कर दी थी। कुछ ने ले-दे कर, कुछ ने भय से। सिमी और एक-दो परिवार रह गए थे। सिमी तो उस इलाके में झगड़ालू औरत के रूप में प्रसिद्ध हो गई थी। हर व्यक्ति खोंचे-सब्जी वालों से ज़रा जरा-सी बात में तकरार करती। लेकिन कोई उसकी बात का बुरा न मानता। आख़िर वह ही तो बिना मोल-भाव किए, जो दाम वे बताते, चुका देती। हालाँकि बड़बड़ाती रहती। अकेली औरत को ठगने का आरोप लगाती। साथ ही धूप होने पर बरामदे में कुछ देर बैठ कर सुस्ताने को कहती। पानी पिलाती, सिर दर्द-बुखार आदि की दवाइयाँ देती। लेकिन चिढते भी देर न लगती। पड़ोसी, दुकानदार, फेरीवाले हँस कर टाल देते।
उसने किसी तरह भी क्वार्टर खाली करने से मना कर दिया था। मुकदमा तो बहुत दिनों से अदालत में था। उसने एक और याचिका ट्रस्ट और बिल्डर पर दायर कर दी थी। पिछली बार आने पर उसने बताया था - वकील का कहना है कि दो-तीन तारीखों में स्टे मिल जाएगा, बिल्डर फिर काम नहीं करा सकेगा। फिलहाल आसपास के क्वार्टर तोड़ दिए गए थे। उसका अकेला क्वार्टर समुद्र में द्वीप की तरह दिखाई देता। चारों ओर मलबा, ईंटें, बालू, मौरंग के ढेर, सरिया, पत्थरों के पहाड़ इकट्ठे थे। उसके घर का दरवाज़ा तक उनके पीछे छिप गया था। कितने चक्कर लगा कर वह वहाँ पंहुच सका था। वह जाते ही उसकी ज़िद पर झुंझलाया फिर समझाने की कोशिश की थी। सिमी ने मुस्कराते हुए कहा – तुम लेखक हो न ! आज तुम्हे इंटेलेक्चुएल वाली कॉफी पिलाऊँगी। कभी पी है? घर में ने दूध है, न चीनी।
करीब डेढ़-दो साल पहले इस आखिरी मुलाकात में वे देर तक, ब्लैक कॉफी के प्याले लिए, चुपचाप ‘ रहे थे। उसका तबादला सुदूर दक्षिण में होने के आदेश हो गए थे। चलते समय, पहली बार उसने देखा, वह भावुक हो गई थी – ‘अब तो तुम्हारा भी निश्चित नहीं है। मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती। मालूम नहीं अब कब... ‘
वह रुक गया था। उसकी आँखों में तरलता और उभरते प्रश्न देख वह फिर पुरानी सिमी में बदल गई थी – ‘मैं मज़ाक कर रही थी। तुम जाओ तुम्हारी यात्रा शुभ हो। अगली बार जब आओगे तब बताऊँगी।’ उसे ठिठकता देख फिर कहा था, ‘अरे कहा न जाओ! इतनी जल्दी मुझे कुछ नहीं होगा।’ वह कितनी जिज्ञासाएँ लिए लौट गया था। क्या कहना चाहती थी सिमी? कौन-सी आकांक्षा रह गई थी उसकी।
इन्ही विचारों में डूबे, पुरानी यादों में खोए हुए, पूरा रास्ता पार हो गया था। उसने सोचा जिस जीवन को जीने में पूरा युग बीत गया, उसे यादों के माध्यम से दुबारा जीने में कितना कम समय लगा। उसे आश्चर्य हुआ दो ही वर्षों में कितना कुछ बदल गया एथा। एक माया नगरी जिसमें हर रास्ते पर चलने के बाद फिर वहीँ आ जाते हैं जहाँ से चले थे। एक बड़े परिसर के भीतर बहुमंजली इमारत थी। वह उसके चारों ओर कई चक्कर काट फिर विशाल द्वार पर कुछ गया था। बहुत भटकने के बाद उसने एक पुरानी पान की दुकान को पहचानने की कोशिश की। दुकानदार पहचाना -सा लगा। सिगरेट लेते हुए उसने उससे सिमी में साहब के क्वार्टर के बारे में पूंछा। उसका ख़्याल था उसने घर बदल दिया होगा। दुकानदार ने उसे पहचानने की कोशिश की, ‘साहब, आप तो उस क्रिस्तान पगली के पास आते थे न ! अबकी बहुत दिनों बाद आए आप। उस समय यह बिल्डिंग भी नहीं बनी थी ! इसी लिए भटक गए. अभी छह महीने पहले ही तो बन कर तैयार हुई है। क्या शानदार बनवाई है। बहुत पैसा भी लगा होगा। । ।’
उसने बीच में टोक कर सिमी के बारे में पूंछा। ‘साहब वही तो बता रहा हूँ। यही करीब साल भर पहले की बात है वह कमरे में मरी पाई गई थी। दो-तीन दिन बाद पता चल जब वह घर से बाहर नहीं निकली। मालूम नहीं किसी कीड़े-मकोड़े ने काट लिया या फिर किसी ने कुछ कर-करा दिया। सुनते हैं पूरा बदन नीला पड़ गया था।’
दुकानदार पान लगना बंद कर शून्य में एकालाप कर रहा था, ‘लेकिन साहब, झगड़ालू होने पर भी औरत भली थी। पूरी बस्ती में उसने किसके लिए जितना हो सकता था किया। वह तो सोसायटी, सरकार, पुलिस सबसे सड़ने को तैयार थी। किसी ने साथ नहीं दिया तो अकेली ही लगी रही। मरने पर भी भला कर गई. न वह मरती, न यह बिल्डिंग बनती। उसके ही क्वार्टर की वज़ह से काम रुका था। । ।’ वह अविराम बोलता जा रहा था।
वह संज्ञा-शून्य हो गया था। कितनी देर यूं ही खड़ा रहा। उसकी चेतना लौटने में देर लगी थी। उसने दुकानदार से पूछा यह सब का हुआ और दुकानदार ने जो तारीख बताई वह उस इस लिए याद थी कि यह वही तारीख थी जिस दिन ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उसके पुत्रों को जिन्दा जला दिया गया था और उस दिन उसके लिए उस शहर की मौत हो गई थी। उसका शहर के साथ रहा-सहा सम्बंध भी सम्बंध भी अंतिम रूप से समाप्त हो गया था।