अनाम लमहों के नाम / सूर्यबाला
उसने जिस-मसालों और सब्जियों से भरा थैला दीवार से टिकाया, आंचल के छोर से चाबी का गुच्छा निकाला, दरवाजा खोला और अंदर जाकर धप्प से पसर गयी।
फिर आहिस्ते-आहिस्ते पसीना पोंछते-पोंछते नजर घुमायी और चारों ओर का जायजा लिया।
सबकुछ अस्त व्यस्त-ऐसा-फैला... बच्चों की निकरें, बनियानें, पति की लुंगी, साबुन के झाग से बोथा हुआ शेविंग ब्रुश और यहां-वहाँ फेंकी हुई अधटूटी, लतरी चप्पलें।
अंदर की तरफ खुलने वाले दरवाजे के पास दाल, सब्जी के खाली हुए सूखे कड़कड़ायेसे पतीले, राख से अंटी अंगीठी पड़ी थी और बरामदे में ऊपर अधसूखे-अधगीले कपड़े लटक रहे थे। इस सबके अलावा बाहर सूखी-सूखी गर्माती, अंधड़ जैसी हवा और अंदर उमस-भरी बेकली...
काम... काम किधर से भी शुरू किया जा सकता है। सब एक-से ही धोना, पोंछना, मांजना, समेटना-पकी हुई दाल, सब्जी, चावल की जूठनें-उसे जल्दी-से-जल्दी जुट पड़ना चाहिए... लेकिन वह थी कि इस पूरे उजाड़खंड के बीच पूरी तरह निर्लिप्त वैसी-की-वैसी पसरी बैठी थी-बस जैसे हिलने तक का जी नहीं कर रहा था।
अच्छा... क्या सालों, महीनों जुड़ती चली जाने वाली इतनी लंबी ज़िन्दगी में से कुद तीन-चार घंटे यों ही सब ऐसे-का-ऐसे छोड़कर नहीं बिताये जा सकते। कुछ तीन-चार घंटे की मोहलत-क्या हो, अगर वह ऐसी ही धंसी चट्टान की तरह बैठी ही रह जाये? पति-बच्चों के आने तक भी...
शाम तक वैसी-की-वैसी अंटी अंगीठी, फैले कपड़े, जूठे बर्तन पड़े रहे जायें तो... उस स्थिति की कल्पना ही आतंकित करने वाली थी।
लेकिन उठी वह तब भी नहीं। सिर्फ़ बैठी सोचती रही। सोचती रही कि कितना अच्छा होता अगर कोई क्रोधांध ऋषि, मुनि या यक्ष-किन्नर अचानक आकर उसे कुछ घंटों के लिए शिलाखंड बनाकर शापग्रस्त कर जाता। वह यह भी सोचती रही कि आज तक की ज़िन्दगी में कुल मिलाकर उसने कितने बर्तन धोये होंगे, कितना चावल चुना होगा, या कितने किलो आटा माड़ा होगा। इसका कोई हिसाब-किताब करता होगा! रात के दिन और दिन के रात... पलटते जाते ज़िन्दगी के सफों का कोई लेखा-जोखा...
अचानक बगल की दीवार की दूसरी तरफ से कुछ खिसकाने-खींचने की आहट-सी हुई. वह चौंकी... हाँ, पीछे मकान-मालिक की पीछे वाली कोठरी से, जिसमें सीमेंट की बोरियाँ धरी होती हैं, आहट के साथ-साथ एक आवाज पहले थोड़ी देर जैसे हारमोनियम के पर्दों के साथ गुनगुनाती रही, फिर एक लहराती धुन में बदल गयी। गीत था तो पिक्चर का ही, पर इस तरह एक अजूबी-अकेली-सी कोठरी से निकल रहा था जैसे सुनसान निचाट दोपहरी में सावन झिरझिरा उठा हो... गीत भी वैसा हीः
'जब दीप जले आना...'
वह चौंकी। फिर उठी। आंगन के कोने से लपककर दो-तीन ईटें जोड़ी और पलस्तर वाली ऊंची मुंडेर की दूसरी तरफ झांकने लगी। वही था, हाँ, वही तो था। एकाध बार आते-जाते दिखा था। यों हारमोनियम और कुछ गाने की आवाज भी सुनी थी पर काम में कहाँ इतनी फुरसत कि इन सब बेकार की बातें पर ध्यान जाता।
अबकी ध्यान से देखा। लच्छे-लच्छे बाल, ढीला-ढाला कुर्ता, पीठ उसकी तरफ थी न! हारमोनियम के पर्दों पर फिसलती उंगलियाँ ही जब तब दिख जाती थीं।
गीत फुहारों की तरह झिरझिराता जा रहा थाः
संकेत मिलने का भूल न जाना
मेरा प्यार न ठुकराना...
जब दीप जले आना... आना... जब दीप जले आना।
वह वैसी ही डगमगाती ईंटों पर चढ़ी खुरदरे प्लास्टर वाली मुंडेर पर ठुड्डी सटाये तन्मय-सी सुनती रही... ठुड्डी इतनी और इस तरह सटी थी कि नाक में सीमेंट-बालू की सौंधी महक भर गयी थी। सुनते-सुनते वह मुस्करा गयी... लेकिन तभी दरवाजे पर आहट हुई... उसके नहीं, उसके, उध रवह हारमोनियम छोड़कर दरवाजा खोलने उठा और इधर यह धपाक से लड़खड़ाती ईंटों से कूद गयी। कूदने के साथ ही बिखरे-फेंके घर पर नज़र दौड़ायी तो जैसे नये सिरे से चौंक गई. झट-पट काम में जुटी. फटाफट बर्तन समेटे और कपड़े बटोरकर शाम के लिए भाजी काटने बैठ गयी। सब्जी काटते-काटते वह फिर मुस्करा गयी। भूख-सी लगी तो सोचा, चाय पी ले एक प्याली बनाकर... लेकिन नहीं, आज तो उसका पति ऑफिस से जल्दी आने को कह गया है। कहीं वह चाय पीती ही हो और वह आ गया तो... वह शर्म से... नहीं, झेंप से सिकुड़ गयी... नहीं, यह ठीक नहीं लगेगा। पति के आने पर ही चाय बनानी चाहिए. मतलब, उसके साथ ही पीनी चाहिए. कुछ बना भी लेंगी चाय के साथ, फिर उसका पति पूरी तरह संतुष्ट होकर आराम करेगा।
असल में आज ऑफिस में किसी साथी कर्मचारी की लड़की की शादी है। सारा स्टॉफ आधे दिन पर ही छुट्टी मारकर वहाँ धमक जायेगा। कुछ मदद के नाम पर, कुछ हंसी-ठट्ठे और रायते, कचौड़ी के नाम पर। लेकिन उसका पति इन बेकार की बातों से दूर रहता है। उसने दो दिन पहले ही अपना निश्चय उसे बता दिया था। फालतू में जाकर बैठे रहना जितने का खाना खाने को मिलेगा, उसने से ज़्यादा आने-जाने में... वैसे किसी को साइकिल या स्कूटर के पीछे बिठा लेने के लिए फांसा जा सकता था लेकिन एक तो उसके पति के किसी से ऐसे बेकार के याराने-दोस्ताने किस्म के सम्बंध नहीं... दूसरे कुछ प्रेजेंट भी तो ले ही जाना पड़ता-खाने से चौगुनी चपत, सो वह जल्दी घर आयेगा कुछ बदहजमी, खट्टी डकार वगैरह का बहाना बनाकर... समझदार है उसका पति; हाँ और क्या! आने दो, उसके साथ ही चाय पियेंगे। बच्चों के आने से पहले ही आ जायेगा। शायद सिर्फ़ वह और उसका पति। वह फिर मुस्करा पड़ी... कौन-सा गाना गा रहा था अभी वह आदमी हारमोनियम पर?
...हाँ, जब दीप जले आना...
कुंडा खटका। उसने हुलसकर दरवाजा खोल दिया। उसका पति अचकचाकर उसकी ओर देखने लगा तो उसने झेंपकर सिर झुका लिया।
"चाय?"
"हाँ।"
स्टोव में तीली लगाते-लगाते वह फिर गुनगुना गयी। उसके पति अपनी लुंगी मांगके साथ उसकी ओर फिर जांचने के अंदाज में देखा।
चाय का मग लेकर पहुंचने पर उसने हैरान उखड़ी आवाज में पूछा, "क्या बात है"
बात? वह फौरन उल्लसित स्वर में बताना चाहती थी कि बगल की सीमेंट वाली कोठरी में जो कुछ दिनों से आदमी रहने आया है, वह बड़ा अच्छा हारमोनियम बजाता है-आज वह फलां गाना बजा रहा था जो उसने इतनी देर तक मुंडेर पर ठुड्डी टिकाये सुना और इसके बाद झपाक से कूद गयी और फटाफट सारे काम निपटा डाले... और भी कि उस आदमी के लच्छे-लच्छे बाल है, गुमसुमा-सा...
लेकिन वह अचानक ही ठहर गयी-कहा सिर्फ़ इतना... बात? बात कुछ खास नहीं। काम सब जल्दी-जल्दी निपट गया। बाज़ार भी हो आयी। नुक्कड़ से ज़रा आगे बढ़कर सब्जीमंडी से आलू-प्याज लायी तो किलो पीछे पचास पैसे की बचत हुईं। "
यही तो, उसका पति गुबरीले रूआब में बोला, "मैं हमेशा कहता हूँ लेकिन तुम समझो तब न। अब सोचो, जितनी बात तुमने सब्जीमंडी जाने के बजाय दुकान या फेरीवाले से आलू-प्याज लिये, कितने पैसे गंवाये?"
"हाँ..." उसका स्वर एक सपाट, उदास स्वीकार में डूब गया। उसका पति ठीक ही तो कहता है, आज कितने पैसे बरबाद हुए-और यह सोचकर हमेशा इसी धूप-धूलधक्कड़ में सुबह का खाना निपटाने के बाद उसे मंडी से ही सब्जियाँ लानी चाहिए.
"बड़े की फीसमाफी के फार्म पर गुप्ता जी की राय लिखा आयी?"
"नहीं, कहाँ? गुप्ता जी थे ही नहीं।"
"अरे तो बैठकर इंतजार कर लेती थोड़ी देर।"
"लेकिन यहाँ दूध वाला आकर चला जाता न..."
उसके पति का स्वर चिढ़ गया, "एक दिन दूध न लिया जाता तो कौन-सा कहर ढह जाता।"
"लेकिन गुप्ता जी के लड़के ने भी कहा कि ठीक-ठीक पता नहीं वे कब तक आयेंगे। इसलिए मैं शाम को बड़े को ही फार्म लेकर भेज दूं?"
"...बड़े करवा चुके... लाओ फार्म, मैं ही घंटेभर में जाउंगा... एक जरा-सा काम भी छोड़ दो तुम लोगों पर..." उसका पति गुरगुराया।
उसके बाद उसने ऑफिस से लाया अपना रेक्जीन का बैग खोला और खासे बड़प्पनी अंदाज में उसे बुलाकर एक-दो कंपनी के नाम वाले पैड दो-तीन पेंसिलें, गोंद की छोटी शीशी और सोखते उसे थमा दिये...
"संभालकर रख दो... लेकिन सब बरबाद न करने पायें। इतना खट-खटकर एक-एक चीज जुटाता हूँ, लेकिन तुम लोग कदर जानो तब न..."
उसका पति शायद ठक कह रहा था, ऐसे मौके रोज-रोज मिलते कहाँ हैं! आज जब बाकी स्टाफ आधे दिन पर चला गया होगा, तब कहीं उसने मौके से ये चीजें निकालकर डाल ली होंगी। बाज़ार में इतनी ही चीजें अब दस रूपये से कम की क्या मिलेंगी? और उसने पैड, पेंसिलें अलमारी में करीने से रख दीं।
स्कूल की छुट्टी का ही समय था। 'बड़े' आज रोज की तरह सिर्फ़ चप्पलों से सड़क की धूल समेट-समेटकर उड़ता, भागता नहीं आ रहा था, बल्कि अपने साथ वह 'छोटे' को गालियाँ देता और घसीटता चला आ रहा था। छोटा उतनी ही ऊंतनी ही ऊंची आवाज में चीखे जा रहा था।
दरवाजे पर आते ही वह दौड़कर बड़े पर हाथ उठाती कि उसने उसका उठा हुआ हाथ पूरी शक्ति से रोककर चीख-चीखकर कहना शुरू कर दिया, "इस हरामी ने आज फिर चोरी की... इसने अपनी बगल में बैठने वाले बच्चे का टिफिन खाया और दो बच्चों की महकने वाली, लाल-पीली रबरें चुरायीं... इसे, इसे जूते की माला पहनाकर सारी क्लासों में घुमाया गया आज... मेरी भी क्लास में..."
कहते-कहते उसने एक जोर का थप्पड़ छोटे को लगाया और खुद भी जोर से रो पड़ा। वह बुत, अवाक् खड़ी-की-खड़ी रह गयी। हाथ की पूरी-की-पूरी शक्ति जैसे झनझनाती हुई बेजान होती जा रही हो... लेकिन तभी उसने जाने कहाँ की शक्ति बटोरी और अचानक छोटे के थैले में पड़ी स्केल निकालकर बेतहाशा पागलों की तरह उसे पीटने लगी।
"कमीने! चोरी करता है! मुंह दिखाने लायक नहीं रखा कहीं... बोल! क्यों चुरायी रबर? क्यों चुराकर खाया, दूसरे बच्चों का टिफिन?" लेकिन छोटा शायद एक ही बात सुनते-सुनते धीरज खो बैठा था। वह बेसब्र-विद्रोही आवाज में चीखने लगा, "वह बिस्कुट लाया था, मक्खन वाले, क्रीम वाले बिस्कुट... तुम देती हो कभी मुझे मक्खन का बिस्कुट! तुम मंगाती ही मुझे महकने वाले रबर?"
लम्हे भर को वह अवाक् रूक-सी गयी, लेकिन याद आते ही फिर टूट पड़ी छोटे पर।
छोटा बराबर उसकी मार से बचता, छटपटाता जोर-जोर से रोता-चीखता जा रहा था, "मैं खाऊंगा, ज़रूर खाऊंगा..."
"खायेगा? ... तो ले खा..." स्केल टूट जाने पर वह बेतहाशा दोनों हाथों से पीटती-पीटती थककर निढाल एक तरफ खुद भी गिर-सी पड़ी।
छोटा कोने में बैठा सिसकियों के बीच धीरे-धीरे दर्द से कराहता रोता रहा। उसके हाथ-पैर सूखे गंदे और जगह-जगह स्याही, खड़िया से पुते थे। उसके बीच-बीच में ताजी मार के निशान उभर आये थे।
थोड़ी देर बाद वह खुद ही उठी, छलछलाती आंखों को छुपाती, एक तश्तरी में दो रोटियाँ और थोड़ा-सा अचार उसके सामने रख दिया जिसे देखते ही छोटे ने जोर से पैर मारकर बिखेर दिया था।
उसने फिर बच्चे पर चीखना चाहा था लेकिन आवाज सिर्फ़ गले में रूंध-धंसकर रह गयी थी-और सिवा औंधी खाट पर ढह जाने के कुछ नहीं कर पायी थी वह।
छोटा पहले भी कई बार ऐसी ही छोटी-मोटी चोरियाँ करते पकड़ा गया है। कभी रंगीन पेंसिलें, कभी प्लास्टिक के बढ़िया शार्पनर, कभी किसी का चाकलेट-बिस्कुट या समोसों वाला टिफिऩ़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़। पिछली बार वह स्कूल जा कर टीचर से क्षमा मांग आयी थी और छोटे को काफी धमकाया-फुसलाया था। यह भी कि उसे क्रीम वाले बिस्कुट और रंगीन पेंसिल मंगा देगी। लेकिन बाद में वह कुछ भी नहीं मंगा सकी थी, क्योंकि उसके पति ने सुनते ही गुर्राकर कहा था कि उसके खून-पसीने की कमाई पर ये हरामजादे क्रीम-बिस्कुट हर्गिज नहीं उड़ा सकते। खाने दो चोरी का माल... दो चार बार कसकर पिटेगा तो खुद ही अकल ठिकाने आ जायेगी और वह चुप लगा गयी थी कि शायद ठीक ही कहता है उसका पति।
अचानक आंखों पर रखी कोहनियों पर गीलापन महसूस हुआ? उसे पता ही नहीं चला था, वह कब से ऐसी ही रोने लगी थी। लेकिन किस बात पर! शायद बड़े की गाली वाली आदत पर... शायद छोटे की चोरी वाली... या फिर यह सोचकर कि अब तो शायद बड़े की फीस भी न माफ हो। बड़ा। जब 'बड़ा' पेट में आया तो वह कल्पना की खूब ऊंची-ऊंची पेंगें मारा करती थी... कि अगर बेटा हुआ तो उसे डॉक्टर या इंजीनियर बनायेगी। शानदार लकदक कपड़ों में रूआब से नर्सों-मैट्रनों के हुजूम के साथ अस्पताल के वार्डों के चक्कर लगाते डाक्टर उसे बड़े भले, भव्य लगते थे... दूसरी चीज जो उसे अच्छी लगती थी, अपनी गली से बाहर चौड़ी सड़क पर आने के कुछ दूरी बाद का इंजीनियर मिस्टर नाथ का बंगला। कंटीली फेंस से घिरा हरे-भरे लॉन और रंगबिरंगी क्यारियों वाला इंजीनियर साहब का बंगला सचमुच वह सपने में देखा करती थी।
लोगों का कहना था कि इंजीनियर साहब का बचपन बड़ी तंगहाली में गुजरा था, फीस तक के पैसे नहीं जुटा करते थे, लेकिन शुरू से ही उन्हें पढ़ने की लगन थी। इसीलिए स्कूल से लेकर कॉलेज, यूनिवर्सिटी तक हमेशा उन्हें छात्रवृत्ति मिलती रही। सचमुच सामान्य, तंगहाल घर के बच्चों में जो लगन, जो टेव रहती है, वह अमीरों के बच्चों में कहाँ? उसे लगता, उसके बच्चे भी ज़रूर पढ़ाई में तेज निकलेंगे। ऐसा सोचने का एक और भी पुख्ता कारण था। वह स्वयं भी चाहे थोड़ा ही पढ़ पायी, पर रही तो हमेशा तेज लड़कियों में ही।
स्कूल में बड़े को डालने से पहले ही उसने उसे कितनी ही कविताएँ, गिनती, नाक-कान के अंगरेजी शब्द आदि सिखा दिये थे। रोज शाम घंटे-आधे घंटे बैठकर उसे बड़े उत्साह से पढ़ाती-सिखाती। लेकिन बड़े न कभी पढ़ने में मन लगाया ही नहीं। बस, जितनी देर वह साथ बैठती, किसी तरह बैठता और रटता, लेकिन उसके उठते ही किसी न किसी बहाने रफू चक्कर हो जाता। इम्तहान में भी बस किसी तरह पास होता रहा।
निराश हो, उसने सोचा, शायद थोड़ी सख्ती बरतने से उस पर असर पड़े, लेकिन तब बड़ा कभी पेटदर्द, कभी सिरदर्द के बहाने बनाने लगा। सवाल समझाते समय भी वह लापरवाही से बिना ध्यान दिये 'हां' करता जाता। ऐसे ही एक दिन उसने समझाने के बाद बड़े को एक आसान-सा सवाल दिया जिसे बिना समझे बड़े ने गलत-सलत लगाकर दे दिया। बस, वह बौखला गयी थी और पास पड़ी चप्पल उठाकर धुआंधार पीटना शुरू कर दिया था।
दूसरे दिन सुबह बड़ा रोज की तरह स्कूल गया था। लेकिन छुट्टी के बाद वापस लौटा ही नहीं। इधर-उधर, अड़ोस-पड़ोस में पूछते, पता करते शाम हो गयी। सूरज छुपने को आया, तब तक उसका पति भी लौट आया था और सुनने के बाद उलटे उसी पर भभक पड़ा था।
बात इधर-उधर काफी दूर तक फैल गयी। पुलिस थाने में भी रिपोर्ट की गयी, तब तक स्टेशन से एक पुलिस वाला बड़ेको लेकर आता हुआ दिखाई दिया था।
पता चला, बड़ा स्कूल का बैग लिये एक रिजर्व डिब्बे के कोने में बैठ गया था। टी.सी. घुसा तो उसे शक हुआ। डरा-धमकाकर उसने सचाई उगलवाई और झटपट गाड़ी से उतारकर उसे पुलिस के हवाले कर दिया।
इस घटना के बाद से वह सहम गयी थी। इतनी कि काफी दिनों तक उसने बड़े के सामने पढ़ाई-लिखाई का नाम ही नहीं लिया। बाद में भी यों ही मन में डरते-डरते कभी-कभार पढ़ाने के लिए बैठने लगी।
अपना वह सपना पूरी तरह भूल ही बैठी थी वह इतने दिनों... आज न जाने कहाँ से याद आ गया...
कोहनियाँ वापस आंखों पर आ लगीं। बूंद-बूंद रिसती चुहचुहायी पलकें...
अचानक पीछे के बंजर मैदान की ओर खुलने वाली खिड़की के पल्ले हवा के झोंके से खुल-से गये और बगल की कोठरी से उठते पहचाने-से स्वर गूंज उठे। उसका जी चाहा कि एकदम हिलक-हिलककर रो पड़े। इसे कोई काम-धाम नहीं क्या? ... वक्त-बेवक्त बैठा-बैठा टेर देता है... जाकर कहे कोई कि तुम्हारी तरह की ज़िन्दगी सबकी नहीं न! ... बेलौस, बेफिक्र कि जब चाहा, बाजा खिसकाया, स्वर गुनगुनाया और सूने बंजर खेतों की तरफ खुलने वाली खिड़की के रास्ते गीत हिलोर दिये। अचानक वह गीत के शब्दों पर ठिठक गयीः
" बांधो न नाव इस ठांव बंधु...
पूछेगा सारा गांव बंधु..."
यह, यह तो कहीं कुछ पढ़ा-पहचाना-सा लगता है। कोहनियाँ आंखों से हट गयीं... वह सोचती रही... हाँ, ठीक; काफी पहले अंगीठी जलाने के लिए वह बाज़ार से लाये सामानों के पुराने कागजों के खोखे जल्दी-जल्दी लपेट रही थी कि एक बड़े से रंगीन खोखे वाले कागज को पूरते-पूरते-से पहले ठहर गयी थीं-वह किसी पत्रिका के बसंत पंचमी विशेषांक का रंगीन पृष्ठ था जिस पर निराला के रंगीन चित्र के नीचे उनकी यह कविता छपी हुई थी। माचिस की तिली हाथ में लिये-लिये ही वह पढ़ती चली गयी थी... हाँ, ठीक यही लाइनें... यही गीतः-
बांधो न नाव इस ठांव बंधु!
खिड़की का पल्ला हवा के झोंके के साथ आगे-पीछे उढ़क रहा है और गीत चल रहा है, हर शब्द की गहराई में डूबती-गहराती आवाज।
गीत थम गया है और वह चौंककर उठ बैठी है। थोड़ी देर वैसे ही स्थिर-सी बैठी रही है जैसे कि सचमुच किनारे आ लगी नाव में ही बैठी हो। फिर पास जाकर छोटे को दुलारा-पुचकारा और धीरे-धीरे एक पूरी चपाती शक्कर के साथ खिला दी है।
"ये लो दालमोठ..." पति के हाथों में पैकेट देखकर उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि उसका पति कभी इन बेकार की चटपटी चीजों पर पैसे बरबाद नहीं करता। बात भी ठीक है। रोटी-अचार या चावल-तेल-मिर्चों से क्या बुरा है। बच्चों की भी जबान शुरू से बिगाड़ने से फायदा?
"दालमोठ! दालमोठ कैसे?"
उसके बेवकूफीभरे आश्चर्य पर पति सचमुच झुंझला-सा गया, "अरे, कैसे क्या? ... सस्ती मिल गयी तो लेता आया... सबको चाय के साथ थोड़ी-थोड़ी दे दो... और बाकी बची हुई कायदे से शीशे में रख दो।"
बत सचमुच समझदारी की है। इससे यही तो साबित होता है कि वह बीबी-बच्चों की पूरी जिम्मेदारी खयाल रखता है। कितनी खबरदारी के साथ ही वह महीने के बजट का कतरव्योंत बिठाकर चालीस-पचास रुपयों की बचत भी कर ही लेता है। ... जबकि उस जैसे औरों के लिए महीना काटना ही दूभर हो जाता है।
डसने खुशी-खुशी चाय बनाकर दालमोठ के साथ पति को दी और छोटी-मोटी दो कटोरियों में दो-दो चम्मच दोनों बच्चों के सामने रख दी।
लेकिन बच्चों ने एक ही बार मुंह में डालने के बाद ही दालमोठ छोड़ दी। उसे आश्चर्य हुआ। पूछने पर बच्चों ने कहा, "पता नहीं कैसी है, हमें भूख नहीं..."
उसे बच्चों की बात पर विश्वास नहीं हुआ, लेकिन चाय के घूंट के बाद जब खुद मुंह में डाली तो अजीब, बेस्वाद, सीली, घुनी-सी गंध से मुंह मितला गया। उधर पति ने शायद बच्चों की बात सुन ली थी। वह गुर्राते हुए बोला, "निकालकर रख दो इन दोनों कटोरियों से... लाकर दो तो खायेंगे नहीं और बाहर बाज़ार में देखकर इज्जत उतार लेंगे..."
उसने किसी तरह हिचकते हुए कहना चाहा, "नहीं... कुछ तेल भी पुराना-सा है... कोई-कोई सिर्फ़ ग्राहकों को लूटने के लिए खराब तेल..."
"अरे, चुप भी रहो... तुम लोगों के लिए देसी घी में चुपड़ी दालमोठ आयेगी तो खाना।"
और उसने गुरगुराते हुए उसकी कटोरी की दालमोठ भी उठाकर अपनी तश्तरी में डाल ली। हाँ, बुरा तो लगेगा ही, उसने सोचा। आखिर उसका पति इतने उत्साह से रास्ते में सस्ती मिलती देखकर घर लाया था... उसे भी मालूम नहीं रहा होगा कि यह इतनी खराब निकलेगी।
और फिर, उससे, बच्चों से नहीं खाया जा रहा, पर पति ने तो पैसे खर्च किये हैं, इसलिए वह कैसे बरबाद कर दे! ठीक ही तो कहता है... उसका गुस्सा होना वाजिब है, आखिर पति ठहरा, पति का मूड़ उखड़ गया था इसलिए उसकी कहने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि स्टोव की बत्ती खत्म हो गयी। नहीं, इस समय नहीं कहना चाहिए उसे। जाने देगी किसी तरह। एकदम अंदर घुस गयी बत्तियाँ उकसाने की कोशिश करेगी। एकाध दिन का काम चले। फिर आगे देखा जायेगा।
इसलिए वह पूरे आधे घंटे तक किरोसिन के तेल में बत्तियाँ भिगोभिगोकर स्टोव के छेद में उकसाती रही और आधे घंटे बाद बत्तियाँ जब तक ऊपर आयीं, उसकी हाथ की तीनों उंगलियाँ खरोंचों से बुरी तरह छरछरा आयी थीं। कपड़े से तेल पोंछकर साबुन से हाथ धोने गयी, तो खरोंचों में हलकी रक्ताभ लकीरें उभर आयीं... और हर लकीर से दर्द का एक रेशा।
"मैं बस्ता लाऊँ क्या?" उसने अचकचाकर सिर ऊपर उठाया तो देखा, छोटा खड़ा पूछ रहा था। उसे सचमुच अपने कानों पर विश्वास न हुआ। दर्द की जैसे धुन ही न रही। भागी-भागी आकर प्यार से छोटे को पढ़ाने बैठ गयी।
चार-पांच दिन पहले वह छोटे को बहुत फुसलाकर पढ़ाने बैठी थी और पढ़ाई करने के बाद उसे चुपके से पति से छिपाकर लाया रंगीन कागज में लिपटा एक लेमनचूस दिया था। छोटे की आंखें एकदम चमक उठी थीं। लेकिन तभी बच्चे की अबोध आवाज में एक दर्दीली सहानुभूति उभरी थी, "तुम सब्जी के पैसों में से लायी हो?"
"नहीं, नहीं तो।" उसने छोटे को समझाना चाहा था कि उसके पास और भी पैसे हैं। पर बच्चे की आंखों से साफ लग रहा था कि उसे माँ की बात पर ज़रा भी विश्वास नहीं।
पढ़ाई खत्म होने पर उसने छोटे को प्यार किया था और कहा था कि जब भी पढ़ने बैठेगा, वह उसे ऐसे ही रंगीन लेमनचूस दिया करेंगी।
उसके चेहरे पर एक दर्दभरी मुस्कान उभरी। यह सोचकर क छोटा आज भी लेमनचूस की लालच से आया है पढ़ने, जबकि लेमनचूस वह ला ही नहीं पायी। लेकिन छोटे ने माँ के चेहरे की भाषा पढ़ ली।
"लेमनचूस नहीं लूंगा मैं..."
वह हैरान थी।
"वो, बगल की कोठरी में जो रहते हैं, उन्होंने मुझे लेमनचूस दिया था न!"
वह अचंभित थी। जाने कहाँ से आये इस अनजान अजनबी को भला क्या पड़ी थी उसके बच्चे पर प्यार, ममता लुटाने! लेकिन ऊपर से हिदायती सपाट लहजे में बोली, "न... क्यों ली तूने? ... दूसरों से चीजें नहीं लिया करते।"
"वाह, दूसरों से कहाँ लेता हूँ... सिर्फ़ उनसे लेता हूँ... नहीं लूंगा तो उन्हें दूख होगा न..."
"ऐसा कहा क्या उन्होंने?" उसके स्वर में अविश्वास और हैरानी थी।
" कहेंगे क्यों? मैं देखता नहीं क्या? एकदम चुप-चुप से रहते हैं न!
उन्हें कोई खाना भी तो बनाकर देने वाला नहीं... सिर्फ़ चाय कैसी काली-सी बनाते हैं। मिट्टी का तेल नहीं होता, तो चाय भी नहीं। "
उसकी उत्कंठा में विषाद घुल रहा था। पर जब्त कर गयी।
"तो काम-धाम क्यों नहीं करते?"
"वही तो ढूंढते हैं एकदम सुबह से निकलकर। इधर-उधर सबके पास जाकर..."
सबकुछ जान लेने की उतावली उसे सचमुच निर्मम बना चुकी थी,
"अरे कहाँ, सारे दिन तो हारमोनियम लेकर टेरते रहते हैं।"
छोटे की नागवार गुजरा, "वो तो उन्हें गाना ही पड़ता है न-प्रैक्टिस नहीं करेंगे तो प्रोग्रामों में कैसे गायेंगे?"
छोटे ने अपनी बुद्धि भर बताया। इधर-उधर स्टेज वगैरह पर गाने वाली पार्टियों से जाकर चांस मांगते हैं। कोई पार्टी दे देती है, कोई नहीं, पर नये हैं न सो सब गाने गवा लेते हैं उनसे... लेकिन पैसों के नाम पर कितने-कितने दिन दौड़ाकर बाद में देते हैं, वह भी पूरे नहींकृ¬¬
"तो क्या, अकेले तो हैं, न औरत, न बच्चे..."
"औरत मर गयी, पर बच्चा तो है न..."
"औरत... बच्चा?" वह अपने-आपमें जैसे फुसफुसा उठी।
" फिर क्यात्रत्रत्र उसे अपने मां-बाप के पास कस्बे में छोड़ा हुआ है न...
उसी के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े और खिलौने खरीदने के लिए तो जगह-जगह काम तलाशते हैं। "
हठात् दुनियादारी और उत्कंठा के सारे रेशे छितरा गये थे, "तुझे... तुझे ये सब कैसे मालूम?"
"फोटो देखी है न उनकी कोठरी में एक छोटी-सी... बस, पूछ लिया था।"
वह चुप हो गयी। एकदम गुमसुम, लेकिन छोटा अपने-आपमें बड़ा सयाना महसूस कर रहा था, "अगर उनके पास ज़रा भी ज़्यादा पैसे होते तो वे मुझे इतने छोटे-छोटे लेमनचूसों की जगह बड़े वाले रंगीन कागजों में लिपटे लेमनचूस दिया करते... लेकिन उनके पास पैसे ही नहीं हैं न।"
स्तब्ध, वह वैसी ही बैठी छोटे की स्लेट पर धीमे-धीमे बहुत छोटी-छोटी रूक-रूककर सोत्साह जोड़े जा रहा था-"उन्होंने मुझे एक-दो दिन हारमोनियम बजाना भी बताया। मैंने 'सा रे ग म' पूरा बजाया।"
"सच...' वह बच्चों-सी सुलभ हो उठी..." कैसे? "
"क्यों... ऐसे..." छोटे ने माँ की हथेली पकड़कर स्लेट पर हारमोनियम के परदे की तरह चलाकर बतायी, "मेरी उंगली पकड़कर हारमोनियम पर ऐसे ही चलाकर बताते थे।"
उसने अपनी उंगलियों में एक रोमांचभरी सिहरन महसूस की, बोली कुछ नहीं, चुप।
एकाएक छोटा एकदम अपनी झिझक पर काबू कर पूछ बैठा, "मैं... मैं उनसे हारमोनियम बजाना सीख लूं क्या?"
वह चुप, ताकती-सी रही तो छोटे ने खुद ही सपाट लहजे में निर्णय लिया, "जानता हूँ, पिता जी गुस्सा होंगे न!"
" चल पढ़... उसने जल्दी से असहज हो पूरा का पूरा प्रसंग ही जड़ से काट दिया था।
कुंडा खटककर दरवाजा खुलने की आवाज हुई. उसका पति ही लौटा था दफ्तर से। रेक्जीन के बैग के साथ-साथ एक भरा-पूरा थैला भी था। हलकी हरी कमीज और गाढी भूरी पैंट उसने निकालकर, तहाकर खूंटी पर टांग दी और अपने कपड़े की बनियान और छींटदार लुंगी पहनकर एक-एक चीज बड़े मनोयोग से थैले में से निकालने लगा।
वह अंगीठी के पास से चाय की प्याली लाकर उसे थमा गयी। पति थैले के अंदर से ऑफिस के पुराने पिनकुशन, थोड़ी लकड़ी की बल्लियाँ और दो-चार पुरानी पत्रिकाएँ निकालने लगा। पिनकुशन में पहले कभी की लायी आलपिनें खोंस दी जायेंगी, बल्लियाँ पुराने हिलते स्टूल में ठोंक दी जायेंगी और पत्रिकाएँ इधर-उधर से थोड़ी और इकट्ठी होने के बाद रुपये बीस आने में बिक जायेंगी।
उसका पति बड़े संतुष्टभाव से उसे लायी हुई चीजों के सदुपयोग के बारे में बताने लगता है, तभी बगल की कोठरी से हारमोनियम के स्वरों के साथ गूंज उठता हैः
बांधो न नाव इस ठांव बंधु...
उसके मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है। "यह कौन मूंजी आ गया है इस सीमेंट वाली कोठरी में¬¬¬¬¬... वक्त-बेवक्त राग अलापने लगता है... एकदिन छोटे से कहला दो, अगल-बगल शरीफ, भलेमानस रहते हैं... हाँ, यह लोग सारी पिनें खुंस गयी ... रख दो..."
शायद उसे पति का स्वर ज़्यादा रूक्ष लगा था, इसलिए धीरे से बोली, "उतना बुरा नहीं, छोटे बताता था, उसका कहीं काम नहीं लग रहा। सारे दिन नौकरी के लिए..."
"अरे तो नौकरी पाना कोई आसान काम है? ऐसे-ऐसे जनखों को नौकरी कौन देगा?" और आत्मप्रशंसक भाव से सीना फुलाकर उस संकरी कोठरी में एक भरपूर चहलकदमी कर डाली। फिर स्लेट पर झुके छोटे पर एक नजर डालकर संतुष्ट भाव से बोला, " हाँ, बच्चों को स्कूल से लौटने पर सीधे पढ़ने बिठा दिया करो-नहीं ंतो ऐसी संगत में बिगड़ जायेंगे।
उसने पति से सहमत न होते हुए भी बात को एक सद्भावपूर्ण मोड़ देने की कोशिश की, "छोटा बताता था, दुखी आदमी है। बीवी गुजर गयी है। एक बच्चा है मां-बा पके पास, छोटा है... काम के चक्कर में..."
"इसलिए तो कह रहा हूँ मैं कि मेज-जोल बढ़ाने के चक्कर में बिलकुल नहीं पड़ना है। नहीं ंतो जहाँ किसी चीज की ज़रूरत पड़ी, चट मांगने पहुंच जायेगा और फिर सबसे बड़ी बात, बेवजह मेल जोल बढ़ाने से फायदा? सिर्फ़ नुकसान है बस।"
"हाँ और क्या?" उसने सहमकर कहा और मन-मन में अपने-आपको भी समझाने लगी। ठीक ही तो कहता है उसका पति, बेकार में पैसे की बरबादी की आशंका... वैसे भी मेल-जोल बढ़ाना मतलब... कभी एक कप ज़्यादा चाय... कभी एक कटोरी दाल, कभी आधा प्याला शक्कर...
और उसका पति एक-एक चीज कितने एहतियात से सहेजता रहता है। हमेशा हलकी हरी या हलकी नीली कमीज और भूरी काली पैंट पहनता है। सफेद कमीज धोने में साबुन भी ज़्यादा घिसना पड़ता है, कमीज घिसती भी जल्दी है। दूसरे, सफेद कमीज दो दिन से ज़्यादा पहनी भी नहीं जा सकती। आजकल भी, उसके पति के पास एक नयी लुंगी रखी है, छेदों के अंदर से उसकी नीली-हरी पट्टियों वाली धारीदार जांघिया दिख जाती है।
"सुनों, पुराने कागज और शीशियाँ लाओ, मैं नुक्कड़ पर ले जाकर बेच आता हूँ। गली में फेरी मारने वाला आधा-तिहाई तोलकर तुम्हें बेवकूफ बनाकर चला जाता है।"
उसने लुंगी निकालकर पाजामा बदला और थैले में दफ्तर से लायी पुरानी पत्रिकाएँ और शीशी-बोतल लिये बाहर निकल गया।
छोटे हांफता हुआ-सा आकर खुशी, उत्तेजना तथा आशंका के बीच उसके कानों में फुसफुसाया था, "वो आये हैं... वो-वो बगल की कोठरी वाले।"
"अच्छा? अच्छा, अच्छा," वह खुद अस्त-व्यस्त हो उठी, "तो बुला ला, बुला ला ना!"
"आ नहीं रहे।"
"अरे क्यों?" वह खुद किवाड़ तक आ गयी, "आइए, आइए न! आप बगल में ही रहते हैं न... छोटे ने बताया कि आप बहुत अच्छा गाते हैं, बहुत अच्छा।"
जवाब में उसने एक मुस्कराहट के साथ हाथ जोड़ दिये थे।
"बैठिए, बैठिए न, चाय पियेंगे... छोटे बताता था, आप उसे कितना प्यार करते हैं। लेमनचूस भी देते हैं। वह भी आपको बहुत मानता है।"
एकाएक उसे अजीब-सा लगा, वह ही बोले जा रही है। लेकिन वह करे भी क्या। उसे कहना भी तो इतना कुछ है...
"वह, वह गीत आप गाते हैं, मैं जानती हूँ, निराला जी का है न!"
"जी, जी, आपको कैसे मालूम?"
"मालूम है..." कहती वह शरमा गयी, फिर जल्दी से बोली, "मैं चाय बनाती हूँ। इसके पिता जी तो अभी हैं नहीं। असल में बहुत थक जाते हैं, सुबह से शाम तक ड्यूटी रहती है। मिलने-जुलने का समय ही नहीं मिलता उन्हें। पर, पर क्या है न, दिल के बहुत अच्छे हैं वे भी। आपके गाने की बहुत तारीफ कर रहे थे।" कहने के साथ ही वह अचंभित थी। क्या-क्या झूठ-सच कहती चली जा रही है वह और आखिर क्यों? जैसे इस मुट्ठी में सिमट आये समय की एक-एक बूंद भरपूर जी लेना चाहती हो।
"आप स्टेज पर भी गाते हैं न... कितना अच्छा लगता होगा... खूब तालियाँ बजती होंगी-ऐं..."
"जी, बस कभी-कभी चांस मिल जाता है... ज़्यादा नहीं।"
"कोई बात नहीं, धीरे-धीरे सब लोगों को आपका गाना अच्छा लगने लगेगा न, तब आपको पार्टी वाले खुद ही बुलाया करेंगे।" उसने सोचा था, उसकी बात सुनकर वह खुश हो जायेगा, लेकिन वह तो और ज़्यादा उदास हो गया। जैसे कोई जखम टीस गया हो। वह असहज हो उठी। मन-ही-मन अपने को धिक्कार जल्दी से जोड़ा, "आपको नौकरी भी कहीं जल्दी ही मिल जायेगी, देख लीजिएगा।"
लेकिन कहने के साथ ही वह स्वयं असंयत हो उठी-उसकी लम्हें भर को उठी आंखों में फैले अवसाद को देखकर... ओह कितने जखमह ैं इस आदमी के पास... और अनाड़ियों-सी क्या-क्या बोले जा रही है।
चाय खौल गयी थी और वह बेसब्री से छोटे का इंतजार कर रही थी जिसे उसने दुकान से दौड़कर आठ आने का दाल-सेव लाने के लिए भेजा था। छोटे तीर की तरह भागता हुआ वापस लौट आया तो उसकी उदासी धुल गयी और तश्तरी में चाय की प्याली लेकर उसके सामने सरकाती हुई बोली, " आपको मेरी बातों से दुःख पहुंचा।
"जी? नहीं-नहीं..." वह एकदम क्षमायाचना कर उठा, "ऐसी कोई बात नहीं। दरअसल मैं परेशान-सा रहता ही हूँ। मैं तो कृतज्ञ हूँ आपकी सहानुभूति का।"
उसने धीमे-धीमे चाय की दो घूंट भरी और जैसे क्षमायाचना पूरी न हुई हो, ऐसे बोला, "आज की बड़ी मुश्किल से एक ग्रुप ने मंजूरी दी है। लेकिन भाग्य की विडंबना देखिए, सुबह ही हरारत-सी लग रही है और गले में भी खराश-सी!"
"ओह... आपने मुझे बताया क्यों नहीं... मैं चाय में ज़रा काली मिर्च डाल देती न। छोटे पास की दुकान से अदरक ला देता।" वह जाने क्यों बुरी तरह उदास हो उठी थी, "असल में मैंने आपको बोलने का मौका ही कहाँ दिया, खुद ही बोलती गयी।"
"अरे नहीं, आपने इतनी अच्छी चाय पिलायी कि दो घूंट में ही मुझे कितना आराम-सा मिला!"
"सच क्या" ... वह कृतकृत्य हो गयी।
"असल में सुबह से ही बुखार-बुखार-सा लग रहा था तो उठा ही नहीं। अब काफी ठीक लग रहा है।"
वह खुश हो गयी थी कि साबन फैक्टरी का भोंपू बजा था-ओह उसके पति के आने में थोड़ी ही देर है।
"चलूं अब...?"
आह... वह जितनी उदास हुई सुनकर, उतनी ही निशि्ंचत भी। छोटा इतनी देर मंत्रमुग्ध भाव से उनके पास बना रहा। जाने लगे तो उसे एकाएक याद आया, "हाँ, आप आये कैसे थे?"
"जी कुछ नहीं... हरारत-सी लग रही थी न, तो सोचा था छोटे से पूछूं ज़रा बाज़ार से चाय की पत्ती ला देगा क्या? लेकिन अब तो उसकी ज़रूरत ही नहीं..." वह ऐसे मुकरा उठा, जैसे कोई बच्चा चांद देखकर मुस्करा उठता है, "चलता हूँ..."
थोड़े दिन बीतते-बीतते वह आहटों के जरिये बहुत कुछ दिनचर्या समझ चुकी थी-वह अंगीठी सुलगाती होती तो वह बाहर निकल चुका होता। कोयला तोड़ती होती है तो बंजर की तरफ खुलने वाली खिड़की के पल्ले के रास्ते गीत सुगबुगा उठता हैः
बांधो न नाव इस ठांव बंधु,
पूछेगा सारा गांव बंधु।
वह म नहीं मन मुस्कराकर अंगीठी में कोयले भर देती है। भला इससे पूछो, इसकी नावं बंधने की नौबत ही कहाँ आ रही है, भरे समंदर में तो हिचकोले खा रही है।
लेकिन जयादा करके सिनेमा के गाने-कहता तो था-पार्टी वाले कहते हैं-सिनेमा के गाने ही पब्लिक मांगती है। इसलिए वह ठीक-ठीक निकालने की कोशिश करता हैः
' मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया..."
अंगीठी जल रही है... हारमोनियम बज रहा है...
गम और खुशी में फर्क न महसूस हों जहाँ
न महसूस हों जहां-न महसूस हों जहाँ...
वह अचानक पाती है कि उसकी रोटी चकले पर चलती हुई, उसी लय में घूम रही है।
मैं दिल को उस मुकाम पर लाता चला गया...
रोटी तवे पर डाल दी गयी है।
इसी तरह दाल उफनती होती है। आवाज छोर-अछोर गूंजती रहती है।
लेकिन जब कभी तवे पर पड़ी रोटी जल जाती है तो वह खीज जाती है यह अच्छा इसका गीत पीछे-पीछे लगा रहता है। इसका कहीं काम क्यों नहीं लग जाता, छुट्टी मिलती। लेकिन उसका पति कहता तो था-ऐसों-ऐसों का काम कौन देगा? कि लच्छे-लच्छे बाल और ढीला-सा कुर्ता, मोटा खुरदरा-सा... हाँ, यह हलकी हरी कमीज क्यों नहीं पहनता... उसके पति की तरह... एकदम छोटे बाल क्यों नहीं कटवाता। कम साबुन, कम तेल... सफेद कुर्ता धोती में हरी कमीज से कहीं ज़्यादा साबुन लगता होगा... और फिर छोटे का लेमनचूस-छोटे वाले ही सही पर लेमनचूस क्यों? अब तक उसने दो-चार रुपये कुल मिलाकर तो ज़रूर बरबाद किये होंगे... जबकि उसके पति दो-चार पैसे भी नहीं। सलीकेदार है उसका पति... न!
लेकिन दिखा नहीं इधर बहुत दिनों से... आया भी नहीं... आया भी क्या, अरे वही तो आया था जब काम लगा था। फिर काम लगेगा तो आयेगा।
कोयले तोड़े जा रहे हैं। छोटी हथौड़ी चल रही है। गा रहा होता तो शायद लय-ताल में बंधी चलती। वह कोशिश भी करती है तो भी हथौड़ी या हाथ उसका नहीं, उस कोठरी से आती गीत की लय का कहना मानते हैं। तब हथौड़ी इस समय जैसी उलटी-सीधी नहीं पड़ती कि फटाक रोकते-रोकते भी एक सिसकी निकल जाती है-एक मुरमुरे कोयले पर जोर से चल जाने के कारण हथौड़ी सीधी उसके बायें हाथ की उंगलियों पर जा पड़ती है।
वह छलछलाई आंखों से उठ जाती है।
उसका पति ऑफिस से आने पर हाथ में बांधी पट्टी देखकर झल्लाता है, "असल में काम करते समय खबरदारी हो तब न।"
लेकिन दूसरी सुबह हाथ ज़्यादा फूला देखकर उसे चिंता होती है। वह उससे अस्पताल जाकर दिखा आने को कहता है। सुबह आठ बजे ही पहुंचना होगा अस्पताल। तो कोई बात नहीं... उसका पति कहता है कि वह चावल-दाल चढ़ा देगा, सब्जी भी छौंक लेगा, वह जाये। नहीं तो कहीं चोट कुछ गहरे लगी हुई हो और बाद में घाव बिगड़े तो एक के दस देने पड़ जायेंगे-चार महीने की बचत एक हथौड़े की चोट हजम कर जायेगी।
फिर भी उसे अच्छा लगा है क्योंकि अभी तक उसने यही पाया था कि उसका पति कई-कई दिनों तक इधर-उधर की सेंक-पट्टी ही करवाता रहता था, पर पिछली बार बड़े के घुटने का फोड़ा बिगड़कर नासूर हो जाने वाली घटना से शायद वह बदल गया है।
अस्पताल से लौटने तक दोपहर हो चुकी थी-छोटा घर आ गया था। हाथों में अस्पताल की साफ पट्टी बंधी थी। वह इतनी देर तक, अस्पताल के आउटडोर में अपनी बारी का इंतजार कर-करके थककर पस्त हो चुकी थी। कोठरी में पहुंचकर निढाल-सी पड़ गयी। छोटे ने पूछा तो एक गिलास पानी मांगकर पी लिया, बस।
बाद में धीरे-धीरे उठी, पतीली में सुबह के छूटे दाल-चावल व सब्जी निकालकर खाने के लिए बैठी। खाते-खाते आंगन में कुछ सफेद-सी चीज दिखी। अरे, यह तो कुर्ता है उनका... बगल की कोठरी वाले का। उसने छोटे को बुलाया, "उनका कुर्ता हवा से इधर उड़ आया है। जाकर दे आ।"
"किसे?-लेकिन वह तो गये..."
"गये? कहाँ?"
"उनका बच्चा बहुत बीमार था-चिट्ठी आयी थी।"
"तुम्हें कैसे मालूम?"
"पिता जी के पास आये थे कि उनका हारमोनियम रख लें और उन्हें कुछ पैसे दे दें।"
वह अपनी घबराई सांसों की उतावली संभाल नहीं पा रही थी।
"पिता जी ने कहा, उनके पास एक पैसा भी नहीं और वे उन्हें जानते भी नहीं।"
" फिर? उसकी सांसें जैसे हजारों धड़कनों में रेशे-रेशे बिखरती जा रही थीं।
"फिर पिता जी ने दरवाजा बंद कर लिया था।"
छोटे खुद भी अब बताते-बताते हांफ-सा रहा था, "मैं भागर पीछे के दरवाजे से उनके पास गया था, पूछा कि आप कैसे जायेंगे? तो उन्होंने मुझे समझाकर कहा कि कोई बात नहीं, वे हारमोनियम बाज़ार में ले जाकर बेचकर चले जायेंगे।"
"फिर..."
"फिर चले गये न... और जाने के समय फेरीवाले से ये लाल-पीला गुब्बारा मुझे खरीदकर देते गये। मैं लेता नहीं था, उन्होंने जबरदस्ती खरीद दिया।"
उसने बच्चे के हाथ में कसकर पकड़े रंगीन गुब्बारे को हलके से छुआ, जैसे वह कोई बहुत अजूबी बड़ी नायाब-सी चीज हो।
एकाएक छोटा उसके और करीब आ गया और उसके हाथ में बंधी पट्टियों को सहलाता-सा बोला, "मैं अब चोरी कभी नहीं करूंगा।" ...