अनिर्वचनीयतावाद / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
संसार के संबंध के इस मंतव्य को मिथ्यात्ववाद और अनिर्वचनीयतावाद भी कहते हैं। अनिर्वचनीयता का अर्थ है कि इन चीजों का निर्वचन या निरूपण होना असंभव है। इनकी सत्यता तो सिद्ध हो ही नहीं सकती। यदि इनको अत्यंत निर्मूल मानें और कहें कि ये अत्यंत असत्य हैं, जैसे आदमी की सींग न कभी हुई, न है और न होगी, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सींग तो कभी दीखती नहीं। मगर ये तो प्रत्यक्ष ही दीखते हैं। इसलिए मनुष्य की सींग जैसे तो नहीं ही हैं। यदि इन्हें सत्य और असत्य का मिश्रण मानें, तो यह और भी बुरा है। क्योंकि परस्पर विरोधी चीजों का मिश्रण असंभव है। फलत: मानना ही पड़ता है कि इनके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है - ये अनिर्वचनीय हैं। मगर यह सही है कि ये मिथ्या हैं। मिथ्या का मतलब ही यही है कि मालूम तो हो कि कुछ है; मगर ढूँढ़ने पर इसका पता ही न लगे। यह विचार कुछ नया और निराला प्रतीत होता है सही। मगर रेखागणित में जो बिंदु का लक्षण बताया गया है कि उसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ भी होती नहीं, या रेखा के बारे में जो कहा गया है कि उसमें केवल लंबाई होती है, चौड़ाई नहीं, क्या यह अक्ल में आने की चीज है? जिसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ भी न हो या जो सिर्फ लंबाई रखता हो ऐसा पदार्थ दिमाग में कैसे घुसेगा? फिर भी उसे मानते ही हैं।
यह ठीक है कि काम चलाने के लिए - केवल वाद-विवाद और विचार के लिए - वेदांत ने तीन प्रकार के पदार्थ माने हैं। एक तो सदा रहने वाला, वस्तुतत्व या परमार्थ पदार्थ, जिसे ब्रह्म कहिए या आत्मा कहिए। इसीलिए ब्रह्म या आत्मा की हस्ती, उसके अस्तित्व या उसकी सत्ता को परमार्थ सत्ता भी कहते हैं। दूसरे हैं सपने या भ्रम के पदार्थ, जैसे रस्सी में साँप, सीप में चाँदी या सपने का सिर कटना। ये जब तक प्रतीत होते हैं तभी तक रहते हैं। प्रतीत या ज्ञान को ही प्रतिभास भी कहते हैं। इसीलिए ये पदार्थ प्रातिभासिक हैं और इनकी सत्ता है प्रातिभासिक सत्ता। तीसरे हैं हमारे इस जाग्रत संसार के पृथिवी आदि पदार्थ, जिनसे हमारा व्यवहार चलता है, काम निकलता है। सपने के साँप का जहर तो नहीं चढ़ता। मगर इस साँप का चढ़ता है। यही है व्यवहार या काम-काज का चलना। ये चीजें कामचलाऊ हैं, व्यावहारिक हैं। इसलिए इनकी सत्ता को व्यावहारिक सत्ता कहते हैं। इस तरह तीन प्रकार के पदार्थ और उनकी तीन सत्ताएँ हो जाती हैं।