अनि दा / रूप सिंह चंदेल

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पत्र मेरी उंगलियों में दबा था। तीन बार पढ़ चुकने के बाद भी लग रहा थाकि यह सब उन्हॊंने नहीं लिखा होगा। लेकिन जो कुछ सामने था उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता था।

मैं निढाल हो कुर्सी में लेट गया और उनके बारे में---- उस दिन के बारे में सोचने लगा। उस दिन कड़कती ठंड के बावजूद उनके माथे पर पसीना चुहचुहारहाथा। चेहरे पर किसी अनिष्ट की आशंका की काली छाया उतर आयी थी और पीले कंचे जैसी उनकी बड़ी और चमचमाती आंखें सामने दीवार पर लटकते कलैंडर पर चस्पा होकर रह गयी थी।

कितनी ही देर तक वह उसी मुद्रा में बैठे कुछ सोचते रहे। उस समय उन्होंने काली पैंट, सफेद शर्ट और काला कोट पहन रखा था। मफलर को गले में लपेटकर खुबसूरती के साथ आगे मोड़ कोट के कालर के पास अंदर डाल रखा हुआ था।

कुछ सोचते रहने के बाद उन्होंने नजरें उधर हटाकर मुझ पर स्थिर कर लीं। जेब से सिगरेट निकाली, जलायी और होठों में दबाकर हल्के-हल्के दो कश खींचे। धुआं छत की ओर फेंक धीमे स्वर में बोले, "कुछ सोचा तुमने?"

"-------------"

"तुम सोच नहीं सकते रावि----- कल जब उन्हें पता चलेगा---- वे पूरी तैयारी के साथ मुझे घेरने की कोशिश करेगे...... किसी शिकारी की भांति।"

"मैं उस स्थिति का अनुमान लगा सकता हूं अनि दा-----"

"फिर कुछ करो----- वर्ना वे मुझे नोंच खायेंगे।" उनके स्वर में कंपन था।

"वे कितने होंगे?"

"------ तीन---- चौथा भी हो सकता है---- सबसे अधिक खतरा मुझे कन्हैयालाल और पठान से है। भनक मिलते ही ये घर के चारों ओर मंडराने लगेंगे ---- लाश के इर्द-गिर्द मंडराते गिद्धों की भांति।"

"चार के अलावा भी तो होंगे---- जिनसे आपने----"

उन्होंने बाते बीच में ही काट दी, "एक और है मछली वाला घोषाल----"

"उसे कितने देने हैं?"

"दो सौ सत्तर---- लेकिन उसकी चिन्ता तुम न करो---- उसेमैं देता जाऊंगा---- जो एलाउन्सेज मिलेगें--- उससे---- बाकी के बारे में तो तुम जानते ही हो-----"

"मैं जानता हूं अनि दा---- इसीलिए तो----"।

वह बीच में ही बोल पड़े, "मुझे तुम्हारा ही सहार है रवि---- जैसे भी हो तुम मेरी मदद करो----- सुरक्षित यहां से निकाल दो----"

"ट्रांसफर की बात किसी को मालूम तो नहीं हुई?"

"नहीं---- मैंने ए०ओ० और एडमिन के एस०ओ०ब नर्जी से अनुरोध किया है कि वे इसे किसी पर स्पष्ट न करें तब तक जब तक मैं दफ्तर से चला न जाऊं---- और उन दोनों ने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया है।"

"--------"

"रवि, इतने वर्षों में यहां जितना खोआ है, कलकत्ता जाकर अधिक नहीं तो वह सब तो वापस पा ही सकता हूं। वहां जीवन को एक बार फिर व्यवस्थित करने की कोशिश करूंगा---- बस तुम मुझे यहां से सुरक्षित निकाल दो---- उन दरिन्दों के हाथों लग गया तो----।" उनके स्वर में दहशत स्पष्ट थी।

"आप एक काम कर सकते हैं?"

"बोलो।" वह उत्सुक हो उठे और कुर्सी पर तनकर बैठ गए।

"रात-रात में ही सारा सामान बांध लीजिए---- सुबह पांच बजे मैं रिक्शा लेकर पहुंच जाऊंगा। भाभी और बच्चे को शोभाराम के साथ पहली बस से दिल्ली भेज देगें----आप ट्रांसपर ऑर्डर और पैसा लेकरदोप हर चुपचाप अरमिन्दर के साथ बस से पहुंच जाइयेगा----- उसे मैं सामझा दूंगा। उस पर भरोसा किया जा सकाता है, और मैं सामान लेकर बारह बजे की गाड़ी से निकल आऊंगा----- किसी को पता भी नहीं चलेगा।

योजना सुन उनका चेहरा खिल उठा

"मैं जानता था तुम कोई न कोई उपाय निकाल ही लोगे---- तभी तो---- लेकिन सामान किसमें पैक करूं?" वह फिर चिन्तित हो उठे थे।

"कितना होगा?"

"अधिक तो नहीं है----फिर भी छोटे-मोटे आइटम मिलाकर ---- कुछ तो हो ही जायेगा।"

"अटैची-ट्रंक---- कुछ भी नहीं।"

"-------"

उनकी चुप्पी का अर्थ मैं समझ गया। उन्होंने एक-एक कीमती सामान कर्ज का ब्याज चुकताक रने में बेच दिया था। मैंने पलंग केनि चे से ट्रंक निकाला, खाली किया और बोला, "इसे लेते जाइये----- अति आवश्यक चीजें, कपड़ेद वगैरह इसमें रख लीजियेगा --- बोरा होगा कोई या----।"

"शायद होगा।"

"फिर चलिए---- ग्यारह बजने को हैं।" मैंने घड़ी देखी औरौठ खड़ा हुआ।

"तुम कहां?"

"शोभाराम और अरमिन्दर को बोलना न।"

वह चुप रहे। मैंने दरवाजा बन्द किया और उनके साथ सीढ़ियां उतरने लगा। उस समय सड़क के किनारे के नीम के पेड़ पर कोई परिन्दा पंख फड़फड़ाता कुड़कुड़ा रहा था। ठंड बढ़ गई थी और पेड़ से कुहासा टपकने लगा था।

०००

अनि दा का नाम थ अनिरुद्ध मुखर्जी।च मकदार सुनहला रंग, पांच फीट चार इंच के लगभग लंबाई , कसा-भरापूरा शरीर, चौड़ा चेहरा और बड़ा सिर---- बौद्धिक होने का प्रमाण देती, चमकदार आंखें---- बगला, अंग्रेजी और हिन्दी काअच्छा ज्ञान--- समान अधिकार---- बातचीत में किसी को भी प्रभावित कर लेने की क्षमता थी उनमें। जब वह उस दफ्तर में पोस्ट होकर आए तो सभी उनके ज्ञान और विद्वत्ता से चमत्क्रुत थे। और अपने ही खोल में सिमटे रहने वाले और सीमित जानकारी के बल परापने को दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञाता मानने वाले उस छोटी जगह के छोटे से दफ्तर के बाबुओं के लिए अनि दा आकर्षण का केन्द्र बन गये थे। वहां के बंगाली परिवारों में कम दिनों में ही बहुचर्च्त---- अनि दा भी वहां के वातावरण में आनन्द लेने लगे थे।

और जब लोगों को पता चला कि उनकी योग्यता साधारण नहीं---- क्योंकि उसके पीछे गहन अध्ययन रहा है---- अध्ययन, जो उन्होंने आई०ए०एस० की परीक्षा की तैयारी के लिए किया था..... वह परीक्षा में उत्तीर्ण भी हो गए थे, लेकिन साक्षात्कार में इसलिए नहीं चुने गए, क्य्होंकि वह उन दिनोम बोकरो स्टील फैक्ट्री में क्लर्क थे, और साक्षात्कार बोर्ड में बैठे लोग आभिजात्य मानसिकता वाले थे---- ऊंचे अफसर-विशेषज्ञ।

चेयरमैन ने पूछा था, "क्लर्क के रूप में काम करते हुए तीन वर्ष बीत गए हैं ---- आई०ए०एस० का पद संभालप पाओगे?"

उनकी विद्वत्ता और परिश्रम व्यर्थ सिद्ध हुए थे।

अध्ययनशिल होने के साथ-साथ वह संगीत प्रेमी थे---- अच्छे गायक भी । रवीन्द्र संगीत में उनकी विशेष रुचि थी और वहां प्रति शनिवार की रात किसी-न किसी के यहां इस तरह के आयोजन होने लगे थे। अनि दा तबला बजाते---- सिगरेट होंठों में दबा पूर्ण तन्मयता के साथ।

वहां के क्लब का सेक्रेटरी बना दियागया था अनि दा को। सेक्रेटरी बनते ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन आरंभ हो गये थे। दुर्गापूजा के दिनों में रात-रात भर क्लब में रहकर नाटकों का निर्देशन भी करते और स्वयं अभिनय भी। वहां बंगाली उनके प्रति विशेष लगाव अनुभव करने लगे थे।

इस मध्य पीसीएस की विशेष परीक्शा में बैठने का उन्हें अवसर मिला । परीक्शा उत्तीर्ण कर लि उन्होंने, लेकिन साक्षात्कारमें वह फिर न आ सके और क्लर्क बने रह्ने के लिए अभिशप्त होकर रह गये। अब उनमें एक वैचारिक परिवर्तन भी हुआ था। वह पहले सोच रहे थे कि अफसर बनकर ही शादी करेंगे, लेकिन अब सोचने लगे थे कि उन्हें शादी कर ही लेनी चाहिए------ और इसी उद्देश्य से एक दिन वह कलकत्ता थे।

०००

तीन महीने बाद लौटे थे अनि दा कलकत्ता से---- अकेले नहीं---- पत्नी सहित। रेलवे अधिकारी की बेटी थी उनकी पत्नी---- पढ़ी-लिखी ---- स्वस्थ सुन्दर---- झील-सी जीली आंखों वाली। शादी कर लौ९टने के बाद उनके जीवन का रंग-ढंग ही बदल गया। दफ्तर के बाद इधर-उधर व इभिन्न कार्यक्रमों में व्यस्त रहने वाले अनि दा की दिनचर्या उलट गयी थी। अब वह दफ्तर और घर के मध्य ही सीमित होकर रह गये थे। रात में पत्नी के साथ टहलते हुए सड़कों पर अवश्य दिखते----- शेष लोगोम से मिलना-जुलना उन्होंने बन्द कर दिया था। क्लब के सदस्य जब कभी उन्हें घर बुलाने पहुंचते, आःआख ॊइ-न कोई खूबसूरत बहाना बनाकर ताल देते---- औरांत में तंग आकर उन्होंने एक दिन क्लब से सेक्रेटरी पद से त्याग पत्र दे दिया ।

पत्नी का संग-साथ पा वह प्रसन्न थे। लेकिन दफ्तर में प्रायः चुप रहने लगे थे। या तो सीट का काम करते या सिगरेट फूंकते रहते। सहयोगी बाबू छेड़छाड़ करते---- पत्नी के बारे में कुछ पूछते ---- वह हंसकर टाल देते। बाबू लोग अटकलें लगाते----- शायद दादा खुश नहीं हैं---- या कुछ और बात है---- लेकिन शाःई बात तक कोई पहुंच न पाता।

जबकि वास्तविकता यह थी कि शादी के बाद उनके खर्चे अकस्मात बढ़ गए थे---- यही उनकी परेशानी का कारण था। उन्होंने के शादी के समय बताया था कि वह ’सेक्शन आफीसर’ हैं और अच्छा वेतन पाते हैं । पत्नी को भी उन्होंने यही बताया था और उस स्तर को बनाये रखने के लिए वह कटिबद्ध थे। कलकत्ता से लौटते ही उन्होंने डबल बैड, सोफा , आल्मारी आदि सामान खरीद डाला था। अब वह प्रति रविवार दिल्ली घुमने जाने लगे थे। सुबह की गाड़ी से जाते और घूम-पिरकर---- कोइ पिक्चर देखकर रात की गाड़ी से लौट आते. दिन का खाना दिल्ली के किसी रेस्तरां में और रात का लौटकर स्टेशन के पीछे पंडित के होटल में वे लेते. प्रतिदिन मछली बनना आवश्यक हो गया था उनके घर. स्कूटर तो न खरीद सके थे वह, लेकिन दफ्तर आने-जाने के लिए नई हीरो साइकिल अवश्य ले ली थी.

कुछ दिनों में ही स्थिति यह हो गई कि वह सीट पर भी कम ही बैठने लगे। लेकिन काम उनका अप-टु-डेत रहता था। वह अपनी चमचमाती साइकिल मेमउच लते हुए आते---- आधा घंटा बैठते और साढ़े नौज बजे साइकिल उठा मछलीवाले की ओर दौड़ जाते। मछली लेकर घर जाते और पत्नी की थोड़ी मदद कर साढ़े ग्यारह बजे तक दफ्तर लौट आते। दोपहर में लंच के लिए जाते तो ढाई से पहले न लौटते।

उनकी इस गतिविधि से उनका ’सेक्शन आफीसर’ तंग रहने लगा। उसने एक-दो बार टोका तो कुछ दिनों के लिए अनि दा ने अपनी गतिविधि में सुधार किया, लेकिन बाद में फिर वहिस्तथिति. सेक्शन ऑफीसर दुखी हो गया.

लेकिन उससे कहीं अधिक दुखी अनि दा थे. वह भयंकर तनाव से गुजर रहे थे. अपने द्वारा तैयार किए गये झूठ के जंगल में वह फंस गए थे, जहांक कामटे ही कांटे थे. एक झूठ को छुपाने के निरतंर काबुली पठान का कर्जदार होते गएतथे.वह स् थिति कोस म्भालपा ते इससे पहले ही पत्नी ने रहस्योद्घाटन किया कि वह मां बनने वाली है.मां बनने वाली है---- यानी पत्नी को अच्छी खुराक मिलनी चाहिए----- और इसके लिए उन्हें कन्हैयालाल का द्वार खटखटाना पड़ा.

कन्हैयालाल तो ऎसे लोगों की मदद के लिए हर समय तैयार रहता था. उसने उन्हें सलाह दी कि पैसों की चिन्ता न करें, पत्नी को खूब ताकत की चीजें खिलाएं---- इन दिनों नहीं खिलाएंगे तो कब खिलाएगें.

अनि दा ने दिल खोलकर खर्च किया और कन्हैयालाल के तीन हजार के कर्जदार हो गए . इतना ही कर्ज वह पठानसे ले चुके थे---- पूरा कर्ज दस प्रतिशत मासिक ब्याज पर. पत्निने बेटे को जन्म दिया तो बेटे के नाना-नानी , मामा-मौसी दौड़े आए कलकत्ता से और एक महीना रहे . उन दिनों मछलीवाला घोषाल भी कहने लगा था कि अनि मुखर्जी में ससुराल वालों को लेकर दुछ अधिक ही उत्साहआ ग या है. पहले हर दिन आधा किलो मछली जाती थी, अब डेढ़-दो किलो मछली जाने लगी है.

इस प्रक्रिया में अनि दा को दो और लोगों से उधार लेना पड़ा था. उसके बाद से ही वह खोये-खोये से रहने लगे थे .’ ब्लड प्रेशर’ के मरीज भी हो गए थे वह.

प्रतिमाह ब्याज के रूप में वह वेतन समाप्त कर घर लौटने लगे थे---- उस पर भी एक-दो लोग रह जाते---- वह उनसे अपने को छुपाते घूमते. आखिर हारकर एक दिन उन्हें पत्नी पर वास्तविकता प्रकट करनी पड़ी. पत्नी ने उन्हें झिड़का था---- वह चुपचाप गर्दन झुकाएसुनर हे थे. फिर पत्नी ने अपनी जेवर जो भी थी---- घदई आदि उनके सामने फेंक दिए थे और कहा था, बेचकर कर्ज अदा कर दें. उन्होंने दुछ कर्ज अदा भी किया, लेकिन तब भी हालात न बदले थे.

उन्होंने औने-पौने में साइकिल, सोफा, डबलबैड---- आदि सामान पठान और कन्हैयालाल को बेच दिया. लेकिन इससे बमुश्किल उनका ब्याज ही अदा हो सका----मुल ज्यों का त्यों बना रहा. धीरे-धीरे अनि दा की स्थिति यह हो गई कि वह वेतन लेकर चुपचाप खिसक जाते और दो-चार दिन दफ्तर नहीं आते. पठान उनके घर पहुंचता तो वह बाथरूम में घुस जाते---- पत्नी कहीं बाहर जाने का बहाना कर देती. दप्तर जाते तो शक्ल दिखाकर दिन-दिनभर गायब रहते, कहां रहते---- किसी को पता न होता. अफसर से डांट पड़्ती तो चुपचाप सुन लेते।

लेकिन कब तक छुपकर रहते वह। जब भी पकड़ में आते---- पठान या हन्हैयालाल के----- वे उनके चिपक जाते जोंक की तरह और जब तक कुछ ले न लेते---- छोड़ते नहीम। इस तरह उनके घर कीीक-एक वस्तु उन लोगों के घर पहुंच गई---- बर्तन तक न बचे। अनि दा चीनी-मिट्टी की दो प्लेटें और एल्यूमिनियम के एक -दो बर्तन ले आए काम चलाने के लिए। डबल बैड चले जाने के बाद सारा परिवार जमीन पर सोने लगा था। इतने दिनों में ब्याज के रूप में उन्होंने सूदखोरों को इतना सबदेद िया था---- जो मूलधन से कई गुना था..... अतः सुदखोरों से छुपकर उनका वहां से जाना मुझे अनुचित नहीं लग रहा था।

०००

हमारी योजना सफल रही थी। हम तीन बजे पुरानी दिल्ली स्टेशन की इंक्वायरी के सामने मिले थे। मेरे पहुंचने से पहले ही उन्होंने दूसरे दिन के लिए ’जनता एक्सप्रेस’ में आअरक्षण करवा लिया था। चौबीस घंटे के लिए ’रिटायरिंग रूम’ में जगह मिल गयी थी उन्हें । इतना सब हो जाने के बादम ैम्नेअ नि दा के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव देखे थे----- शायद सूदखोरों के चंगुल से मुक्त हो जाने की प्रसन्नता थी । लेकिन जैसे ही हम विदा होने लगे, अनि दा का चेहरा उदास हो गया। वह सीढ़ियों तक हमें छोड़्ने आए। हम सभी चुप थे. लेकिन ऎसा लग रहा था कि अनि दा कुछ कहने के लिए शब्द तलाश रहे थे. क्षणभर के लिए हम सीढ़ियों के पास रुक गये । अनि दा ने अरमिंदर और शोभाराम से हाथ मिलाया, फिर मेरी ओर हाथ बढ़ाते हुए भर्राये स्वर में बोले, "तुमने जो एहसान मुझ पर किया है रवि, उसे मैं कैसे-----" उन्हें आगे बोलनेका अवसर न देकर मैंने बीच में ही टोक दिया, "ऎसा मत सोचिए अनि दा----- मित्रों के लिए तो कुछ भी किया जा सकता है---- और हम कहीं क्योंन रहें, हमारी मित्रता बरकरार रहनी चाहिए------ बस.’ मैंने सख्ती से उनका हाथ दबाया और सीढ़ियां उतरने लगा तेजी से.

०००

घड़ी ने टन-टन कर आठ बजाए तो मैं चैंका ----- मैंने बत्ती तक न जलायी थी----अंधेरे में ही बैठा था. उठकर स्विच ‘ऑन किया। कमरे में पीली रोशनी फैल गयी।

अनि दा का पत्र अब तक मेरी उंगलियों में दबा हुआ था।

"तो इतने दिनों में ही अनि दा में इतना परिवर्तन---- एक छोटे से काम के लिए असमर्थता व्यक्त कर दी----- जबकि वह कर सकते हैं ---- हेडक्वार्टर के प्रशासन विभाग में ’ सेक्शन ऑफीसर’ हो गए हैं वह----- और उसी शाखा में हैं----- जिसने मेरा ट्रांसफर कर दिया है सिकन्दराबाद."

सिकन्दराबाद ट्रांसफर जाने का अर्थ होगा आर्थिक संकट और बच्चों की शिक्षा की बर्बादी---- इसीलिए अनि दा को ट्रांसफर ‘ओर्डर निरस्त करवाने के लिए लिखा था।

"आय एम हेल्पलेस रवि" उनका कल्पनातीत संक्षिप्त उत्तर हथौड़े की भांति मेरे सिर पर चोट कर रहा ।

मैम क्षणभर तक पत्र की ओर देखता रहा, फिर उसकी चिन्दी-चिन्दी कर खिड़की से बाहर फेंक दिया। बाहर स्ट्रीट लाइट का दूधिया प्रकाश सड़्क पर बिछा हुआ था और एक कुत्ता अपनी दाहिनी टांग ऊपर उठाए बिजली के खम्भे कॊ गीला कर रहा था।