अनुगीतिका / ओम नीरव

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यदि किसी धारावाही गीतिका के युग्मों की अभिव्यक्ति पूर्वापर सापेक्ष हो अर्थात युग्म अपने अर्थ के लिए किसी अन्य के मुखापेक्षी हों तो उसे 'अनुगीतिका' कहते हैं। इसप्रकार की रचना वास्तव में गीत के निकट प्रतीत होती है किन्तु पूर्णतः गीत नहीं होती है क्योंकि इसमें अन्तरों का अभाव होता है। इसमें अन्तरा के स्थान पर युग्म होता है जिसके पूरक पद को गीत की पूरक पंक्ति तो माना जा सकता है किन्तु पूर्व पद की एक पंक्ति को अन्तरा नहीं माना जा सकता है। तथापि इस सुन्दर काव्य-विधा को उपेक्षित करना उचित नहीं प्रतीत होता है। अस्तु इस विधा को 'अनुगीतिका' के नाम से प्रतिष्ठित किया गया है। इसे निम्नप्रकार परिभाषित कर सकते है-

अनुगीतिका हिन्दी भाषा-व्याकरण पर पल्लवित एक विशिष्ट काव्य विधा है जिसमें हिन्दी छंदों पर आधारित दो-दो लयात्मक पंक्तियों के पूर्वापर सापेक्ष अभिव्यक्ति एवं विशिष्ट कहन वाले एक ही विषय पर केन्द्रित पाँच या अधिक युग्म होते हैं जिनमें से प्रथम युग्म की दोनों पंक्तियाँ तुकान्त और अन्य युग्मों की पहली पंक्ति अतुकांत तथा दूसरी पंक्ति समतुकान्त होती है।

दूसरे शब्दों में अनुगीतिका एक विशेष प्रकार की धारावाही गीतिका है जिसके युग्म एक ही विषय पर केन्द्रित होते हैं जिनकी अभिव्यक्ति पूर्वापर सापेक्ष होती है।

अनुगीतिका के लक्षण

(1) इसका तानाबाना, अग्रलिखित बातों को छोडकर, मुख्यतः गीतिका जैसा ही होता है।

(2) इसके अधिकांश युग्मों की अभिव्यक्ति पूर्वापर सापेक्ष होती है।

(3) इसके सभी युग्म एक ही विषय पर केन्द्रित होते हैं और समग्रतः पाठक-मन पर गीत जैसा स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं।

सोदाहरण व्याख्या

निम्नलिखित रचना का तानाबाना गीतिका जैसा है किन्तु इसके प्रायः सभी युग्म मुखड़ा के मुखापेक्षी हैं और एक ही विषय 'मीरा' पर केन्द्रित रहते हुए गीत जैसा स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं, इसलिए यह गीतिका न होकर 'अनुगीतिका' कही जाएगी।

मीरा ने प्याले से पहले, कितना गरल पिया होगा।

तब प्याले ने गरल-सिंधु के, आगे नमन किया होगा।

अंतर से अम्बर तक बजते, घुँघरू वाले पाँवों में,

कितने घाव कर गया परिणय, का बौना बिछिया होगा।

नटनागर की प्रेम दिवानी, झुलसी होगी बाहों में,

रूप दिवाना हो कोई जब, खेल रहा गुड़िया होगा।

उरवेधी विषधर के दंशों, से मधुकोष बचाने को,

घुट-घुट शहदीले अधरों को, कितनी बार सिया होगा।

इकतारा ले कुंजवनों में, झूम-झूम गाता जीवन,

घर-आँगन की नागफनी में, कैसे कभी जिया होगा।

प्रीत-पगे नयनों में प्रिय की प्राण-प्रतिष्ठा करने को,

रिश्तों का सीसा पिघलाकर पहले डाल दिया होगा।

विदा माँगकर शृंगारों से, अंगारों पर चलने को,

विवश किया होगा जिसने वह, छलियों का छलिया होगा। -स्वरचित

गीतिका से समानताएँ

उपर्युक्त अनुगीतिका में गीतिका के निम्नलिखित लक्षण विद्यमान है-

(1) हिन्दी भाषा-व्याकरण-इस अनुगीतिका में हिन्दी भाषा और हिन्दी व्याकरण का प्रयोग किया गया है, जिसमें एकाध बहुप्रचलित विजातीय या देशज शब्द भी सम्मिलित हैं।

(2) आधार छन्द–इस अनुगीतिका का आधार छंद लावणी है, जिसके प्रत्येक चरण में 30 मात्रा होती हैं, 16, 14 मात्रा पर यति होती है। वस्तुतः चौपाई और मानव छंद के चरणों को मिलाकर लावणी का एक चरण बनाता है।

इस छंद-विधान को मुखड़ा के मात्रा-कलन में निम्नप्रकार देखा जा सकता है-

मीरा ने प्याले से पहले, (16 मात्रा, चौपाई)

कितना गरल पिया होगा। (14 मात्रा, मानव)

चौपाई + मानव = लावणी

(3) तुकांतता-पूरी अनुगीतिका का तुकान्त है-'इया होगा' , जिसके दो खंड हैं-समान्त 'इया' और पदान्त 'होगा' । इसे गीतिका के युग्मों में निम्नप्रकार देखा जा सकता है-

पिया होगा = प् + इया + होगा

किया होगा = क् + इया + होगा

छिया होगा = छ् + इया + होगा

ड़िया होगा = ड्+ इया + होगा

सिया होगा = स् + इया + होगा

जिया होगा = ज् + इया + होगा

दिया होगा = द् + इया + होगा

लिया होगा = ल्+ इया + होगा

चराचर सिद्धान्त से देखें तो अचर 'इया होगा' के पूर्ववर्ती चर क्रमशः प्, क्, छ्, ड्, स्, ज्, द्, ल् व्यंजन हैं।

(4) मुखड़ा-इस अनुगीतिका का मुखड़ा निम्नप्रकार है-

मीरा ने प्याले से पहले, कितना गरल पिया होगा।

तब प्याले ने गरल-सिंधु के, आगे नमन किया होगा।

इसके दोनों पद तुकान्त हैं और इन्हीं पदों से तुकान्त 'इया होगा' अर्थात समांत 'इया' और पदांत 'होगा' का निर्धारण होता है जिसका पूरी गीतिका में विधिवत निर्वाह हुआ है।

(5) युग्म-न्यूनतम पाँच युग्मों के प्रतिबंध का निर्वाह करते हुए इस गीतिका में सात युग्म हैं। प्रत्येक युग्म का पूर्व पद अतुकान्त तथा पूरक पद तुकान्त है। रेखांकनीय बात यह है इस अनुगीतिका के युग्मों की अभिव्यक्ति स्वतंत्र नहीं है अर्थात इस अनुगीतिका के युग्म पूर्वापर निरपेक्ष न होकर पूर्वापर सापेक्ष हैं। ।

(6) विशिष्ट कहन-इसका निर्णय पाठक स्वयं करके कर सकते है कि किस प्रकार पूर्व या प्रथम पद में लक्ष्य का संधान किया गया है और फिर पूरक पद में लक्ष्य पर प्रहार किया गया है। जिस युग्म में यह विशेष कहन न हो उसे गीतिका का युग्म नहीं माना जा सकता है।

गीतिका से भिन्नताएँ

(1) धारावाहिक अभिव्यक्ति-अनुगीतिका के सभी युग्म एक ही भाव भूमि पर रचे जाते हैं। मुखड़ा कथ्य की प्रस्तावना करता है और क्रमिक युग्म उसी प्रस्तावना का संवर्धन और पोषण करते हैं। इसप्रकार आदि से अंत तक एक भाव प्रवणता दृष्टिगोचर होती है। यह भाव प्रवणता लगभग गीत जैसी होती है। उपर्युक्त अनुगीतिका के मुखड़ा में मीरा के पारलौकिक प्रेम की प्रस्तावना कि गयी है जिसे अगले युग्मों में संवर्धित और पुष्ट किया गया है तथा अंतिका में उसे उत्कर्ष तक पहुँचाया गया है। पारलौकिक प्रेम के पथिक को लौकिक या दैहिक प्रेम कितना पीड़ादायक लगता है, इसका प्रतिपादन अनुगीतिका के प्रारम्भ से छः युग्मों में किया गया है और अंतिम सातवें युग्म में पारलौकिक प्रेम के चमत्कारी वर्चस्व को स्थापित किया गया है। गीतिका के युग्मों में पूर्वापर ऐसे किसी पूर्वापर सम्बंध की अनिवार्यता नहीं होती है।

(2) पूर्वापर सापेक्ष युग्म-अनुगीतिका के युग्म पूर्वापर सापेक्ष होते हैं अर्थात अपने अर्थ के लिए किसी दूसरे युग्म के मुखापेक्षी होते हैं, जबकि गीतिका के युग्म अपनी-अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी दूसरे के मुखापेक्षी नहीं होते हैं अर्थात पूर्वापर निरपेक्ष होते हैं। उदाहरण के लिए इस गीतिका के दूसरे युग्म पर विचार करें तो प्रश्न उठता है कि किसके पाँवों के घुँघरू और बिछिया कि बात की जा रही है। इस प्रश्न का उत्तर स्वयं उस युग्म में नहीं मिलता है अपितु मुखड़ा में मिलता है। मुखड़ा से पता चलता है कि जिन पाँवों की बात की गयी है वे मीरा के हैं। इस प्रकार दूसरा युग्म अपनी अभिव्यक्ति के लिए मुखड़ा का मुखापेक्षी हो जाता है। दूसरे शब्दों में ये दोनों युग्म पूर्वापर सापेक्ष हैं। इसी प्रकार बाद के प्रायः सभी युग्मों में कर्ता का पता लगाने के लिए मुखड़ा के मुखापेक्षी होना पड़ता है। इसके विपरीत गीतिका के सभी युग्मों की अभिव्यक्ति स्वतंत्र होती है।

अनुगीतिका कि आवश्यकता

प्रायः देखा जाता है कि गीतिका के तानेबाने पर गीत जैसी भावप्रवण रचना कि जा सकती है किन्तु उसे गीतिका या ग़ज़ल में इसलिए सम्मिलित नहीं किया जाता है कि उसके युग्म पूर्वापर निरपेक्ष नहीं होते हैं और गीत में इसलिए सम्मिलित नहीं किया जाता है कि उसमें अंतरों कि व्यवस्था नहीं होती है। अस्तु पूर्वापर सापेक्ष युग्मों वाली धारावाही गीतिका को अलग से एक पहचान देना और एक नाम देना आवश्यक प्रतीक होता है। चूँकि यह विधा गीतिका कि अनुवर्ती है इसलिए इसे 'अनुगीतिका' नाम देना न्यायोचित है। अनुगीतिका कि परिकल्पना हिन्दी गेय कविता को एक नया आयाम प्रदान करती है।