अनुताप / सुकेश साहनी
"बाबूजी आइए—मैं पहुँचाए देता हूँ।" एक रिक्शेवाले ने उसके नज़दीक आकर कहा।
"बाबूजी आइए—मैं पहुँचाए देता हूँ।" एक रिक्शेवाले ने उसके नज़दीक आकर कहा।
"असलम अब नहीं आएगा।"
"क्या हुआ उसको?" रिक्शे में बैठते हुए उसने लापरवाही से पूछा। पिछले चार-पाँच दिनों से असलम ही उसे दफ्तर पहुँचाता रहा था।
"बाबूजी, असलम नहीं रहा—"
"क्या?" उसे शॉक-सा लगा, "कल तो भला चंगा था।"
"उसके दोनों गुर्दों में खराबी थी, डॉक्टर ने रिक्शा चलाने से मना कर रखा था," उसकी आवाज़ में गहरी उदासी थी, "कल आपको दफ्तर पहुँचाकर लौटा, तो पेशाब बंद हो गया था, अस्पताल ले जाते समय उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था—।"
आगे वह कुछ नहीं सुन सका। एक सन्नाटे ने उसे अपने आगोश में ले लिया—कल की घटना उसकी आँखों के आगे सजीव हो उठी। रिक्शा नटराज टॉकिज़ पार कर बड़े डाकखाने की ओर जा रहा था। रिक्शा चलाते हुए असलम धीरे-धीरे कराह रहा था। बीच-बीच में एक हाथ से पेट पकड़ लेता था। सामने डाक बंगले तक चढ़ाई ही चढ़ाई थी। एकबारगी उसकी इच्छा हुई थी कि रिक्शे से उतर जाए। अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया था-'रोज का मामला है—कब तक उतरता रहेगा—ये लोग नाटक भी खूब कर लेते हैं, इनके साथ हमदर्दी जताना बेवकूफी होगी—अनाप-शनाप पैसे माँगते हैं, कुछ कहो तो सरेआम इज़्ज़त उतारने पर आमादा हो जाते हैं—।' असलम रिक्शे सरेआम रिक्शे से उतर पड़ा था, दाहिना हाथ गद्दी पर जमाकर चढ़ाई पर रिक्शा खींच रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था, गंजे सिर पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदें दिखाई देने लगी थीं—।
किसी कार के हार्न से चौंककर वह वर्तमान में आ गया। रिक्शा तेजी से नटराज से डाक बंगले वाली चढ़ाई की ओर बढ़ रहा था।
"रुको!" एकाएक उसने रिक्शे वाले से कहा और रिक्शे के धीरे होते ही उतर पड़ा। रिक्शे वाला बहुत मज़बूत कद काठी का था। उसके लिए यह चढ़ाई कोई खास मायने नहीं रखती थी। उसने हैरानी से उसकी ओर देखा। वह किसी अपराधी की भाँति सिर झुकाए रिक्शे के साथ-साथ चल रहा था।