अनुपम खेर को नया उत्तरदायित्व / जयप्रकाश चौकसे

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अनुपम खेर को नया उत्तरदायित्व
प्रकाशन तिथि :13 अक्तूबर 2017


इक्कीस वर्ष की आयु में शांतारामजी ने महाराष्ट्र के कोल्हापुर में फिल्म निर्माण कंपनी में एक बढ़ई की हैसियत से कार्य प्रारंभ किया। स्वाध्याय से शास्त्र सीखकर सात वर्ष पश्चात ही अपनी पहली फिल्म 'उदयकाल' का निर्माण किया। अपने तीन साथियों के साथ कोल्हापुर से वे पुणे पहुंचे और प्रभात स्टूडियो की रचना की। सर्वप्रथम इस जगह उन्होंने एक वृक्ष लगाया। कई दशक पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने उसी स्थान पर पुणे फिल्म संस्थान की स्थापना की जहां से प्रशिक्षित युवा लोगों ने सार्थक फिल्मों की रचना की। विगत कुछ समय से संचालक पद पर बैठाए गए एक व्यक्ति के कारण संस्था में पढ़ना-पढ़ाना ठप्प हो चुका था। अब सरकार ने अनुपम खेर को नियुक्त किया है और आशा है कि उच्च शिक्षा मूल्यों की दोबारा स्थापना का श्रीगणेश होगा।

पुणे फिल्म संस्थान में शांताराम द्वारा रोपे गए वृक्ष को छात्र 'विज़्डम ट्री' कहते हैं। ज्ञातव्य है कि बिहार में महात्मा बुद्ध को एक वृक्ष के नीचे ध्यान करने पर ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए उसे विज़्डम ट्री कहा गया। किंवदंती है कि टहनी लेकर श्रीलंका में बौद्ध विहार की स्थापना की गई थी और बाद में बिहार स्थित वृक्ष के सूख जाने पर श्रीलंका के वृक्ष से लाई गई शाखा से बिहार में विज़्डम ट्री विकसित किया गया। इस हेराफेरी से स्पष्ट होता है कि ज्ञान का मार्ग एकतरफा नहीं है, वहां आना-जाना दोनों ही होता है। इस तरह मनुष्य भी एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते रहते हैं परंतु वैचारिक कट्‌टरता ने चालीस हजार लोगों को देशविहीन कर दिया है। यह एक ताजा दुर्घटना है।

हम यह आशा करते हैं कि अनुपम खेर पुणे जाकर पद ग्रहण करने के पूर्व कुछ समय शांताराम रोपित विज़्डम ट्री के नीचे बैठेंगे और राजनीतिक दुराग्रह का त्याग करके संस्था को उसका खोया हुआ गौरव दिलाने की दिशा में ले जाएंगे। उन्हें प्रचारक नहीं, फिल्मकारों का पथ प्रशस्त करना है।

फिल्में तेज रोशनी में बनाई जाती हैं परंतु सिनेमाघर के अंधेरे में दिखाई जाती हैं। फिल्म रचना में प्रकाश और अंधकार दोनों का इस्तेमाल होता है। इसी तरह ध्वनि और खामोशी दोनों का भी इस्तेमाल होता है। राजकपूर के सिनेमेटोग्राफर राधू करमाकर की आत्म-कथा का नाम है 'पेन्टर विथ लाइट'। अपनी रचना प्रक्रिया के कारण इस माध्यम द्वारा विसंगतियों और विरोधाभास को भली-भांति प्रस्तुत किया जा सकता है। आम आदमी का इस माध्यम से गहरा जुड़ाव है और अगली संभावित वैचारिक क्रांति भी इसके द्वारा संभव हो सकती है। अरसे पहले रूस ने लंबे समय तक इस माध्यम के द्वारा समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। हमारे यहां पलायनवादी फिल्मों के साथ अल्प संख्या में सार्थक फिल्में बनती रही हैं। कभी किसी एक दौर में संपूर्ण गुणात्मकता नहीं दिखाई देती। ये श्याम-श्वेत व रंग सहोदर रहे हैं। यह माध्यम ही अलसभोर की तरह है। 'शक्ति के हजारों सूर्य दमकते रहे, कमजोर मनुष्य का जुगनू रहा सिनेमा, दरबारी गायकों की महफिल में भिखारी का गीत रहा सिनेमा'।

अनुपम खेर को पहला अवसर महेश भट्‌ट ने 'सारांश' में दिया था। अपनी युवा अवस्था में ही उन्हें एक उम्रदराज सेवानिवृत शिक्षक की भूमिका मिली और अब वे यथार्थ जीवन में भी शिक्षक की भूमिका करने जा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने मुंबई में अभिनय प्रशिक्षण संस्था खोली थी। सुभाष घई की 'कर्मा' में उन्होंने खलनायक की भूमिका निबाही। प्रारंभ से ही वे विविध भूमिकाएं अभिनीत करते रहे हैं। उनका एक विलक्षण प्रयास था 'मैंने गांधी को नहीं मारा' परंतु इस फिल्म में उनकी पुत्री के रूप में उर्मिला मातोंडकर ने सारा श्रेय लूट लिया। ज्ञातव्य है कि मुंबई स्थित सेंसर बोर्ड द्वारा काटे गए दृश्यों को मय निगेटिव के पुणे संस्थान भेजा जाता है जहां वे बेहतरीन ढंग से बिखरे हुए हैं। खाकसार वहां शोध के लिए गया था परंतु सभी को अटाले के रूप में रखा पाया था। अनुपम खेर को संस्था के वाचनालय और अन्य सामग्री को पुन: तरतीब से संजोना होगा। दिवाली के पहले घर-घर सफाई अभियान चलता है और अटाला फेंका जाता है। अगर यह काम नहीं किया जाए तो पूरा घर ही अटाले में बदल सकता है। ज्ञान की नदी के प्रवाह मं भी बहुत-सा कूड़ा-करकट बहता रहता है। कभी-कभी नदी उसे किनारे पर छोड़ देती है। हम सभी के कबाड़ी बन जाने का खतरा है।

स्मरण आता है कि राज कपूर की 'श्री420' में एक ऐसी दुकान प्रस्तुत की गई है जहां लोग अपना पुराना सामान बेचने व खरीदने आते हैं। वहां चीजें गिरवी भी रखी जाती हैं। रशीद खान अभिनीत कबाड़ी की दुकान पर गरीब स्कूल शिक्षिका अपनी बहुमूल्य चीजें गिरवी रखने आती है और रोजी-रोटी की तलाश में आया युवा अपनी ईमानदारी के लिए मिला स्वर्ण मेडल गिरवी रखने आता है। एक ही कबाड़ी के यहां 'ज्ञान' और 'ईमानदारी' एक ही समय गिरवी रखी जा रही है। कमाल की प्रतीकात्मकता का यह दृश्य मौजूदा समाज की हकीकत बनकर सामने आया है।