अनुपस्थित की खोज / प्रताप सहगल

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पिछले दिनों परिवार में एक शादी थी। शादी में अक्सर हम खाने के वक़्त के आसपास पहुँचते हैं, इसलिए किस शादी की क्या प्रक्रिया रही, इससे हम वाकिफ़ नहीं हो पाते। शादी लड़के की थी। सेहराबंदी का समय था। करीबी रिश्तेदार होने के नाते सेहराबंदी के वक़्त भी रहना पड़ा। मुझे पिछली बार सेहराबंदी का वक़्त या तो अपना कुछ याद है या फिर अपने छोटे भाई का। दोनों ही अवसरों पर आर्य समाज की रीति से यह कार्य संपन्न हुआ था और बहुत वक़्त भी नहीं लगा था। इस बार की सेहराबंदी सनातन धर्म की रीति के अनुसार हो रही थी। ऐसे अवसरों पर रीति का इतना विस्तार हो जाता है कि सब पाखंड लगने लगता है। बहरहाल पंडितजी ने पहले अक्षत रोली आदि से थाल सज़ाया और मंत्रोच्चार के साथ ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सहित सभी देवताओं का आह्वान किया। देवता जो सिर्फ़ किताबों में बंद थे, वे किताबों से निकलकर वहाँ उपस्थित हो गए। ऐसा विश्वास दिलाया पंडितजी ने और वहाँ उपस्थित तमाम लोगों ने भी संभवतः इसे ही सत्य माना। मेरी मुश्किल यहीं से शुरू होती है। उन अलक्षित, अनुपस्थित देवताओं की उपस्थिति वहाँ कैसे दर्ज हो सकती है, यह बात समझ में नहीं आई। लेकिन विश्वास की दुहाई देकर सब कुछ उचित ठहराया जा सकता है। पर प्रश्न यह है कि बिना किसी तर्क या राशनैल के जो माना लिया जाता है, उसे विश्वास कहें या अंधविश्वास। जिन्हें ईश्वर या देवताओं के सामने प्रश्न लगाने वाले घोर नास्तिक लगने लगते हैं, उनसे बहस के आधार क्या हो सकते हैं? उन्हें उनके हालात पर छोड़ना ही बेहतर!

इस बात को दूसरी तरह से देखा जा सकता है। देवताओं का आह्वान सुरक्षा-कवच देता है। आस्तिकता कि छाप। परंपरा का निर्वाह। उस सीमित समाज में प्रतिष्ठा, अपने मन का संतोष आदि-आदि। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि अंततः यह हमें उस दिशा में ले जा रहा हो, जहाँ हम अनुपस्थित की खोज में लग जाते हैं। यह भी तो संभव है कि यह सारी प्रक्रिया अनुपस्थित की खोज से ही शुरू हुई हो और कालांतर में निहित स्वार्थों, अशिक्षा या दूसरे कारणों से अंधविश्वासों और पाखंडों में बदल गई हो। वैदिक साहित्य तो प्रार्थनाओं, आपसी युद्धों, जैविक ज्ञान के विभिन्न मूलाधारों से भरा पड़ा है, लेकिन उपनिषदों में क्या है? वहाँ तो अनुपस्थित की खोज का ही सिलसिला शुरू होता है। यह जिज्ञासा भाव जाग्रत नहीं होता तो नचिकेता न होता। नचिकेता द्वारा यम को दागा गया तीसरा प्रश्न क्या है? क्या वह अनुपस्थित की खोज की प्रक्रिया शुरू नहीं करता। भले ही आज आत्मा-परमात्मा के अंतःसम्बंधों या आत्मा का स्वरूप या फिर आत्मा के अस्तित्व को लेकर कठोपनिषद् से हमारी असहमति हो, लेकिन नचिकेता के विद्रोही स्वभाव तथा अनुपस्थित को खोजने की अदम्य इच्छा से तो हमारी असहमति नहीं हो सकती। यही भाव हमें कबीर के क़रीब ले जाता है, यही भाव हमें बुद्ध को समझने का प्रयास करवाता है, यही भाव हमें अंबेडकर को पढ़ने के लिए उकसाता है।

वस्तुतः 'अनुपस्थित की खोज' करना सामाजिक विकास की प्रक्रिया कि एक सार्थक कोशिश है। यह कोशिश न सिर्फ़ हमें वैज्ञानिक आविष्कारों की ओर ले जाती है, बल्कि दार्शनिक एवं नैतिक प्रश्नों के साथ भी दो-चार कराती है। 'सेब नीचे क्यों गिरा?'-जैसे प्रश्न जब तक उपस्थित नहीं हुए तब तक गुरुत्वाकर्षण भी नहीं जाना गया। समाज में उपस्थित, लेकिन सोच में अनुपस्थित द्वंद्वात्मक शक्तियों को जब तक नहीं पहचाना गया, तब तक मार्क्‍स भी नहीं बना। कृष्ण से अर्जुन ने जब तक पूछा नहीं, तब तक नैतिकता विशेषकर युद्ध-नैतिकता के नए आधार सामने नहीं आए।

सेहराबंदी करते हुए या करवाते हुए न तो पंडित अपनी कोई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं और नाही दूल्हे अथवा दूल्हे के स्वजनों में ही यह जिज्ञासा होती है कि कोई पूछे। पूछना हमारे समाज में जैसे निषिद्ध कर दिया गया हो और सिर्फ़ यह कहा जा रहो कि 'पूछो मत, मानो!' 'सोचो मत, सिर्फ़ अनुकरण करो' और अनुकरण भी किनका, जिन्हें स्वयं मालूम नहीं कि वे कहाँ जा रहे हैं। 'अंधे अंधा ठेलिया, दोनों कूप पंड़त वाली हालत हो गई है। मानो एवं' अनुकरण करो' की शैली के कारण ही हम अपनी विरासत की पुनर्व्‍याख्या नहीं कर पा रहे हैं। यह मानने में क्या दिक्कत है कि हमारी बौद्धिक संपदा का बहुत बड़ा हिस्सा अमानवीय तथा द्वेष से भरा हुआ है। उसे ख़ारिज़ क्यों नहीं किया जाना चाहिए! उसे जाना जाए तो इसलिए कि हमें अपने सामाजिक एवं आर्थिक विकास की प्रक्रिया कि जानकारी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में हो सके, नाकि इसलिए कि हम विरासत के उस गले-सड़े हिस्से को ही अपना वर्तमान मानने लगें। हम क्यों नहीं पुनर्व्‍याख्‍या करते। क्या यह नहीं माना जा सकता कि ब्रह्म कोई ईश्वरीय सत्ता न होकर एक प्रजातांत्रिक संस्था भी हो सकती है कि ब्रह्म द्वारा नियुक्त किए गए कुछ प्रवक्ता संभवतः ब्राह्मण कहलाए हों जैसे कि आज हम पत्रकार के रूप में देखते हैं। यानी, आधार कर्म रहा, जन्म नहीं। पुनर्व्‍याख्‍या बेहद ज़रूरी है या फिर नई व्यवस्था।

'अनुपस्थित की खोज' ही क्या साहित्य का एक महत्‍तवपूर्ण कारक नहीं है। जो है और जो साफ़-साफ़ दिखता है, उसे उसी तरह से शब्दों में भर देना ही साहित्य है क्या? अगर यह साहित्य है तो रपट क्या है? पत्र क्या है? बातचीत क्या है? ज़ाहिर है जो दिखने की सतह के नीचे है पानी जो अनुपस्थित है, लेकिन है, उसी अनुपस्थित का होना या रूपायन ही किसी लेखन को साहित्य के दायरे में ले जाता है। यह ढूँढ़ना ही साहित्य है। यह खोज, जितनी भी हो सके, जितने भी नज़रियों से, वही साहित्य बनता है।

साहित्य क्यों अन्य सभी कलाएँ भी तो एक रचना का स्वयं पाठ और फिर उसका किसी अभिनेता द्वारा किया गया पाठ और फिर उसका रंग-टोली द्वारा प्रस्तुत किया गया पाठ साफ़-साफ़ सामने ला देगा कि उस रचना में उपस्थित-अनुपस्थित को सामने लाने की कोशिश ही साहित्य का निर्माण करती है।

साहित्य कभी पूरा नहीं होता। संभव ही नहीं है। पिछले दिनों हिन्दी अकादमी द्वारा चेन्नई में आयोजित एक बहस में यह विषय रखा गया था कि 'क्या हिन्दी साहित्य अधूरा है' जिस पर मेरी सहज प्रतिक्रिया यह थी कि हिन्दी साहित्य क्यों, विश्व की किसी भी भाषा का साहित्य अधूरा है और यहीं क्यों रुकें, विश्व की सभी भाषाओं के साहित्य को इकट्ठा कर दीजिए, तब भी साहित्य अधूरा है। जिस दिन हम मान लेंगे कि साहित्य लेखन पूरा हो चुका तो फिर लिखने का कारण ख़त्म हो जाएगा। तब इतना सब क्यों लिखा जा रहा है। कह सकते हैं पिष्ट-पेषण हो रहा है। ऐसा भी हमेशा होता है, फिर भी कहीं अनुपस्थित है, कहीं कुछ अलक्षित भी है, तभी तो बार-बार व्यक्ति साहित्य की अनंत यात्राओं पर निकलता है।

प्रश्न यह हो सकता है कि जो लिखा जा रहा है, उसमें जैनुइन कितना है, नक़ल कितना? साहित्य कितना? साहित्याभास कितना? वस्तुतः यह विषय ही एब्सर्ड था। पर फिर यह भी ख़्याल आता है कि जीवन में भी तो एब्सर्डिटिस हैं न! उसे भी खोजना, समझना, उसके पीछे निहित मंशाओं को रेखांकित करना भी अनुपस्थित की खोज है। यही खोज हमें महिला लेखन की ओर प्रवृत्त करती है, यही खोज दलित लेखन को जन्म देती है। यही खोज हमें अब तक अलक्षित दिशाओं की ओर ले जाएगी। 'वेटिंग फार गोदो' का इंतज़ार कभी ख़त्म नहीं हो सकता।