अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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सैरी के टिड्डे की गीत-लहरियाँ वायु में कम्पन उत्पन्न कर रही थीं।

बस उसे उतार कर सर्पाकार सड़क पर आगे बढ़ गई है। छः घण्टे की यात्रा यों ही कट गई। उसे यह जान कर प्रसन्नता हुई कि पठानकोट से जैसिंहपुर तक सीधी बस चलने लगी है। रास्ते में आलमपुर से थोड़ा आगे उसका गांव पड़ता है। अब उसे एक कन्धे पर एअर बैग लटका कर तथा दूसरे हाथ में अटैची केस पकड़ कर एक के बाद दूसरी खड्ड पार नहीं करनी पड़ेगी। फिर कहीं अन्दर से आवाज आई थी- बिना पुल के खड्ड पार करने में जिस प्रकार की आत्मीयता की अनुभूति होती है, वह बस में बैठ का फुर्र से खड्ड पार करने में कहां।

वह क्षण-भर के लिए ठिठक गया है। धान के पके हुए खेत चिरपरिचित से लगे। मन होता है कि दौड़ कर चील के जंगल में खो जाए। नीचे मौल खड्ड के किनारे पर पाप कार्न की भांति बिखरे हुए घर अच्छे लगे। संगतरे का बगींचा। उसके पास ही तीन कमरों का छोटा सा घर। उसी में वह रहती है। शैलजा उस दिन बहुत गम्भीर थी। यों तो गाँव में युवक-युवतियों का बातचीत के लिए अवसर जुटा पाना कठिन ही होता है उस दिन तो वह उसके घर ही पहुंच गई थी। माँ के सामने उसे आया देख प्रीतम को संकोच हुआ था।

वह चुप बैठी थी। माँ ने ही मौन भंग किया था, ‘‘शैल तुम उदास क्यों हो? ’’ ‘‘प्रीतम जा रहा है? ’’माँ की बात को अनसुनी करते हुए उसने अपने मन की बात कह दी थी। उसे उसकी उद्विग्नता अच्छी लगी थी लेकिन अभी वह बोला कुछ नहीं था। ‘‘वह पढ़-लिख कर जल्दी ही लौट आएगा। तुम्हें तो खुश होना चाहिए। इन गाँवों में से पहली बार कोई इतनी दूर पढ़ने जा रहा है। ’’फिर सहज स्वभाव माँ ने कहा था, ‘‘प्रीतम, लौटते समय इसके लिए भी कोई बढ़िया सी चीज लेते आना।’’ ‘‘लेकिन मेरी मुर्गियों का क्या होगा? ’’अनमनी शैलजा ने पूछा था।

तब वह बी. एस-सी. (कृषि) में पढ़ता था। कालेज के मुर्गी-पालन केन्द्र से उसने कुछ चूजे तथा मुर्गियाँ हकीम जी के कहने पर ला कर दी थीं। मुर्गियों को बीमारी से कैसे बचाया जाये, खुराक में कौन-कौन से अंश आवश्यक हैं, आदि बातों के लिए वह परामर्श लिया करती थी। ‘‘तुम्हारी मुर्गियां मेरे जाने के बाद भी अंडें देती रहेंगी। ’’इस बार वह बोला था। सभी खिलखिला कर हँस पड़े थे।

आकाश में छिटपुट पक्षी तेजी से अपने घोंसलों की ओर दौड़ रहे हैं। उसका मन हुआ कि वह दौड़ कर शैलजा को देख आए। अब वह पतली दुबली नहीं होगी। उसका शरीर भर गया होगा- ठीक वैसे ही जैसे जुलाई मास में मौल खड्ड ठाठें मारने लगती है। पतली-दुबली शैलजा जब बौड़ी से पानी भरने आतीं थी, तो दो-दो घड़े उठाए चढ़ाई चढ़ती हुई कितनी सुन्दर लगती थी। मोटी औरत दो-दो घड़े उठाकर उस फुर्ती से ऊपर नहीं पहुंच सकती। उसका साँस फूल जाएगा।

संगतरे के बगीचे के पास वाला घर उभरने लगा है।

उसका मन हुआ कि जोर से उसका नाम लेकर पुकारे परन्तु वह झेंप गया। इस समय शैलजा क्या कर रही होगी? शायद खाना बना रही हो। उसके हाथ के बने ऐंकलू कितने स्वादिष्ट होते हैं। सोचकर उसकी लार टपकने लगी। कभी-कभी वह चिढ़ाने के लिए घमीरड़ियां तोड़ कर फैंक देती थी। वह उठा का चख लेता था। कैसा अजीब खट्टा होता हैं। उसे लगा दांत खट्टे हो गये हैं।

शायद वह अपनी माँ की पीठ दबा रही होगी। अजीब हकीम है उसका पिता जो अपनी पत्नी का उपचार नहीं कर सकता। शायद अब तक वह स्वस्थ हो गई होगी। उसे अपनी बुद्धि पर हंसी आई। वह पाँच साल पहले की बात को उसी दृष्टि से देखता है।

यदि वह अभी चली जाए तो वह कितनी प्रसन्न होगी परन्तु अपनी पुरानी आदत को छोड़ देगी। वही मौन अभिवादन होगा, मौन संकेत कि चुपचाप चले जाओ, नहीं तो ये लोग कुछ और ही समझ लेंगे। सोच कर वह हंस दिया है।

मौल खड्ड के उस पार वाली ऊंची पहाड़ी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर दिन भर चरने के बाद भेंड़ें मोतियों की लड़ी सी बनती हुई नीचे सरकती चली आ रही हैं। ‘ हुआ’, ‘हुआ’ की ध्वनि करते हुए सियार उसके पास से गुजर गए।

अपना अटेची केस तथा एयर बैग उठा कर वह तेजी से चलने लगा है। सेठ झौंपी अपनी दुकान पर बैठा सिगरेट पी रहा है। पहले वह हुक्का गुड़-गड़ाया करता है और घंटों उसके अनुभव सुना करता था- किस प्रकार एक अंग्रेज उसका दोस्त बन गया था, कैसे उसने अकेले ही चीते को मार गिराया था आदि। जिस आदमी का जीवन घर से दूकान से घर तक सिमट कर रह गया हो, उसके मुख से शिकार की बातें सुनकर उसे हंसी आती थी परन्तु झौंफी की बातचीत इतनी रोचक होती थी कि कम आयु के लड़के उसकी बातों को सच मान लेते थे।

लेकिन अब वह आंख बचा कर उसकी दूकान के पास से निकल गया है। उसे अजीब प्रकार का संकोच होने लगा है। वह बाईं ओर पत्थर की पगडंडी पर मुड़ गया है। नंग-धड़ंग बच्चे खेल रहे हैं। इन्हें ठण्ड नहीं महसूस होती, वह सोचता है। इधर-उधर के घरों से कुछ आंखें उसे घूरने लगीं हैं। वह आंखें नीची किए चुपचाप आगे बढ़ गया हैं। अब पत्थर की बनी सींढ़ियां उतरने लगा है।

चंपा अब भी खूंटे पर बंधी है। उसने आगन्तुक की ओर देखा है। उसकी आंखें सिकुड़ गई हैं। प्रीतम को उस पर दया आती है। यह भी कोई बात है कि निरीह पशु को स्वार्थ के लिए सारी उमर खूंटे पर बांधें रखो। उसका मन हुआ कि वह चंपा को मुक्त कर दे परन्तु नहीं..... वह मुक्त कर भी देगा तो भी वह खूंटे से ही बंधी रहेगी, कोई और बांध लेगा।

समय के आवारण को भेद कर घर की प्रत्येक वस्तु से एकाकार हो जाने के लिए वह लालायित हो उठा है। धीमे से अपना सामान रख कर वह रसोई में झांकने लगा है।

माँ रसोई में बैठी कुछ सोच रही है। शायद मेरे विषय में ही। मुझे कल यहां पहुंचना था। आज महेश के पास दिल्ली ठहरने का विचार था। परन्तु ठहर नहीं सका, ठहर ही नहीं सकता था। मन तो कुलांचे भरता था घर पहुंचने के लिए, माँ से लिपटने के लिए और..... औैर.... महेश तो आने ही नहीं देता था। कहता था- मान लिया तुम उद्यान-विज्ञान में डाक्ट्रेट कर आए हो, ओटावा हो आए हो परन्तु हमंे भी वहां की सैर करवाओ। सचमुच न सही, कम से कम बातों में तो करवा ही डालो। बात तो उसकी भी ठीक ही थी परन्तु यहाँ आने की आतुरता, माँ को चौंकाने की इच्छा। दिल्ली कौन सी दूर है- कभी फिर हो जाऊंगा। उसकी आँखों के आगे किसी गद्दिन का चित्र तैर गया है, जो यौवन में डट कर काम करती रही हो और अब उसकी गालों पर सलवटें चमकने लगी हों। माँ ने पांच वर्ष में बीस यात्रा तय कर ली हैं।

कोयला तिड़क गया है। चिंगारी माँ के कपड़ों पर जा गिरी है। माँ का ध्यान टूट गया है। प्रीतम को अचानक आया देख कर उसकी आँखें खुशी से फैल गई हैं। ‘‘माँ, चरण वन्दना,’’ कह कर वह माँ के चरणों में झुक गया है। ‘‘क्यों रे, कितनी देर से खड़ा है यहां?’’ ‘‘बस दो चार मिनट से। मैं तुम्हें सहज मुद्रा में जी भर देख लेना चाहता था।’’ थोड़ा रूक कर मुस्कराते हुए उसने फिर कहा,’’ माँ, तुम समाधि कब से लगाने लगी हो?’’ ‘‘जिस दिन से तुम्हारा पत्र मिला है, मैं तो उसी दिन से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं। अच्छा हुआ तुम आ गए।’’ प्रीतम माँ को अपनी आँखों में समेट लेना चाहता है। ‘‘सत्या, ओ सत्या। प्रीतम आ गया है।’’ उसने महसूस किया कि सत्या को पुकारते हुए माँ की आवाज़ धंसती जा रही थी। अन्दर से कोई आवाज़ नहीं आई। उसे यह जान कर खुशी हुई कि सत्या आई हुई है। वह कितनी खुश होगी।

माँ ने उसे गले नहीं लगाया। उसे दुख हुआ। कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है। शायद मेरा ही भ्रम है। अब तो माँ को चिन्तामुक्त होना चाहिए। खुश ही होंगी। शायद सारा दिन काम करते थक गई है। जब वह माँ को चैक-बुक देगा तो माँ कहेगी- यह भी कोई चीज़ है। फिर मुझे हंसी आएगी और मैं कहूंगा- माँ, इससे जो चाहो खरीद सकती हो। चाहो तो नया सा बंगला बनवा लो। चाहो तो सोने की चूड़ियां ही बनवा लो। तुम्हारी चूड़ियां ही तो थीं, जिन्होनें मुझे उच्च शिक्षा के लिए विदेश भिजवा दिया।

माँ चुप बैठी है। अंगीठी पर चाय के लिए पानी रख दिया है। प्रीतम को मौन अच्छा नहीं लगता। रसोई में इधर-उधर नज़र दौड़ाता है। शिवजी की मूर्ति अब भी वहीं है। धूप जल रही है। माँ की गम्भीरता को तोड़ने के लिए उसने कहा,‘‘ माँ, तुम अभी तक शिवजी की पूजा करती हो।’’ ‘‘ क्यों रे, तू अपने भगवान को भी भूल गया। जाने से पहले तो तू भी यहीं माथा टेका करता था।’’

वह हंस दिया है। उसे याद है, वह कहा करता था- माँ, तेरे शंकर भगवान मुझे विदेश भिजवा दें तो देखना यहाँ कितनी बड़ी, सुन्दर सी मूर्ति रखवा दूंगा। उसे अपनी ही बात पर संकोच होता है। माँ प्रायः कहा करती थी- विश्वास के बिना जीवन में है ही क्या। जीने के लिए कोई न कोई आधार तो आवश्यक है। माँ अधिक पढ़ी-लिखी नहीं परन्तु मन्त्र आदि सब याद हैं। शायद यह संस्कार परम्परा के रूप में उसे मिले हैं। माँ के विश्वास को नकारा नहीं जा सकता- वह सोचता है।

उसे याद आया वह दिन जब भारतीय साध्वियों की वेश-भूषा में कुछ एक पश्चिमी लड़कियां उसके पास आई थीं। वे कितनी भोलीं तथा भली लग रही थीं। बड़े श्रद्धा-भाव से उनमें से एक ने पूछा था, ‘‘ आप भारत से आए हैं? ’’ ‘‘जी हां।’’ ‘‘किस प्रान्त से?’’ ‘‘हिमाचल से।’’ ‘‘जिसे देव भूमि भी कहते हैं।’’ ‘‘समग्र भारत ही देव भूमि है, एक इकाई में बंधा हुआ।’’ उसे उनके ज्ञान पर आश्चर्य हुआ था। साथ ही इस बात पर दुख भी कि वह स्वयं इस विषय में अधिक स्पष्ट नहीं था। परन्तु शीघ्र ही उसके मन ने उसकी बात का समर्थन कर दिया था। ‘‘आपने देख लिया है कि यहाँ धन की कमी नहीं परन्तु फिर भी हमारा मन शांत नहीं रहता। हमें अपने अस्तित्व की व्यर्थता, उद्देश्यहीनता सदा कचोटती रहती है। भारत के धर्म हमारे लिए आशा की किरण है। हम भगवान राम तथा कृष्ण के विषय में जानना चाहती हैं’’- बड़े ही भाव-भीने स्वर में उन्होंने कहा था। धर्म में इतना विश्वास न होते हुए भी उसने उन्हें विस्तार से राम तथा कृष्ण की जीवन-गाथाएं सुनाई थीं। अधिक ज़ोर उसने इस पक्ष पर दिया था कि वे महा-पुरुष थे, उनका जीवन आदर्श था, वे परमार्थ के लिए अवतरित हुए थे।

फिर तो वे लड़कियाँ प्रायः उसके पास आतीं। धर्म चर्चा करतीं तथा सन्तुष्ट होकर लौटतीं। प्रीतम को कुछ कचोटने लगता। वह आत्मा-विश्लेषण करने पर विवश हो जाता। भगवान? है भी नहीं, कौन जाने? पश्चिम के लोग पूर्व से शांति ढूंढते हैं किन्तु पूर्व वाले कहां जाएं। विज्ञान में नया विश्वास नहीं दिया परन्तु जो विश्वास का आधार था, उसे छिन्न-भिन्न अवश्य कर दिया है। माँ कहती है- जीवन में विश्वास के बिना है ही क्या। शायद ठीक ही कहती है। ऐसा सोचता है तो संशय का ज्वार-भाटा क्षण भर के लिए शान्त हो जाता है।

माँ उस की ओर देख रही है। वह अपने विचारों में खो गया है। माँ ही बोलती है, ‘‘बेटा चाय पी लो।’’ ‘‘मैं सत्या को बुला लाऊं।’’ कह कर उसने अपना सामान उठाया तथा अन्दर चला गया। सत्या चारपाई पर लेटी शून्य आंखों से छत को घूर रही है। पास ही बच्ची दुबकी पड़ी है। प्रीतम के निकट पहुँचने पर भी सत्या ने उसकी ओर नहीं देखा। उसे अपनी अनुपस्थिति का अहसास हुआ। ‘‘उठो बहन जी। अभी से सो कर रात कैसे निकलेगी।’’ प्रीतम ने कहा। ‘‘डैडी,’’ बच्ची ने पुकारा।

‘‘डैडी तेरा भाड़ में।’’ सत्या ने अपनी पुत्री को डाँटा।

प्रीतम ने बच्ची को उठा लिया। बच्ची ने घूर कर अपने मामा की ओर देखा। वह अपनत्व पा कर शीघ्र ही सहज हो गई। ‘‘माँ तो कहती है मैं गन्दी हूं।’’ भोलेपन में बच्ची ने कहा। सत्या ने पहले बच्ची की ओर देखा, फिर प्रीतम की ओर देखकर बोली, ‘‘तो मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा।’’ ‘‘कोई आए या जाए मुझे क्या?’’ ‘‘चल बेटा। तू थका हुआ है। चाय पी ले। यह तो पगली है।’’ माँ ने प्रीतम के कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा। सत्या की आँखें अग्नि बरसाने लगीं। प्रीतम चाय की चुस्कियां ले रहा है परन्तु रस नहीं आ रहा। कहता है, ‘‘माँ, बस सूखी चाय।’’ ‘‘चाय भी कभी सूखी होती है। मैं जानती हूं तुम्हारा मन ऐंकलू खाने को हो रहा होगा। इधर बहुत देर से कभी कुछ बनाया ही नहीं। बनाती भी किस लिए। अब जो तू कहेगा, बनाऊंगी।’’ ‘‘माँ, विदेश में तो मैं तरस गया तुम्हारे हाथ की बनी चीजें खाने के लिए। एक बार हम ऐंकलू बनाने लगे थे परन्तु बने ही नहीं। बन भी जाते तो भी क्या मजा आता। वहां प्रायः ठण्डा दूध पीते हैं, बिना मीठा ड़ाले।’’ ‘‘तब तो तुम्हें बड़ी कठिनाई हुई होगी।’’ ‘‘नहीं, धीरे-धीरे वैसी ही आदत बन गई।’’ बच्ची बैठी मामा की बातें सुन रही है। गाए रम्भाने लगी है। मां उठकर बाहर चली गई है। वह मां से शैलजा के विषय में पूछना चाहता है परन्तु बात करने के लिए कोई सूत्र ही नहीं मिलता। सीधे बात पूछने में उसे संकोच होता है। मन तो है कि अभी दौड़ कर उसे मिल आए किन्तु मां क्या सोचेगी।

वह उपस्थित होकर भी अनुपस्थित महसूस करता है। उस दिन वह मौल खड्ड में हनुमान जी के मंचाकार पत्थर पर बैठा था। शैलजा खड्ड में बैठकर कपड़े धो रही थी। प्रीतम उसके रूप वैभव का निखर रहा था। वह भी कभी कभी आंख बचाकर उसकी ओर देख लेती थी। प्रीतम उसे चिढ़ाने के लिए गुनगुना उठता- अगाडुआ पछाडुआ तू कजो झाकदी। वह गुस्से होने का अभिनय करती। उसके गाल कोटगढ़ के सेब की तरह रक्तिम हो उठते। फिर वह प्रीतम को दिखा कर अपने छोटे भाई की ओर संकेत करती।

‘‘तुम उठो जी। मैने यहां कपड़े फैलाने हैं। पत्थर कोई तुम्हारे घर वालों ने ला कर नहीं रखा है।’’ वह बोली थी। ‘‘तो हकीम जी ने ला कर रखा है?’’ फिर वह धीमे स्वर में बोली थी, ‘‘कोई आ गया तो गांव में यों ही चर्चा होने लगेगी।’’ चर्चा की बात से प्रीतम को गुदगुदी हुई थी। वह भी चाहती तो है। कहीं यों ही तो उल्लू नहीं बना रही। मन ने कहा- नहीं, उसके मौन संकेत झूठे नहीं हो सकते। उसे आत्मीयता अनुभव हुई थी। वह वहां से उठ कर चला गया था। थोड़ी दूर पर खड्ड के किनारे एक चील के वृक्ष के नीचे बैठा शैलजा को निहारता रहा था। ‘‘बेटा तुम कपड़े बदल लो। इतनी देर में मैं रोटियां पका लूं।’’

‘‘पकाती रहो रोटियां। कुछ और भी सीखा है?’’ सत्या बोल रही थी। ‘‘साग की भुज्जी बना ली है। थोड़े पत्तरोड़े भी पड़े हैं। कुछ और खाना हो तो बोलो।’’ मां ने सत्या की ओर ध्यान न देकर प्रीतम से पूछा। ‘‘ठीक है मां।’’ ‘‘क्या ठीक है? यहां कुछ ठीक नहीं होता। दुनिया को आग क्यों नहीं लग जाती। ये इतने जंगल खड़े हैं, कभी आग नहीं लगती। जिस दिन आग लगेगी, मैं उस दिन नहीं नाचूंगी।’’ सत्या कह रही थी। ‘‘तू भी मर जाएगी फिर।’’ ‘‘मैं तो उस दिन मर गई थी जिस दिन उस ‘मुए’ के साथ भेज दिया था मुझे.... अब तो एक ही इलाज है, आग। जितने भी पुरुष दूसरों के कानों से सुनते हैं, उन सब का स्वाहा हो जाएगा। मैं उन लागों की राख को इकट्ठी कर के न्युगल तथा मौल खड्ड के संगम में बहा आऊंगी।’’ प्रीतम ने गहरा निश्वास लिया।

सत्या ने चंपा को पुचकारा तथा कहने लगी, ’’वह मुझे छोड़ गया। कहता है तुम पतित हो चुकी हो। भला पति के बिना भी कोई पतित हो सकता है। बड़ा मेजर बना फिरता है। तीन साल के बाद घर आया। मैंने आंखों का तेल डाल मन का दीप जलाया, हाँ, हां आंखों का तेल डाल कर....... जानती हो उसने क्या कहा। कहता है- तुम जुल्फी को जानती हो? मैंने कह दिया- हां, जानती हूं। गांव के सब लोगों को जानती हूं। फिर बोला हूं। तुम जुल्फी को जानती हो। पागल कहीं का। बड़ा बना फिरता है। जो किसी ने कह दिया सो मान लिया।’’

‘‘अरी चंपा। तू तो बोलती ही नहीं। बोल भी न। तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है? जरूर हुआ होगा। कोई बच सकता है भला? आग लग जाए तब ठीक होगा। प्रीतम को तो कुछ पता नहीं, यों ही हर बात को ठीक कह देता है।’’

माँ असहाय दृष्टि से प्रीतम की ओर देखती है। प्रीतम के मस्तिष्क में आतिशबाजियां चलने लगी हैं।

यहाँ विवाह हो जाता है परन्तु जरा सी गड़बड़ हुई नहीं कि दाम्पत्य जीवन क्षण भर में बिखर जाता है। समझने की कोई कोशिश नहीं करता। यहाँ एड-जस्टमेण्ट को झुकना समझा जाता है। विदेश में पति-पत्नी की न बने तो दोनों एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। कोई बखेड़ा नहीं करता। शायद मैं गलत सोच रहा हूं। वहां और बुराइयां हैं। पैसा ही सब कुछ है। प्रेम.... प्रेम तो शायद होगा ही। उसकी आंखों के आगे डेजी का चित्र उभर आया हैं।

तब वह ओटावा में था। वह डेजी के घर ‘पेइंग गेस्ट’ बन कर रह रहा था। वह उसे प्रायः कहा करती थी- तुम बहुत सुन्दर हो। भावकुता में बह का वह और भी बहुत कुछ कह जाती थी परन्तु प्रीतम को सदा संकोच होता था। फिर एक दिन डेजी ने ही प्रस्ताव रखा था- डेटिंग का प्रोग्राम।

वह झेंप गया था। परन्तु अनुभव मात्र के लिए उसने हाँ कर दी थी। वह कई घण्टे तक उसके साथ रहा था। ‘‘तुम्हारी राशि ‘विरगो’ (कन्या) है न। तुम बहुत भाग्यशाली हो। मैं राशि में बहुत विश्वास रखती हूं। क्यों न हम दोनों शादी कर लें।’’ ‘‘मैं?’’ वह चौंक पड़ा था। ‘‘मैं देश-विदेश नहीं मानती।’’ प्रीतम को चुप देखकर वह फिर बोली थी, ‘‘क्या मैं अच्छी नहीं हूं?’’ ‘‘डेजी, मैं किसी और से प्रेम करता हूं। वह दूर भारत में मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी।’’ अपराध भावना महसूस करते हुए उसने कहा था। ‘‘तो तुम्हें मेरे साथ ‘डेटिंग’ का प्रोग्राम नहीं बनाना चाहिए था।’’ उसने शिथिल स्वर में कहा था। सैरी के टिड्डे की ट्रीं ट्रीं अब भी सुनाई दे रही है। सत्या चुप लेटी है। प्रीतम खाना खा रहा है। छोटी बच्ची भी छोटे-छोटे ग्रास मुंह में डालने लगी है। थोड़े चावल मिल जाते, अरहर की खट्टी दाल होती और पलदा होता तो कितनी अच्छी बात थी। उसका मन बहुत सी चीज़े खाने को हुआ- जैसे पहले कभी कुछ देखा ही न हो। माँ गुमसुम बैठी है। उसने एक ग्रास तोड़ कर माँ के मुख में डाल दिया है। माँ के चेहरे पर हंसी बिखर गई है। ‘‘आज तो तू खिला रहा है, कल तू नौकरी पर चला जाएगा। फिर कौन इतने प्यार से मेरे मुख में ग्रास डालेगा?’’ माँ की आँखें सजल हो आई हैं। ‘‘माँ, मैं अब कहीं नहीं जाने का।’’

प्रीतम ने अपनी माँ के चेहरे पर आए भावों को पढ़ लिया है। उसके पिता की आकृति उसकी आँखों केे आगे तैर गई। वह कांप-कांप गया। शैलजा से प्रथम मिलन जिन परिस्थितियों में हुआ, उन्हें वह कभी नहीं भूल सकता। तब वह दसवीं में पढ़ता था। उस साल बहुत बारिश हुई थी- लोग कहते थे- इस बार ‘कुरला’ ‘कुरली’ उठने का नाम ही नहीं लेते। उसका मन हुआ था कि ‘कुरला’ ‘कुरली’ को देखे परन्तु प्रयत्न करने पर भी देख नहीं पाया था। फिर सोचा था- शायद ये कल्पित पक्षी हैं, जो बारी-बारी नौ-नौ दिन बैठते है। उतने ही लगातार बारिश होती रहती है।

उस दिन उसके पिता जी बारिश में खेतों में काम करते रहे थे। कहीं बाँध लगाना था, जो कहीं पानी को निकालने के लिए रास्ता बनाना था। थके हारे जब सांय घर लौटे तो आते ही पशुओं को चारे का प्रबन्ध करने लगे। कमरें में दीपक की मन्द रोशनी थी, बिजली अभी तक गांव में नहीं पहुंची थी। अचानक उसकी चीख निकल गई थी। वैसे तो खेतों में अनेक बार साँप निकलते थे, मिलते थे- उन्हें उसके पिता आसानी से मार देते थे परन्तु आज कोई गलसाट नहीं थी बल्कि खड़पा था और फिर आज उन्हें दो-दो हाथ होने का अवसर ही नहीं मिला था। उसका पाँव साँप पर टिक गया था। माँ ने कस कर घाव से थोड़ा ऊपर रस्सी बाँध दी थी। उनका रंग नीला पड़ता जा रहा था।

तब वह दौड़ा-दौड़ा गया था बसोंटी वाले हकीम जी के पास। बड़ी ही मुश्किल से वह सारी बात हकीम जी को बता पाया था। उसकी आँखों में आंसू देखकर हकीम जी ने ढाढस बंधवाया था। शैलजा ने सारी बात सुन ली थी। उसने प्रीतम को दयार्द्र आँखों से देखा था। शायद उसी समय दोनों में आकर्षण कर सूत्रपात हुआ था परन्तु नहीं- वह तो दया का भाव था, सहानुभूति थी। मृत्यु सब को निकट ला देती है। जड़ी-बूटियां तथा दवाई लेकर हकीम जी चलने लगे तो शैलजा ने कहा, ‘‘पिता जी, मैं भी साथ ही चलती हूं। वापिसी पर आप को देर हो सकती हैं।’’ हकीम जी ने उसके प्रस्ताव का विरोध नहीं किया था।

प्रीतम की निगाह उड़-उड़ का अपने गांव पहुँच जाती। शैलजा ने कहा था- घबराइये नहीं। भगवान सब ठीक करेगा। प्रीतम ने कृतज्ञता भरी दृष्टि से शैलजा की ओर देखा था। थोड़ी दवाई देने के बाद हकीम जी उसके पिता को थोड़ी-थोड़ी बूटी खिलाने लगे थे। साथ ही साथ वह उसका स्वाद भी पूछते जाते थे। परन्तु कड़वी जड़ी-बूटियां मीठा ही स्वाद देती रहीं।

अनेक प्रयत्न करने के बाद भी हकीम जी प्रीतम के पिता को नहीं बचा सके। याद आते ही प्रीतम काँप उठा है। माँ वैसे ही चुप बैठी है। आज पिता जी जीवित होते तो कितने खुश होते। गांव भर में मिठाइयां बाँटते और बार-बार सबको बतलाते- मेरा बेटा कनाडा हो आया है। पी-एच.डी. की डिग्री लेकर आया है। इतना योग्य है कि सरकार ने विदेश में ही नियुक्ति पत्र भेज दिया। एसे बड़ी नौकरी मिल गई है। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसने खाना खा कर हाथ धो लिए। सत्या अभी लेटी हुई है। माँ भी किसी चिन्ता में डूबी बैठी है। अपने ही घर में अपने आपको अजनबी महसूस करता है। माँ की आँख बचाकर उसने कच्ची मिट्टी की दीवार को स्पर्श किया है। उसके हाथ में बुढ़िया सी मिट्टी आ गई, छत के स्लेट भुरभुरे जान पड़े। कहीं-कहीं छत से तारे झाँक रहे हैं। कहीं से सीलन की बू आई और उसके नथुनों से चिपक गई। उसने घुटन को कम करने के लिए लम्बे-लम्बे साँस लेने शुरू कर दिए। फिर एकदम उठा तथा अटैची-केस खोल कर बैठ गया। वह अभी अपने साथ अटैची-केस तथा एअर बैग ही लाया है। बाकी सामान समुद्री जहाज़ से आ रहा है। फिर कस्टम के लिए उसे जाना होगा। शायद तब तक वह नौकरी पर चला जाए परन्तु...

‘‘बेटा’’ धीमे स्वर में उसकी माँ बोली। ‘‘हां माँ।’’ ‘‘सत्या की बिटिया के लिए कुछ लाए हो?’’ माँ नहीं चाहती थी कि सत्या को उसकी बात सुनाई पड़े। ‘‘हां मां। उसके लिए भक् भक् कर दौड़ने वाली गाड़ी लाया हूँ। कुछ रंगबिरंगी फ्राकें भी।’’ माँ की आँखों में चमक आ गई। बच्ची गाड़ी से खेलने लगी है। ‘‘खेल बेटे, खेल। गाड़ी तुम्हें गढ़े में ले जाएगी। खड्ड में धड़ाम गिरना......’’ सत्या अपने आप से कहे जा रही है। बच्ची ने अपनी माँ की बात को नहीं सुना है। प्रीतम का मन हुआ कि माँ से शैलजा के बारे में पूछे। शैल इस समय तक सो गई होगी। शायद बुनाई का काम कर रही हो। उसे उसकी मुर्गियों का ख्याल हो आया। परन्तु मेरी मुर्गियों का तो बहाना था। शायद उसने अपने विषय में ही चिन्ता प्रकट की थी। स्पष्ट रूप से वह कह भी कैसे सकती थी। जाने से पहले भी वह एक दिन मिली थी- मेले में देहरू के पीपल के नीचे। उसने मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया था। मैंने ही उसे बुलाया था, ‘‘शैल, तुम मुझ से नाराज हो?’’ ‘‘मैं क्यों होने लगी नाराज़।’’ ‘‘तो फिर बात क्यों नहीं करती?’’ ‘‘मेरी बात अब तुम्हें कहां अच्छी लगेगी। मैं तो गांव की रहने वाली और तुम्हारे मन में अब फुर्र फुर्र अंग्रेज़ी बोलने वाली गोरी-चिट्टी मेमें घूमती हैं। इसीलिए अब तुम कभी दिखाई नहीं देते।’’ ‘‘मेरी मेम तो तुम ही हो।’’ प्रीतम ने धीमे से उसे कहा था। सुनते ही वह वहाँ से गायब हो गई थी। उसने एक गुलाबी रंग की साड़ी निकाली तथा माँ को थमा दी। ‘‘अरे यह रंग बूढ़ों के पहनने का है।’’ माँ ने खुल कर कहा। ‘‘माँ, कोई बूढ़ा नहीं होता। यह तो मन की बात हैं।’’ ‘‘बूढ़ा कोई नहीं होता परन्तु दुनियाँ सभी को बूढ़ा कर देती है। देखो मैं माँ से पहले बूढ़ी हो गई हूं।’’ सत्या उठ आई थी। प्रीतम ने ध्यान से अपनी बहन को देखा। नाम वही है, शक्ल वही परन्तु यह पाँच बर्ष पहले वाली सत्या नहीं। उसे अजीबपन का अहसास होता है। उसने माँ के हाथ में ढेर से नोट पकड़ा दिए और हंस कर कहा, है ‘माँ, अब जो चाहो खरीद सकती हो।’’ ‘‘तू लौट आया है, मेरे लिए यही नोट हैं। अब मैं अकेली नहीं हूं।’’ माँ फिर किसी सोच में डूब गई है। वह शैलजा के बारे में पूछना चाहता है। उसने अटैची-केस से एक डिबिया निकाली है। उसमें एक सुन्दर सी अंगूठी है शैलजा के लिए। उसे संकोच होता है। वह डिबिया को छिपाने का प्रयत्न करता है। ‘‘माँ’’- उसने कहना चाहा परन्तु उसका स्वर दब गया है। ‘‘अंगूठी लाए हो।’’ वाक्य लटका कर सत्या ने कहा। उसने प्रीतम को पकड़ लिया था। ‘‘क्या?’’ माँ पूछती है। ‘‘अंगूठी।’’ सत्या ही बोलती है। ‘‘किसके लिए?’’ थोड़ा-थोड़ा समझते हुए भी माँ पूछ ही लेती है। ‘‘माँ उसी के लिए।’’ हर्षतिरेक के कारण वह वाक्य पूरा नहीं कर पाया फिर माँ की ओर देख कर बोला,‘‘ जिसके लिए तुमने सिफारिश की थी। माँ चौंक पड़ी है।

‘‘सोने की अंगूठी है न। कोई भी ले लेगी। रोनी सी सूरत बनाने की क्या जरूरत है?’’ सत्या ने अपनी दार्शनिकता बघार दी। किसी पत्थर के लुढ़क कर खड्ड में गिरने की आवाज हुई। ‘‘माँ देखो भी न। शैलजा कैसी है?’’ प्रीतम से अब रहा न गया। ‘‘बेटा, वह तो चली गई।’’ माँ ने संकेत भर कर देना उचित समझा।’’ ‘‘कहां चली गई? क्यों चली गई?’’ उसने चिल्लाना चाहा परन्तु स्वर उसका साथ नहीं दे रहा। तो शैलजा चली गई, उसे नहीं जाना चाहिए था परन्तु उसकी सुनी भी किसने होगी।

‘‘यह भी कोई नई बात है। अंगूठी आती किसी के लिए है और ले कोई और जाता है।’’ थोड़ा रूक कर सत्या फिर बोली, क्यों पागल बनते हो? वह नहीं तो कोई और सही।’’

वह अपने आपको अजनबी महसूस करता है। शैलजा की अनुपस्थिति बसोंटी गांव के धुंधियाये चित्र में से उभर-उभर जाती है। किसी पत्थर के लुढ़क कर खड्ड में गिरने की गड़गड़ाहट सियारों की ‘हुआ-हुआ’ की ध्वनि में विलीन हो गई है।