अनुभवी / रमेश बतरा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

— अब यही काम बाक़ी रह गया था ... नसीब जो करवा दे सो ही कम है ... मरज़ी परमेश्वर की, जाने अभी क्या-क्या करना लिखा है नसीब में ...। — बड़बड़ाता हुआ वह फुटपाथ पर खड़ा घनी दुविधा में फँसा हुआ था।

उसे वहाँ खड़े हुए लगभग दो घण्टे हो चुके थे। सुबह-सुबह उसने बड़े कयास के बाद किसी भले घर की सी दिखाई दे रही औरत से भीख माँगी थी तो उसने बुरी तरह फटकार दिया था — साण्ड-सी देह है, मेहनत करके क्यों नहीं कमाता, भड़वे?

वह शर्म से पानी-पानी हो गया था और तब से लेकर अब तक अपनी बेतरह लाचारी के बावजूद , सारे संकोच के लगातार बहते हुए हुजूम में घिरा होने पर भी किसी के आगे हाथ पसारने की हिम्मत नहीं कस्र पा रहा था। अनायास भीदअ में वह एक लड़के को भीख माँगता देखकर चौंक पड़ा। लड़का उसके बेटे की उम्र का था ... और लोग प्रायः उसे कुछ न कुछ दे ही रहे थे।

उसकी नज़र सामने वाले मैदान की ओर उठ गई, जहाँ उसकी बीमार पत्नी और बेटा धूप में लेटे रात भर रग-रग में जमती रही सरदी को पिघला रहे थे। सड़क पर आने से पहले वह उन्हें वहाँ बैठा आया था ताकि वे उसे भीख माँगते हुए न देख सकें। वे साथ रहते तो पत्नी को अपनी जगह तकलीफ़ होती और बेटा अलग से बुरी आदत सीख सकता था ... मगर अब उसे लगा कि हो न हो, बेटे को ले ही आना चाहिए, लोग बच्चों पर तरस भी ज़रा जल्दी खा लेते हैं।

वह जाकर बेटे को ले आया। उसे उसने समझाया कि जैसे वह उससे और अपनी माँ से पाँच-दस पैसे माँगता है, उसी तरह बाबू लोगों से माँगे तो बहुत पैसे मिलेंगे। वह पेट भर मिठाई खा सकेगा।

बेटे के लिए मिठाई सात समन्दर पार की चीज़ थी। वह भागकर एक बाबू के सामने जा खड़ा हुआ, — बाबू साब, दस पैसे दे दो।

— दस पैसे का क्या करेगा, बे?

— भूख लगी है ... मिठाई खाऊँगा।

— इस उम्र में भीख माँगता है?

— वह क्या होती है?

— तेरे माँ-बाप कहाँ हैं?

कुछ ही दूरी पर खड़ा हुआ वह घबरा क्या कि लड़का अब तक तो जवाब देता रहा, लेकिन अब वह फँसा कि फँसा ... और यह पड़ा बाबू का झापड़ उसके गाल पर ...।

पर बेटे ने बड़ी ख़ूबी से स्थिति को सम्भालकर उसे हैरान कर दिया। बोला — माँ बीमार है।

— और बाप?

— बाप? — बेटे ने उसकी ओर एक उड़ती नज़र डालकर उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया, —बाप मर गया है, बाबू साब !