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मैंने सीखा
1997 में सर्वोदय बाल विद्यालय, झिलमिल कॉलोनी में मैं टी.जी.टी.(गणित) के तौर पर स्थानांतरित होकर आया था। जिस महीने में मैंने वहाँ ज्वाइन किया, संयोगवश उसे महीने सांस्कृतिक गतिविधियों के इंचार्ज शिक्षक साथी रिटायर हुए। अब विद्यालय की सांस्कृतिक गतिविधियों को कराने की ज़िम्मेवारी मेरे पास आ गई थी। गणित को पढ़ाना एक ओर जहाँ मेरा शगल हुआ करता था, वहीं एक थियेटरकर्मी भी होने के नाते मेरा एक शौक़ बच्चों के साथ तमाम सांस्कृतिक गतिविधियाँ कराना भी था।
गणित को मुश्किल, डराऊ, उबाऊ समझने-समझाने की अवधारणा जाने-अनजाने कुछ बच्चों के अंदर तब भी थी, अब भी है। आमतौर पर मान भी लिया जाता है कि गणित विषय ही ऐसा है कि इसके अंदर कुछ विद्यार्थियों की रुचि कम होती है। मेरा मानना था कि गणित के abstract होने के नाते हम टीचर्स की ज़िम्मेवारी कुछ ज़्यादा बनती है। अतः मैं गणित के कान्सेप्ट को समझाने, उससे संबंधित सवालों को हल करने तथा लगातार प्रैक्टिस करने पर ज़ोर देता था जो गणित विषय के लिए आमतौर पर ज़रूरी माना जाता है।
मेरी दोहरी भूमिका थी। एक तो गणित शिक्षण और दूसरी बच्चों के साथ सांस्कृतिक गतिविधियाँ। गतिविधियों में बच्चे पूरे मनोयोग से वह सब करते जिनके लिए उन्हें निर्देशित किया जाता। मैं ये शिद्दत से महसूस करता कि बच्चे गतिविधियों के ज़रिए मज़े करते हैं। विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों एवं वर्कशॉप के चलते बच्चों के साथ मेरे संबंध उत्तरोत्तर बेहतरीन और गहरे होते चले गए। धीरे-धीरे गतिविधियों को करते-करते बच्चे मुझसे खुलने लगे थे। अपनी दिन-प्रतिदिन की तमाम घटनाओं और परेशानियों को शेयर करते। मैं तसल्ली से सुनता। कभी कुछ सुझाव देता और कभी सुनकर चुप रह जाता।
जब मैं नाटक आदि की प्रैक्टिस के बाद पुनः गणित की क्लास में जाता तो बच्चों के साथ गणित के अतिरिक्त कोई बातें नहीं करता था। गणित और गणित का कान्सेप्ट और उसकी प्रैक्टिस। और वहाँ बच्चों से उम्मीद करता कि जो कराया जा रहा है, उसे करो। बस।
इस पूरे दौर में मैंने देखा और महसूस किया कि जब मैं बच्चों के साथ नाटक या गतिविधियाँ करा रहा होता हूँ तो वे बड़ी आसानी से चीज़ों को समझते हैं। सभी निर्देशों को भी ध्यान से सुनते हैं और उन्हें वैसे ही करने की कोशिश करते हैं जैसा उनसे कहा जाता है। मगर यह सब गणित की क्लास में क्यों नहीं हो पाता? थिएटर या ऐक्टिविटीज़ करते समय जो बच्चे मेरे क़रीब आते हैं, अपनी बात को बेहतरी के साथ समझा पाते हैं और अच्छे से समझ भी पाते हैं। मगर गणित की कक्षा में ऐसा क्या हो जाता है कि उनमें से कुछ अलग-थलग, बेहद चुप या उपेक्षित महसूस करते हैं। वे बाक़ी बच्चों के सामने काफ़ी सहमे सहमे से रहते हैं?
ऐसा क्यों? बच्चों के अंदर ये बदलाव क्यों और कैसे?
ऐसा क्यों होता है कि एक छात्र जो अच्छी ऐक्टिंग करता है, बेहतरीन भूमिका निभाता है, खेल में भी अच्छा है; मगर गणित की कक्षा में वो उतनी रुचि नहीं लेता जितनी कि वो अन्य गतिविधियों में लेता है। इसके कारण क्या हैं? क्या इसका एक कारण गणित में उसकी रुचि का न होना है या उसके समझ ही नहीं आना है? सवाल ये भी है कि स्कूल में लगातार आने के बावजूद उसे समझ क्यों नहीं आता? या इनसे अलग कुछ और कारण भी हो सकते हैं?
एक ही बच्चा एक ही दिन एक ही शिक्षक के साथ अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग कैसे पेश आ सकता है? मुझे लगा इसे समझने की ज़रूरत है। पूरे परिदृश्य को देखने की मेरी दिशा ही शायद सही नहीं थी। उसे उलटना होगा। अभी तक मैं बच्चों के अंदर देख रहा था। उसके बरक्स मैंने अपने अंदर झाँकने की ज़रूरत महसूस की।
समस्या दरअसल थी क्या? जब मैं गणित की क्लास में होता था तो एक अनुशासन के साथ विषय से संबंधित बातें अपनी तरफ़ से अच्छे से कराने की कोशिश करता था। कहीं न कहीं ये कोशिश भी होती थी कि कान्सेप्ट के साथ टॉपिक पूरा कराया जाए, ताकि बच्चे पूरी तरह समझ पाएँ। बजाय बच्चों के learning gaps को पहचानकर उन्हें उसीके अनुसार समझाने के, मैं सिलेबस को पूरा कराने की जल्दबाज़ी में कई बार अपना धैर्य भी खो बैठता था। फलतः एक असंतुष्टि मेरे अंदर छाने लगती थी जो कभी गुस्से और कभी झुँझलाहट के रूप में कक्षा के सामने आ जाती थी। मेरे इस व्यवहार को कक्षा के बच्चे अच्छे से अवलोकित करते। शायद यह सब बच्चों के अंदर एक अदृश्य डर का संचार भी करता था। और यही था जो बच्चों और मेरे बीच में एक दूरी पैदा करता था। जो गणित विषय में उन्हें मेरे पास आने से रोकता था।
मगर जब मैं कोई भी सांस्कृतिक गतिविधि कराता तो मेरे व्यवहार में गणित की कक्षा में मौजूद वह कठोरता, वैसी अनुशासनप्रियता एवं चीज़ों को जल्दी समझने व करने की हड़बड़ाहट नहीं होती थी। कोई जल्दबाज़ी भी नहीं। बच्चों के पास यहाँ सोचने और करके देखने का पर्याप्त स्पेस था। यहाँ मैं बच्चों के साथ मिलकर ख़ुद एक्टिंग कर रहा होता था। या उन्हें कोई रोल कैसे करना है – यह करके बताता था। यहाँ उन्हें मूल्यांकन का भी कोई डर न था। कहने का अर्थ यह कि माहौल बहुत फ़्रेंडली होता था। यक़ीनन हर कला की ये डिमांड भी होती है।
इसी बीच मैंने तमाम शिक्षा-शास्त्रियों को पढ़ना शुरू किया। गीजू भाई, मांटेसरी, गैरथ बी. मैथ्यूज, जॉन हॉल्ट और रमेश दवे आदि के साथ-साथ महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर को पढ़ते हुए दिन-महीने-साल गुज़रने लगे। मुझे लगा कितना कुछ है पढ़ने और सीखने के लिए। यही दौर था जब मैं शिक्षा में चिंतन और विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहा था। सैद्धांतिक और व्यावहारिक - दोनों पक्षों को एक साथ रखकर।
मुझे लगा कि मैं दोहरे मापदंड अपना रहा हूँ। जब मैं गणित की कक्षा में होता हूँ, वहाँ अलग तरीक़े से पेश आता हूँ, और जब कल्चरल ऐक्टिविटीज़ कराता हूँ, वहाँ अलग तरीक़े से बच्चों को डील करता हूँ। मुझे अपने ही अंदर दो तरह के इंसान नज़र आए। सीधा-सीधा कहूँ तो एक में मेरी छवि एक कठोर शिक्षक के तौर पर सामने आ रही थी, बल्कि दूसरे में एक फ़्रेंडली शिक्षक की तरह, जो हर तरह के बदलाव, improvisations और innovations को सीखने के लिए इस्तेमाल करता था। मुझे ख़ुद अपने अंदर के दूसरे शिक्षक से इश्क होने लगा था।
मैं दो तरह की भूमिका में क्यों रहूँ! क्यों न मैं दोनों जगह एक-सा नज़र आऊँ और गणित की कक्षा में भी उसी तरह की गतिविधियाँ करूँ जिन्हें करते हुए बच्चे न केवल मज़े करें बल्कि गणित की कक्षा में उनका मन भी लगे। गणित भी उन्हें जीवन का एक हिस्सा लगे। धीरे-धीरे मैंने गणित के लिए एक्टिविटीज़ बनाना शुरू किया। रोल प्ले लिखे। क्लास के अंदर स्पेस बनाकर या कभी ग्राउन्ड में बच्चों को ले जाकर उन्हें कराना शुरू किया। मेरे लिए यह आश्चर्यजनक था कि जो बच्चे पहले रिस्पोंस नहीं देते थे, वे अब क्लास में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे थे। बच्चे बीजगणित और ज्यामिति जैसे टॉपिक्स को भी ऐक्टिविटीज़, रोल प्ले और खेल के ज़रिए न केवल आसानी से सीख रहे थे बल्कि दूसरों को सीखने में मदद भी कर रहे थे। यहाँ तक कि अब बिना कोई छुट्टी लिए बच्चों ने लगातार स्कूल आना शुरू कर दिया था। छुट्टी लेने पर उन्हें लगता था कि उनकी मज़ेदार ऐक्टिविटी छूट जाएगी। अगले दिन क्लास में होने वाली गतिविधि की कुछ तैयारी भी बच्चे घर से करके लाते।
मैथ्स क्लब अब हमारे लिए मैथ्स-कल्चरल क्लब बन गया था। मैथ्स को तमाम गतिविधियों के ज़रिए सीखने-सिखाने का एक अड्डा। जहाँ बच्चे सीखते और इन्जॉय करते। और मैं सीखता गणित को और आसानी के साथ सीखने-सिखाने के नए-नए गुर और तरीक़े, ताकि बच्चों के साथ-साथ मैं भी एन्जॉय कर पाऊँ।
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