अनुभव से सृजित लघुकथाएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
अक्षय तूणीर (लघुकथा संग्रह) : मुरलीधर वैष्णव, पत्रिका प्रकाशन, 409 लक्ष्मी कॉम्पलेक्स, एम.आई.रोड, जयपुर–302001 मूल्य : 70/ पृष्ठ : 104 प्रकाशन : 2009
लघुकथा साहित्य में प्रसिद्धि प्राप्त करने की कोई शार्टकट विधा नहीं हंर और न ही सरल विधा है कि उठते–बैठते जब चाहे लिख लिया जाए। अनुभव के ताप से तपकर भाषा की खराद पर तराश कर ही लघुकथा अपना स्वरूप धारण करती है। लचर भाषा और अनावश्यक शब्द वैसे तो किसी भी विधा को अनुप्राणित नहीं करते; किन्तु लघुकथा में इसके लिए अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है।
वाग्वैदग्धय किसी भी लघुकथा के लिए अतिरिक्त ऊर्जा का काम करती है। प्राय: देखने में आता है कि दैनंदिन जीवन की किसी घटना को ज्यों का त्यों लिख दिया और नाम दे दिया लघुकथा। यह सोच पूरी कथा विधा के लिए ही खतरनाक है ,लघुकथा के लिए और भी अधिक। जैसे कोई पत्थर या धातु का टुकड़ा अपने अस्तित्व रूप में केवल टुकड़ा भी है, तराशने–ढालने के बाद ही वह स्वरूप धारण करता है, उसी प्रकार घटना या घटनाएँ लघुकथा तभी बनती है जब वे पूरी तराश के बाद सोद्देश्य हो, कुछ सार्थक सम्प्रेषित करती हो। यह कार्य रस्सी पर नट के चलने जैसा ही है। आखिरी सिरे तक पहुँच जाए तो कला, सन्तुलन बिगड़ गया तो सब कुछ खत्म। लघुकथा का शीर्षक अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । शीर्षक पूरी कथा के ताले को खोलने वाली चाबी जैसा होना चाहिए। सीधा–सपाट, बहुत लम्बा और कथ्य से पूर्णतया असम्पृक्त शीर्षक लघुकथा को कमजोर करता है। अच्छा शीर्षक वह है,जो लघुकथा के कथ्य में उद्घाटित करने में सहायक हो। शीर्षक–कथ्य–संवाद आदि में कहीं भी फालतू भाषायी चर्बी की जरूरत नहीं।
मुरलीधर वैष्णव का ‘अक्षय तूणीर’ लघुकथा संग्रह विषयवस्तु–प्रस्तुति दोनों ही दृष्टि से नयापन लिए हुए है। लेखक–न्यायव्यवस्था से जुड़े रहे हैं ;अत: इनकी न्याय-प्रक्रिया से जुड़ी लघुकथाओं में जहाँ अदालतों के चक्रव्यूह को सशक्त अभिव्यक्ति दी गई है, वहीं मानवीय पक्ष को भी उजागर किया गया है। सभी लघुकथाओं में एक मानवीय स्पर्श देखने को मिलता है। विषय वस्तु की दृष्टि से भी लघुकथाओं की विविधता दर्शनीय है गुमराह होने पर घर छोड़ने वाली लड़की जब घर लौटने के लिए पापा को फोन करती है ,तो गलती से ‘रांग नम्बर’ लग जाता है। उधर से बेटी को लौटने की बात कहकर वह अपरिचित कुँआरा प्रौढ़ फोन रख देता है। उसकी आवाज लड़की के पिता की आवाज से मिलती–जुलती थीं। उसने ‘रांग नम्बर’ न कहकर ठीक जवाब दिया।
‘रिश्ते की महक’ सरकारी स्कूल के मास्टर की लड़की की शादी बड़े धराने के इंजीनियर लड़के से तय होती हैं ससुर को दिए गए इक्यावन हजार रुपए के बदले बेटी को मिलता है एक बन्द लिफाफा, जिसमें दो लाख इक्यावन हजार की एफ.डी. होती है। यह लघुकथा अपने सम्प्रेषण से हृदय को छू लेती है। ‘रोशनी’ बेटे की बारात के उमंग–भरे दृश्य को लेकर है, जिसमें बैंड मास्टर अपने काम से ज्यादा न्योछावर के नोट लपकने में लगा है। दूल्हे के पिता इनकी उपेक्षा करके गैस बत्ती के भारी लैम्प सिर पर ढोने वाली ठंड में सिकुड़ी सभी लड़कियों को सौ–सौ रूपए के दो–दो नोट थमा देते हैं। बारातों की धमाचौंकड़ी का यह मानवीय पक्ष सदा उपेक्षित रह जाता है। लेखक ने उसी छोटे से बिन्दु को उकेरा है। शीर्षक भी सटीक है, रोशनी के लैम्प ढोने वाली लड़कियों को भी कुछ रोशनी मिल जाती है।
अदालत में वकील और गवाहों की लेट लतीफी ने नाराज़ मजिस्टे्रट का मूड खराब क्या हुआ कि देर से आने वाले अभियुक्तों की जमानतों जब्त करके उन्हें हिरासत में भेज दिया। वहीं दो दिन से भूखा एक अभियुक्त बारह बजे पहुँचा तो मजिस्टे्रट धैर्य खो बैठा। वह जेल जाने को तैयार था,
‘‘जरूर जेल भेजौ। रोटी तौ मिळसी !’’
मजिस्ट्रेट ने अपनी जेब से पाँच रुपए निकालकर उसे दिए और सभी देर से आने वालों की माफी दे दी। ‘ऊर्जा’ में एक कर्मठ मजिस्ट्रेट की शक्ति का स्रोत उसका सकारात्मक चिन्तन किस प्रकार सहायक होता है, दर्शाया गया है। सच्चा–न्याय देने से ही ऊर्जा का संचार होता है।
‘विकल्प’ में पर्यावरण के प्रति जागरूकता को प्रस्तुत किया है, जिसका पात्र पाप–मुक्ति के लिए श्मशान में नीम का पेड़ बनना चाहता है, ताकि लोग धूप से बच सकें। ‘फर्क पड़ेगा’ में मछलियों के संरक्षण को प्रोत्साहन दिया गया है। ‘डफोल’ में दुनियादारी से बेखबर जनहित में लगा एक युवक है, जो किसी की भी तीमारदारी में जुट जाता है। ‘बड़ों से बड़े’ में नवविवाहिता जोड़े की आपसी समझ का चित्रण है। माता–पिता का परम्परावादी चरित्र इसमें बाधक बनते–बनते रह जाता है।
न्याय प्रक्रिया में कितनी रुकावटें है, इसे वैष्णव जी से अधिक कौन समझ सकता है? ‘जीत का दुख’ में वह वकील है, जो जल्दी फैसला होने से दुखी हो जाता है, उसे अभियुक्त से मिलने वाली फीस से वंचित रहना पड़ेगा। दूसरी ओर ऐसे जज की मित्रता को ‘उत्कृष्टता’ लघुकथा का विषय बनाया गया है, जो मूँगफली बेचने वाले अपने बालसखा के साथ आत्मीय व्यवहार करता है। पद की गरिमा उसका दिमाग़ खराब नहीं करती ।
कथ्य, भाषा–शिल्प दोनों ही दृष्टियों से मुरलीधर वैष्णव’ का यह लघुकथा –संग्रह पाठक को अन्तिम लघुकथा तक बाँधे रखने में सक्षम है। लेखक के भाषिक संयम से प्रत्येक रचना लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरती है। लघुकथा–जगत में इस ताज़गी-भरे संग्रह का स्वागत होगा, ऐसी आशा है। -0-