अनुरागी सिनेमा, वीतरागी सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :25 जुलाई 2016
फिल्मकार अनुराग कश्यप फिल्म उद्योग में दो दशकों से सक्रिय हैं। उनकी पहली फिल्म 'ब्लैक फ्रायडे' लंबे समय तक सेंसर ने रोक रखी थी। आतंकी घटना फिल्म का केंद्र थी। इस फिल्म की बहुत प्रशंसा हुई। सीमित संख्या उनकी फिल्मों को सराहती रही है परंतु प्रसिद्ध सितारे रणबीर कपूर के साथ बनाई उनकी 'बॉम्बे वेलवेट' की कटु आलोचना हुई, बॉक्स ऑफिस पर फिल्म असफल रही। इस असफल फिल्म विस्फोट ने अनुराग बसु को सबसे अधिक हानि यह पहुंचाई कि उनकी सीमित संख्या के 'वफादार' दर्शक भी उनसे खफा हो गए। इसे सिनेमाई आणविक विस्फोट का विकिरण कहा जा सकता है। इसके बहुत पहले उनकी फिल्म 'गुलाल' में भूतपूर्व सामंतवादी लोग अपना संगठन बनाकर देश के गणतंत्रीय ढांचे को तोड़कर सामंतवाद को पुन: स्थापित करने का सपना देखते हैं। उन्होंने शरतचंद्र के लिखे 'देवदास' को, जिसके विभिन्न भाषाओं में लगभग दो दर्जन संस्करण बन चुके हैं, चौंका देने वाले स्वरूप में बनाया था।
उनकी पारो तो साइकिल कॅरिअर पर बिस्तर बांधकर खेत में अपने देवदास से हमबिस्तर होने के लिए जाती है। इस फिल्म का नाम 'देव डी' था। इस तरह पारम्परिक दर्शक को चौंका देना, उनकी अवधारणा को ध्वस्त करना अनुराग की विचार प्रक्रिया का हिस्सा है। वह कमोबेश श्याम बेनेगल की फिल्म 'अंकुर' का वह छोटा बच्चा है, जो अंतिम दृश्य में शोषण करने वाले जमींदार की हवेली पर पत्थर फेंकता है। इस तरह की सोच वाले हवेलियां ध्वस्त कर सकते हैं परंतु मिट्टी का एक घरौंदा भी बना नहीं पाते और इन्हें 'रिबेल विदाउट कॉज' कहा जा सकता है अर्थात आक्रोश की मुद्रा में खड़े ये लोग, यह नहीं जानते कि वे किस कारण आक्रोश में आए हैं। इनके माथे पर बल पड़ा रहता है, मुटि्ठयां हमेशा तनी होती हैं परंतु कोई स्पष्ट उद्देश्य या वैचारिक आस्था इनमें नहीं होती। सलीम-जावेद और प्रकाश मेहरा ने अपनी फिल्म 'जंजीर' से आक्रोश को एक फॉर्मूला बना दिया है। आक्रोश को एक ऐसा सिक्का बना दिया है, जो चोर बाजार से शेयर बाजार व सराफा तक में चलता है। तवायफ को अपने अपने काम से वितृष्णा रहती है परंतु चेहरे पर मुस्कान बनाए रखना उसके पेशे के लिए जरूरी है। कुछ इसी तरह सिनेमा में आक्रोश को भुनाने वाले रहे हैं परंतु गोविंद निहलानी का 'आक्रोश' एक ईमानदार फिल्म थी। सलीम जावेद के अधिकांश पात्रों का आक्रोश उनके परिवार के खिलाफ हुए अन्याय के कारण है परंतु जाने कैसे यह देश में असमानता व अन्याय के खिलाफ आक्रोश के रूप में स्वीकार कर लिया गया। केवल श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी 'राजनीति' के पहले तक के प्रकाश झा का आक्रोश आर्थिक खाई और सामाजिक अन्याय से जन्मा है और यही सही मायने में आक्रोश का सिनेमा है। समानांतर व सार्थक सिनेमा के एक प्रमुख फिल्मकार की बैठक में 'आवारा', गंगा जमना, मधुमति इत्यादि के पोस्टर लगे हैं। उनसे पूछा गया कि ये व्यावसायिक सफलता पाने वाली सार्थक फिल्में हैं परंतु वे तो तथाकथित कला फिल्में या आक्रोश मुद्रा की फिल्में ही बनाते हैं। उनका अत्यंत ईमानदार जवाब यह था कि वे इस तरह की महान फिल्में बना ही नहीं सकते परंतु वे इनके घोर प्रशंसक है। भारतीय समानांतर फिल्मों की त्रासदी उपरोक्त घटना से जाहिर होती है।
'दो आंखें बारह हाथ' बनाने वाले शांताराम को कभी 'अनुरागीय शैली' का फिल्मकार नहीं कहा गया। सिनेमा इतिहास के हर दशक में कुछ सार्थक फिल्में बनी हैं परंतु 'लीक' से हटकर या 'आक्रोश फिल्मों' के लेबल उस समय ईजाद भी नहीं हुए थे। ठीक इसी तरह वर्तमान के शिखर नेता रोज ही कोई न कोई घोषणा करते हैं परंतु काम कुछ करते नहीं। इन नेताओं से स्मरण आता है कि एक राजा ने आरोपी से कहा जब तक तुम नई रोचक कथाएं सुनाते रहोगे तब तक दंड से बचे रहोगे। हमारी नियति भी यही है कि हम विकास कथा सुनते रहें और तालियां बजाते रहे। हम सिनेमा अनुरागी की तरह नेताओं की नौटंकी देख रहे हैं।