अनुराग बसु की विज्ञापन फिल्म / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 27 मार्च 2014
अनुराग बसु ने टेलीविजन से सिनेमा में प्रवेश किया और अब सिनेमा के साथ ही वे विज्ञापन फिल्म भी कर रहे हैं। प्राय: विज्ञापन फिल्म के तीन संस्करण संपादन टेबल पर बनाए जाते है- तीस सेकंड, एक मिनट और दो मिनट तक चलने वाले संस्करण। इनका पंद्रह सेकंड का स्वरूप भी संपादित किया जाता है, क्योंकि टेलीविजन पर इसे दिखाने के भाव इनकी अवधि के साथ बदलते है परंतु सारे संस्करणों का केंद्रीय विचार एक ही रहता है। भव्य सितारा जडि़त फिल्में महंगे दाम में बनाई जाती हैं परंतु सिताराविहीन विज्ञापन फिल्मों का बजट भी कम नहीं होता और इनमें प्रवीण कैमरामैन को एक दिन का पारिश्रमिक दस लाख तक भी जा सकता है। विज्ञापन फिल्म के विचार के आधार पर स्टोरीबोर्ड बनाया जाता है जिसमें हर शॉट का आप चित्र देख सकते हैं।
अनुराग बसु को एक श्रृंखला बनानी है जिसकी पहली फिल्म वे बना चुके हैं और आजकल मंडी तथा मीडिया में इसके चर्चे हैं। एक शैम्पू के विज्ञापन के लिए भांति-भांति की फिल्में बननी हैं जिनमें बालों की मजबूती बताने के लिए एक महिला अपने बालों से ट्रक खींचती है। एक वाइल्ड कल्पना में नायिका के लंबे, मजबूत बाल पकड़ कर उसका प्रेमी उसके शयन-कक्ष तक पहुंचता है। अनुराग बसु ने खूबसूरत, सिल्कन बालों को आत्मविश्वास से जोड़कर विज्ञापन फिल्म बनाई है जिसमें सामाजिक सोद्देश्यता का स्पर्श भी है। उनके केंद्रीय विचार यह है कि एक एफएम रेडियो चलाने वाले पिता को अचानक गंभीर रूप से बीमार पडऩे के कारण अस्पताल में दाखिल करते हैं और उसकी युवा बेटी अपने दो मित्रों के साथ एफएम रेडियो न केवल जारी रखती हैं परंतु उसमें नए विचार जोड़कर उसे और अधिक लोकप्रिय बनाती है। वह गली-नुक्कड़ के युवा संगीतकारों के प्रयास को एफएम के द्वारा श्रोताओं का समूह दिलाती है। वह और उसके मित्र रेडियो प्रसारण में क्रांति करते हुए बारी-बारी से अस्पताल भी जाते हैं। दरअसल एफएम रेडियो स्टेशन ने इस मरी हुई-सी विद्या में नए प्राण फूंक दिए हैं परंतु अधिकांश एंकर अपनी आवाज के माधुर्य पर निर्भर करते हैं और अपनी वाचालता से संगीत प्रेमियों के रस ग्रहण में बाधा पहुंचाते हैं। इन एंकरों को बोलने का इतना शौक है और उन्हें अपनी आवाज इतनी पसंद है कि बजते हुए गीत के मात्र दो अंतरे श्रोताओं को सुनाते है और तीसरे अंतरे को फेड आवर करके स्वयं घुस जाते हैं।
बहरहाल अनुराग की विज्ञापन फिल्म की उद्घोषिका श्रोताओं का समावेश कार्यक्रम में करती है गोयाकि एक तरह से वे इसका केजरीवालकरण कर देती है। श्रोता आम आदमी की तरह केंद्रीय भूमिका में आता है और कार्यक्रम श्रोतोन्मुखी हो जाता है। ज्ञातव्य है कि मेहरा की 'रंग दे बसंती' के क्लाइमैक्स में युवा क्रांतिकारी जिन्होंने एक भ्रष्ट मंत्री की हत्या की है एक रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर लेते हैं और सारे देश को संबोधित करते हैं तथा शहर दर शहर लोगों की इस सुबह एक नया संदेश मिलता है। दूसरे विश्व-युद्ध में रेडियो ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राजकुमार हीरानी की फिल्म में भी मुन्नाभाई रेडियो के माध्यम से गांधीगिरी करते हैं।
यह गौरतलब है कि जो लोग मौलिकता के प्रति घोर आग्रह रखते हैं और हर काम में अपनी छाप छोडऩे की ललक रखते हैं, वे लोग कोई भी माध्यम हो या वे अपने जीवन में कोई भी कार्य कर रहे हैं, अपने काम में सामाजिक सोद्देश्यता का स्पर्श रच लेते हैं। एक धोबी भी धोने के पानी में एक चम्मच डिटॉल डालकर ग्राहक के प्रति अपनी फिक्र को प्रकट कर सकता है। जीवन में आवश्यक नहीं है कि हर आदमी बड़े पद पर बैठा हो या नेता हो, समाज में परिवर्तन का काम अपने दायरे में ही थोड़ी सी समझदारी से किया जा सकता है।
ज्ञातव्य है कि संविधान के निर्माण के समय यह विचार रखा गया था कि नागरिक के अधिकारों के साथ उसके दायित्व भी स्पष्ट परिभाषित किए जाएं और इसका स्पर्श संविधान में है परंतु इस बाबत खुलासा लिए एक संशोधन इंदिरा गांधी ने भी किया था। इन बड़ी बातों को छोड़ें, छोटे से दायरे में भी मौलिकता का स्पर्श संभव है, सामाजिक सोद्देश्यता संभव है। अगर परिवर्तन के लहरें किनारों के पत्थरों से अपना माथा छलनी करके उसे तोड़ नहीं भी पाती है तो उस सख्त पत्थर को इतना चिकना बना देती है कि कोई थका-मांदा आदमी उस पर आराम से बैठकर हरों की अठखेलियां देखे- यह बात अलग है कि कोई अधिकारी लहरें गिनने के अपराध में उस पर जुर्माना ठोंक दें।