अनुवाद की प्रक्रिया में (रतन चौहान) / नागार्जुन
भाषांतर सरल नहीं होता। सर्जनात्मक साहित्य का भाषांतर दुष्कर कार्य है। यह सर्वविदित है कि भाषांतर एक भाषा के शब्दों का दूसरी भाषा के शब्दों से स्थानापन्न न होकर दो सृजनशील, सजग, कल्पनाशील आत्माओं का आत्मीय संवाद है। भाषांतरकार से यह अपेक्षित होता है कि वह अपनी मातृभाषा और रचनाकार की भाषा के लोक और साहित्यिक सौंदर्य, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य से तो सुपरिचित हो ही, रचनाकार और रचनाकर्म के वर्गचरित्रा और वर्गीयदृष्टि, उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता, उसके अंतर्विरोधों तथा ऐतिहासिक संदर्भों को भी अपने सम्मुख रखे। दो भाषाओं के मूल स्रोत से उद्गमित होने के उपरांत भी कालांतर में उनमें गहरे अंतर प्रतिबिंबित हो सकते हैं। भाषांतर में आप मूल भाषा के सौंदर्य, उसके संगीत, लय, छंद-विधान, अर्थध्वनियां, उसके सांस्कृतिक परिवेश, उसके भौगोलिक रेखाकारों, उसकी मिट्टी, गंध, उसकी ऋतुओं, उसके आचार विचारों से इतने विलग हो जाते हैं कि रूपांतर मूल रचना की केवल छायामात्रा शेष रहता है। एक बात जो भाषांतर के जीवन, उसके सौंदर्य और उसकी सृजनधर्मिता को अनाहत रखती है, वह है मानवीय संवेदनाओं से उपजे सौंदर्य और कालजयी प्रभावों का सादृश्य, अनुभूतियों की विश्वजनीनता, वैचारिक और राजनैतिक प्रतिबद्धताएं। साथ ही रचनाकार के भाषिक सौंदर्य की तरह रूपांतर की भाषा का भी अपना संपूर्ण जीवन, लय, संगीत, रंग, गंध और ऊर्जा का आवेश होता है और जब पाठक रूपांतर का आस्वाद लेता है तो वह दो भाषाओं की तुलना परिधियों को लांघ जाता है और रूपांतर को मूल रचना के रूप में ही ग्रहण करता है और यहीं रूपांतर अपनी रंग रेखाओं और प्राणों के साथ दो भाषाओं का एक पुल मात्रा ही नहीं होता, अपनी संपूर्णता में दो संस्कृतियों की आवाजाही ही नहीं होता, वरन् स्वयं में जीवन से परिपूरित एक सृजनात्मक कृति होता है। इसी प्रक्रिया में रूपांतरकार सृजनधर्मा रचनाकार बन जाता है। यायावर, बहुभाषाविद नागार्जुन का औपन्यासिक और काव्य लेखन का विराट फलक है। संस्कृत, मैथिली, हिंदी और अन्य भाषाओं में काव्य सृजन करने वाला यह कलाधर्मी लोकसाहित्य और संस्कृत साहित्य की समृद्ध परंपराओं से जीवन और ऊर्जा ग्रहण करता समकालीन जीवन और संघर्षशील जनगण के सपनों, आकांक्षाओं और आक्रोश को सक्रिय एवं कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है, साथ ही किसी कालिदास की सृजनात्मक कल्पना से प्रकृति की विरल और अभिराम छवियां प्रस्तुत करता है। नागार्जुन की कविताओं का भाषांतर दुष्कर कार्य तो है ही साथ ही वह भाषांतरकार को सीमित परिधि में ही कार्य करने की अनुमति प्रदान करता है। उनकी संस्कृत और मैथिली में रचित कविताओं को अलग ही रख
दें, अधिकांश हिंदी कविताएं अपने अर्थ, व्यंग्य, लय, धार, रंग, संगीत को अक्षुण्ण रखते हुए, अंग्रेज़ी भाषा में किस सीमा तक अंतरित हो सकती हैं, यह कोई अत्यंत समर्थ भाषांतरकार जो भाषा के विभिन्न स्रोतों से सुपरिचित हो, जो छंद-शास्त्रा का महारथी हो, जो लोक साहित्य का अध्येता हो, बताये तो बताये। मैथिली की उनकी ‘श्यामघटा, सित बीजुरि-रेह’ और ‘सुजन नयन मनि’ जैसी कविताओं की काव्य पंक्तियां यथा ‘फांक इजोतक तिमिरक थार / निबिड़ विपिन अति पातर धार’ या ‘सुजन नयन मनि / सुनु सुनु सुनी धनि’ या ‘पका है यह कटहल। का यह पद ‘शाबास! शाबास!! / अह क्या खूब पका है यह कटहल/अह ! कितना बड़ा है यह कटहल / अह कैसा मह-मह करता है यह कटहल / अह, कैसे ख़ुद ही गिर पड़ा गाछ से / अह, किस तरह पड़ा है चारों खाने चित / अह, कैसा लटका था लोगों का मन इसके ऊपर / अह, क्या खूब पका है यह कटहल /. . . . . ‘आओ, आओ अजी ओ फलां, आते जाओ / एक-एक कोआ, दो-दो कोये अवश्य लेते जाओ’, अंग्रेज़ी में रूपांतरित तो हो जायेंगी किंतु इनकी लयात्मक संुदरता, इनकी अभिव्यक्ति के सौंदर्य रंग और संगीत का क्या होगा। सच तो यह है कि वह अनुवाद मूल की छाया की छाया भी नहीं होगा, स्वादविहीन, मृत रंग रेखाओं और ध्वनि-सौंदर्य से वंचित एक रचनात्मक सौंदर्य से विहीन रचना। नागार्जुन की बहुसंख्य रचनाओं का जो छांदिक सौंदर्य, गीति तत्व, गति, प्रवाह, मूल भाषा में है अंग्रेज़ी में वह ध्वस्त हो जायेगा। मूल भाषा में जो गीत की टेक और शाब्दिक आवृत्ति प्रभावोत्पकता और सुंदरता तथा अर्थवत्ता की सृष्टि करती है, अंग्रेज़ी का स्वभाव, यद्यपि उसमें भी ‘बेलेड’ जैसी कविताओं में आवृत्ति का सुख और सौंदर्य होता है, इसकी अनुमति उस तरह नहीं देता है। नागार्जुन की सुज्ञात कविताओं में ‘मंत्रा कविता’, ‘चंदू मैंने सपना देखा’, ‘तीनों बंदर बापू के’, ‘तीन दिन तीन रात’, दूसरी ओर ‘मेघ बजे’, ‘घन-कुरंग’, ‘बातें’, ‘बहुत दिनों के बाद’, ‘अकाल और उसके बाद’, अर्थ और गीति की जो सृष्टि हिंदी में करती हैं, वह अंग्रेज़ी में इस स्तर तक संभव नहीं है। ‘मंत्रा कविता’ के ‘ओं शब्द ही ब्रह्म है / ओं शब्द और शब्द और शब्द और शब्द / . . . ओं क्रांतिः क्रांतिः क्रांतिः सर्वग्वं क्रांतिः / ओं शांतिः शांतिः शांतिः सर्वग्गवं शांतिः’ /. . . ओम ओम ओम / ओम धरती, धरती, धरती, व्योम, व्योम, व्योम’, सोनेट शैली में लिखी ‘चंदू, मैंने सपना देखा’ की गीतात्मकता ‘चंदू, मैंने सपना देखा उछल रहे हो तुम ज्यों हिरनौटा / ‘चंदू , मैंने सपना देखा अमुआ से हूं पटना लौटा’, या ‘मेघ बजे’ के ‘धिन-धिन-धा, धमक-धमक’ / मेघ बजे’ का नाद सौंदर्य अंग्रेज़ी में अंग्रेज़ी भाषा के विपुल सौंदर्य स्रोतों के उपरांत भी उसकी अपनी सघन गीतात्मकता और ऊर्जस्विता के होते हुए, बिना क्षति के संभव करना दुष्कर ही प्रतीत होता है। कुछ शब्द अपनी मूल भाषा में सहज, निर्दोष, और हृदयस्पर्शी होते हैं। अब ‘श्याम घटा, सित बीजुरि-रेह’ / ‘फांक इजोतक तिमिरक थार’ या ‘छोकरी के होठ लाल’ या ‘सुग्गे की चोंच लाल’ या ‘रविरंजित शिखर वाले’ / ‘हिमाद्रि के वक्ष पर’ या ‘देश-विदेश पूरा दुनिया-जहान’ / ‘धांग आया हूं मैं’ या ‘दिनांत का आरक्त भास्कर’ / ‘जेठ के उजले पाख की नौवीं सांझ’ या ‘कर गयी चाक’ / तिमिर का सीना / जोत की फांक / यह तुम थीं’ या ‘उछल रहे तो तुम ज्यों हिरनौटा’ को आप जब अंग्रेज़ी में रूपांतरित करते हैं यथा ‘डार्क क्लाउड्स गेदरिंग’, ‘द वाईट स्ट्रीक ऑव लाइटनिंग’, ‘ए स्लाइस ऑव लाईट ऑन द प्लेट ऑव डार्क’, ‘द रूबी रेड या द चेरी रेड लिप्स ऑव द लेस’, ‘द पेरेट्स बीक रेड, ऑन द हिमाद्रि विद द पीक बेद्ड इन द सन’, ‘हेव ट्रेवल्ड द एन्टायर वर्ल्ड’, ‘द ब्लड रेड सन ऑव द ईवनिंग’, ‘द नाइंथ इव ऑव द स्कॉचिंग समर्स फॉर्टनाइट विद द ब्यायोंट मून्स’, ‘स्लेश्ड द ब्रेस्ट ऑव डार्क, द स्लाइस ऑव
लाईट’, ‘इट वाज़ यू’, ‘स्किपिंग यू लाईक यंग डियर, तो करने को तो कर देते हैं किंतु आप स्वयं महसूस करते हैं कि लोक सौंदर्य का एक बहुत बड़ा अंश कहीं बहुत पीछे छूट गया है। आप हम यह भलीभांति जानते हैं कि भाषा केवल शब्दों का समूह मात्रा नहीं है। उसकी जड़ें देश या समाज विशेष के सांस्कृतिक-धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक जीवन में गहरे धंसी हुई होती हैं। उसमें जातीय स्मृतियों, साहित्यिक गूंजों-अनुगूंजों का विपुल संसार समाया होता है। पृथ्वी के कटिबंध की अपनी अपनी ऋतुएं, पुष्प, वानस्पतिक संपदा, भूरेख, नदी-पहाड़ होते हैं। और यह सब वहां के जन जीवन में धड़कते रहते हैं। हर देश के अपने मिथक होते हैं। लोकनायक और लोकदेवता होते हैं। भाषांतरकार के सम्मुख यह स्थिति विकट प्रश्न खड़ा कर देती है। उदाहरण के रूप में यम-नियम, निर्वाण, पाप-पुण्य की अपनी भारतीय अवधारणाएं हैं। शेषनाग, बमभोला, विष्णु इत्यादि की भी अपनी देशीय आस्थाएं और स्मृतियां हैं। पाप की अवधारणा पश्चिम में अलग है, पुण्य भी उसी तरह ‘राइटियस या वर्चुअस एक्ट’ से अलग है। समुद्र मंथन और देवासुर संग्राम, विष और अमृत और इसी तरह ओम की अर्थध्वनियां भारतीय जीवन में कुछ अलग ही निजता के साथ रची बसी हैं। यहां तक कि यहां शरद, शिशिर, वसंत, भादौ उस तरह नहीं होते जिन्हें पश्चिम में शायद समझा जाता है और इनका विराट जन की चर्या में असाधारण महत्व होता है। जब आप नागार्जुन की कविता ‘नीम की दो टहनियां’ के इस छंद का कि ‘यह कपूरी धूप / शिशिर की यह दुपहरी प्रकृति का उल्लास / रोम-रोम बुझा लेगा ताजगी की प्यास’ पढ़ते हैं, तो नागार्जुन का तात्पर्य सर्दियों की एकदम चली जाने वाली धूप और शिशिर से अर्थ माघ और फाल्गुन की ऋतु और साथ ही शीत के अवसान और वसंत के आगमन का संकेत है तभी तो अनुगामी पद में कवि प्रकृति के उल्लास की बात करता है। हमारे यहां वसंत की पदचापें जनवरी के अंतिम सप्ताह में ही सुनायी देने लगती हैं जबकि शीत ऋतु पश्चिम में दुःख और मृत्यु की प्रतीक है। रूपांतर करते समय आप इतने विस्तार में नहीं जा सकते। यदि आप शिशिर को केवल ‘विंटर’ लिख देते हैं तो कवि के अर्थ को उस तरह ध्वनित नहीं कर सकते। अतः ‘शिशिर’ को ‘शिशिर’ लिखना ही अच्छा है यद्यपि पश्चिम का पाठक इसका किस सीमा तक आस्वाद ले पायेगा, यह वह स्वयं निर्णय करे। ‘शिशिर’ के लिए ‘रिसिडिंग विंटर एंड द एडवेंट ऑव स्प्रिंग’ तथा ‘कपूरी धूप’ के लिए ‘द व्हाईट ट्रांसल्युसेंट सन’ यदि लिखेंगे तो अतिरिक्त विस्तार को आमंत्रित करना है। नागार्जुन विराट संवेदना के कवि हैं। उनकी सघन संवेदनाओं की परिधि में अछूते विषय और पारंपरिक सौंदर्यबोध को चुनौती देने वाले मनुष्य और प्राणी जगत के सदस्य अपनी पूरी जीवंतता और कलात्मकता में चित्रांकित होते हैं। वे जितनी सहृदयता से नेवले से पुत्रावत संवाद करते हैं ‘जंबू, जमूरा, मोतिया, दुलरुआ’ जाने कितने नाम से अपने युवा क़ैदी साथियों के साथ लाड़ लड़ाते हैं, उतनी ही आत्मीयता से ‘पैने दांतों वाली’ में ‘धूप में पसर कर लेटी / मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर’ जो ‘अभी इस वक़्त/छौनों को पिला रही है दूध’ को ‘मादरे हिंद’ की बेटी / भरे-पूरे बारह थनों वाली’ के चित्रा को उकेरते हैं। कवि लिखते हैं ‘दुधमुंहे छौनों की रग-रग में/मचल रही है आखिर मां की ही तो जान’। जो अभिव्यक्ति का सौंदर्य ‘मां की ही तो जान’ में हैं, वह अंग्रेज़ी शब्द ‘लाईफ़’ में कहां व्यक्त हो पाता है। ‘मन करता है’ शीर्षक कविता में जिस तरह ‘मैं उस अगस्त्य-सा पी डालूं सारे समुद्र को अंजलि से’ के पीछे एक पूरी पौराणिक कथा है, उसी तरह ‘कल्पना के पुत्रा हे भगवान’ में ‘नदी कर ली पार उसके बाद/नाव को लेता चलूं क्यों पीठ पर मैं लाद’ में जातक तथा बौद्धकथाओं की ध्वनि है और ये संदर्भ
कविताओं को गहरी अर्थवत्ता प्रदान करते हैं। संपूर्ण संदर्भों के साथ अंग्रेज़ी रूपांतर में इन्हें उद्घाटित और उद्भासित करना उतना सरल नहीं है। उसी तरह ‘सिंदूर तिलकित भाल’ और ‘बादल को घिरते देखा है’ की अगणित सौंदर्यछवियां और भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक जीवन की धाराएं, महाकाव्यात्मक औदात्य भाषांतरकार के सम्मुख बड़ी चुनौतियां हैं। ‘वर्मिलियन मार्क्ड फ़ोरहेड’ ‘सिंदूर तिलकित’ भाल का रूपांतर तो हो सकता है किंतु इसमें सौभाग्याकांक्षिणी भारतीय नारी की गरिमा उस तरह व्यक्त नहीं हो पाती। मांग में सिंदूर की रेख की महिमा केवल एक पतिव्रता, सुहागिन ही अनुभूत कर सकती है। अंग्रेज़ी के ‘इंटिमेसी’ या ‘कम्पेनियनशिप’ जैसे शब्द ‘चाहिए किसको नहीं सहवास’ (सिंदूर तिलकित भाल) को पत्नी की गरिमा की रक्षा करते हुए अपने अर्थ में उस तरह संपूर्ण नहीं हैं। ‘बादल को घिरते देखा है’ का प्रस्तुत छंद ‘कहां गया धनपति कुबेर वह/कहां गयी उसकी वह अलका/नहीं ठिकाना कालिदास के/व्योम प्रवाही गंगाजल का, / ढूंढ़ा बहुत परंतु लगा क्या / मेघदूत का पता कहीं पर’ में महाकवि कालिदास के ‘मेघदूत’ की स्मृतियां हैं। संस्कृत और हिंदी का पाठक इस छंद और कविता के अंतिम अंश की अंतिम पंक्तियों ‘मदिरारुण आंखों वाले उन / उन्मद किन्नर-किन्नरियों की / मदुल मनोरम अंगुलियों को / वंशी पर फिरते देखा है!’ का आस्वाद लेने ‘मेघदूत’ का क्रमशः 50 वां एवं 56वां छंद अपने स्मृतिकोष में रखता है। यह संपूर्ण आनंदानुभूति रूपांतर में कहां व्यक्त हो पाती है। भाषांतरकार की कविता की अंतर्वस्तु की दृष्टि से तो सीमाएं हैं ही, छंद विधान एक दूसरी विकट बाधा है। साहित्य के छात्रा इस तथ्य से परिचित हैं कि अंग्रेज़ी भाषा के अपने ‘स्टान्ज़ाइक फ़ॉर्म्स’, ‘हिरोइक कपलेट’ से लेकर ‘स्पेन्सरियन स्टान्ज़ा’ तथा ब्लेंक वर्स का ‘आएंबिक पेंटामीटर’, ‘फ्री वर्स’ तथा विभिन्न अलंकार और रूपकविधान हैं। नागार्जुन की ‘प्रतिबद्ध हूं’, ‘कल्पना के पुत्रा हे भगवान’, ‘सिंदूर तिलकित भाल’ या ‘बादल को घिरते देखा है’ जैसी तुलनात्मक रूप से बड़ी रचनाओं का अद्भुत छांदिक सौंदर्य और ‘राइम स्कीम’ है और अंग्रेज़ी के छंदों में उसे सहेज पाना, बिना उसके सौंदर्य को आहत किये और साथ ही अंग्रेज़ी भाषा के वाक्य विन्यास को ध्वस्त किये बिना, कितना संभव है, यह कोई अत्यंत परिश्रमी और प्रतिभासंपन्न रूपांतरकार ही बता सकता है। उसके सम्मुख फ्री वर्स ही एक सरल मार्ग है। जैसा ऊपर रेखांकित किया गया है, हर भाषा का अपना वैभव, अपना सौंदर्य होता है और इस दृष्टि से अंग्रेज़ी भाषा अत्यंत समृद्ध है। उसके अपने ‘टर्न्स ऑव एक्सप्रेशन्स’ हैं, उसका अपना रंग और आस्वाद है। और सबसे महत्वपूर्ण है संवेदनाओं की सघनता और कल्पनाशीलता का विस्तार। भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होते हुए भी कई स्थलों पर निर्धन ही सिद्ध होती है। तब एक गहरी सांकेतिकता, एक ‘सजेस्टिविटी’ ही सहायता करती है। वही अर्थत्ता को बहुआयामी रूप प्रदान करती है। रूपांतर की अपनी सीमाएं हैं। फिर भी रूपांतरकार का यह प्रयास होता है कि वह मूल रचना के सौंदर्य, अर्थ और ‘फ़ोर्स’ को रूपांतर की भाषा में अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से व्यक्त करता हुआ दो विचार और अनुभूतिसमृद्ध रचनाकारों, दो सांस्कृतिक, साहित्यिक, राजनैतिक समुदायों और सभ्यताओं के मध्य एक पुल निर्मित कर सके और मानवीय समझ को गहरी कर सके। नागार्जुन जैसे समर्थ और प्रतिबद्ध रचनाकारों के साथ इस प्रक्रिया में रूपांतरकार को मूल लेखक के प्रत्येक कोण और गहरे सामीप्य निकट से परिचित होने का सुअवसर मिलता है और यह उसकी किसी भी तरह कम उपलब्धि नहीं है। वह एक सजग अध्येता की तरह प्रकारांतर से सृजनशील रचनाकार बन जाता है और यहीं मूल रचना और रूपांतर दोनों, सृजनशील साहित्य के धरातल पर एक हो जाते हैं।