अनुवाद भी सृजन है / सुभाष नीरव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

[भाषा स्वयं में एक संस्कार है। आज़ादी के बाद भी हमने अपनी क्षेत्रीय बोलियों, भाषाओं की घोर उपेक्षा की है, जिसका खमियाज़ा करोड़ों युवाओं को अब तक भुगतना पड़ रहा है। छात्र को पहले अनजानी भाषा समझनी पड़ती है, इसके बाद विषयवस्तु। प्रसिद्ध लेखक सुभाष नीरव हिन्दी साहित्यकार के साथ-साथ चर्चित अनुवादक भी हैं। उनसे अनुवाद के बारे में कुछ प्रश्न किए थे , जिसका उन्होंने सिलसिलेवार उत्तर दिया। प्रस्तुत हैं अनुवाद के पक्षों पर उनके अनुभवी विचार- प्रस्तुति- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]

मैंने प्रमुखत: पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद किया है। 2-3 फीसदी हिन्दी से पंजाबी में भी। एक मलयालम कविता का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया था, आकाशवाणी के 'सर्वभाषा कवि सम्मेलन' के लिए।

मैंने साहित्य की लगभग हर विधा जैसे लघुकथा, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, नाटक और कविता आदि का अनुवाद किया है। जब हम किसी दूसरी भाषा के साहित्य को अपनी भाषा में अनुवाद करते हैं, तो वह केवल शब्दों का अनुवाद नहीं होता। हमें उस भाषा की संस्कृति को भी बहुत बारीकी से समझना होता है। उसके अन्दर के अनकहे की ध्वनियों, उसकी गूँजों को भी कई बार अपने अनुवाद के घेरे में लाना पड़ता है। 'यथावत्' अनुवाद कोई श्रेष्ठ अनुवाद नहीं होता, सर्जनात्मक अनुवाद ही उत्तम अनुवाद होता है, जिसमें उस भाषा की खुशबू भी होती है। मैं इसी सर्जनात्मक अनुवाद का समर्थक हूँ जो इतना सरल नहीं होता, जितना इसे समझा जाता है। इस सर्जनात्मक अनुवाद में अनुवादक को अनेक प्रकार की कठिनाइयों से मुठभेड़ करनी पड़ती है। जैसे ,उस भाषा की संस्कृति और उसकी खुशबू को कैसे पकड़ा जाए? उस रचना में आई लोकोक्तियों, मुहावरों को अपनी भाषा के समकक्ष मुहावरों में कैसे बदला जाए? रचना के 'भीतरी नाद' तक पहुँचकर कैसे उसे शब्द दिये जाएँ? उस रचना को हू-ब-हू न रखकर उसका कैसे पुनर्सजन किया जाए? एक अच्छे अनुवादक के सामने ये बहुत बड़ी चुनौतियाँ आती हैं, जिन्हें आप कठिनाइयाँ भी कह सकती हैं, ये मेरे सामने भी अपनी चालीस साल की अनुवाद यात्रा में आती रही हैं।

क्या अच्छा अनुवाद किसी विधा का पुन: सृजन है? तो मैं कहना चाहूँगा कि मैं इसे अपने सृजन का हिस्सा ही मानता हूँ। किसी रचना की आत्मा का आप दूसरी भाषा की काया में प्रवेश तब तक सही मायने में नहीं करवा सकते, जब तक आपके अंदर रचनात्मक कौशल न हो। यह रचनात्मक कौशल ही उस रचना का अनुवाद के माध्यम से पुन:सृजन कहलाता है।

वर्णनात्मक गद्य और कथा साहित्य के अनुवाद की बात मैं ऊपर कर चुका हूँ। कविता और गद्य (फिक्शन) के अनुवाद में बहुत भिन्नता है। कविता में अन्तर्निहित मूल कवि के भाव तक अनुवादक को पहुँचना होता है, जो गद्य की अपेक्षा बहुत कठिन होता है। जरा-सी चूक अर्थ का अनर्थ कर सकती है। दूसरा, कविता की लय और गति को भी पकड़ना होता है। एक मायने में कविता का अनुवाद नहीं, बल्कि पुन:सृजन करना होता है। इसलिए कविता का अनुवाद मुझे कहानी, उपन्यास के अनुवाद से कहीं अधिक कठिन लगता रहा। यही कारण रहा कि मैंने पंजाबी काव्य का बहुत ही कम अनुवाद किया। बहुत से कवियों की अपनी पसंद की कुछेक कविताएँ ही अनुवाद कीं। गत तीन-चार सालों में चार कविता- संग्रहों का हिन्दी में अनुवाद किया, पर ये सारी कविता छंदमुक्त होने के कारण मैं इसका अनुवाद कर सका।

जहाँ छंदोबद्ध काव्य का दूसरी भाषा में और उसी छन्द में अनुवाद और चुनौतियों की बात आती है, तो मुझे तो असंभव लगता है। इसके लिए अनुवादक को उस छंद का पूरा पूरा ज्ञान होना आवश्यक है। मूल कविता के भाव को पकड़कर अपने शब्दों में उस छंद में पिरोना कोई बिरला अनुवादक ही कर सकता है। यदि यह संभव होता, तो पंजाबी के प्रसिद्ध कवि शिवकुमार बटावली के गीतों का अनुवाद अब तक हो गया होता; पर नहीं हो पाया। हिन्दी में उनके गीतों की किताब आई तो वह लिप्यांतर होकर ही आई।

लोकभाषाओं में अनुवाद आज की ज़रूरत पर मैं कहना चाहूँगा कि आज इसकी ज़रूरत है। अनुवाद के माध्यम से किसी भाषा की श्रेष्ठ रचना को बड़ा आकाश मिलता है। यह आकाश और विस्तृत हो जाएगा यदि विदेशी और भारतीय भाषाओं के साथ-साथ लोकभाषाओं में भी अनुवाद हो। अनुवाद का उद्देश्य तो उस श्रेष्ठ रचना को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने का ही होता है। लोकभाषा इसके लिए बड़ा मंच है।

अनुवाद के बारे में मेरे कुछ अनुभव हैं। अपनी चालीस साल की अनुवाद-यात्रा में मैं छह सौ से ऊपर पंजाबी कहानियों, 200 लघुकथाओं, और करीब 500 कविताओं का अनुवाद किया होगा। किताबों की बात करूँ, तो अब तक 60 साहित्यिक पुस्तकों का पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद कर चुका हूँ ,जिसमें कहानी, लघुकथा, उपन्यास, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, नाटक और कविता शामिल है।

अनुवाद के प्रकाशन को लेकर मैंने बहुत लड़ाई लड़ी है। आज से दो- ढाई दशक पहले तक प्रकाशक अनुवाद की पुस्तक को तरजीह नहीं देते थे, देते थे, तो बहुत कम और वे चाहते थे कि किसी नामी-गिरामी लेखक की किताब का ही अनुवाद हो। लेकिन सतत क्रियाशील रहने और पत्र-पत्रिकाओं में अनुवाद छपने, कुछ पत्रिकाओं के अनुवाद विशेषांक का अतिथि संपादन करने के बाद स्थितियाँ बदलीं। अब प्रकाशक स्वयं मुझसे मेरी मौलिक किताब प्रकाशन के लिए माँगने की अपेक्षा अनूदित पुस्तक अधिक माँगते हैं। अनुवाद का पहले मेहताना भी अनुवादक को नहीं मिलता था, पर अब हिन्दी में यह स्थिति भी बदली है। सबसे अच्छा मानदेय राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत से मिलता है ,जहाँ से मेरी अब तक आठ पुस्तकें अनुवाद की प्रकाशित हो चुकी हैं।

अनुवाद के क्षेत्र में मेरे आने का एक संयोग ही रहा।मैं एक पंजाबी परिवार में ही जन्मा-पला हूँ। यह बात अलग है कि मेरा जन्म, पालन-पोषण हिन्दी प्रांत में हुआ और शिक्षा-दीक्षा भी। मेरे माता-पिता, दादा-नानी, चाचा सब 1947 की भारत-पाक विभाजन की क्रूर त्रासदी को झेलते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से उप-नगर मुरादनगर में रोजी-रोटी की तलाश में आए थे। उनका सब-कुछ पीछे छूट चुका था और वे लुटे-पिटे तन और मन पर भारी ज़ख़्म लेकर आए थे। पिता और चाचा को मुराद नगर स्थित एक सरकारी फैक्टरी में श्रमिक के तौर पर नौकरी मिल गई थी और रहने को छोटा-सा क्वार्टर भी। जहाँ मेरा परिवार रहता था, वह फैक्टरी एस्टेट का एक निम्न क्षेत्र था, जहाँ कई छोटी-बड़ी जातियों के लोग एक ही मुहल्ले में रहते थे। इस मिश्रित कल्चर में मेरे परिवार में पंजाबी बोली धीरे-धीरे दम तोड़ती चली गई। हम लोग घर में आपस में पंजाबी में बोलना भूल गए। जब मैं छठी कक्षा में आया, तब तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने स्कूलों में त्रिभाषी फार्मूला लागू किया ,जिसमें संस्कृत के स्थान पर विद्यार्थी कोई एक क्षेत्रीय भाषा पढ़-सीख सकता था। मेरे स्कूल में बांग्ला, उर्दू और पंजाबी के टीचर थे। स्कूल वालों ने विद्यार्थियों से कहा कि अपने अपने माता-पिता से पूछकर आओ कि तुम कौन-सी भाषा सीखना चाहते हो। मैंने जब अपने घर में यह बात रखी, तो मेरे पिता ने कहा – “बचा सकता है तो बेटा, अपनी माँ-बोली बचा ले।” यही वाक्य जब मैंने पंजाबी की टीचर कमला सरीन जी को सुनाया, तो उनकी आँखें सजल हो गई थीं। यह पिता के मुँह से अनायास निकला था या यह उनके अंदर के दर्द की आवाज़ थी, कह नहीं सकता, लेकिन इस वाक्य ने मेरे अन्दर अपनी माँ-बोली से जुड़ने का जो अवसर दिया, उसे मैं आज तक नहीं भूल सका। छठी से आठवीं कक्षा तक मैंने पंजाबी सीखी, जो बाद में मेरे बहुत काम आई और मैं हिन्दी साहित्य के साथ-साथ पंजाबी साहित्य से भी बावस्ता हुआ। 1976 में जब मेरी सरकारी नौकरी दिल्ली में लगी, तो सबसे पहले मैं दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी, चाँदनी चौक का सदस्य बना और मैंने पंजाबी साहित्य को पढ़ना शुरू किया। उन दिनों हिन्दी की जो बड़ी पत्रिकाएं थीं जैसे ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘सारिका’ ‘कादम्बिनी’, ’नवनीत’ आदि, उनमें मैं देखता था कि पंजाबी के तीन-चार लेखकों की रचनाओं के अनुवाद ही छपा करते थे। जैसे उनके अलावा पंजाबी में कोई और लेखक हो ही नहीं। समूचे पंजाबी साहित्य का प्रतिनिधित्व यही दो-चार नाम किया करते थे, जबकि स्थिति उलट थी। पंजाबी में बेहतरीन लिखनेवाले अनेक लेखक मुझे मिले जिनकी रचनाओं का अनुवाद नहीं हो रहा था। मैंने तब उस समय बीड़ा उठाया कि मैं उन सभी पंजाबी लेखकों के श्रेष्ठ लेखन को हिन्दी के पाठकों के सम्मुख रखूँगा जिससे हिन्दी पाठक अब तक वंचित रहा है। मैंने सबसे पहले जिस पंजाबी कहानी का अनुवाद किया, वह महिंदर सिंह सरना की कहानी थी – मटर- पुलाव। मैंने उसे उस समय की बड़ी कथा पत्रिका 'सारिका' में भेज दिया। कुछ ही दिन में रमेश बत्तरा का मुझे खत मिला, जिसमें उन्होंने मुझे सारिका के ऑफिस में आकर मिलने को कहा था। रमेश बत्तरा ने वह कहानी छापने में असमर्थता जताई,परंतु एक कहानी मुझे अनुवाद के लिए अपनी ओर से दी। जब मैंने अनुवाद करके उन्हें दिया तो उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और उस अनुवाद को सारिका में छापा। इस प्रकार मैं अनुवाद की दुनिया में आया। और उसके बाद तो सिलसिला चल निकला और आज 68 वर्ष की आयु में भी निर्बाध गति से चल रहा है। मुझे गर्व है कि मैंने पंजाबी की चार कथा-पीढ़ियों के कथाकारों की कहानियों अनुवाद किया है। एक बात फिर से कहना चाहूँगा कि हाइकु, ताँका आदि छन्दोबद्ध रचनाओं का अनुवाद करना हरेक के वश का नहीं। असाधारण प्रतिभा का धनी ही इस कार्य को कर सकता है।

-0-