अनुवाद मूल रचनात्मकता से बड़ा काम होता है / सुभाष नीरव
‘लघुकथा डॉट कॉम’ वेबसाइट आज जिस गरिमामय मुकाम पर आ पहुँची है, उसके पीछे जाने-माने कथाकार सुकेश साहनी और बहुआयामी वरिष्ठ साहित्यकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की अटूट लगन के साथ-साथ इनकी ईमानदारी, निष्ठा, कर्मठता और इनके श्रम का बहुत बड़ा योगदान है। लघुकथा की एकमात्र श्रेष्ठ वेबसाइट स्थापित करने और उसे लोकप्रिय बनाने में इनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। आज यह वेबसाइट श्रेष्ठ और मानक लघुकथाओं की डिजिटल पत्रिका बन गई है। लघुकथा के उत्तरोत्तर विकास और उसके संवर्धन के लिए इस वेबसाइट को केवल हिन्दी लघुकथाओं तक ही सीमित नहीं किया गया, बल्कि इसे भारतीय भाषाओं, लोक भाषाओं और विश्व की अन्य भाषाओं से भी जोड़ा गया। यूँ तो इस वेब पत्रिका के सभी स्तम्भ बेजोड़ हैं, पर ‘मेरी पसंद’ और ‘भाषांतर’ स्तम्भों ने पाठकों में अपनी अलग पहचान बनाई है।
लोक भाषाओं के संरक्षण में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत विवधताओं से भरा एक बहुभाषी देश है। भाषाओं को संरक्षित करने और उन्हें विलुप्त होने से बचाने में अनुवाद विधा का भी बहुत बड़ी भूमिका होती है, जिसे दुर्भाग्य से उस रूप में समझने का प्रयास नहीं किया गया है, जिस रूप में समझा जाना चाहिए। जो लोग आज भी अनुवाद को दोयम दर्जे का काम समझते हैं, वह भूल जाते हैं कि अनुवाद मूल रचनात्मकता से भी बड़ा काम होता है। दो भाषाओं के ज्ञान के साथ साथ उसकी संस्कृति, प्रकृति और परंपरा का ज्ञान होना भी आवश्यक होता है। अनुवाद केवल शब्दों को दूसरी भाषा में रूपांतरित कर देना भर नहीं है, यह एक विशद ज्ञान और संवेदनशीलता इसकी कुंजी है।
ज्ञान के प्रसार में भाषा के अवरोध को दूर करने में अनुवाद की बहुत बड़ी भूमिका होती है। विद्वानों का मत है कि भाषा जल के समान है, जल को सदैव प्रवहमान रहना चाहिए। प्रवाह का रुकना उसे विलुप्ति के कगार पर ले जाता है। इसे विलुप्त होने से बचाने में अनुवाद की महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
कई लोक भाषाएँ अपनी स्वतंत्र लिपि न होने के बावजूद हिन्दी (देवनागरी) में अपने अस्तित्व को कायम रखे हैं। अवधी, ब्रज, मैथिली, गढ़वाली, हरियाणवी आदि अनेक लोक भाषाएँ दरअसल हिन्दी जैसी महानदी की सहायक नदियाँ ही हैं, जो अपने थोड़े-थोड़े योगदान से महानदी को निरंतर समृद्ध करती रहती हैं, और अपने अस्तित्व का अहसास कराती रहती हैं।
‘लघुकथा डॉट कॉम’ ने अनुवाद की अनिवार्यता और उसके महत्त्व को समझते हुए ही ‘भाषांतर’ स्तम्भ शुरू किया होगा जो जुलाई 2007 से निरंतर जारी है और इस स्तम्भ के अंतर्गत उर्दू, संस्कृत, गुजराती, मराठी, सिन्धी, जर्मन, अंग्रेजी, तेलुगु, मलयालम, उड़िया, बांग्ला, नेपाली भाषाओं के साथ-साथ लोकभाषाओं को भी तरजीह दी है- जैसे गढ़वाली और अवधी। हिन्दी-गढ़वाली की विदुषी डॉ. कविता भट्ट ने ‘भाषांतर’ के माध्यम से हिन्दी की अनेक श्रेष्ठ लघुकथाओं को अपनी लोकभाषा में ले जाने का बीड़ा उठाया और उसमें वह सफल भी हुईं। अब इनके इस श्रम को पुस्तक का रूप दिया गया है – ‘लघुकथा डॉट कॉम : भाषांतर’ (अनुवाद : डॉ. कविता भट्ट)। में गढ़वाली अनुवाद के लिए हिन्दी के नए-पुराने कुल 45 लेखकों की लघुकथाओं का चयन किया गया। इसमें जहाँ हिन्दी के अग्रज एवं वरिष्ठ लेखक भी शामिल हुए, वहीं बिलकुल नए लेखकों को भी इसका हिस्सा बनाया गया है। पुस्तक में अच्छी बात यह की गई है कि लघुकथाओं के गढ़वाली अनुवाद से पहले उनके मूल पाठ को भी रखा गया है। मूल और अनुवाद को एक साथ पढ़ते हुए मूल भाषा की खुशबू, अनुवाद की मौलिकता और प्रामाणिकता के दर्शन सहज ही हो जाते हैं।
‘लघुकथा डॉट कॉम’ के विद्वान् संपादक-द्वय अनुवाद की शक्ति और उसकी महत्ता को बखूबी समझते हैं, यही वजह है कि उनका उद्देश्य स्पष्ट और साफ़ रहा है कि अच्छी लघुकथाएँ भाषाओं की सीमाओं को तोड़ते हुए अन्य भाषाओं, लोकभाषाओं में भी विचरण करें; पर यह उद्देश्य बिना अच्छे अनुवादकों की मदद के फलीभूत नहीं हो सकता। इस काम के लिए हमें अच्छे अनुवादक भी तैयार करने होंगे और उन्हें प्रोत्साहित भी करना होगा। ‘लघुकथा डॉट कॉम’ के ‘भाषांतर’ स्तम्भ से भविष्य में हमें और अच्छे कार्य अनुवाद के क्षेत्र में देखने-पढ़ने को मिलेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
लघुकथा डॉट कॉमः भाषान्तरः गढ़वाली अनुवाद- डॉ. कविता भट्ट, ISBN – 978-81-964701-7-3, प्रथम संस्करण – 2024, मूल्यः220 रुपये (पेपर बैक), पृष्ठ:88, प्रकाशक; शैलपुत्री फ़ाउण्डेशन, ग्लोबल सिन्जेंटिक फ़ाउण्डेशन, नई दिल्ली