अनुसंधान और पुस्तकें / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
हाँ, तो मैंने विशेष रूप से अनुसंधान शुरू किया सन 1915 के उत्तरार्ध्द में। मेरी धारणा थी और अब भी वह ज्यों के त्यों बनी है कि जो दल जिस समाज का अंग या भाग होगा उसका उस समाज के साथ विवाह संबंध और खान-पान कहीं न कहीं अवश्य होता होगा। नहीं तो फिर प्रमाण ही क्या हो सकता है कि उसका अंग वह है? या उसी के अंतर्गत है? ब्राह्मण, क्षत्रियादि समाज के अनेक भाग या टुकड़े हैं और वह आपस में यदि कहीं न कहीं विवाहादि के द्वारा संबद्ध नहीं हों तो फिर उन बृहत समाजों के अंतर्गत वे भाग या टुकड़े क्यों कर माने जा सकते हैं? नहीं तो फिर औरों के ही क्यों नहीं? आखिर कोई आधार तो चाहिए जिसके बल पर निश्चय किया जा सके।
इसलिए मैंने तय किया कि जहाँ-तहाँ भूमिहारों, मैथिलों, सर्यूपारियों, कान्यकुब्जों आदि से सामूहिक रूप से प्रादेशिक संबंध है अर्थात जिन प्रदेशों में भूमिहारों के साथ ही ये लोग अधिकांश रूप में पाए जाते हैं, वहीं जा कर इसकी पूरी जाँच होनी चाहिए। मैं स्वयमेव दरभंगा, भागलपुर, मुंगेर आदि जिलों में गया। मेरे साथ स्वामी पूर्णानंद सरस्वती भी थे। मैं आनंद से लोटपोट हो गया जब देख सका कि एक-दो नहीं, हजारों विवाह संबंध इस प्रकार के हैं। यह नहीं कि साधारण मैथिलों तथा भूमिहारों के ही ये संबंध हैं। कुलीन से कुलीन और धनी से धनी के भी संबंध साक्षात और परंपरा से पाए गए।
यह ठीक है कि न जानें क्यों इन संबंधों के छिपाने की कोशिश की जाती थी। इसीलिए जानने में थोड़ी परेशानी भी हुई। मगर मैंने खूब जाँच-पड़ताल कर के सबको ऊपर किया। यहाँ तक कि मैथिल-महासभा का यह प्रस्ताव भी किसी प्रकार मुझे मिला, जिसमें लिखा है कि ये संबंध रोके जाए। इससे और भी इस बात की पुष्टि हुई कि ये संबंध होते हैं। नहीं तो रोकने की कोशिश क्यों? इस संबंध में महाराजा दरभंगा से ले कर श्रोत्रिय योग्यऔर दूसरी श्रेणियों के मैथिल भी गुँथे पाए गए। इतना ही नहीं। रघुनाथपुर पतौर (दरभंगा) में ऐसे बीसियों पत्र पाए गए जिनमें वहाँ के भूमिहार ब्राह्मणों को महाराजा दरभंगा और उनके गोतिया लोगों ने (नमस्कार) लिखे थे। यह नमस्कार की प्रणाली ब्राह्मणों में ही आपस में प्रचलित थी और अब भी प्राय: पाई जाती है।
बस, फिर क्या था, मैंने स्वामी पूर्णानंद जी को इलाहाबाद, फतहपुर और गोरखपुर की तरफ भेजा, ताकि कान्यकुब्जों एवं सर्यूपारीणों के इलाकों में भी जा कर पता लगाएँ कि ये संबंध होते हैं या नहीं। उनने परिश्रम कर के भ्रमण किया और पता लगा कर कई सौ संबंध नाम-बनाम पूरे पते के साथ लिख लिया, जैसा कि मिथिला में मैथिलों के संबंध के बारे में किया गया था। इस प्रकार, मैथिल, कान्यकुब्ज और सर्यूपारी ब्राह्मणों के साथ भूमिहार ब्राह्मणों के विवाह संबंध की लंबी सूची तैयार हो जाने पर हमारा काम बन गया। हमने इस बात की भी कोशिश की कि नाम और ग्रामादि के पूरे पते के साथ इस बात की भी जानकारी हो जाए कि दोनों दलों के लड़कों और लड़कियों के परस्पर विवाह होते हैं। न कि एक दल की सिर्फ लड़की और दूसरे के सिर्फ लड़के की ही शादी होती हैं। क्योंकि वरपक्ष की अपेक्षा कन्यापक्ष कुछ हीन माना जाता है ऐसी व्यापक धारणा है। ऐसा भी मानते हैं कि लड़कियाँ तो अपने से छोटों की भी लेते हैं मगर उन्हें देते नहीं हैं। लेकिन जहाँ लेना और देना दोनों ही हो वहाँ यह बात नहीं हो सकती।
इस अन्वेषण के साथ ही हमने सभी संस्कृत ग्रंथों की छानबीन की। हिंदी या अंग्रेजी के भी काफी ग्रंथ पढ़ डाले। जहाँ-जहाँ भूमिहारों पर आक्षेप पाए गए उन सबों को पढ़ा और संग्रह किया।
इसके बाद 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' नामक पुस्तक में न सिर्फ आक्षेपों का उत्तर ही दिया। वरन सभी शास्त्रीय और दूसरे प्रमाणों को विस्तार के साथ लिखने के साथ ही विवाह संबंध की लंबी सूची प्रकाशित कर दी। नमस्कार प्रणाम के पूर्वोक्त पत्रों को भी ज्यों का त्यों छाप दिया। इस प्रकार यह पहली पुस्तक मैंने लिखी। वह प्राय: चार सौ पृष्ठों की बनी। उसकी समालोचना में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “सरस्वती में लिखा कि पुस्तक में कोई बात छूटने न पाई है। ठीक ही है। अलग-अलग प्रकरणों में सभी बातों का विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन है।”
यह पुस्तक सन 1916 ई. में प्रकाशित हुई। बेशक उसके लिखी जाने और प्रकाशित होने के पूर्व अनेक सभाओं में मैंने ये बातें लोगों को सुनाईं। इससे कुछ लोगों को आश्चर्य, कुछ को खुशी और दबानेवालों को तथा अपनी ब्राह्मणता की डींग मारने के साथ ही भूमिहारों को नीच समझनेवालों में बेचैनी फैली। उनमें एक प्रकार का कुहराम-सा मच गया। यहाँ तक कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि यदि सचमुच ही ब्राह्मण हैं तो अपनी पुरोहिती स्वयं क्यों नहीं करते और दान क्यों नहीं लेते? मैंने इस बात को लक्ष्य कर के उस पुस्तक में दो-तीन स्थानों पर पहले ही लिख दिया था कि “दान लेना और पुरोहिती करना ब्राह्मणों के लिए कोई जरूरी नहीं है। परंतु, यदि विरोधी लोग बार-बार यह बात कहते रहेंगे और पुरोहिती के अभाव में ही भूमिहारों को अब्राह्मण सिद्ध करने की कुचेष्टा से बाज न आएँगे, तो हार कर भूमिहार ब्राह्मणों को भी सामूहिक रूप से पुरोहिती को अपनाना ही पड़ेगा।” मैंने तो यह चेतावनी की थी। ताकि विरोधी लोग इस वाहियात हरकत से बाज आएँ। लेकिन वे कब माननेवाले थे? उनकी यह दलील तो और भी तेज होती गई।
इसलिए मैंने सोचा कि इसका भी समुचित उत्तर कार्य रूप में ही देना चाहिए। इसी दृष्टि से मैंने एक तो यह पता लगाना शुरू किया कि आया भूमिहार ब्राह्मण भी कहीं पुरोहिती करते हैं या नहीं। क्योंकि यह भी मेरी धारणा थी कि कहीं न कहीं जरूर दान लेते होंगे और पुरोहिती करते होंगे। आखिर ब्राह्मणों का ही तो यह धर्म है और अगर सोलहों आने इसे छोड़ ही दिया तो ब्राह्मणता कैसी? अनुसंधान करने पर पता लगा कि प्रयाग की त्रिवेणी के सभी पंडे भूमिहार ही तो हैं। उनका संबंध भूमिहारों से ही तो है। साथ ही, हजारीबाग जिले के चतरा सबडिवीजन के इटखोरी और चौपारन थानों में ऐसे भूमिहार ब्राह्मण मिले जो माहुरी वैश्यों तथा औरों की पुरोहिती बार-बार करते आए हैं। यही इनका पेशा है। गया के देव के सूर्यमंदिर के पुजारी भूमिहार ब्राह्मण ही मिले। इसी प्रकार और जगह भी कुछ न कुछ यह बात किसी न किसी रूप में पाई गई।
बस, मैंने दूसरी पुस्तिका 'ब्राह्मण समाज की स्थिति' लिख कर यह बात सिद्ध की और साफ-साफ भूमिहारों को कहा कि आत्मसम्मान की पुकार है कि पुरोहिती कर्म को अपनाएँ। इससे चिढ़ कर अनेक स्थानों पर, पुरोहितों ने उनके विवाह, श्राद्ध आदि कराने बंद कर दिए और कहा कि यदि ब्राह्मण हो तो करवा लो या कर लो। इससे मजबूरी भी हुई। फलत: भूमिहारों ने भी धीरे-धीरे पौरोहित्य को अपनाना शुरू किया। मैंने सह्त्रो सभाएँ कर के इस पर खूब जोर दिया।
एक तो इनमें संस्कृत पढ़नेवाले प्राय: थे ही नहीं। दूसरे इन्हें कोई यह कर्मकांड बताने के लिए रवादार भी न था। यहाँ तक कि संस्कृत पढ़ाना भी बंद कर दिया गया। तीसरे स्वयं भूमिहार-ब्राह्मणों में जो बाबू या सीधे अनपढ़ थे वह भी इसका विरोध करते थे। इसलिए विरोधियों का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए मैंने 'झूठा भय और मिथ्या अभिमान' नामक पुस्तिका लिखी। साथ ही, कर्मकांड और ज्योतिष की बारह सौ पृष्ठों की पुस्तक 'कर्मकलाप' हिंदी में लिख दी। सिर्फ मंत्र संस्कृत में है। सारी बातें बहुत सफाई के साथ लिखी गई हैं। इसे ध्यान से पढ़ कर कोई भी कर्मकांडी और ज्योतिषी बन सकता है। मैंने संस्कृत की अनेक पाठशालाएँ खुलवाईं और छात्रों को वृत्ति दे कर संस्कृत पढ़ाने का भी प्रबंध किया। यह काम आठ-दस वर्षों तक कमबेश चलता रहा। इससे विरोधियों को पता चल गया कि किससे पाला पड़ा है।
इसी मध्य एक बात और हुई। भूमिहार ब्राह्मण परिचय की प्रथमावृत्ति की डेढ़ हजार प्रतियाँ खप गईं और द्वितीयावृत्ति की जरूरत हुई, तो मैंने सोचा कि भूमिहारों की ही तरह त्यागी, (तगे) और महियाल आदि भी है जो पश्चिमीय युक्तप्रांत और पंजाब में पाए जाते हैं। अत: उनके संबंध गौड़ों और सारस्वतों के साथ खोज कर इस बार इस पुस्तक में छाप दिए जाए। ऐसा ही किया भी गया। सैकड़ों अच्छे-अच्छे विवाह संबंध ढूँढ़ निकाले गए। तब सोचा कि पुराना नाम अब ठीक नहीं। इसलिए उस पुस्तक का नाम बदल कर 'बह्मर्षिवंश विस्तर' रख दिया। एक बात और थी। असल में उस पुस्तक में सभी ब्राह्मणों का ऐतिहासिक विवेचन होने के कारण यही नाम पहले भी चाहता था। मगर कार्य कारणवश न हो सका था। इसलिए इस बार नाम बदलना अनिवार्य था।