अनुस्वार और अनुनासिक के प्रयोग / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
वर्ण-विचार, अक्षर और वर्तनी
(क) वर्ण-विचार
वर्ण-भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि होती है। ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए जो ध्वनि चिह्न निश्चित किए गए हैं, उन्हें वर्ण कहते हैं। अधिक प्रामाणिक रूप से कहें, तो मनुष्य द्वारा उच्चरित ध्वनि को स्वनिम (फोनिम-phoneme) कहा जाना चाहिए। प्रत्येक भाषा के वर्ण अलग-अलग ढंग से लिखे जाते हैं। यही लिखित रूप उस भाषा की लिपि कहलाता है। लिपि चिह्न की संख्या उच्चरित स्वनिम से कम ही होती है। हिन्दी, नेपाली और मराठी भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।
वर्ण-विभाग
हिन्दी की देवनागरी वर्णमाला के दो विभाग हैं-1-स्वर, 2-व्यंजन।
1-स्वर- उस वर्ग को कहते हैं, जिसका उच्चारण करते समय हवा मुँह के भीतर से बिना किसी रुकावट के निकले और जिसका उच्चारण करते समय किसी दूसरे वर्ण की सहायता न लेनी पड़े।
2-व्यंजन- उस वर्ण को कहते हैं, जिसके उच्चारण में मुँह के भीतर हवा के रास्ते में पूरी या अधूरी रुकावट अवश्य होती है।
स्वर- उच्चारण की दृष्टि से हिन्दी में निम्नलिखित स्वर हैं-
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ।
परम्परागत हिन्दी वर्णमाला में ऋ, अं, अः को भी स्वर माना लिया गया था। इन तीनों स्वरों का उच्चारण-व्यंजन + स्वर = (ऋ) = र् + इ = रि, स्वर + व्यंजन = (अं) = अ + अनुस्वार (ङ्, ञ् ण्, न्, म्) , स्वर + व्यंजन = (अः) = अ + ह्, के रूप में होने लगा है। इनमें (अं) और (अः) को अयोगवाह कहा जाता है। अ+योगवाह (अ+ योगवाह= स्वर+व्यंजन) । इनकी, यानी अयोगवाह की विशेषता है-प्रथम आए स्वर का स्पष्ट उच्चारण। दूसरा भाग व्यंजन की तरह बोला जाता है। बोलते समय यह ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं-
(अं) = अ+न्
(अ:) = अ+ह्
अतः ये न पूर्णतया स्वर हैं, न व्यंजन।
ये दोनों घरों के मेहमान हैं, स्वर के भी और व्यंजन के भी।
अनुनासिक- 'अँचरा' , 'अँधेरा' के 'अँ' में अनुनासिक ध्वनि का अलग से अस्तित्व नहीं है। वह इसी में समाई हुई है। इसे एक मात्रा अर्थात् 'लघु' ही माना जाएगा, जबकि अं और अः गुरु मात्राएँ हैं। अँचरा=1+1+2=4 मात्राएँ, अंचल= 2+1+1=4 मात्राएँ, दुःख=2+1=3 मात्राएँ।
उच्चारण के आधार पर स्वर दो प्रकार के होते हैं- (क) ह्रस्व, (ख) दीर्घ
(क) ह्रस्व स्वर- जिस स्वर के उच्चारण में कम समय लगता है, उसे ह्रस्व स्वर कहते हैं। अ, इ, उ ह्रस्व स्वर हैं।
(ख) दीर्घ स्वर- जिस स्वर के उच्चारण में ह्रस्व स्वर की अपेक्षा अधिक समय लगे, उसे दीर्घ स्वर कहते हैं। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ दीर्घ स्वर हैं।
मात्रा का मूल अर्थ है-उच्चारण में लगने वाला समय। कम समय-ह्रस्व, अधिक समय-दीर्घ
परम्परागत व्याकरण में 'ऋ' को ह्रस्व स्वर माना जाता है। जैसे– 'हृदय' में 1+1+1=3 मात्राएँ।
मौखिक स्वर-जिस स्वर के उच्चारण में हवा मुख से निकलती है, उसे मौखिक या निरनुनासिक स्वर कहा जाता है, जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
अनुनासिक स्वर-जिस स्वर के उच्चारण में हवा मुख और नाक दोनों से निकलती है, उसे अनुनासिक स्वर कहा जाता है, जैसे-अँ, आँ, इँ, ईं, उँ, ऊँ, एँ, ऐं, ओं, औं।
अनुनासिक स्वरों को लिखने के लिए चन्द्र बिन्दु (ँ) या बिन्दु (ं) का प्रयोग किया जाता है।
1-जब मात्रा शिरोरेखा के ऊपर हो, तो बिन्दु लगाते हैं।
क-शिखा अभी तक नहीं आई है।
'नहीं' में हीं-अनुनासिक है।
2-यदि मात्रा शिरोरेखा के ऊपर नहीं है, तो चन्द्रबिन्दु का प्रयोग किया जाता है।
जैसे-पूँछ, मूँछ।
अनुस्वार- 'अनुस्वार' का अर्थ है-स्वर के बाद में आने वाला।
अगर यह किसी शब्द के बाद में आता है, तो इसका उच्चारण- 'म्' के रूप में होता है-जैसे-
स्वयं, अहं। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-
स्+व् +अ+य्+अ+म् (अन्तिम दो वर्ण हैं-अ+म्) , जिनमें पहला है अ-स्वर, दूसरा है- 'म्' व्यंजन। अन्तिम वर्ण है-म्, यह 'म्' नासिक्य ध्वनि है।) । अहम (अरबी का विशेषण शब्द) और अहं-संस्कृत का सर्वनाम-है। इन दोनों में किसी तरह की समानता नहीं है।
विशेष-केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने 'ऑ' (आ और ओ के बीच की ध्वनि) को भी स्वरों में सम्मिलित करने की सिफ़ारिश की है। अंग्रेज़ी शब्दों के शुद्ध उच्चारण में (जैसे डॉक्टर) यह प्रयुक्त होता है।
क से म तक के पाँच व्यंजन वर्गों में पाँचवाँ व्यंजन नासिक्य होता है, अर्थात् ये व्यंजन-ङ्, ञ् ण्, न्, म् नासिक्य होते हैं। ङ, ञ ण, न, म (इनमें अ स्वर जुड़ा हुआ है) । क् ख् ग् घ् आदि लिखने पर हलन्त लगा होने के कारण ये शुद्ध रूप से व्यंजन होंगे। हलन्त (हल्+अन्त) में हल् का अर्थ है-व्यंजन।
अब इन नासिक्य व्यंजनों की बात करते हैं। संस्कृत-लेखन में इन पाँच नासिक्य व्यंजनों का ही प्रयोग होता है।
हिन्दी में इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाता। जैसे-
1-अन्त में कवर्ग (क्, ख्, ग्, घ्, ङ्- होने पर-) -पंक, संकलन, शंका, शंख, रंग, संगीत, संघ, शृंगार
-शृंगार शब्द सही है; लेकिन प्रेस वाले इसे अशुद्ध मानकर 'श्रृंगार' कर देते हैं। सही रूप निम्नलिखित उदाहरण से समझा जा सकता है-
श् + र् + अ = श्र (जैसे-श्रम, श्रद्धा, श्रव्य, प्रश्रय)
श् + ऋ = शृ- (जैसे-शृंखला, शृंग, शृंगार)
श्रृ-कोई रूप नहीं होता; अतः 'श्रृंगार' पूर्णतया अशुद्ध है। किसी भी शब्द में दो स्वर एक साथ कैसे आ सकते हैं? श् + र् + अ+ ऋ= श्रृ (अ+ ऋ-दो स्वर आना असम्भव है।)
2-अन्त में (च्, छ्, ज्, झ्, ञ्-होने पर) -कंचन, चंचल, चंचु, पंच, पंछी, पंजा गंजा, मंजु, संजु, झंझा, संझा।
3-अन्त में (ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्-होने पर) —कंटक, कंठ, दंड, खंड, पंढरपुर, पंडित, खंडित।
4-अन्त में (त्, थ्, द्, ध्, न् होने पर) -पंत, तंत्र, पंथ, मंथन, मंद, संदीप, बंधन, बंध, कन्ध, संन्यास
5-अन्त में (प्, फ्, ब्, भ्, म्, होने पर) -कंप, कंबु, दंभ, स्तंभ, कंबल, संपादक (इन शब्दों में स्पष्ट रूप से 'म्' का उच्चारण सुनाई पड़ता है।)
विशेष- उपर्युक्त शब्दों में स्पष्ट रूप से 'म्' का उच्चारण सुनाई पड़ता है। इन्हें कम्प, कम्बु, दम्भ, स्तम्भ, कम्बल लिखे जाने पर 'म्' का सही उच्चारण होता है। संस्कृत के तत्सम रूप में यही लिखा जाएगा। सम्मान सही है, इसे संमान नहीं लिखा जाता। सम्पर्क भी सही है। इसे संपर्क लिखना; इसलिए त्रुटिपूर्ण है कि 'सं' में अनुस्वार 'न्' के रूप में उच्चरित होता है। जैसे कि 'पंत' और 'तंत्र' में। - 'कंप' और 'कंबु' में अनुस्वार का उच्चारण 'न्' न होकर स्पष्ट रूप से 'म्' है। इन शब्दों का जब उच्चारण करते हैं, तो बोलते समय अनुस्वार के स्थान पर 'म्' की ध्वनि ही सुनाई देती है।
-य, र, ल, व, श, ष, स, ह यदि बाद में आते हैं, तो नासिक्य न होने पर भी अधिकतर शब्दों में अनुस्वार ही आएगा, जैसे-
सम् +य= संयत, संयम, संयुत, संयोग, संयोजन, संयुक्त।
सम् +र= संरचना, संरक्षण, संरोपित
सम् +ल= संलग्न, संलाप, संलिप्त, संलीन
सम् +व= संवत्, संवरण, संवाद, संविदा, संविद, संविधान, संवाहक, संवेग,
सम् +श= संशय, संशोधन, संश्लेषण
सम्+स= संसाधन, संसद्, सांसद, संस्मरण, संसार, संस्कार, संस्कृत।
सम्+ह= संहार, संहिता, संघर्ष, सिंहासन
अहम् +कार=अहंकार
विशेष- अनुस्वार, प्रायः स्वर और व्यंजन के बीच में आएगा। इसे निम्नलिखित वर्णिक विभाजन से समझा जा सकता है-
सम् +य= संयत= (स्+अ+म्+य्+अ+त्+अ )
अ+म्+य्=इसमे अ स्वर और य् व्यंजन के बीच म् आया है। यही अनुस्वार का रूप ले लेगा- स्+अ+म्+य्+अ+त्+अ=स+ म्+यत=संयत
6-सम्+न्यास= संन्यास, सम्+न्यासी= संन्यासी -ये शुद्ध रूप हैं। सन्यास और सन्यासी अशुद्ध हैं। अनुनासिक के प्रयोग में की जाने वाली त्रुटियाँ, जिनमें शिरोरेखा के ऊपर मात्रा होती है- 1-मैं, में सही हैं। (मै, मे-अशुद्ध)
क-मैं घर जा रहा हूँ।
ख-मेरी बात ध्यान में रखना ।
2-है-एकवचन, हैं -बहुवचन
क-काव्या लेख लिख रही है।(है-एकवचन)
ख-प्रवीण और देवेश अभी-अभी आए हैं। (हैं-बहुवचन)
3- थी-एकवचन, थीं -बहुवचन
अ-रश्मि गीत गा रही थी। (थी-एकवचन)
ब-छात्राएँ गीत गा रही थीं। (थीं-बहुवचन)
-वाक्य-‘ब’ में सहायक क्रिया ‘थीं’ बहुवचन है; अतः इस तरह लिखना अशुद्ध होगा-
छात्राएँ गीत गा रहीं थीं। (रहीं थीं न होकर -रही थीं- शुद्ध है।)
4-सर्वनाम के निम्नलिखित रूप सही हैं; लेकिन लापरवाही के कारण इनको अशुद्ध लिखने वालों की संख्या बहुत है-
क-सही रूप- इन्हें, उन्हें, किन्हें, जिन्हें, हमें , तुम्हें । ( बहुवचन रूप )
-पूर्णतया अशुद्ध- इन्हे, उन्हे, किन्हे, जिन्हे, हमे, तुम्हे ।
ख- सही रूप- इन्होंने, उन्होंने, जिन्होंने, किन्होंने । ( बहुवचन रूप )
- पूर्णतया अशुद्ध- इन्होने, उन्होने, जिन्होने, किन्होने
कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर ‘हो’ पर अनुस्वार न लगाकर अन्तिम वर्ण ने पर अनुस्वार लगा देते हैं, जो अशुद्ध है-
-पूर्णतया अशुद्ध- इन्होनें, उन्होनें, जिन्होनें, किन्होनें ।
5-इन्हीं, किन्हीं, उन्हीं, वहीं, कहीं, नहीं
इन+ही=इन्हीं बनता है। शेष शब्द भी इसी तरह परिवर्तित होते हैं।
नहीं और न+ही अलग-अलग अर्थ के द्यौतक हैं-
1-सुदेश ने पाठ नहीं पढ़ा था। (निषेधात्मक अर्थ में)
2-आज न महेश आया है और न ही गजेन्द्र आया है।
यहाँ ‘न’ … ‘न ही’ दो वाक्यों को जोड़ते हैं। यहाँ ‘न’ और ‘ही’ अलग शब्द हैं। इसमें ‘ही’ अनुनासिक नही है, अत इसे ‘हीं’ के रूप में नहीं लिखा जा सकता।
नींद, ऐंठना में अनुनासिक का उच्चारण होता है, ई औ ऐ की मात्राएँ शिरोरेखा के ऊपर लगी हैं।
वाजपेयी जी अनुनासिक की अनुस्वार की तरह स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानते। उनका कहना है-
‘इसकी ( अनुस्वार की तरह) पृथक् सत्ता नहीं है-स्वर से पृथक् इसकी ध्वनि नहीं की जा सकती। अनुस्वार, स्वर से पृथक् चीज है,जैसे अंगूर की बेल से अंगूर का गुच्छा।
स्वरों की अनुनासिकता प्रायः उन शब्दों में आती है, जो संस्कृत के तत्सम शब्दों से बने हैं। ‘हिन्दी की प्रवृत्ति अनुनासिक प्रधान है, संस्कृत की अनुस्वार- प्रधान। जब भी हिन्दी किसी संस्कृत शब्द को तद्भव रूप देती है, तब अनुस्वार तथा ‘न्’- ‘ङ्’ आदि को हटाकर उसके आश्रय स्वर को प्रायः अनुनासिक कर देती है। इसके अपवाद भी हो सकते हैं; परन्तु प्रवृत्ति यही है।
अंगुष्ठ-अँगूठा, अंगुली-उँगली, अन्त्र- आँत्र, दन्त- दाँत आदि। ‘अङ्’ , ‘सम्’ , ‘अन्’ आदि का उच्चारण अनुस्वार से मिलता-जुलता है, इसलिए इन्हें भी हटाकर हिन्दी स्वर को अनुनासिक कर देती है। यानी अनुस्वार हो, या उसका कोई भाई हो, सबको एक दृष्टि से यहाँ देखा जाता है। अक्षि में वैसी कोई चीज नहीं है, तो भी हिन्दी ने अपने तद्भव शब्द में अनुनासिक प्रवृत्ति दिखाई है।’
[आचार्य किशोरीदास वाजपेयीः हिदीशब्दानुशासन, 19 मार्च 1958, पृष्ठ 90]
जैसे-
अंकन= आँकना
अंकुरण= अँखुवाना, अँखुआना
अंगुष्ठ= अँगूठा
अंचल-आँचल, अँचरा
अंजलि/ अंजली= अँजुरी
अंधकार= अँधियारा
अन्त्र= आँत
आमलक = आँवला
कण्टक= काँटा
कम्पन= काँपना
कुमार-कुँवर
गुंजन-गूँजना
ग्रन्थि= गाँठ
ग्रन्थ-गूँथना
ग्राम-गाँव
चन्द्र= चाँद
तन्त्र-ताँत
दक्षिण-दाएँ
दन्त= दाँत
धूम- धुँआ
पंक्ति= पाँत
पंच= पाँच
पुंज= पूँजी
भ्रमर-भँवरा
मण्ड-माँड
मुंज-मूँज
मुण्डन- मूँडना
रंजन/रंग= रँगना, रँगाई
लंघन-लाँघना
वंटन-बाँटना
वंश- बाँस
वन्ध्या-बाँझ
वाम-बाएँ
संध्या-साँझ
स्थूण-ठूँठ
-दक्षिण-दाएँ -(मन्दिर / मूर्त्ति की जब हम प्रदक्षिणा/ परिक्रमा करते हैं, तो हमारा दक्षिण/ दायाँ हाथ, मन्दिर / मूर्त्ति की ओर ही होता है, इसीलिए परिक्रमा के लिए प्रदक्षिणा शब्द का प्रयोग किया जाता है।)
-यहाँ यह भी ध्यान दिया जाए कि उपर्युक्त शब्दों के ह्रस्व स्वर दीर्घ में परिवर्तित हो गए हैं, जैसे अंकन का आँकना में, अं-आँ, ‘पंच’ का पाँच में ‘पं’ का पाँच; लेकिन इसके अपवाद भी हैं, जैसे- अंकुरण= अँखुवाना, अँखुआना, अंचल= आँचल/अँचरा, अंधकार= अँधियारा
2-आँ- से शुरू होने वाले शब्द= आँच, आँजना, आँकड़ा, आँवाँ, आँधी,
कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनका नासिक्य से कोई सम्बन्ध नहीं। ऐसे तत्सम शब्द तद्भव बनने पर स्वतः अनुनासिक में बदल गए, जैसे-
अक्षि-आँख
अश्रु-आँसू
ऊष्ट्र-ऊँट
कास-खाँसी
कुक्षि-काँख
महार्घ-महँघा
मुख-मुँह
वाचन-बाँचना
श्वास-साँस
सत्य-सच-साँच
सर्प-साँप
श्मश्रु-मूँछ
पुच्छ- पूँछ (संस्कृत के शब्द पृच्छ -से पूछना बना है, पुच्छ से नहीं, लेकिन कुछ लोग जानवर की पूँछ और बात पूछने में अन्तर न करके यह बोलते-लिखते-मिलेंगे, मैंने सब साथियों से पूँछा, कोई भी कल नहीं आएगा। झूठ को भी झूँठ लिख देंगे, जो अशुद्ध है। भोजन के लिए भी जूठा के स्थान झूठा लिख देंगे,जो अशुद्ध है )
हिन्दी में आकारान्त बहुवचन बनने पर ‘एँ’ में परिवर्तित होने पर-
एँ -कथा- कथाएँ, हवा-हवाएँ,सभा- सभाएँ , दिशा-दिशाएँ, लता-लताएँ,
लेकिन चिड़िया से बहुवचन होगा-चिड़ियाँ, न कि चिड़ियाएँ। चिड़ियाएँ अशुद्ध ।
इकारान्त से बहुवचन बनाने पर –‘याँ’ जुड़ने पर-
जाति-जातियाँ, पंक्ति-पंक्तियाँ, रिक्ति-रिक्तियाँ, सूक्ति-सूक्तियाँ । ईकारान्त से बहुवचन बनाने पर –'याँ' जुड़ने पर-
कहानी-कहानियाँ , क्यारी-क्यारियाँ , लाठी-लाठियाँ , गाड़ी-गाड़ियाँ , साड़ी-साड़ियाँ, बेटी-बेटियाँ, गोटी-गोटियाँ, रोटी-रोटियाँ, गली-गलियाँ, कमी-कमियाँ, कुर्सी-कुर्सियाँ, पहाड़ी-पहाड़ियाँ, घाटी-घाटियाँ, दवाई-दवाइयाँ (अधिकतम दुकानों पर गलत शब्द -दवाईयाँ ही लिखा मिलेगा। )
क्रिया रूप में सजाना-सजाएँ , बताना -बताएँ, मनाना-मनाएँ, दिखाना-दिखाएँ, हटाना-हटाएँ, सुनाना-सुनाएँ, हँसना-हँसाएँ।
शब्द के मध्य में आने वाले अनुनासिक, जैसे- पहुँच, पहुँचना, मेहँदी, हालाँकि,
दिशाबोधक शब्दों के अन्त में ‘हां’ न होकर अन्तिम वर्ण ‘हाँ’ होना चाहिए-
यहाँ, वहाँ, कहाँ, जहाँ, तहाँ।
एकल शब्द-हाँ, हूँ, माँ, चूँ । ( चूँ- कुछ भी कह लेना, कोई चूँ तक नहीं करेगा। ) ऊँ-पहले-ऊँचा, ऊँचाई, ऊँघना।
ऊँ- अन्त में- खाऊँ, बताऊँ, लाऊँ, जाऊँ ,नहाऊँ, बताऊँ, मनाऊँ, सुनाऊँ
ऊँ- बीच में-जाऊँगा, लाऊँगा, बताऊँगा, हराऊँगा
कुछ अन्य शब्द, जिनके साथ अनुनासिक का प्रयोग होना चाहिए-
फाँस, काँच, खाँचा, खूँच, खूँटा, घूँट, घूँघट, चाँदी, चिहुँक, चूँकि, ठूँसना, धँसना, मुँडेर, मुँदरी ।
क्रमवाचक संख्याओं के अन्त में-वाँ का योग-
पाँचवा, सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ आदि
षट् (छह) का षष्ट होता है, इसलिए छठा होगा (छटवाँ अशुद्ध)
1-हूँ -शुद्ध है, इसे ‘हूं’ लिखने वाले बहुत हैं।
2-माँ, हाँ शुद्ध हैं । इन्हें-मां, हां -अशुद्ध रूप में लिखने वाली की संख्या बहुत है।
3-भाँति-भाँति शुद्ध, भांति-भांति-अशुद्ध ।
4-एक शब्द ऐसा है कि उसमें अनुनासिक होता ही नहीं; लेकिन लापरवाही से उसमें भी चन्द्रबिन्दु लगा देते हैं-
दुनिया-शुद्ध, दुनियाँ-अशुद्ध
एकवचन हो चाहे बहुवचन-‘चाहिए’ रूप रहेगा। इसे चाहिएँ लिखना त्रुटिपूर्ण है।
1-प्रत्येक कर्मचारी को समय पर कार्यालय में आना चाहिए।
2-सबको चले जाना चाहिए। (सबको चले जाना चाहिएँ।-अशुद्ध)
3- हँसना -शुद्ध, हंसना -अशुद्ध ।
4- हंस (पक्षी ) और हँस (हँसना क्रिया में अन्तर करना आवश्यक है )
अनुस्वार और अनुनासिक पर संक्षेप में जानकारी दी गई है। भाषा का यह वह क्षेत्र है, जिसमें सर्वाधिक त्रुटियाँ होती हैं। इसका मुख्य कारण लापरवाही है, जिससे मुक्त होना आवश्यक है। प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों को यह सब पढ़ाया जाता है। वे इनका सही प्रयोग जानते हैं; लेकिन बड़ी कक्षाओं में (विश्वविद्यालय स्तर पर भी) ये त्रुटियाँ छात्र और शिक्षक दोनों करते हैं। इससे बचना ज़रूरी है।
-0- (लेखक/ की अनुमति के बिना यह लेख/ लेख का कोई अंश प्रकाशित नहीं किया जा सकता है। rdkamboj@gmail.com)