अनु मलिक: अनअभिव्यक्त धुन का दर्द / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :05 अगस्त 2017
आजकल संगीतकार अनु मलिक छोटे परदे पर एक कार्यक्रम में अभिनेता की तरह नज़र आ रहे हैं। विगत कई वर्षों से वे बच्चों के गायन के कार्यक्रम में निर्णायक हैं गोयाकि फिल्मों में संगीत देने के अतिरिक्त सबकुछ कर रहे हैं। मनपसंद काम बिरले लोगों को ही नसीब होता है। इसी तरह ऊर्जा का नाश हो रहा है। सारी थकान भी इसी कारण होती है। मनपसंद काम करने में लगी ऊर्जा की विशेषता यही है कि वह दोगुनी ऊर्जा को जन्म देती है गोयाकि 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।' कुछ समय पूर्व ही आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'दम लगा के हईशा' में उनके संगीत को सराहा गया और फिल्म का गीत 'मोह मोह के धागे तेरी उंगलियों से जा उलझे' बार-बार सुनने को जी चाहता है। स्पष्ट है कि अनु मलिक अभी चुके नहीं हैं। माधुर्य उनके दिल में अभी भी कायम है। वे अभी मात्र सत्तावन वर्ष के हैं और यह समय तो प्रतिभा का वसंत ही माना जाता है।
अनु मलिक के पिता सरदार मलिक भी प्रतिभाशाली संगीतकार थे परंतु उन्हें अवसर ही कम मिले। अनु मलिक ने अपने पिता के नैराश्य को देखा है और इसी अनुभव से उन्होंने एक गलत नतीजा यह निकाला कि उन्हें उस सबके विपरीत काम करना है, जो उनके पिता ने किया। यथार्थ से कई बार लोग गलत नतीजे निकाल लेते हैं। उन्होंने जेपी दत्ता की 'बॉर्डर' में माधुर्य रचा। उनका गीत, 'संदेशे अाते हैं' अत्यंत लोकप्रिय हुआ और फिल्म की सफलता का महत्वपूर्ण कारण भी सिद्ध हुआ। फिल्म के अंतिम दृश्य के लिए बनाए गीत, 'मेरे दोस्त, मेरे दुश्मन, मेरे भाई' में युद्ध के विनाश दृश्यों का प्रभाव इस गीत के कारण बहुत बढ़ गया। युद्ध की वेदी पर पराजित एवं विजेता दोनों का ही बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। गीतकार जावेद अख्तर ने कमाल किया है।
इसी तरह जेपी दत्ता की करीना कपूर एवं अभिषेक बच्चन अभिनीत फिल्म 'रेफ्यूजी' में अलका याग्निक ने दो गीत इतने मधुर गाए हैं कि वे लता की श्रेणी तक पहुंच जाती हैं। इन गीतों के लिए अनु मलिक व अलका याग्निक दोनों को श्रेय है। इसमें एक गीत 'नदी और पवन को कोई ना रोके, हम सोचे हमने क्या खोया इंसा होकर' अत्यंत सार्थक रचना है। आजकल युद्ध के पक्ष में जुनून जगाया जा रहा है। टेलीविजन पर आंतकियों की चाय पार्टी दिखाई जा रही है गोयाकि हम यकीन कर लें कि आतंकी इतने भोले हैं कि वे टेलीविजन की कैमरा यूनिट को अपनी दावतों में शामिल करते हैं। यह संभव है कि यह खेल प्रायोजित हो। बहुसंख्यक वोट बैंक को मजबूती देने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। टेलीविजन पर जज की भूमिका में बहुत-सा अभिनय करना पड़ता है परंतु रोजी-रोटी की खातिर 'तरह-तरह नाच के दिखाना यहां पड़ता है।' यह कल्पना करना भी कठिन है कि जिस व्यक्ति के मन में धुनें गूंज रही हों, उसे इस तमाशे में आनंद मिलता होगा। अपने भीतर के संगीत को मारकर फूहड़ कार्यक्रम का हिस्सा बनना आसान काम नहीं है।
जब अनु मलिक काम पर निकलते हुए अपने धूल खाते हार्मोनियम को देखते होंगे तो उन्हें कैसा लगता होगा? सभी मनपसंद काम नहीं कर पाने वाले लोगों को अत्यंत बुरा लगता ही होगा। इसी तरह जो अयोग्य लोग अपनी तिकड़मबाजी से ऊंचे पद पा चुके हैं, उन्हें भी कष्ट तो होता ही होगा। जब यूरोप के विलक्षण संगीतकार मोजार्ट को दरबार में कार्यक्रम देते देखा तो दरबार का संगीतकार महफिल से उठकर वीराने में भाग जाता है और वहां आर्तनाद करता है, 'हे ईश्वर तूने प्रतिभा तो मोजार्ट को दी और महत्वाकांक्षा मुझे दे दी।' इस विषय पर फिल्म, नाटक और ऑपेरा तीनों ही बने हैं।
क्या राजनीति में अयोग्य तथा अपनी तिकड़मबाजी और फूट डालकर राज करने में माहिर व्यक्ति के मन में भी दरबारी संगीतकार की तरह प्रश्न उठते हैं? यह संभव नहीं लगता। अपनी क्रूरता को वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। आजकल लालकृष्ण आडवाणी क्या सोचते होंगे? बार-बार उन्हें गोवा अधिवेशन में की गई अपनी गलती याद आती होगी। आज आडवाणी एक त्रासद नाटक के पात्र की तरह बन गए हैं और अटलबिहारी वाजपेयी तो वहां हैं जहां से उन्हें अपनी खबर ही नहीं आती है। संभवत: उन्होंने मृत्यु के निकट होते हुए भी दूर होने की धुंध को अच्छे से समझ लिया है। अब उनके पास सिर्फ गंगेपन की गरिमा मात्र ही है। ऐसे में याददाश्त खो जाना वरदान हो सकता है। किसी के हिस्से में आशिर्वाद तो किसी के हिस्से में शाप ही आता है। यह 'देव इच्छा अवधारणा' हताशा को भी दिव्य बनाने का भ्रम पैदा करती है।
अन्नु मलिक भी अपने पिता सरदार मलिक की तरह अवसरों की कमी को जी रहे हैं। इस दौर में बेसुरे सितारे की सिफारिश पर ही संगीत देने के अवसर मिलते हैं। जो धूल हार्मोनियम पर पड़ी है, उससे कहीं अधिक मिट्टी के भार के बावजूद अनु मलिक मुस्करा लेते हैं। उनके इस जज्बे की भी कद्र की जा सकती है। नीमबेहोश ध्वनियों का भार कम नहीं होता।