अनेक सतहों पर प्रवाहित फिल्म / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 15 फरवरी 2014
आदित्य चोपड़ा और अली अब्बास जफर की फिल्म 'गुंडे' अनेक स्तर पर काम करती है और सतह के नीचे बहती लहरें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सबसे ऊपरी सतह पर ये दो विस्थापित मित्रों की कहानी है जिन्हें हालात के कारण रोटी छीनकर खाने की आदत पड़ जाती है। इन दोनों पात्रों का बचपन 'स्लमडॉग मिलियनेयर' की याद दिलाता है जिसमें जिंदगी की निर्मम पाठशाला में तपकर दो इस्पाती नौजवान सामने आते हैं। पुलिस अफसर इरफान खान इन दोनों अभिन्न मित्रों के बीच एक लड़की के माध्यम से फूट डालता है ताकि वे एक-दूसरे के दुश्मन हो जाएं। दोस्त, दुश्मन और दुश्मन दोस्त पर अनेक फिल्में बनी हैं और सारे षड्यंत्र के बाद भी उनकी दोस्ती कायम रहती है।
इंस्पेक्टर इरफान खान का पात्र आपको अंग्रेजों की याद दिलाता है जो दो मित्रों में फूट डालकर शासन करता है। दरअसल यह लोकप्रिय बात है कि अंग्रेजों की डिवाइड एंड रूल पॉलिसी ने भारत को तोड़ा, सच्चाई यह है कि फूट पड़ जाना या दरार उभरना हिंदुस्तान के अपने डीएनए में हजारों साल से है और अंग्रेजों ने हमीं से सीखकर हम पर उसे आजमाया है। इतिहास गवाह है कि हमारे ही लोगों के हाथ में कोड़े देकर हमें पिटवाया गया है। हर बार किसी हिंदुस्तानी ने ही विदेशियों का साथ दिया है।
यह कहानी बांग्लादेश के विभाजन और भारत की सहायता से मुक्तिवाहिनी द्वारा बांग्लादेश के निर्माण की पृष्ठभूमि से शुरू होती है कि किस तरह लाखों शरणार्थी भारत आए और हमारी व्यवस्था ने ही उन्हें अपराधी बनाया। राजनैतिक स्वार्थ ने उनका इस्तेमाल किया परन्तु एक और भीतरी सतह पर हम देख सकते हैं कि 1905-1906 में बंगाल का विभाजन अंग्रेजों ने किया जिसके खिलाफ आंदोलन करने के लिए मुस्लिम लीग का जन्म हुआ और कालांतर में इसे धार्मिक मानकर इसके खिलाफ आरएसएस का जन्म हुआ। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलुओं के रूप में आज भी काम कर रहे हैं। क्षेत्रीयता का जो जहर आज उग्र रूप में हम देख रहे हैं, उसका प्रारंभ ही राजनैतिक शस्त्र के रूप में वृहत्तर बंगाल के हिस्से करने से शुरू होता है। बहरहाल आदित्य चोपड़ा और अली अब्बास जफर इस पक्ष की राजनीति में नहीं जाकर केवल दो दोस्तों की आपसी मोहब्बत, मोहब्बत में दरार और उनके फिर एक हो जाने के मानवीय पक्ष पर ही जोर देते हैं। उनका संबंध सीधे मानवीय स्वभाव से है और वे उस गहराई में नहीं जाते कि किस तरह राजनैतिक स्वार्थ इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हैं। कुछ संकेत हैं कि सभी मानवीय रिश्तों में राजनीति की शतरंज अपना काम करते हुए प्यादों से राजा-रानी को मारती हैं। इंस्पेक्टर इरफान अपनी साथी अफसर प्रियंका चोपड़ा को भेजते हैं। जिससे दोनों प्यार करते हैं और एक दिल के दो अरमान की तरह जीने वाले एक दूसरे की जान के दुश्मन होते हैं। कोयले की खान से निकले ये दो हीरे विपरीत परिस्थितियों द्वारा मांजे जाते हैं और उनके व्यक्तित्व का सार उन्हें फिर एक कर देता है। एक और स्तर पर यह उस प्रियंका चोपड़ा की कहानी है जो उनमें फूट डालने के लिए उनके दिल में जा पहुंचती है और उनके भीतर के भोलेपन से भी प्यार करने लगती है। गोयाकि प्यार का स्वांग कब प्यार में बदल जाता है यह उसे पता ही नहीं चलता। याद कीजिए गुलजार की 'खामोशी' जो एक बंगाली फिल्म का हिंदी संस्करण थी। इसमें एक नर्स प्रेम द्वारा दिमागी खलल वाले रोगियों को ठीक करते-करते उनसे प्यार करने लगती है और मरीज ठीक होकर उसे भूल जाते हैं तथा अंत में वह स्वयं दिमागी खलल से बीमार पड़ जाती है।
विगत कुछ समय से कोयला खदान की नीलामी में भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है और इस फिल्म का प्रारंभ भी कोयले की चोरी से होता है। कोयले की कालिख इस फिल्म में रूपक की तरह इस्तेमाल की गई है।
बहरहाल, इस फिल्म में अर्जुन कपूर, इरफान और प्रियंका ने सजीव अभिनय किया है। पटकथा रणवीर सिंह का पक्ष लेती है परन्तु अर्जुन कपूर ही बेहतर कलाकार के रूप में उभरते हैं। दरअसल, रणवीर यह भूल गए हैं कि भंसाली ने बहुत पहले 'कट' कह दिया है और '...रामलीला' प्रदर्शित हो चुकी है परन्तु रणवीर सिंह आज भी उसी नशे में गाफिल हैं और उसी भूमिका के एक्सटेंशन को निभाए जा रहे हैं। इस फिल्म में एक महत्वपूर्ण पात्र कलकत्ता है और माता के विसर्ज का प्रभावोत्पादक इस्तेमाल किया गया है। आदित्य चोपड़ा ने बहुत ही करीने से सलीम-जावेद को भी संदेश दिया है कि आप ही किस्सा सुनाते-सुनाते सो गए हों, जमाना तो आज भी आपके अफसाने को सुनना चाहता है। 'गुंडे' सन् 73 से सन् 83 के बीच की सलीम-जावेद की पटकथाओं की याद दिलाती है।