अन्दर एक मौत / अभिज्ञात

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सुमिरन जी कोलकाता आये।

सुमिरन जो को दिनांक ने अचानक लपक लिया।

सारे साहित्यकार परेशान-

‘यह कैसे हुआ? यह क्या हुआ?’

‘बहरै-बाहर लोक लिया इस पट्ठे ने।‘

‘स्साला आलोक बाजपेयी बनता फिरता था। फिर सुमिरन से अपनी क़िताब का विमोचन कैसे करवाने लगा?’

‘पक्ष-विपक्ष दोनों हड़प जायेगा क्या?’

‘वैसे भी कम थुक्का फ़जीहत कहां है जनकवियों के सामने। रूस कब का उलट गया। यहां भी मुंह बा देगा जाने कब..। ताड़ीताड़ी जो बटोरते बने बटोर लो। वैसे भी लाल लंगोट अधिक दिन बांधने की चीज़ नहीं। सुनते हैं बजरंग बली भी नाराज़ होते हैं इससे।’

‘कमरेडवा सब बदल गये ससुरा। साहित्य है कि भड़भूजापन। सब प्रतिक्रियावादियों के लहज़े में साहित्य बतिया रहे हैं। बढ़चढ़कर कलात्मकता, भाषा संरचना का समर्थन करने लगे हैं। एक ठो इ संश्लिष्ट यथार्थ से तो और नाक में दम हो गया है। जिसे देखो वही इस पर गोंजने में लपटा गया है। ख़ैर..’

‘.......तो सुमिरन करेंगे दिनंकवा की कविता संग्रह का बिमोचन। इहो कम प्रपोगेंडिस्ट कहां है। कोई न कोई मौका चाहिए अख़बार में छाये रहने का। कवि है कि नौटंकी है।’

इधर दिनांक था कि उसने सहज ही दिया था सुमिरन को अपनी ताज़ा क़िताब और वे इसके लोकार्पण को लालाइत हो गये। अपने ही घूम-घूम कर नगर भर में प्रचार कर डाला-‘मैं लोकार्पण करूंगा फलाने की क़िताब का फलाना तारीख को।’ सुमिरन ने दो-एक और प्रतिष्ठित लोगों को इसके लिए न्योत डाला कि बड़े लोगों के साथ बैठकर ही उनके कार्यक्रम का प्रभाव पड़ेगा। बाकी नामों की फेहरिश्त पूछने पर उन्होंने दिनांक के ऊपर ही छोड़ दिया। ‘जिसे चाहे न्योते।’

दिनांक पड़ा मुश्किल में। किसे बुलाये-किसे न बुलाये। हर खेमे से उसकी पटरी थी। हर खेमे के कुछ-कुछ को शामिल करते हुए भी दर्जन भर से ऊपर की लिस्ट बनी। प्रोग्राम सुमिरन के एक सम्पन्न शिष्य के यहां होना था। सब कुछ इतना आनन-फानन में हुआ कि नामों के बारे में बात न हो पायी। क़िताब की बाइंडिंग अभी होनी बाक़ी थी। हाथ में कुल दो दिन थे। कोई दूसरी तारीख पर सुमिरन तैयार नहीं थे। वे महीने भर व्यस्त थे।

कार्ड सबको न बंट पाये। जैसे तैसे दस-पंद्रह क़िताबें तैयार करवाई बाइंडर के साथ देर रात तक जगकर दिनांक ने। निमंत्रण पत्र छपाने की जिम्मेदारी भी उसी पर थी।

कार्ड छपाकर जब वह क़िताब के साथ एक मूर्धन्य आलोचक के यहां गया तो उन्होंने कार्यक्रम में आने से साफ मना कर दिया। दिनांक को उनसे बड़ी आशाएं थीं कि वे उसकी क़िताब पर कायदे से ही बोलेंगे। उसने इनके कई कार्यक्रमों में बढ़चढ़कर सहयोग दिया था।

आलोचक की समस्या यह थी कि उसने कनेर को कार्यक्रम में क्यों बुलाया है। कनेर आलोचक के विरुध्द एक साप्ताहिक में लिख रहा था जिसमें इनके लड़कियों से अवैध सम्बंधों और सफ़ेदपोश अपराधों की ख़ोजख़बर निर्भीकतापूर्वक थी। आलोचक का कहना था कि कवि में सच को समर्थन देने की ताक़त होनी चाहिए। उल्टे वे झूठ को बढ़ावा दे रहे हैं जिसका सामाजिक तिरस्कार होना चाहिए। कनेर को महत्त्व दिये जाने से वे क्षुब्ध थे। उसे इस कार्यक्रम में बुलाना उसको इज्ज़त देना है। वे नहीं आ सकेंगे।

भारी मन से दिनांक उठा और प्रलय जी के यहां जा पहुंचा। वे महानगर के अग्रणी कवियों में थे। आलोचक ने इन पर ख़ूब लिखा था। दिनांक को वे पसंद करते थे क्योंकि उन्हें पता था दिनांक की आलोचना पर भी गहरी पैठ है। दिनांक ने आलोचक से हुई अपनी बातचीत दोहराई लेकिन वे फिर भी कार्यक्रम में जाने को तत्पर थे। प्रलय जी के यहां दिनांक पहली बार गया था। प्रलय जी ने अपने बेटे से मिठाई मंगाई और दिनांक को पहली मिठाई मिली। उसकी क़िताब का विमोचन जो था सो इसी खुशी में अग्रज कवि की ओर से मिठाई आयी थी।

इसके बाद प्रलय ने दीवार पर टंगी निराला की फोटो की तरफ ध्यान आकृष्ट कराया जिनकी तरह उन्होंने ख़ुद बाल व दाढ़ी रखी थी। आल्मारी से ओल्ड मंक की बोतल निकाली तो दिनांक विस्मृत रह गया। अभावों में रह हैं प्रलय जी। उन्हें बस भाड़ा बचाने के लिए पदयात्रा करते हुए कई बार देखा गया है। उनके घर में बड़ी ओल्ड मंक की बोतल आश्चर्य की चीज़ थी। दिनांक को प्रलय जी के आग्रह पर बोतल खोलनी पड़ी। उसकी क़िताब का असली विमोचन इस प्रकार हुआ।

प्रलय ने कहा-इस प्रकार का विशेष स्वागत डॉ.रामविलास शर्मा के लिए निराला करते थे। ढंग थोड़ा भिन्न है। निराला के पास चटाई और रजाई हुआ करती थी। रामविलास के आने पर निराला अपनी रजाई उनके बैठने के लिए बिछा दिया करते थे।

एक पैग हलक से उतारने के बाद प्रलय जी ने दिनांक से फरमाइश की कि अपनी नयी क़िताब से वह एक कविता पढ़े। दिनांक ने ऐसा ही किया जिस पर प्रलय जी ने प्रशंसा के पुल बांधे। उन्होंने कहा-'तुम समकालीन हिन्दी कविता के नाज़िम हिकमत हो। इसे मैं समूचे ईमान के साथ स्वीकार करता हूं।'

इसके बाद उन्होंने अपनी चार कविताएं पढ़ीं और उनके ख़ास-ख़ास हिस्सों और बिम्बों की ओर ध्यान खींचा जो निराला से मुक्तिबोध तक की काव्य-साधना से उन्हें जोड़ते थे। भविष्य में उन पर लिखने का पक्का भरोसा पाकर प्रलयजी चल पड़े। दिनांक को आज प्रोग्राम में शीर्ष पर स्थापित कर देंगे।

किन्तु वहां पहुंच कर दिनांक की हालत पतली थी। सुमिरन नाराज थे क्योंकि उसी खुराफाती पत्रकार कनेर ने संयोजक को भी अपने अख़बार में नंगा किया था और उन पर अपने दफ्तर में चकलाघर चलाने तक का आरोप लगा दिया था। कनेर का नाम कार्ड में देखकर वे आगबबूला हो गये थे। बात बढ़ने लगी तो दिनांक ने तुरूप का एक्का फेंका और बाजी पलट गयी। दिनांक ने कहा था-'मैं चला मुझे अपनी क़िताब का विमोचन कराना ही नहीं है। मुझे साहित्य में स्थापित होना होगा तो मैं पाठकों के बल पर हो लूंगा। दो- चार लोग तारीफ़ करके ही मुझे महान नहीं बना सकते।'

और सुमिरन के काफी मनुहार के बाद ही वह माना। कार्यक्रम के संचालक को दिनांक ने पहले ही बता दिया गया था कि कार्यक्रम के पहले वक्ता के तौर पर प्रलय जी को बुलाया जाये। जिस प्रकार का बीजभाषण वे उसकी कविता पर देने वाले थे आशा थी कि लोग उसी के इर्द गिर्द घूमते रहेंगे। वह नाजिम हिकमत बनने के लिए बेचैन था। प्रलयजी ने अभी पहला वाक्य पूरा भी न किया था कि एकाएक आलोचक जी का पदार्पण हुआ जिसकी किसी को आशा न थी। प्रलय जी अचकचा गये। अपने पूरे भाषण में वे आलोचक को साधने में लगे रहे जाहिर है कि उन्हें पता था कि वे दिनांक से खफा हैं सो यहां उसकी खिंचाई के लिए ही पहुंचे होंगे तो उन्हीं को प्रसन्न रखने में हित अधिक सधने थे। एक नये रामविलास की खोज में पुराने रामविलास को नहीं खोया जा सकता था। प्रलय जी ने अपने भाषण में नाजिम हिकतम का ज़िक्र किया ज़रूर था लेकिन दिनांक पर उनकी कविताओं की भोंडी नकल का आरोप लगाया था और मौलिकता की तलाश करने का सुझाव दिया था। दूसरा वक्ता कनेर था जो एकाएक पहुंचा था और किसी अन्य कार्यक्रम में जाने का उतावलापन दिखाकर जल्द अपना वक्तव्य देने पर उतारू था। संचालक ने उसे मौका दे दिया। कनेर का वक्तव्य दिनांक के पक्ष में था और उसके पक्ष में दिया जाने वाला अन्तिम वक्तव्य भी। सभी वक्ताओं को कनेर से खुन्नस थी इसलिए उन्होंने कनेर की उन दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया था जो दिनांक के पक्ष में दी गयी थीं। दिनांक अपने अन्दर एक नाजिम हिकमत को मरते देख रहा था।