अन्नदाता / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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दरवाजा खुला हुआ है। मैं दहलीज पर ही ठिठक जाता हूँ। सामने पिताजी की अस्थिपंजर-सी काया अपनी टूटी चप्पल में कील ठोंक रही है। कदमों की आहट सुनकर वह मेरी ओर देखते हैं और फिर मुझे पहचानते ही उनकी बुझी-बुझी आँखों में चमक आ जाती है।

"आइए!" वे हड़बड़ाकर कहते हैं।

उनके मुँह से अपने लिए "आइए" सुनकर पूरा शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ने लगता है। मैं हैरानी से उनकी बूढ़ी आँखों में झाँकता हूँ। वे खिसियाकर आँखें झुका लेते हैं और फिर जल्दी से आवाज लगाते हैं, "देखो तो कौन आया है।" मैं आगे बढ़कर उनके पैर छूता हूँ। वे बेचैनी से इधर-उधर देखत हैं और फिर पास में पड़ी अपनी मैली कमीज से ही कमरे में पड़ी टूटी कुर्सी को झाड़ने लगते हैं। मैं असहाय-सा उनकी ओर देखता हूँ। वे जल्दी से भीतर वाले कमरे में चले जाते हैं। मैं उदासी में डूब जाता हूँ।

माँ मेरे आगे पीछे हो रही है। उनके मुँह से मेरे लिए आशीर्वाद बरस रहे हैं। तभी बड़े भइया पसीने में तर-बतर भीतर आते हैं। मैं उनके पैबंद लगे कपड़ों एवं मरियल-से शरीर को देखता हूँ। बेरोजगारी ने उन्हें निचोड़कर रख दिया है। मुझे देखते ही उनकी मुर्दा आँखों में चमक दिखाई देने लगती है। वे तेजी से मेरी ओर बढ़ते हैं। मैं हड़बड़ाकर खड़ा हो जाता हूँ। मुझे लगता है, वे हीन भावना से ग्रस्त होकर अपने छोटे भाई के पैर छूने वाले हैं। मैं बिजली की-सी तेजी से आगे बढ़कर उनके पैर छू लेता हूँ और निढाल-सा कुर्सी पर गिर जाता हूँ।

मैं रसोई में माँ के पास बैठकर खाना-खाना चाहता हूँ, बड़े भइया ने मेरे विरोध के बावजूद मुझे कमरे में पिताजी के साथ खाना खाने के लिए बैठा दिया है। मेरी थाली में तीन सब्जियाँ हैं, जबकि पिताजी की थाली में केवल आलू की सब्जी हैं, बड़े भइया रसोई से फुलके लाकर मेरी थाली मंे रख रहे हैं। जो रोटी जल जाती है या कम फूलती है, उसे पिताजी की थाली में रख जाते हैं। मन में आता है कि थाली उठाकर फेंक दूँ और चिल्लाकर कहूँ-अपने ही घर में मुझे वी.आई.पी. दर्जा क्यों दिया जा रहा है?

चाहकर भी मैं कुछ नहीं कर पाता हूँ। चुपचाप सिर झुकाकर कौर निगलने लगता हूँ। बचपन की स्मृतियों में खुद को देखता हूँ-माँ, पिताजी के पैर दबाते हुए-कुएँ से पानी खींचकर बर्तन साफ करते हुए-पढ़ाई न करने पर बड़े भइया के सामने उठक-बैठक लगाते हुए और भी न जाने क्या-क्या...

मैं अटैची खोलता हूँ और पिछले महीनों की तनख्वाह से बचाए गए रुपए माँ को दे देता हूँ। कमरे में विचित्र-सी चुप्पी छा जाती है। बड़े भइया दूसरे कमरे में जाकर माँ को बुलाते हैं। मैं कमरे में अकेला रह जाता हूँ। मुझे लगता है, बगल के कमरे में बड़े भइया और माँ में रुपयों को लेकर चख-चख हो रही है। बड़े भइया गुस्से में अपनी जरूरतें गिनवा रहे हैं। माँ उनकी माँग के मुताबिक रुपए देने में असमर्थता व्यक्त कर रही है। एकाएक महसूस होता है जैसे अब यहाँ किसी को मेरी जरूरत नहीं है!

"अब मैं जाऊँगा।" मैं कमरे से निकल कर कहता हूँ।

"रात रुक जाते।" माँ की मरी हुई आवाज।

"नहीं जरूरी काम है।" झूठ बोलता हूँ।

"काम होगा, तभी तो कह रहा है-वैसे भी आदमी अपने काम में ही अच्छे लगते हैं।" पिताजी जल्दी से कहते हैं।

"मैं रिक्शा ले आता हूँ।" बड़े भइया बाहर की ओर लपकते हैं।

मैं बारी-बारी से सबके पैर छूकर रिक्शा पर बैठ जाता हूँ। मेरी आँखें डबडबा आई हैं। थोड़ा रास्ता तय करने के बाद पीछे मुड़कर देखत हूँ-माँ, पिताजी और बड़े भइया दरवाजे पर खड़े दिखाई देते हैं। आँसुओं की परत के पार जितना भी जोर डालकर देखता हूँ, उनकी आकृतियाँ उतनी ही बिखरती दिखाई देती हैं। मेरा सिर चकराने लगता है। मैं कौन हूँ? ये लोग कौन हैं? इन हाथ बाँधे खड़े लोगों का बेटा या छोटा भाई तो मैं हो नहीं सकता। तो फिर-मैं इनका कौन हूँ?

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