अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी / सुधा अरोड़ा
प्यारी माँ और बाबा,
चरण - स्पर्श।
मुझे मालूम है बाबा, लिफाफे पर मेरी हस्तलिपि देख कर लिफाफे को खोलते हुए तुम्हारे हाथ काँप गए होंगे। तुम बहुत एहतियात के साथ लिफाफा खोलोगे कि भीतर रखा हुआ मेरा खत फट न जाए।
सोचते होगे कि एक साल बाद आखिर मैं तुम लोगों को खत क्यों लिखने बैठी। कभी तुम अपने डाकघर से, कभी बाबला या बउदी अपने आफिस से फोन कर ही लेते हैं, फिर खत लिखने की क्या जरूरत। नहीं, डरो मत, ऐसा कुछ भी नया घटित नहीं हुआ है। कुछ नया हो भी क्या सकता है।
बस, हुआ इतना कि पिछले एक सप्ताह से मैं अपने को बार-बार तुम लोगों को खत लिखने से रोकती रही। क्यों? बताती हूँ। तुम्हें पता है न, बंबई में बरसात का मौसम शुरू हो गया है। मैं तो मना रही थी कि बरसात जितनी टल सके, टल जाए, लेकिन वह समय से पहले ही आ धमकी। और मुझे जिसका डर था, वही हुआ। इस बार बरसात में पार्क की गीली मिट्टी सनी सड़क से उठ कर उन्हीं लाल केंचुओं की फौज घर के भीतर तक चली आई है। रसोई में जाओ तो मोरी के कोनों से ये केंचुए मुँह उचका-उचका कर झाँकते हैं, नहाने जाओ तो बाल्टी के नीचे कोनों पर वे बेखौफ चिपके रहते हैं। कभी-कभी पैरों के नीचे अचानक कुछ पिलपिला-सा महसूस होता है और मैं डर जाती हूँ कि कहीं मेरे पाँव के नीचे आ कर कोई केंचुआ मर तो नहीं गया?
इस बार मुझे बाँकुड़ा का वह अपना ( देखो, अब भी वही घर अपना लगता है ) घर बहुत याद आया। बस, ये यादें ही तुम्हारे साथ बाँटना चाहती थी। पता नहीं तुम्हें याद है या नहीं, पता नहीं बाबला को भी याद होगा या नहीं, हम कितनी बेसब्री से बरसात के आने का इंतजार करते थे। मौसम की पहली बरसात देख कर हम कैसे उछलते-कूदते माँ को बारिश के आने की खबर देते जैसे पानी की बूँदें सिर्फ हमें ही दिखाई देती हैं, और किसी को नहीं। पत्तों पर टप-टप-टप बूँदों की आवाज और उसके साथ हवा में गमकती फैलती मिट्टी की महक हमें पागल कर देती थी, हम अखबार को काट-काट कर कागज की नावें बनाते और उन्हें तालाब में छोड़ते। माँ झींकती रहती और हम सारा दिन पोखर के पास और आँगन के बाहर, हाथ में नमक की पोटली लिए, बरसाती केंचुओं को ढूँढ़ते रहते थे। वे इधर-उधर बिलबिलाते-से हमसे छिपते फिरते थे और हम उन्हें ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारते थे। नमक डालने पर उनका लाल रंग कैसे बदलता था, केंचुए हिलते थे और उनका शरीर सिकुड़ कर रस्सी हो जाता था। बाबला और मुझमें होड़ लगती थी कि किसने कितने ज्यादा केंचुओं को मारा। बाबला तो एक-एक केंचुए पर मुट्ठी भर-भर कर नमक डाल देता था।
माँ, तुम्हें याद है, तुम कितना चिल्लाती थीं बाबला पर, इतना नमक डालने की क्या जरूरत है रे खोका। पर फिर हर बार जीतता भी तो बाबला ही था -- उसके मारे हुए केंचुओं की संख्या ज्यादा होती थी। बाबा, तुम डाकघर से लौटते तो पूछते -- तुम दोनों हत्यारों ने आज कितनों की हत्या की? फिर मुझे अपने पास बिठा कर प्यार से समझाते -- बाबला की नकल क्यों करती है रे। तू तो माँ अन्नपूर्णा है, देवीस्वरूपा, तुझे क्या जीव-जंतुओं की हत्या करना शोभा देता है? भगवान पाप देगा रे।
आज मुझे लगता है बाबा, तुम ठीक कहते थे। हत्या चाहे मानुष की हो या जीव-जंतु की, हत्या तो हत्या है।
तो क्या बाबा, उस पाप की सजा यह है कि बाँकुड़ा के बाँसपुकुर से चल कर इतनी दूर बंबई के अँधेरी इलाके के महाकाली केव्स रोड के फ्लैट में आने के बाद भी वे सब केंचुए मुझे घेर-घेर कर डराते हैं, जिन्हें पुकुर के आस-पास नमक छिड़क-छिड़क कर मैंने मार डाला था।
यह मेरी शादी के बाद की पाँचवीं बरसात है। बरसात के ठीक पहले ही तुमने मेरी शादी की थी। जब बाँकुड़ा से बंबई के लिए मैं रवाना हुई, तुम सब की नम आँखों में कैसे दिए टिमटिमा रहे थे जैसे तुम्हारी बेटी न जाने कौन-से परीलोक जा रही है जहाँ दिव्य अप्सराएँ उसके स्वागत में फूलों के थाल हाथों में लिए खड़ी होंगी। यह परीलोक, जो तुम्हारा देखा हुआ नहीं था पर तुम्हारी बेटी के सुंदर रूप के चलते उसकी झोली में आ गिरा था, वरना क्या अन्नपूर्णा और क्या उसके डाकिए बापू शिबू मंडल की औकात थी कि उन्हें रेलवे की स्थायी नौकरीवाला सुदर्शन वर मिलता? तुम दोनों तो अपने जमाई राजा को देख -देख कर ऐसे फूले नहीं समाते थे कि मुझे बी.ए. की सालाना परीक्षा में भी बैठने नहीं दिया और दूसरे दर्जे की आरक्षित डोली में बिठा कर विदा कर दिया। जब मैं अपनी बिछुआ-झाँझर सँभाले इस परीलोक के द्वार दादर स्टेशन पर उतरी तो लगा जैसे तालाब में तैरना भूल गई हूँ। इतने आदमी तो मैंने अपने पूरे गाँव में नहीं देखे थे। यहाँ स्टेशन के पुल की भीड़ के हुजूम के साथ सीढ़ियाँ उतरते हुए लगा जैसे पेड़ के सूखे पत्तों की तरह हम सब हवा की एक दिशा में झर रहे हैं। देहाती-सी लाल साड़ी में तुम्हारे जीवन भर की जमा-पूँजी के गहनों और कपड़ों का बक्सा लिए जब अँधेरी की ट्रेन में इनके साथ बैठी तो साथ बैठे लोग मुझे ऐसे घूर रहे थे जैसे मैं और बाबला कभी-कभी कलकत्ता के चिड़ियाघर में वनमानुष को घूरते थे। और जब महाकाली केव्स रोड के घर का जंग खाया ताला खुला तो जानते हो, सबसे पहले दहलीज पर मेरा स्वागत किसने किया था -- दहलीज़ की फाँकों में सिमटे-सरकते, गरदन उचकाते लाल-लाल केंचुओं ने। उस दिन मैं बहुत खुश थी। मुझे लगा, मेरा बाँकुड़ा मेरे आँचल से बँधा-बँधा मेरे साथ-साथ चला आया है। मैं मुस्कुराई थी। पर मेरे पति तो उन्हें देखते ही खूँख्वार हो उठे। उन्होंने चप्पल उठाई और चटाख् - चटाख् सबको रौंद डाला। एक-एक वार में इन्होंने सबका काम तमाम कर डाला था। तब मेरे मन में पहली बार इन केंचुओं के लिए माया-ममता उभर आई थी। उन्हें इस तरह कुचले जाते हुए देखना मेरे लिए बहुत यातनादायक था।
हमें एकांत दे कर आखिर इनकी माँ और बहन भी अपने घर लौट आई थी। अब हम रसोई में परदा डाल कर सोने लगे थे। रसोई की मोरी को लाख बंद करो, ये केंचुए आना बंद नहीं करते थे। पति अक्सर अपनी रेलवे की ड्यूटी पर सफर में रहते और मैं रसोई में। और रसोई में बेशुमार केंचुए थे। मुझे लगता था, मैंने अपनी माँ की जगह ले ली है और मुझे सारा जीवन रसोई की इन दीवारों के बीच इन केंचुओं के साथ गुजारना है। एक दिन एक केंचुआ मेरी निगाह बचा कर रसोई से बाहर चला गया और सास ने उसे देख लिया। उनकी आँखें गुस्से से लाल हो गईं। उन्होंने चाय के खौलते हुए पानी की केतली उठायी और रसोई में बिलबिलाते सब केंचुओं पर गालियाँ बरसाते हुए उबलता पानी डाल दिया। सच मानो बाबा, मेरे पूरे शरीर पर जैसे फफोले पड़ गए थे, जैसे खौलता हुआ पानी उन पर नहीं, मुझ पर डाला गया हो। वे सब फौरन मर गए, एक भी नहीं बचा। लेकिन मैं जिंदा रही। मुझे तब समझ में आया कि मुझे अब बाँकुड़ा के बिना जिंदा रहना है। पर ऐसा क्यों हुआ बाबा, कि मुझे केंचुओं से डर लगने लगा। अब वे जब भी आते, मैं उन्हें वापस मोरी में धकेलती, पर मारती नहीं। उन दिनों मैंने यह सब तुम्हें खत में लिखा तो था, पर तुम्हें मेरे खत कभी मिले ही नहीं। हो सकता है, यह भी न मिले। या मिल भी जाए तो तुम कहो कि नहीं मिला। फोन पर मैंने पूछा भी था - चिट्ठी मिली? तुमने अविश्वास से पूछा - पोस्ट तो की थी या .....। मैं हँस दी थी - अपने पास रखने के लिए थोड़े ही लिखी थी। तुमने आगे कुछ नहीं कहा। और बात खतम।
फोन पर इतनी बातें करना संभव कहाँ है। फोन की तारों पर मेरी आवाज जैसे ही तुम तक तैरती हुई पहुँचती है, तुम्हें लगता है, सब ठीक है। जैसे मेरा जिंदा होना ही मेरे ठीक रहने की निशानी है। और फोन पर तुम्हारी आवाज सुन कर मैं परेशान हो जाती हूँ क्योंकि फोन पर मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि तुम जिस आवाज को मेरी आवाज समझ रहे हो, वह मेरी नहीं है। तुम फोन पर मेरा कुशल-क्षेम ही सुनना चाहते हो और मैं तुम्हें केंचुओं के बारे में कैसे बता सकती हूँ? तुम्हारी आवाज से मैं चाह कर भी तो लिपट नहीं सकती। मुझे तब सत्तरह सौ किलोमीटर की दूरी बुरी तरह खलने लगती है। इतनी लंबी दूरी को पार कर डेढ़ साल पहले जब मैं वहाँ बाँकुड़ा पहुँची थी, मुझे लगा था, मैं किसी अजनबी गाँव में आ गई हूँ जो मेरा नहीं है। मुझे वापस जाना ही है, यह सोच कर मैं अपने आने को भी भोग नहीं पाई। मैंने शिथिल होकर खबर दी थी कि मुझे तीसरा महीना चढ़ा है। मैं आगे कुछ कह पाती कि तुम सब में खुशी की लहर दौड़ गई थी। माँ ने मुझे गले से लगा लिया था, बउदी ने माथा चूम लिया था। मैं रोई थी, चीखी थी, मैंने मिन्नतें की थीं कि मुझे यह बच्चा नहीं चाहिए, कि उस घर में बच्चे की किलकारियाँ सिसकियों में बदल जाएँगी, पर तुम सब पर कोई असर नहीं हुआ। तुम चारों मुझे घेर कर खड़े हो गए -- भला पहला बच्चा भी कोई गिराता है, पहले बच्चे को गिराने से फिर गर्भ ठहरता ही नहीं, माँ बनने में ही नारी की पूर्णता है, माँ बनने के बाद सब ठीक हो जाता है, औरत को जीने का अर्थ मिल जाता है। माँ, तुम अपनी तरह मुझे भी पूर्ण होते हुए देखना चाहती थी। मैंने तुम्हारी बात मान ली और तुम सब के सपनों को पेट में सँजो कर वापस लौट गई।
वापस। उसी महाकाली की गुफाओंवाले फ्लैट में। उन्हीं केंचुओं के पास। बस, फर्क यह था कि अब वे बाहर फर्श से हट कर मेरे शरीर के भीतर रेंग रहे थे। नौ महीने मैं अपने पेट में एक दहशत को आकार लेते हुए महसूस करती रही। पाँचवें महीने मेरे पेट में जब उस आकार ने हिलना-डुलना शुरू किया, मैं भय से काँपने लगी थी। मुझे लगा, मेरे पेट में वही बरसाती केंचुए रेंग रहे हैं, सरक रहे हैं। आखिर वह घड़ी भी आई, जब उन्हें मेरे शरीर से बाहर आना था और सच माँ, जब लंबी बेहोशी के बाद मैंने आँख खोल कर अपने बगल में लेटी सलवटोंवाली चमड़ी लिए अपनी जुड़वाँ बेटियों को देखा, मैं सकते में आ गई। उनकी शक्ल वैसी ही गिजगिजी लाल केंचुओं जैसी झुर्रीदार थी। मैंने तुमसे कहा भी था -- देखो तो माँ, ये दोनों कितनी बदशक्ल हैं, पतले -पतले ढीले -ढाले हाथ -पैर और साँवली -मरगिल्ली सी। तुमने कहा था - बड़ी बोकी है रे तू, कैसी बातें करती है, ये तो साक्षात लक्ष्मी-सरस्वती एक साथ आई हैं तेरे घर। तुम सब ने कलकत्ता जा कर अपनी बेटी और जमाई बाबू के लिए कितनी खरीदारी की थी, बउदी ने खास सोने का सेट भिजवाया था। सब दान-दहेज समेट कर तुम यहाँ आईं और चालीस दिन मेरी, इन दोनों की और मेरे ससुरालवालों की सेवा-टहल करके लौट गईं। इन लक्ष्मी-सरस्वती के साथ मुझे बाँध कर तुम तो बाँकुड़ा के बाँसपुकुर लौट गईं, मुझे बार-बार यही सुनना पड़ा - एक कपालकुंडला को अस्पताल भेजा था, दो को और साथ ले आई।
बाबा, कभी मन होता था - इन दोनों को बाँध कर तुम्हारे पास पार्सल से भिजवा दूँ कि मुझसे ये नहीं सँभलतीं, अपनी ये लक्ष्मी-सरस्वती-सी नातिनें तुम्हें ही मुबारक हों पर हर बार इनकी बिटर-बिटर-सी ताकती हुई आँखें मुझे रोक लेती थीं।
माँ, मुझे बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हारी तरह एक अच्छी माँ कभी नहीं बन पाऊँगी जो जीवन भर रसोई की चारदीवारी में बाबला और मेरे लिए पकवान बनाती रही और फालिज की मारी ठाकुर माँ की चादरें धोती-समेटती रही। तुम्हारी नातिनों की आँखें मुझसे वह सब माँगती हैं जो मुझे लगता है, मैं कभी उन्हें दे नहीं पाऊँगी।
इन पाँच-सात महीनों में कब दिन चढ़ता था, कब रात ढल जाती थी, मुझे तो पता ही नहीं चला। इस बार की बरसात ने आ कर मेरी आँखों पर छाए सारे परदे गिरा दिए हैं। ये दोनों घिसटना सीख गई हैं। सारा दिन कीचड़-मिट्टी में सनी केंचुओं से खेलती रहती हैं। जब ये घुटनों घिसटती हैं, मुझे केंचुए रेंगते दिखाई देते हैं और जब बाहर सड़क पर मैदान के पास की गीली मिट्टी में केंचुओं को सरकते देखती हूँ तो उनमें इन दोनों की शक्ल दिखाई देती है। मुझे डर लगता है, कहीं मेरे पति घर में घुसते ही इन सब पर चप्पलों की चटाख-चटाख बौछार न कर दें या मेरी सास इन पर केतली का खौलता हुआ पानी न डाल दें। मैं जानती हूँ, यह मेरा वहम है पर यह लाइलाज है और मैं अब इस वहम का बोझ नहीं उठा सकती।
इन दोनों को अपने पास ले जा सको तो ले जाना। बाबला और बउदी शायद इन्हें अपना लें। बस, इतना चाहती हूँ कि बड़े होने पर ये दोनों अगर आसमान को छूना चाहें तो यह जानते हुए भी कि वे आसमान को कभी छू नहीं पाएंगी, इन्हें रोकना मत।
इन दोनों के रूप में तुम्हारी बेटी तुम्हें सूद सहित वापस लौटा रही हूँ। इनमें तुम मुझे देख पाओगे शायद।
बाबा, तुम कहते थे न - आत्माएँ कभी नहीं मरतीं। इस विराट व्योम में, शून्य में, वे तैरती रहती हैं -- परम शांत हो कर। मैं उस शांति को छू लेना चाहती हूँ। मैं थक गई हूँ, बाबा। हर शरीर के थकने की अपनी सीमा होती है। मैं जल्दी थक गई, इसमें दोष तो मेरा ही है। तुम दोनों मुझे माफ कर सको तो कर देना। इति।
तुम्हारी आज्ञाकारिणी बेटी,
अन्नपूर्णा मंडल