अन्नू की अर्थी और जनाजा / दराबा / जयप्रकाश चौकसे

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अन्नू की अर्थी और जनाजा
जयप्रकाश चौकसे

भारत में परिवारों के झगड़े कभी समाप्त नहीं होते, वे पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। परन्तु कुछ हमले निर्णायक सिद्ध होते हैं। ऐसा ही एक हमला कृष्ण ने रसिक पर किया, जिसमें कृष्ण की जीत तो नहीं हुई, परन्तु रसिक काफी हद तक हार गए। जब | रसिक ने अपने व्यवसाय के लिए अंधाधुंध कर्जे उठाना शुरू किया था, तब कृष्ण ने अपना काफी धन एक बिचौलिए के माध्यम से रसिक के व्यवसाय में लगाया था। उसे अपने धन का बराबर और नियमित रूप से ब्याज मिलता था। इस ब्याज की राशि को पाकर कृष्ण के मन में विचित्र-से संतोष के भाव आ जाते थे। इस चाल का मूल उद्देश्य यह था कि रसिक से मूलधन उस समय वापस माँगा जाए जब उसकी हालत कमजोर हो। रसिक ने पूरे शहर में लगभग 50 महाजनों से पैसा, उधार लिया था। पत्नी के तानों के कारण कृष्ण को ब्याज का लालच छोड़कर मूलंधन की वापसी का निर्णय लेना पड़ा। उसने रसिक के उन साहूकारों की एक सभा अपने घर में बुलाई जिन साहूकारों पर उसका प्रभाव अच्छा था। इस सभा में कृष्ण ने रसिक की कंपनी को डूबने वाली कंपनी बताया और सभी साहूकारों से निवेदन किया कि वे किसी एक निश्चित तारीख को एक साथ अपना मूलधन वापस माँगें। कृष्ण ने बताया कि संगम दुकान से बहुत अधिक मुनाफा है, परन्तु रसिक के व्यक्तिगत खर्चे और ब्याज की राशि इतनी अधिक बढ़ गई है कि कंपनी का कभी भी दीवाला निकल सकता है। उसने साहूकारों को ये भी समझाया कि कुछ दिन पूर्व ही रसिक ने अपने दो सगे भाइयों को व्यवसाय से अलग किया है और उन्हें अपना हिस्सा छोड़ने के एवज में मोटी रकम दी है। कृष्ण ने रसिक की आर्थिक स्थिति का ऐसा भयावह वर्णन किया कि साहूकारों को लगा कि रसिक कभी भी भाग सकता है। उसने इस ओर भी इशारा किया कि लंगोट के कच्चे व्यापारी पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

साहूकारों पर इस बात का बहुत असर हुआ। जब साहूकारों ने रसिक से अपने धन की माँग की तो रसिक के पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गई। उसे इस आकस्मिक आक्रमण की कल्पना भी नहीं थी। उसकी खरीदी हुई संपत्ति का बाज़ारी मूल्य कौँ की रकम से ज्यादा था परन्तु संपत्ति चौबीस घंटे में बेची नहीं जा सकती। उसने साहूकारों को समझाने की कोशिश की कि उसकी आर्थिक स्थिति ठोस है, परन्तु उसकी बात को अनसुना कर दिया गया। दरअसल रसिक की लाइफ स्टाइल में इतनी अधिक तड़क-भड़क थी कि अनेक महाजन उसके ठाटबाट से जलते थे। बहुत अधिक पैसा मात्र होने से जीने की अदा नहीं आ जाती। उन महाजनों को सूद से लाखों की आय थी परन्तु उनके घर का रहन-सहन मध्यम वर्ग से भी ज्यादा गिरा हुआ था। नफ़ासत पसंद रसिक दिन में तीन बार कपड़े बदला करता था और उसकी बातचीत में बहुत अकड़ आ गई थी। साहूकारों को मन ही मन ये बात बुरी लगती थी कि उनका कर्जदार ठाठबाट से रहता है और अब शहर के रईसों में एक गिना जाता है। इन सब कारणों से साहूकार रसिक की अकड़ तोड़ने पर आमादा थे। रसिक ने उन्हें ब्याज की राशि बढ़ाने का लालच देकर बहुत बड़ी गलती कर दी, क्योंकि साहूकार को लगता है कि बढ़े हुए ब्याज की दर वह व्यापारी स्वीकार कर सकता है जिसके इरादे नेक नहीं हैं और जो मूलधन चुकाना चाहता नहीं है। शीघ्र ही रसिक को अपनी भूल का अहसास हो गया और उसका चेहरा स्याह पड़ गया। वर्षों की योजनाबद्ध मेहनत आज तबाह हो गई। साहूकारों के जाने के बाद उसके दोनों बेटे उसके पास आए और उन्होंने कहा कि साहूकारों को धन लौटाने के लिए वे लोग अपनी ससुराल से पैसा उठाएँगे और परिवार की इज्जत को बचा लेंगे।

दरअसल रसिक का तामझाम और रुतबा इतना अधिक बढ़ा हुआ था कि उसके शासन में दोनों शादीशुदा बेटों को कोई खास आजादी प्राप्त नहीं थी। मन ही मन वे दोनों अवसरों की तलाश में थे कि अपने मन की बात अपने पिता से कह सकें। उन्होंने ताबड़तोड़ फोन लगाकर अपनी ससुराल से आवश्यक धन माँग लिया। साहूकारों को चुकाने के पहले उन्होंने अपनी शर्तें सामने रख दीं जिनके अनुसार अब रसिक नाममात्र के प्रमुख थे। रसिक के बेटों ने रसिक को भारत के राष्ट्रपति की तरह शान का प्रतीक बना दिया और व्यवसाय के तमाम निर्णय लेने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री के अपने अधिकार अपने पास सुरक्षित रख लिये। इस गृहयुद्ध में रसिक की माँ और उसकी पत्नी ने युवा वर्ग का समर्थन किया। रसिक की पत्नी रसिक की अय्याशी के किस्सों से अपरिचित नहीं थी और रसिक की माँ अपने पोतों को बहुत अधिक प्यार करती थी। इस परिस्थिति में रसिक ने अपने को असहाय पाया, क्योंकि एक तरफ कुआँ था और दूसरी तरफ थी खाई। उसने बाहरी साहूकारों के सामने अपमानित होने से बेहतर ये समझा कि घर में हथियार डाल दिए जाएँ। बेटे उसकी फिजूलखर्ची से तंग थे और उन्हें ये भी सख्त नापसंद था कि उनका बाप चौबीस घंटे भांति-भांति के चमचों से घिरा रहे।

नई पीढ़ी के इन लड़कों का व्यवहार अत्यधिक व्यावहारिक था। युवा पीढ़ी चमचों की पारिवारिक बीमारी से सर्वथा मुक्त थी और वे ज़िन्दगी को आँकड़ों के आईने में देखती थी। लागत पर लाभ का प्रतिशत कैसे बढ़े इसका ज्ञान उन्हें था। वे अपने विशाल परिवार के पारंपरिक युद्ध में कोई रुचि नहीं रखते थे। उनका सोच-विचार बिलकुल साफ था। उनके लिए गीता के ज्ञान से ज्यादा जरूरी था अपने बहीखातों की व्याख्या। उन्हें अपने पिता के समाजसेवी स्वरूप से बहुत घृणा थी। वे हर प्रकार के अनावश्यक तामझाम के खिलाफ थे। रसिक अगर इस माली परिवार का शाहजहां था तो उसके दोनों बेटे औरंगजेब की तरह थे। औरंगजेब का असली मुद्दा ये था कि वे शाहजहां के रोमांटिक दृष्टिकोण से नफरत करते थे। औरंगजेब को ये भी पसंद नहीं था कि मुगलों की संचित संपत्ति एक मकबरे पर खर्च कर दी जाए। उनका ख्याल था कि शाहजहां के प्रभाव में मुगल सेनाएँ कमजोर हो रही हैं। रसहीन व्यक्ति अपने तानाशाही रवैए के लिए हमेशा ठोस बहाने खोजते हैं। इस परदे के पीछे उनका खोखलापन छुप जाता है।

जिस दिन रसिक के हाथ से सत्ता गई उस दिन सनवारा गेट के बाईं ओर शाहपुर जाने वाली सड़क पर बहुत भीड़ लगी थी। नगर के दिलेर प्रशासक भावे साहब ने यह तय किया था कि परकोटे की दीवार तोड़कर नया बस स्टैंड बनाया जाए। पुराना बस स्टैंड शहर के बीच बसा था और अब बढ़ते हुए शहर की माँग के हिसाब से छोटा पड़ता था। मुसाफिरों के साथ नागरिकों को भी परेशानी थी, क्योंकि ट्रेफिक संभालना मुश्किल हो रहा था। भावे साहब के इस साहसी कदम की कटु आलोचना हो रही थी। परकोटे की दीवार शहर के जनमानस का हिस्सा थी और उसके टूटने से बहुत-सी बातें जुड़ी थीं। उधर भावे साहब को यह भ्रम था कि परकोटे की चार सौ साल पुरानी दीवार धक्का मारते ही टूट जाएगी। भावे साहब के इशारे पर जब मजदूरों ने जर्जर-सी दिखने वाली दीवार तोड़ने का प्रयास प्रारंभ किया तो थोड़े ही देर में सबको यह समझ में यह आ गया कि इन दीवारों में अभी बहुत दम है। भावे साहब हिम्मत हारने वाले आदमी नहीं थे। उन्होंने अगले दिन खंडवा से एक बुलडोजर मंगाया और इस आधुनिक निर्दय मशीन के सामने पुरानी दीवार ने गर्दन झुका ली। भावे साहब को आश्चर्य हुआ कि बुलडोजर की सहायता के बावजूद कुल 200 फुट दीवार तोड़ने के लिए महीने से अधिक समय लग गया। पुराने बाशिंदों ने अधिकारियों की निगाह बचाकर इस यादगार परकोटे की ईंट उठा ली और घर के पूजाघर में स्थान दिया। टूटी हुई दीवार के उस पार जमीन को समतल किया गया और नए बस स्टैंड के लिए दफ्तर बनाने के कार्य का शुभारंभ हुआ।

एक ताजी हवा का झोंका शहर में घुस आया जिसके परिणामस्वरूप कुछ वर्षों बाद ही शाहपुर जाने वाले सड़क के दोनों ओर नई बस्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। इस तरह छद्म आधुनिकता ने शहर में प्रवेश किया और शहर के बाहर नए जमाने के लोगों के लिए बस्ती बन गई। इस नई बस्ती में आधुनिक ढंग से मकान बनने लगे। इसी नई बस्ती में पढ़ने वाली और कामकाजी महिलाओं के लिए एक हॉस्टल का निर्माण भी हुआ। आजादी के बाद भारत में ऊँचा वेतन पाने वाले कर्मचारियों के नए वर्ग का विकास हुआ। बीमा और बैंक जैसी संस्थाओं में कर्मचारियों के यूनियन बहुत सशक्त हो गए और इन्होंने एक नए किस्म की दादागिरी को जन्म दिया। पेन डाउन नामक हड़ताल का नया औजार खोजा गया। मजे की बात यह है कि इन संस्थाओं में पूरे वर्ष भी कोई खास काम नहीं होता है, परन्तु फिर भी पेन डाउन का अपना महत्व है। कमजोर सरकार और नपुंसक नेतृत्व ने इस सफेदपोश हड़ताल को सफल होने दिया। नतीजा ये हुआ कि इस वर्ग का वेतन दूसरे सभी समान काम करने वाले वर्गों से बहुत अधिक बढ़ गया। स्टेट बैंक के चपरासी को कॉलेज के लेक्चरर के बराबर वेतन मिलने लगा। इस वेतन वृद्धि ने सामाजिक व्यवहार में अनेक परिवर्तनों को जन्म दिया। संयुक्त परिवार इसी परिवर्तन के शिकार हुए और बैंक में नौकरी करने वाले लड़कों ने अपना पुश्तैनी मकान छोड़कर नई कॉलोनी में दड़बेनुमा मकान में प्रवेश किया। इस नई कॉलोनी में किटी पार्टियों का दौर प्रारंभ हुआ। दोपहर को इन नवधनाढ्य महिलाओं ने छद्म आधुनिकता को ग्रहण किया और इसी के तहत बारी-बारी से सहयोगियों के घर जाकर ताश की महफिल जमाना अनिवार्य-सा हो गया। इन किटी पार्टियों ने अनेक भ्रष्ट अफसरों को जन्म दिया। किटी पार्टियों में पत्नियों के बीच फैशन और दिखावे की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। इस स्पर्धा में पराजित पत्नियों ने अपने पतियों की नींद उस समय तक हराम कर दी जब तक उन्होंने रिश्वत लेकर पत्नियों की माँगें पूरी नहीं कीं।

भारत में हर सफल भ्रष्टाचारी अफसर के पीछे उसकी पत्नी का सहयोग स्पष्ट दिखाई देता है। इन नई बस्तियों में नए तीज-त्यौहार भी शुरू हुए। बच्चों के जन्मदिन पर केक काटे जाने लगे और 31 दिसंबर की रात बड़े धूम-धड़ाके वाली पार्टियाँ दी जाने लगीं। इन्हीं बस्तियों में ब्यूटी पार्लर की स्थापना हुई जहाँ शहर के अमीर और मनचले लोग नियमित रूप से आने लगे। इन्हीं बस्तियों में शरीर बेचने के धंधे ने कालगर्ल का नया नाम धारण किया। इन्हीं बस्तियों में कुछ क्लबों की भी स्थापना हुई। दरअसल इन बस्तियों में सैक्स का व्यापार शुरू होते ही बोरवाड़ी का आभामंडल ध्वस्त होने लगा। कुछ पड़ोसी परिवारों में भाभीवाद का जन्म हुआ। लार टपकाते हुए लम्पट देवर ड्राइंगरूम से होते हुए चौके में घुसने लगे और मौखिक छेड़छाड़ का नया स्वरूप उभरकर सामने आया। कलाई पकड़ने के बहाने खोजे गए और शीघ्र ही बोरवाड़ी जैसी महान सांस्कृतिक संस्था का पतन होने लगा। इसी दौर में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुले। गली-गली सेंट पॉल, सेंट मेरी, और सेंट रेफियल नामक कान्वेंट तर्ज के स्कूल खुल गए। महेश के सबसे छोटे पुत्र ने भी लिटिल फ्लॉवर नामक स्कूल खोल लिया। नौकरीपेशा लोगों ने बड़े गर्व से अपने बच्चों को इन फैशनेबुल स्कूलों में भेजा। शाम को घर आने वाले अतिथियों के सामने बच्चों को मजबूर किया जाता था कि ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार गाकर सुनाएँ। अपने बच्चे के अंग्रेजी ज्ञान से सुदूर भविष्य में उसके अफसर बनने की आशा जागती थी।

इस तरह के मोजार्ट स्वप्न की मृगतृष्णा के कारण अनेक मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों को अत्याचार सहने पड़े। परकोटे की दीवार के टूटते ही लिटिल बुरहानपुर शाहपुर रोड के निकट बसने लगा। कुछ लोग इसे ग्रेटर बुरहानपुर कहना पसंद करते थे।

दरअसल भारत-पाक विभाजन के बाद कई और विभाजन हुए जो कमोबेश समान रूप से घातक सिद्ध हुए। हर शहर के दो हिस्से हो गए-सुविधासंपन्न लोगों का इंडिया और सुविधाहीन लोगों का भारत। कुछ शहरों में इंडिया और भारत के बीच की सरहद फ्लाई ओवर कहलाती है। बाद की कुछ घटनाओं ने एक धर्म के लोगों को एक विशेष मोहल्ले में बसने के लिए प्रेरित किया। बहरहाल आत्माराम के परिवार की युवा पीढ़ी ने अपना आनंद बाजार शाहपुर रोड पर बसी नई कॉलोनी में बसाया। इस नई पीढ़ी में कैलाश जैसे साहसी नौजवान नहीं थे और न ही रसिक की तरह श्रृंगारप्रियता थी। उनके लिए अय्याशी आधुनिकता का पर्याय थी। कलेक्टर भावे साहब ने अनजाने ही परकोटे की दीवार तोड़कर बुरहानपुर में अपसंस्कृति के एक नए टापू को स्थापित किया।

नई पीढ़ी के लड़के संवेदनहीन थे। उन्होंने शहर के कॉलेज से डिग्रियाँ खरीदी थीं और जीवन के लिए आवश्यक हर चीज को खरीदने की उन्हें आदत हो गई थी। खरीदकर बेचने की क्रिया के इर्द-गिर्द उनका जीवन व्यतीत हो रहा था। ये उनका दुर्भाग्य था कि वे जीवन के बादलों से गुजरते हुए भी न तो उसकी ठंडक महसूस कर रहे थे न ही उसकी बिजली को थाम सकते थे। बाप-दादाओं की कमाई हुई दौलत के वातानुकूलित हवाई जहाज में बैठकर वे बादलों से गुजर रहे थे और धरती को 30 हज़ार फुट की ऊँचाई से आयातित गोगल्स चढ़ाकर देख रहे थे। दराबा बनाने वाले परिवार के ये लड़के हर तरह से मांसाहारी थे परन्तु उनके जीवन में रस नहीं था। इस नई पीढ़ी में किसी के पास भी कृष्ण का व्यवसाय चातुर्य नहीं था और न ही वे रसिक की तरह उद्यमी थे। ये बात जरूर थी कि इस नई पीढ़ी ने भारत की बदली हुई आर्थिक परिस्थिति का लाभ उठाना सीख लिया था और वे जानते थे कि पैसे से पैसा कैसे बनाया जाता है। इस नई पीढ़ी के सभी लड़के अपने पिताओं की जीवनशैली के कटु आलोचक थे और मन ही मन वैसा कुछ करना भी चाहते थे। इस अजीब-से विरोधाभास में उनका जीवन बीत रहा था। इस पीढ़ी ने पिता के प्रति निर्मम और बद्तमीज होने को अपने टुच्चे जीवन की सार्थकता समझ लिया था। पिता द्वारा अर्जित संपत्ति के इस्तेमाल से इन्हें परहेज नहीं था। इस पीढ़ी ने आक्रोश की मुद्रा अपना ली परंतु इनमें से कोई भी न योद्धा था और न ही प्रेमी। इन्होंने डिग्रियाँ खरीदी थीं परंतु शिक्षा से इनका कोई संबंध नहीं था।

प्रताप के बड़े लड़के महादेव और उसके आधा दर्जन भाइयों ने अपने पिता के साम्राज्य को भोगा परंतु उनमें से किसी के भी पास प्रताप का चातुर्य या साहस नहीं था। महादेव गंभीर स्वभाव का व्यक्ति था और वह अपनी सत्ता का प्रयोग जनता की भलाई के लिए करना चाहता था परन्तु व्यवस्था का चक्रव्यूह तोड़ने में असफल रहा। बुरहानपुर की जनता ने उसे अपने चक्रवर्ती राजा के राजकुमार की तरह देखा और प्यार भी किया। महादेव का कोमल व्यक्तित्व शासन करने के लिए नहीं बना था। उसके लिए निर्मम होना कठिन था और शासन करने के लिए वह बाध्य किया गया। उसकी शैली अपने पिता से भिन्न थी। वह शायर नहीं होते हुए भी कमोबेश बहादुरशाह जफर की तरह का राजा था, परन्तु उसके अन्य भाई अपने पिता की शैली के कैरीकेचर मात्र थे।

महादेव की आंतरिक दुविधा का लाभ उठाकर उसका अपना एक चेला जातिवाद के चोर दरवाजे से सत्ता के गलियारे में जा पहुँचा और पहला काम किया उस सीढ़ी को लात मारने का जिसके सहारे सत्ता के शिखर तक पहुँचा था। महादेव तिलमिला गया। उसने पलटकर वार करने के पहले इन्तजार का निर्णय लिया। उसके शार्गिद ने रिश्वतखोरी और कमीनेपन के नए कीर्तिमान स्थापित किए। राजनीति में गिरावट का यह ऐसा समय था जब नेताओं ने आँख की शर्म को भी तिलांजलि दे दी थी और समाज में भ्रष्टाचार का न केवल मुद्दा समाप्त हो गया था वरन परोक्ष मान्यता प्राप्त हो गई थी। नमक के दरोगा से बात ऊपर की कमाई वाले दामाद को खोजने तक पहुँच गई थी।

अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के कुछ घंटे पहले अलसभोर में यह बात फैल गई कि अन्नु नहीं रही। पूरे मोहल्ले में मातम छा गया। नवाबजान ने बताया कि गत रात अन्नु ने गुसल करके सफेद कपड़े पहने और ज़िन्दगी में पहली बार एक ग्राहक को लौटाया क्योंकि वह कुछ अजीब-सा महसूस कर रही थी। डॉक्टर बुलाने से उसने इन्कार किया। मगरिब की नमाज के समय नवाबजान को वह मृत मिली। शायद आधी रात उस दिल ने धड़कना बंद कर दिया जिसमें पूरा बुरहानपुर समाया था।

मोहल्ले के लोगों ने चंदा करके अन्नु के आखिरी सफर को यादगार बनाने का फैसला किया। बुरहानपुर में धरती के भीतर जल प्रदाय की योजना को समझना आसान है परन्तु खबर फैलने की व्यवस्था को नहीं समझा जा सकता। देखते ही देखते शहर के अनेक लोग आ गए। एक अघोषित हड़ताल शहर में हो गई। कलाल और कसाई मोहल्ले के लोगों ने बंद का नारा लगा दिया। रफीक विसाल खाँ का स्कूल सुबह की शिफ्ट में लगता था। उन्होंने अपने हेडमास्टर से स्कूल बंद करने की सिफारिश की। हेडमास्टर ने कहा कि किसी तवायफ के गुजरने पर मदरसा बंद नहीं किया जा सकता। विसाल खाँ ने कहा अन्नु किसी स्कूल से कम नहीं थी। इस नामुराद शहर की तीन पीढ़ियों की उसने खिदमत की है।

अन्नु के स्कूल से कई पीढ़ियाँ शिक्षित होकर निकली हैं और उनके स्कूल का हाल ऐसा है कि मकतबे इश्क का ये ढंग निराला देखा कि जिसको सबक याद हुआ उसको छुट्टी न मिली। हेडमास्टर ने कहा- मियाँ शे'रो-शायरी और आपके खयालात के चक्कर में मेरी नौकरी चली जाएगी। आप तो ऐसा करें कि छुट्टी की अर्जी मुझे दें और जनाजे में शामिल हों, बच्चों को माफ कर दें यही बेहतर होगा। दरअसल हेडमास्टर साहब बहुत सीधे-सादे इन्सान थे और विसाल खाँ रफीक की बहुत इज्जत भी करते थे, लेकिन उस दिन कुछ स्कूलों में छुट्टी जरूर मनाई गई।

बोरवाड़ी मोहल्ले के साथ लगी हुई तमाम गलियों में सारी दुकानें बंद थीं। अन्नु की मौत पर मातम का ये आलम कैसे छाया यह बताना तो मुश्किल है, परंतु ये हकीकत है कि बुरहानपुर के इतिहास में किसी का जनाजा ऐसे धूमधाम से नहीं निकला। एक तवायफ की ज़िन्दगी मर-मर के जीने की दास्तान होती है और उनका बुढ़ापा तो सजाए मौत से भी बदतर होता, परन्तु अन्नु का बुढ़ापा न तो तनहा था और न ही बेरौनक। उसकी उम्र का हिसाब खुद उसके पास नहीं था, परन्तु ये ऊपर वाले की देन थी कि उम्र के हर दौर में उसकी कशिश बनी रही। उसका जिस्म किसी हवेली की तरह नहीं था जो समय के प्रभाव में खंडहर में बदल जाए। उसका जिस्म तो बहती हुई नदी की तरह था और नदी की भला कोई उम्र होती है!

अन्नु एक ऐसी सेहतमंद औरत थी जिसको पूरी उम्र कभी हकीम वैद्य के पास नहीं जाना पड़ा। उसने कभी किसी तरह का परहेज या अनुशासन नहीं माना और स्वच्छंद जिन्दगी की कोई भी कीमत उसको अदा नहीं करनी पड़ी। मौत के कुछ घंटों पहले तक वो अपनी दुकानदारी में मशगूल थी। उसने गुसलखाने से निकलकर कोठे की मालकिन से कहा कि वो थोड़ा थकावट महसूस कर रही है और सोने के पहले साफ-सुथरे सफेद रंग के कपड़े पहनने का उसका मन है। मालकिन को बात अजीब-सी लगी, क्योंकि अन्नु ने कभी साफ-सुथरे कपड़े नहीं पहने थे और न ही कभी थकावट का जिक्र किया था। उस दिन उसने जिद करके साफ-सुथरे कपड़े पहने, नई चादर बिछाई, तकिए के गिलाफ बदले और सोने चली गई। उस वक्त ज़रा भी अंदाज़ नहीं था कि अब ये सोकर नहीं उठेगी। नींद में वो लंबे अनंत सफर पर चली गई।

कोठे की मालकिन ने जनाजे के लिए कोई चंदा नहीं माँगा परंतु न जाने कैसे सारी तवायफें ढेर-सा पैसा लेकर वहाँ हाजिर हो गईं और इस बात पर जोर देने लगीं कि अन्नु आपा का जनाजा बहुत धूम से निकले। एक अजीब किस्म की हवा और एक अजीब किस्म की लहर ने सारे शहर को जकड़ लिया और लोग मंत्रमुग्ध होकर कोठे की तरफ जाने लगे। तवायफों के मोहल्ले में किसी को यकीन नहीं था कि अन्नु की बिदाई में इतने सारे लोग शिरकत करेंगे। इस मोहल्ले में एकमात्र धार्मिक अधिकारी पीर साहब भी बहुत हैरान थे। इन पीर साहब को किसी और मोहल्ले में मजहबी कामों के लिए नहीं बुलाया जाता था। सारी तैयारियों के दरमियान ऐसा लग रहा था मानो गम के राग में कोई शहनाई बज रही है और सारे कामकाज उसी के तान से संचालित हैं। पीर साहब को ये भ्रम हुआ मानो अन्नु की लाश नहीं, बल्कि कोई आदमकद शहनाई बिस्तर पर पड़ी हो। जमाने के बेसुरेपन ने यहाँ भी थोड़ी दखलंदाजी की, पर मामले ने ज्यादा तूल नहीं पकड़ा।

हुआ यूँ कि मोहल्ले का एक पनवाड़ी ये जिद करने लगा कि अन्नु का अंतिम संस्कार हिन्दू रीति-रिवाज से होगा। कोठे की मालकिन ने उसे समझाया कि मरने वाली का असली नाम अन्नु नहीं है और ये नाम तो न जाने किस मनचले ग्राहक ने उसे दे दिया और न जाने क्यों दिया। पुनवाड़ी ने तैश में आकर पूछा कि अगर अन्नु उसका पुकारता नाम था तो उसका असली नाम क्या था ? इस सवाल का जवाब पूरे मोहल्ले में किसी के पास नहीं था। पनवाड़ी अपनी जिद पर कायम था। कोठे की सुरक्षा के लिए तैनात पहलवान खब्बू खाँ को भी जोश आ गया और उन्होंने पनवाड़ी के गिरेबां पर हाथ रखना चाहा, क्योंकि उनकी पनवाड़ी से बहुत नाराजगी थी, उस पनवाड़ी ने पहलवान को कभी उधार पान खाने नहीं दिया था। अपनी इस व्यक्तिगत रंजिश को अन्नु की लाश पर भुनाने का इरादा था खब्बू खाँ पहलवान का। पीर साहब ने इस दंगल को रोका। दंगल तो रुक गया परन्तु ये बहस शुरू हो गई कि आखिर अन्तु किस जाति की थी।

शहर बुरहानपुर में हिन्दू और मुसलमानों की आबादी लगभग बराबर की थी और इसके बावजूद भी कभी दंगा नहीं हुआ था। पिछले कुछ सालों से शहर में तनाव रहने लगा था। धूल में लिपटे बेजान से शहर में फिरकापरस्तों की संख्या बढ़ गई। भला इन्सान को बिगड़ते क्या देर लगती! मज़हब का नशा सबसे सस्ता और सबसे ज्यादा टिकाऊ होता है। ये नशा शराब, अफीम और हशिश से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है। कुछ निठल्ले और नकारा युवकों ने इस नशे की आदत डाल ली थी और वे अपने जुनून को प्रदर्शित करने का बहाना ढूँढते रहते थे। कुछ बुजुर्गों का ख्याल था कि अनाथ अन्नु खुद चलकर इस मोहल्ले में आई थी और उस वक्त उसकी उम्र गुड़िया से खेलने की थी। वो अपने साथ कोई सामान नहीं लाई थी, जिसके आधार पर उसकी जात या धर्म को तय किया जाता। उसे खुद अपना नाम नहीं मालूम था। बहुत पूछने पर उसने अपने आपको मुन्नी बताया था, और छोटी लड़कियों को हर मज़हब के लोग मुन्नी कहकर बुलाया करते थे। वो हमेशा खुश रहती थी और मोहल्ले के सारे घर उसके अपने घर थे। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही उसे कोठे की जरूरत आन पड़ी। कुछ सालों तक तो उसने अलग-अलग कोठों में रहकर अपनी दुकानदारी चलाई और हर घर में उसने अपनी मेहनत का आधा हिस्सा कोठे वालों को दिया परन्तु पिछले कुछ वर्षों से वो नवाबजान के कोठे पर रहने लगी थी। इसके बावजूद भी सभी कोठों के लोग उसकी इज्जत करते थे क्योंकि वो सभी तवायफों के दुःख-दर्द में शामिल थी और अपना कमाया हुआ पैसा अपनी बिरादरी के बच्चों पर खर्च किया करती थी। कई बच्चों की स्कूली शिक्षा उसकी मदद से पूरी हुई और आज पूरी बिरादरी उसके जनाजे को कंधा देना चाहती है।

पनवाड़ी की देखा-देखी कुछ और हिन्दू दुकानदार और अन्नु के ग्राहक इस बात पर जोर देने लगे कि उसकी अंतिम क्रिया हिन्दू धर्म से हो। इस विचार के खिलाफ प्रतिक्रियास्वरूप कुछ लोगों ने अन्नु को दफनाने की जिद पकड़ ली। इसी समय अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढहने की खबर आ गई। सारी दुकानें बंद हो गई। शहर में तनाव छा गया। पुलिस के जवान मुस्तैदी से गश्त लगाने लगे। पीर साहब ने फोन करके पुलिस को बताया कि बोरवाड़ी में बेहद तनाव है। पुलिस का एक दस्ता रवाना हुआ। खब्बू खाँ पहलवान और पनवाड़ी ने नारे लगाना शुरू किया। देखते-देखते दोनों दल लाठियाँ भाँजने लगे। इस भीड़ को सँभालना मुश्किल था। हिन्दू और मुसलमानों के फिरकापरस्त नेता आ गए। वे इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। उनके शार्गिद भी हथियारों से लैस थे। उनकी आँखें हिंस्रक पशुओं की तरह चमक रही थीं, सीने में नफरत का ज्वार उमड़ रहा था। वहाँ मौजूद इन्स्पेक्टर साहब घबरा गए। चंद पुलिसवालों की मदद से इन उन्मादी लोगों से निपटा नहीं जा सकता था। उसने वायरलैस से मुख्यालय को खबर दी कि ये सारा इलाका बारूद के ढेर पर बैठा है और एक पूरी बटालियन ही स्थिति पर काबू पा सकती है। बूढ़ी नवाबजान ने सारी बात सुन ली। अन्नु उसके कोठे पर मरी थी। वह धीरे-धीरे चलते हुए खब्बू खाँ और पनवाड़ी के बीच खड़ी हो गई। उसने अपनी बुलंद आवाज़ में कहा कि अन्नु ने कभी अपने ग्राहक से उसकी जाति नहीं पूछी थी और कभी किसी ग्राहक ने भी उससे उसका धर्म नहीं पूछा। फिर आज आप लोग उसकी मिट्टी खराब करने पर आमादा हैं? ये मेरा फैसला है कि अन्नु का श्रृंगार सधवा की तरह होगा और मंत्रोच्चार के साथ उसकी अर्थी निकलेगी परन्तु नुक्कड़ पर पहुँचकर अन्नु का आखिरी सफर जनाजे के रूप में तब्दील होगा और मेरी माँ की कब्र के पास उसे दफन करेंगे।

वहाँ इकट्ठा सारी तवायफों ने नवाबजान की बात को सही माना और इस तीसरी फोर्स के तेवर देखकर फिरकापरस्त नेता सन्न रह गए। तवायफों का साथ देने के लिए बहुत से लोग सामने आ गए। नवाबजान ने खब्बू खाँ और पनवाड़ी के हाथ से लाठियाँ छीन लीं। उस पूरे मोहल्ले की औरतें और बच्चे नवाबजान को घेरकर खड़े हो गए। फिरकापरस्तों की आँखों में जागे हिंस्रक पशु भी घबराकर भाग गए। दरअसल आम आदमी जितना डरा हुआ होता है उससे ज्यादा डर इन हुड़दंगियों के मन में होता है।

नवाबजान की आवाज में इस्पात था और सारी तवायफों के साथ आने से इस्पात को धार मिल गई थी। तवायफें अमन पसंद होती हैं और उनमें आम औरतों से अधिक साहस होता है। उनके जिस्म के घाट पर अनेक जुदा-जुदा धर्मों और विचारों वाले लोग अपनी कुंठाएँ धोते हैं। नवाबजान ने सारे शहर को झुलसने से बचा लिया।

अन्नु का श्रृंगार सधवा की तरह किया जाने लगा और पास-पड़ोस की हिन्दू औरतों ने इस काम में मदद की। पनवाड़ी पुजारी ले आया और मंत्रोच्चार के बीच अन्नु की अर्थी उठी। गली के आखिरी छोर पर पीर साहब ने जनाजे का सारा इंतजाम कर दिया। पुलिस फोर्स की निगरानी में अन्नु को खाके सुपुर्द किया गया। विसाल खाँ ने एक पुलिस वाले से कहा कि हुजूर हवा में फायर करके अन्नु को इज्जत बक्रों या कम से कम बंदूक को उल्टा कर दें। पुलिस वाले ने कहा मास्टर साहब आपको ऐसे नाजुक मौके पर भी बेहूदा मज़ाक सूझ रहा है। मैं आपको हिरासत में ले सकता हूँ। विसाल खाँ कुछ बुदबुदाए और सुस्त कदमों से अपने घर की ओर चल पड़े। पनवाड़ी और खब्बू खाँ अपने दोस्तों के साथ वापस जाने लगे। नुक्कड़ तक पहुँचते ही उनमें कहासुनी हो गई और खब्बू खाँ ने पनवाड़ी को थप्पड़ मार दिया। पनवाड़ी के एक चमचे ने कौमी नारा लगा दिया और जाने कैसे पथराव शुरू हो गया। पुलिस का दस्ता लौट चुका था। नफरत की ताकतों को मौका मिल गया। जाने कहाँ से हथियारबंद लोग सड़कों पर आ गए। किसी ने घासलेट एक बंद दुकान पर डाल दिया और आग लगा दी। घासलेट चूल्हा जलाने से ज्यादा बहुओं को जलाने और दंगा करने के काम आता है।

विसाल खाँ अपने को बचाते हुए सँकरी गलियों से गुजरने लगे। एक हिन्दू बाहुल्य मोहल्ले में कुछ लोगों ने उन्हें पहचान लिया और उनका पीछा करने लगे। खिड़की से कैलाश की पत्नी ने उन्हें देखा और दरवाजे तक पहुँचने का हौसला दिया। उसने दौड़कर दरवाजा खोला और विसाल खाँ को हाथ पकड़कर भीतर खींच लिया। दंगाइयों ने दरवाजा तोड़ने की कोशिश की। खिड़की पर पहुँचकर उसने दंगाइयों से लौटने का कहा। एक दंगाई ने कहा कि तेरा घर एक मुस्लिम तवायफ ने उजाड़ा है और वह एक मुसलमान को बचाना चाहती है। उसने जवाब दिया कि उसके पति का मन ऐसा है कि उसका घर तो टूटना ही था। नफीसा तो महज बहाना थी। वह न होती, कोई और होती। उसने बताया कि उसके घर टूटने की खबर विसाल खाँ ने ही दी थी और उसके हक के लिए वह उसके दोस्त से लड़ा भी था। वह कभी नफीसा के घर नहीं गया।

इसके बाद लोग इस माली बहू के आक्रामक तेवर देखकर चकित रह गए। उसने एक चाकू उठाया और चेतावनी दी कि अगर किसी ने विसाल खाँ को नुकसान पहुँचाने की कोशिश की तो वह आत्महत्या कर लेगी। गहने तुड़वाने और गहने बनवाने या अपने सरोते से दिनभर सुपारी छीलने वाली इस गाय के सींग निकल आएँगे, यह किसी ने नहीं सोचा था। धीरे-धीरे भीड़ छँटने लगी।

विसाल खाँ की आँखें नम हो गईं। उन्हें भाभी में अपनी अम्मा नजर आने लगी। वातावरण थोड़ा-सा सहज होते ही उन्होंने पूछा कि वे नफीसा के घर नहीं जाते यह बात उन्हें कैसे मालूम हुई। माली बहू ने बताया कि पहले दिन से ही उन्होंने अपना एक सेवक नफीसा के यहाँ चाकरी पर लगा दिया था और उन्हें हर सप्ताह पूरी खबर मिल जाती थी। नफीसा के इस नौकर को दोनों घरों से वेतन मिलता रहा है। विसाल खाँ ने उन्हें उनकी अक्लमंदी की दाद दी। बहू ने ठहाका लगाया। उसने बताया कि शुरू में उसे नफीसा से नफरत थी परंतु कुछ वर्षों बाद यह नफरत खत्म हो गई और एक अनदेखी सौतन से अनकहा बहनापा उनके दिल में पनपने लगा। एक दिन उस नौकर ने ही कहा कि अब वह बहुत कुछ नफीसा की तरह लगने लगी है, और नफीसा उनकी तरह होती जा रही है।

पुलिस गाड़ी के सायरन से भाभी देवर की जुगलबंदी टूटी और कैलाश का आगमन हुआ। उसने दो हज़ार देकर पुलिस की गाड़ी प्राप्त की थी क्योंकि नफीसा के घर में टूटफूट हुई थी। गुंडों ने दरवाजा तोड़कर लूटपाट की। भाग्यवश नफीसा और बच्चे मौजूद नहीं थे। कैलाश को आश्चर्य था कि वे कहाँ गए हैं। विसाल खाँ ने कहा कि अन्नु के गम में शामिल होने वे लोग नवाबजान के घर गए होंगे। यह सुनते ही कैलाश ने कहा कि वहाँ चलकर देखते हैं। जब वे जाने लगे तो कैलाश की बहू ने कहा कि उसे विश्वास है कि वे सुरक्षित हैं। कैलाश ने वर्षों बाद नज़र भरकर अपनी पत्नी को देखा। कई बार एक-दूसरे को समझने में पूरी उम्र लग जाती है। अच्छे दिनों में जो लम्हे सोए रहते हैं, हादसे उन लम्हों को जगा देते हैं। सौतन और उसके बच्चों के लिए फिक्र ने बहू की आँखों में नमी पैदा की, जिसने कैलाश के दिल में जमे पहाड़ को पिघला दिया।

कैलाश और विसाल पुलिस की जीप में बैठकर नवाबजान के कोठे पर पहुँचे। कैलाश ने इत्मीनान की साँस ली कि नफीसा और बच्चे यहाँ सुरक्षित हैं। उसने बताया कि घर लूट लिया गया है और कुछ ही दिनों में शाहपुर रोड पर उनके लिए मकान की व्यवस्था करेगा। इसके बाद उसने विसाल खाँ को उसके घर छोड़ा और अपने घर लौट गया।

कुछ ही दिनों में कर्फ्यू हटा लिया गया और लाउड स्पीकर पर अमन चैन की घोषणा हुई। सरकारी घोषणा के अनुसार अब सब शुभ और शांत था परंतु हकीकत यह थी कि शहर हमेशा के लिए दो हिस्सों में बँट गया था। ऊपर से देखने पर दरार दिखाई नहीं पड़ती थी परन्तु कुछ छोटी घटनाएँ दरार की भयावहता को दिखाती थीं, मसलन नए मकान में कैलाश ने इस दरार को महसूस किया। पुराने मकान के माहौल में मोहब्बत थी, मासूमियत थी। इस नए मकान में अनदेखा तनाव था। एक-दूसरे के प्रति संदेह था। उस दिन के दंगे की असली बिजली तो कैलाश के सीने पर उस समय टूटी जब उसके बेटे जावेद और नावेद ने अपनी किताबों पर जावेद नफीसा खान और नावेद नफीसा खान लिखकर कैलाश का नाम वल्दीयत से खारिज कर दिया। कैलाश को लगा कि उसके प्यार की नींव तक हिल गई है। उसे गश आ गया और वह गिर पड़ा।

कैलाश का गिरना बाबरी मस्जिद के ढहने से कम बड़ा हादसा नहीं था। उसने सारी उम्र इस प्यार और विश्वास के दम पर काटी थी। उसने अपने इस परिवार के लिए कितना विद्रोह किया था, कितने जुल्म सहे थे! और यह परिवार ही बिखर गया ? नफीसा ने कैलाश के माथे पर पानी छिड़का और बच्चों से कहा कि डॉ. शौकत को फोन करें। जावेद और नावेद अपनी जगह से नहीं हिले। कैलाश ने यह देखा और उसका तन-मन दर्द की लहर पर पटकनी खाने लगा। नफीसा ने दोबारा चीखकर कहा कि डॉक्टर को फोन करो। उसकी बेटी ज़ोया ने फोन उठाया और कहा, 'डॉक्टर अंकल में जोया वल्द कैलाश बात कर रही हूँ, आप घर जल्दी आएँ, अब्बा की तबियत ठीक नहीं।' यह आवाज़ कैलाश के दिल में मंदिर की घंटी की तरह गूंजने लगी। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। नफीसा उसके सीने पर सिर टिकाकर रोने लगी।

आत्माराम के गोद लिये सुपुत्र महेश एंड संस की इस कथा का अंत कैलाश की मृत्यु के साथ ही करते हैं, क्योंकि भारतीय समाज में बाबरी मस्जिद के ध्वस्त होने के साथ ही बहुत कुछ बदला है। भारत के विभाजन के बाद समाज में अनेक विभाजन हुए हैं और यह दौर थमा नहीं है परन्तु सारे विभाजनों के बाद भी इस देश की एकता अक्षुण्ण ही रहेगी- इसी प्रार्थना के साथ कथा समाप्त करते हैं।